हर शब्द का अपना एक सुनिश्चित अर्थ होता है। यदि उसी अर्थ में उस शब्द का इस्तेमाल हो तो भाव की सम्प्रेषणीयता सटीक होती है, अन्यथा वह शब्द बेमानी हो जाता है। लखनऊ के प्रायः सभी हिन्दी एवं अंग्रेजी अखबारों में उत्तरांचल निर्माण में देरी से नाराज एक भाजपा विधायक के विधानसभा से कथित इस्तीफे की खबर को बतौर इस्तीफा छापा है। वस्तुतः इस्तीफा उसे ही कहा जाता है जब वह अपने नियुक्तिकर्ता को दिया जाता है, लेकिन पिछले कई वर्षों से हमारे राजनेेताओं ने इस्तीफे शब्द का इस्तेमाल एक प्रचार व शिगूफा के बतौर करना आरम्भ कर दिया है। इस खबर के अनुसार भी उक्त विधायक ने अपना त्यागपत्र विधानसभा अध्यक्ष को न भेजकर अपने पार्टी अध्यक्ष को प्रेषित किया है। जिसको किसी भी प्रकार स्वीकार या अस्वीकार करने का हक पार्टी को प्राप्त नहीं है। पार्टी अध्यक्ष अपने विधायक के त्यागपत्र को फाड़कर फेंक सकता है या फिर सम्बन्धित जिम्मेदार अधिकारी के पास अग्रसारित कर सकता है। अच्छा होता यदि इस खबर में क्षुब्ध भाजपा विधायक के इस्तीफे की जगह कथित इस्तीफा शब्द का इस्तेमाल किया गया होता।
पिछले दिनों में प्रदेश में विद्युत अभियन्ताओं की हड़ताल की खबर को सभी समाचार पत्रों ने काफी प्रमुखता से प्रकाशित किया है। के न्द्र में भी बिजली से सम्बन्धित चर्चा प्रभावी रही। के न्द्र सरकार ने अभी हाल में एक नया संसोधन पारित किया है जिसके तहत बिजली पारेषण का अधिकार निजी क्षेत्र को सौंपना अब सम्भव हो गया है। लखनऊ के मात्र एक अखबार को छोड़कर बाकी सभी अखबारों ने बहुत ही सुन्दर और सटीक शीर्षक के साथ इस खबर को प्रकाशित किया, लेकिन ‘विद्युत पारेषण निजी क्षेत्र को सौंपने का विधेयक पास’। इस खबर के शीर्षक को पढ़ने के बाद पाठक इस भ्रम में फंसे बिना नहीं रह सकता है कि विद्युत पारेषण निजी क्षेत्र को सौंपने के लिए ही कानून बन गया है, जबकि यह सत्य नहीं है। हां, सदन में जो विधेयक पास हुआ है उसके माध्यम से सरकार अब इतनी सक्षम हो गयी है कि वह चाहे तो विद्युत पारेषण निजी क्षेत्र को दे सकती है।
विधानसभा में विनियोग विधेयक को पास करने के मामले में लखनऊ के प्रायः सभी अखबारों ने इस बात को स्पष्ट तौर पर लिखा कि मतविभाजन की विपक्ष की मांग विधानसभा अध्यक्ष ने अनसुनी कर दी, ठुकरा दी। ऐसा करके विधानसभा अध्यक्ष ने कल्याण सरकार को बाल-बाल बचा लिया और तकनीकी बहाना बनाकर ध्वनिमत से विनियोग विधेयक पारित करने के समय सत्ता पक्ष के सदस्यों की संख्या काफी कम थी और यदि मत विभाजन हो जाता तो सम्भव था कि कल्याण सरकार गिर जाती। इसके विरोध में विपवक्ष ने विधानसभा अध्यक्ष पर कल्याण सरकार को बचाने का आरोप लगाया, कागजी गोले फेंके । फिर भी कुछ न हुआ तो विपक्षी विधायक एकजुट होकर राज्यपाल के पास गये और सच्चाई बताकर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन की मांग की।
उपरोक्त समूचे प्रकरण में एक बात सुस्पष्ट है कि विधानसभा अध्यक्ष ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हुए कल्याण सरकार के लिए खतरा पैदा होने नहीं दिया। इसके लिए जो भी आरोप लगाये जायें वे सीधे विधानसभा अध्यक्ष के सरी नाथ त्रिपाठी के खिलाफ होंगे। इस बारे में लखनऊ के प्रायः सभी अखबारों ने संतुलित शीर्षक लगाये। एक अखबार ने लिखा कि ‘कलयाण सरकार गिरते-गिरते बची’ जबकि तथ्यात्मक रूप से ऐसी कोई नौबत ही नहीं आयी थी और उस नौबत को विधानसभा अध्यक्ष ने स्वयं पहलदारी कर समाप्त कर दिया था। वैसे खबर के प्रस्तुतिकरण के मामले में इस अखबार ने भी विनियोग विधेयक को लेकर विधानसभा में सत्ता पक्ष के सदस्यों की न्यून उपस्थिति की बात को अन्य अखबारों की तरह ही प्रस्तुत किया। यह बात भी सही है कि विनियोग विधेयक के समय सत्तापक्ष के सदस्यों की अनुपस्थिति ने कल्याण सरकार के सामने संकट की एक ऐसी घड़ी उपस्थित कर दी थी जिसमें विधानसभा अध्यक्ष का तरकश न निकला होता तो परिणाम कुछ और ही होता। वैसे सत्तापक्ष के सदस्यों की अनुपस्थिति को भारतीय जनता पार्टी ने गम्भीरता से लेते हुए दूसरे दिन कई महत्वपूर्ण बैठकें भी कीं।
खबरों के संकलन में ही नहीं सम्पादन में भी बहुत सतर्कता की आवश्यकता होती है। कभी-कभी मामूली सी चूक होने पर भी अखबार उपहास का विषय बन जाता है। लखनऊ के एक समाचार पत्र ने एक ही पृष्ठ पर बसपा की दो खबरें छापीं। एक खबर दो कालम की थी तो दूसरी खबर एक कालम की और दोनों के बीच की दूरी पांच-सात सेंटीमीटर से अधिक नहीं थी।
दो कालम की खबर में सूचना थी कि बसपा के विधायक विधानसभा अध्यक्ष के सरीनाथ त्रिपाठी द्वारा आयोजित प्रीतिभोज का बहिष्कार करेंगे। दूसरी खबर में यह सूचना दी गयी थी कि विधानसभा अध्यक्ष के सरी नाथ त्रिपाठी के प्रीतिभोज का पूरे विपक्ष ने बहिष्कार किया। स्पवष्ट है कि जब सम्पूर्ण विपक्ष की बात होती है तो उसमें बहुजन समाज पार्टी भी शरीक होती है। इन दोनों विरोधाभासी खबरों से दोनों खबरें परस्पर स्वयंमेव संदिग्ध हो उठी और यह भी स्पष्ट नहीं हो सका कि प्रीतिभोज होने वाला था या हो चुका था, जबकि सच यह था कि खबर लिखे जाने वाले दिन ही के सरी नाथ त्रिपाठी ने प्रीतिभोज दे रखा था और विनियोग विधेयक की आपाधापी को लेकर समूचे विपक्ष ने उसका बहिष्कार भी किया था। शब्दों के उचित अर्थ, अपनी बात को कहने के लिए कम्युनिके टिंग लैंग्वेज और कम्युनिके टिंग लैंग्वेज के लिए उचित शब्द यह समाचार पत्रों के सम्पादन का कौशल दर्शाते हैं। इन पर भी खबरों की सत्यता, अर्धसत्यता और असत्यता काफी हद तक निर्भर करती है।
पिछले दिनों में प्रदेश में विद्युत अभियन्ताओं की हड़ताल की खबर को सभी समाचार पत्रों ने काफी प्रमुखता से प्रकाशित किया है। के न्द्र में भी बिजली से सम्बन्धित चर्चा प्रभावी रही। के न्द्र सरकार ने अभी हाल में एक नया संसोधन पारित किया है जिसके तहत बिजली पारेषण का अधिकार निजी क्षेत्र को सौंपना अब सम्भव हो गया है। लखनऊ के मात्र एक अखबार को छोड़कर बाकी सभी अखबारों ने बहुत ही सुन्दर और सटीक शीर्षक के साथ इस खबर को प्रकाशित किया, लेकिन ‘विद्युत पारेषण निजी क्षेत्र को सौंपने का विधेयक पास’। इस खबर के शीर्षक को पढ़ने के बाद पाठक इस भ्रम में फंसे बिना नहीं रह सकता है कि विद्युत पारेषण निजी क्षेत्र को सौंपने के लिए ही कानून बन गया है, जबकि यह सत्य नहीं है। हां, सदन में जो विधेयक पास हुआ है उसके माध्यम से सरकार अब इतनी सक्षम हो गयी है कि वह चाहे तो विद्युत पारेषण निजी क्षेत्र को दे सकती है।
विधानसभा में विनियोग विधेयक को पास करने के मामले में लखनऊ के प्रायः सभी अखबारों ने इस बात को स्पष्ट तौर पर लिखा कि मतविभाजन की विपक्ष की मांग विधानसभा अध्यक्ष ने अनसुनी कर दी, ठुकरा दी। ऐसा करके विधानसभा अध्यक्ष ने कल्याण सरकार को बाल-बाल बचा लिया और तकनीकी बहाना बनाकर ध्वनिमत से विनियोग विधेयक पारित करने के समय सत्ता पक्ष के सदस्यों की संख्या काफी कम थी और यदि मत विभाजन हो जाता तो सम्भव था कि कल्याण सरकार गिर जाती। इसके विरोध में विपवक्ष ने विधानसभा अध्यक्ष पर कल्याण सरकार को बचाने का आरोप लगाया, कागजी गोले फेंके । फिर भी कुछ न हुआ तो विपक्षी विधायक एकजुट होकर राज्यपाल के पास गये और सच्चाई बताकर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन की मांग की।
उपरोक्त समूचे प्रकरण में एक बात सुस्पष्ट है कि विधानसभा अध्यक्ष ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हुए कल्याण सरकार के लिए खतरा पैदा होने नहीं दिया। इसके लिए जो भी आरोप लगाये जायें वे सीधे विधानसभा अध्यक्ष के सरी नाथ त्रिपाठी के खिलाफ होंगे। इस बारे में लखनऊ के प्रायः सभी अखबारों ने संतुलित शीर्षक लगाये। एक अखबार ने लिखा कि ‘कलयाण सरकार गिरते-गिरते बची’ जबकि तथ्यात्मक रूप से ऐसी कोई नौबत ही नहीं आयी थी और उस नौबत को विधानसभा अध्यक्ष ने स्वयं पहलदारी कर समाप्त कर दिया था। वैसे खबर के प्रस्तुतिकरण के मामले में इस अखबार ने भी विनियोग विधेयक को लेकर विधानसभा में सत्ता पक्ष के सदस्यों की न्यून उपस्थिति की बात को अन्य अखबारों की तरह ही प्रस्तुत किया। यह बात भी सही है कि विनियोग विधेयक के समय सत्तापक्ष के सदस्यों की अनुपस्थिति ने कल्याण सरकार के सामने संकट की एक ऐसी घड़ी उपस्थित कर दी थी जिसमें विधानसभा अध्यक्ष का तरकश न निकला होता तो परिणाम कुछ और ही होता। वैसे सत्तापक्ष के सदस्यों की अनुपस्थिति को भारतीय जनता पार्टी ने गम्भीरता से लेते हुए दूसरे दिन कई महत्वपूर्ण बैठकें भी कीं।
खबरों के संकलन में ही नहीं सम्पादन में भी बहुत सतर्कता की आवश्यकता होती है। कभी-कभी मामूली सी चूक होने पर भी अखबार उपहास का विषय बन जाता है। लखनऊ के एक समाचार पत्र ने एक ही पृष्ठ पर बसपा की दो खबरें छापीं। एक खबर दो कालम की थी तो दूसरी खबर एक कालम की और दोनों के बीच की दूरी पांच-सात सेंटीमीटर से अधिक नहीं थी।
दो कालम की खबर में सूचना थी कि बसपा के विधायक विधानसभा अध्यक्ष के सरीनाथ त्रिपाठी द्वारा आयोजित प्रीतिभोज का बहिष्कार करेंगे। दूसरी खबर में यह सूचना दी गयी थी कि विधानसभा अध्यक्ष के सरी नाथ त्रिपाठी के प्रीतिभोज का पूरे विपक्ष ने बहिष्कार किया। स्पवष्ट है कि जब सम्पूर्ण विपक्ष की बात होती है तो उसमें बहुजन समाज पार्टी भी शरीक होती है। इन दोनों विरोधाभासी खबरों से दोनों खबरें परस्पर स्वयंमेव संदिग्ध हो उठी और यह भी स्पष्ट नहीं हो सका कि प्रीतिभोज होने वाला था या हो चुका था, जबकि सच यह था कि खबर लिखे जाने वाले दिन ही के सरी नाथ त्रिपाठी ने प्रीतिभोज दे रखा था और विनियोग विधेयक की आपाधापी को लेकर समूचे विपक्ष ने उसका बहिष्कार भी किया था। शब्दों के उचित अर्थ, अपनी बात को कहने के लिए कम्युनिके टिंग लैंग्वेज और कम्युनिके टिंग लैंग्वेज के लिए उचित शब्द यह समाचार पत्रों के सम्पादन का कौशल दर्शाते हैं। इन पर भी खबरों की सत्यता, अर्धसत्यता और असत्यता काफी हद तक निर्भर करती है।