कहानी और रचना के बिन्दुओं को छुआ ‘संगमन’ ने

Update:1998-10-07 15:08 IST
कहानी को परखने के  लिए सनातन रूप से चले आ रहे मानदंड तेजी से आगे बढ़ रही दुनिया के  सामने पुराने पड़ चुके  हैं। पुराने प्रतीकों-बिम्बों को खाजिर करते हुए हिन्दी के  टकसाली शब्दों को घिस जाने की चर्चा तथा भाषा को समृद्ध बनाने के  लिए बोलियों के  शब्दों के  प्रयोग जैसे तमाम सवाल संगमन के  विमर्श के न्द्र में थे। पुरानी पीढ़ी के  लेखन पर जहां सवालिया निशान लगाये गये, वहीं एक फ्लाप लेखक द्वारा लघु पत्रिका का संपादक बन जाने की प्रवृत्ति को रोकने के  खिलाफ खड़े होने की जरूरत पर बल दिया गया। यह भी कहा गया कि राजनीति की जितनी चिन्ता साहित्य में होती है, साहित्य की उतनी चिन्ता राजनीति में नहीं होती। नये लेखकों पर के न्द्रित सवालों, सहमतियों, मिलने-बैठने और अपनी बात कहने के  मंच के  रूप में 1993 में बने संगमन का लखीमपुर खीरी में चैथा पड़ाव था। संगमन की स्थापना के  पीछे यह लक्ष्य था कि नये लेखकों के  लिए एक ऐसा मंच होना जरूरी है, जहां पर वे अपनी समस्याओं पर विमर्श कर सकें और उनके  साथ स्थापित कथाकारों को वैसे ही साझीदार बनाया जा सके  जैसे प्रवासी पक्षियों के  झुंड में सबसे आगे सबसे कम उम्र के  पक्षी होते हैं और वही दिशा व गति को निर्धारित करते हैं। कानपुर से शुरू होकर चित्रकूट, लखीमपुर खीरी तक यात्रा में संगमन की गोष्ठियों में साहित्य-दायित्व, दशा और दिशा, कथ्य और भाषा शिल्प और शैली जैसे तमाम सवालों ने आकार लिया।
लखीमपुर खीरी में हुए तीन दिवसीय आयोजन के  प्रथम सत्र में राजनीति का अभिव्यक्ति पर दबाव के  सवाल पर बातचीत हुई। वक्ताओं ने राजनीति का लेखन पर खासा दबाव स्वीकार करते हुए कहा कि व्यवस्था लेखकों को अपने पक्ष में करने के  लिए हर तरह के  हथकंडे अपनाती है। यह दबाव कभी-कभी पुरस्कार का रूप भी ग्रहण करते हैं। सलमान रूश्दी, तसलीमा नसरीन का जिक्र करते हुए इस बात को खासतौर पर रेखांकित किया गया कि जब लेखक किसी व्यवस्था विशेष के  पक्ष में नहीं होता है तो उसे किस हद तक परेशान किया जाता है।
‘मी गोडसे बोलतोय’, ‘सेटेनिक वर्सेज’ व ‘लज्जा’ के  साथ-साथ एम.एफ. हुसैन की सरस्वती व समाजवादी पार्टी की हल्लाबोल की चर्चा करते हुए लेखकों ने क्लिंटन लेविस्की प्रकरण के  माध्यम से भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के  सवाल और स्वरूप को रेखांकित किया। कुछ ने तो यहां तक कहा कि अभिव्यक्ति जैसी छूट/स्वतंत्रता अमरीका में है, वैसी हमारे यहां नहीं। इतना ही नहीं बिल क्लिंटन के  यौन सम्बन्धों को लेकर की जा रही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की चर्चा में यहां तक कहा गया कि इस तरह की स्वतंत्रता माक्र्सवादी देशों में भी नहीं है। लेकिन इस बात पर बिल्कुल गौर नहीं किया गया कि जिस तरह की स्वतंत्रता पश्चिमी देशों में है, वह जीवन मूल्यों के  पोषण के  सम्बन्ध में नहीं है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की चर्चा में यहां तक कहा गया था कि इस तरह की स्वतंत्रता माक्र्सवादी देशों में भी नहीं है। लेकिन इस बात पर बिल्कुल गौर नहीं किया गया कि जिस तरह की स्वतंत्रता पश्चिमी देशों में है, वह जीवन मूल्यों के  पोषण के  सम्बन्ध में नहीं है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के  लिए यह भी जरूरी है कि वह इस्तेमाल किसके  पक्ष में हो रही है, किन उद्देश्यांे के  लिए हो रही है और किन शर्तों पर हो रही है। विमर्श में यह बिन्दु लगभग गौण रहा।
पंकज बिष्ट ने विमर्श को तेवर देते हुए कहा कि साहित्य पर राजनीति का चाहे जो भी दबाव हो परन्तु वह दिखता नहीं है। लेकिन राजनीति का पत्रकारिता पर ज्यादा दबाव है। राजनीति साहित्य के  लिए जो कुछ नकारात्मक करना चाहती है वह महज यह है कि आम आदमी साहित्य पढ़ऋ ही न सके , लेकिन सच देखा जाये तो हिन्दी में राजनीति को चुनौती दे सकने वाला साहित्य लिखा ही नहीं गया है। राजनीति के  अभिव्यक्ति पर दबाव को किसी ने विचारधारा और किसी ने क्षेत्रीयता के  कुनबों में बांटकर रखने और देखने की कोशिश की। भोपाल के  हरि भटनागर ने समूची चर्चा पर यह कहकर सवालिया निशान लगाया कि यह विषय मौजू तब होता जब हिन्दुस्तान में तानाशाही होती। मैत्रीय पुष्पा ने ‘चाह’ के  परिपे्रक्ष्य में सामान्य व जमीन से उपजे दबाव को रेखांकित करने वाली एक कविता पढ़ी।
कथाकार संजीव ने साहित्य की विधाओं के  राजनीति के  औजार बनते जाने और किन्हीं और संदर्भों में कही गयी बातों को आज के  नेता द्वारा जुमलों में तब्दील कर उनका मनचाहा प्रयोग करने पर आपत्ति जतायी। हृदयेश ने रचनाकारों की महानता को स्थापित करने के  लिए यहां तक कहा कि महान लेखक एक नयी सरकार देता है। कामतानाथ ने कहा अब रचनाएं इतनी पैनी नहीं है कि सत्ता को कोई खतरा हो। पूरी बात को प्रेम कुमार मणि ने साफ तौर पर रखते हुए कहा, राजनीति की जितनी चिन्ता साहित्य में होती है, उतनी चिन्ता साहित्य की राजनीति में नहीं होती। यह तथ्य भी उभरकर आया कि अभिव्यक्ति पर दबाव के वल सुविधाभोगी ही सहता है।
संगोष्ठी का दूसरा सत्र कथ्य, भाषा और संरचना से जुड़ा हुआ था। यह सत्र दुधवा नेशनल पार्क में हुआ। इस सत्र  के  शुरू होने से पहले साहित्यकारों ने चंदन चैकी के  निकट पचपेड़वा में थारू जनजाति के  नृत्य देखे। अम्बेडकर गांव योजना के  अन्तर्गत विकसित पचपेड़वा गांव में शिक्षा का व्यापक प्रसार-प्रचार है। नृत्य के  माध्यम से थारू संस्कृति की झलक प्रस्तुत करने वाले सहभागी आधुनिक शिक्षा प्राप्त थे। इस सत्र में इस बात पर सवाल उठाया गया कि लिखने की बंदिशें नहीं होनी चाहिए अन्यथा लेखन में एकरूपता आ जायेगी। जितना व्यापक रचना संसार हो सके , होना चाहिए। यह बात भी उठी की आम जीवन में संवाद कम हुआ है। कथाकार अखिलेश ने कहा, यथार्थ फंतासी से भयानक दिखने लगा है। कहानी के  मानदंड तय करने के  लिए सनातन रूप से चले आ रहे बिम्ब, प्रतीक और शैलियों के  पुराने पड़ जाने की चर्चा भी हुई। कहानी को लेकर गुटबाजी, फतवेबाजी, भ्रांतियां और पूर्वाग्रह आदि के  शिकार होने की प्रवृत्ति को रोके  जाने की बात कही गयी। यह कहा गया कि कहानी विधा के  स्वस्थ विकास एवं इस क्षेत्र में फैली अराजकता के  लिए निष्पक्ष रूप से विचार करना आवश्यक है। क्योंकि कहानीकारांे ने अपने वक्तव्यों, नारेबाजी, आत्मज्ञान एवं गुटबाजी के  कारण कई तरह के  भ्रम फैला दिये हैं। कई बार तो पाठकों को लगता है कि कहानी निष्प्राण और अद्भुत वातावरण को लेकर लिखी गयी है।
व्यक्तिवादी कथा चेतना में सामाजिक वैषम्य भले ही है, परन्तु दुःख दैन्य के  प्रति विद्रोह की भावना नहीं है। अगर कहीं किसी कहानी में मिलती भी है तो आत्मिक विद्रोह चारित्रिक विश्लेषण द्वारा अभिव्यक्त हुआ मिलता है। शिल्प के  तत्वों में भाषा भी एक है। भाषा अभिव्यक्ति के  सभी माध्यमों में सर्वाधिक प्रचलित एवं महत्वपूर्ण है। प्रत्येक युग की भाषा के  अपने रचना संस्कार एवं भाषिक मान्यताएं रही हैं। युग की बदली परिस्थितियों एवं जीवनबोध के  अनुकूल
भाषा में भी परिवर्तन होता है और यह परिवर्तन युग विशेष के  व्यक्तिगत मन की आन्तरिक अभिव्यक्ति की मांग होती है। मानव जीवन के  संवेदनाओं को प्रकट करते हुए कहानी की भाषा ने रचनात्मक स्तर पर अपना विकास भले ही किया है, परन्तु अनुभव संवेदना को सही रूप से सम्प्रेषणीय बनाने के  लिए कहानी की भाषा के  रचना विधान में उसी स्तर पर उसकी मूल्य चेतना को भी बदलना होगा। सामान्य और साहित्यिक भाषा की बात भी हुई। भाषा के  लिए यह जरूरी समझा गया कि वह कथाकार के  अंदर-बाहर के  संघर्ष का साक्षात्कार करते हुए संवेदनशील खंडों को गहराई और व्यापक अर्थ में सम्भावनाओं के  साथ अभिव्यक्त करे।
बाबरी मस्जिद की घटना पर कोई सशक्त रचना नहीं लिखी जाने, कहानियों में किसानों को हाशिये पर रखने की प्रवृत्ति पर चिन्ता जतायी गयी। कुछ रचनाकारों ने इसे रेखांकित किया कि अधिकांश कहानियां शहरी वातावरण के  इर्द-गिर्द ही बुनी जा रही हैं। भाषा को लेकर बहुत से लोगों ने आपत्ति उठायी कि आज हिन्दी कहानी में एक अजीब तरह की खिलंदड़ी भाषा का प्रयोग किया जा रहा है, जिसमें गाली-गलौज से भी कोई परहेज नहीं होता। हृदयेश ने कहा कि भाषा को मार्यादा की सीमा में ही रहना चाहिए। भाषा की सीमा पर पाठकों ने भी खुल कर बातचीत की। यह कहा गया भाषा एक गुलदस्ता है, डस्टबिन नहीं। इस सत्र में कामतानाथ और काशीनाथ सिंह को बोलना था, लेकिन काशीनाथ सिंह ने कुछ कहने से मना कर दिया। कामतानाथ ने बोलते हुए कहा भाषा के  कुछ संस्कार होते हैं और यह संस्कार बचपन से लेकर युवाकाल तक और बाद तक बनते रहते हैं, विकसित होते रहते हैं। हर लेखक की भाषा इसी कारण से अलग होती है। उन्होंने यह भी कहा, भाषा के  संदर्भ में किसी विशेष तरह का निर्देश नहीं हो सकता है कि अमुक तरह की भाषा का प्रयोग किया जाये। गाली-गलौज और अश्लील भाषा का जहां तक प्रयोग हे, हिन्दी में ही नहीं अंग्रेजी में भी उसका प्रयोग दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है। यह भी तय किया गया कि भाषा ही नहीं कथ्य के  बारे में भी लेखक को पूरी तरह छूट होनी चाहिए कि वह जहां से भी चाहे अपने कथ्य को उठाये, उसे उसी कथ्य को लेना चाहिए जिस पर प्रमाणित रूप से लिख सके । संजीव जैसे कथाकार इसके  उदाहरण हैं। वे जो कथ्य अपनी कहानियों में लेते हैं, उसके  बारे में पूरी जानकारी हासिल करते हैं तभी लिखते हैं।
तीसरा और अन्तिम सत्र सम्पादक और लेखक की पारस्परिक समस्याओं पर के न्द्रित था। सम्पादक का पक्ष रखते हुए निमित्ति के  सम्पादक श्याम सुन्दर निगम, कथादेश के  सम्पादक हरिनारायण, वसुधा के  सहसम्पादक दिनेश कुशवाहा तथा अभी हाल में आजकल तक के  सम्पादक रहे पंकज बिष्ट उपस्थित थे। युवा लेखकों ने अपनी समस्याएं रखीं। मैत्रीय पुष्पा ने अपने अनुभवों के  विस्तार से अपनी पहली कहानी के  छपने की कथा सुनाते हुए कहा, मैं बहुत संकोच करती थी, पहली बार अपनी कहानी प्रकाशित कराने के  लिए एक सम्पादक के  पास अपने पति के  साथ गयी थी। कहानी देकर आ गयी। बाद मंे अपनी एक सहेली से चर्चा किया तो उसने कहा तुमने बहुत गलत किया। अके ली जाओ, मेकअप करके  जाओ, अच्छे कपड़े पहनकर जाओ। अपनी बात को रखते हुए मैत्रीय पुष्पा ने कृष्णा अग्निहोत्री की अभी हाल में प्रकाशित आत्मकथा में एक सौ तैंतीस देवताओं का जिक्र किया है। मैत्रीय पुष्पा ने जो कुछ भी कहा उसमें सम्पादकों द्वारा महिला लेखकांे के  शोषण की एक लम्बी अन्तरकथा तिरती नजर आ रही थी। पंकज बिष्ट ने कहा,‘कभी-कभी महिलाएं अपनी सुन्दरता का लाभ उठाकर छपना चाहती हैं। उन्होनंे अपने साथ के  ऐसे कई अनुभव सुनाये। पंकज बिष्ट ने ब्यूरोक्रेटिक अधिकारियों द्वारा रचनाएं छपवाने के  लिए बेजा दबाव डालने का उल्लेख किया। सम्पादकों की ओर से यह बात भी साफ तौर पर उभकर सामने आयी कि हर सम्पादक अच्छी रचना को छापना चाहता है। इसलिए लेखकों को पूर्वाग्रह निकाल देना चाहिए। लेखकों की यह भी शिकायत थी कि अकारण रचनाएं वापस कर दी जाती हैं लेकिन हरिनारायण ने कहा कि अक्सर लोग समीक्षा के  लिए अपनी पुस्तकें भेजते समय समीक्षा लिखवा कर भी भेज देते हैं और चाहते हैं कि उनकी समीक्षा हूबहू छप जाये।
‘कहानी, कथ्य, भाषा और संरचना’ सम्पादक और लेखक की पारस्परिक समस्याएं राजनीति का अभिव्यक्ति पर दबाव जैसे तमाम मुद्दों पर विमर्श करने वाले साहित्यकारों ने अन्तरराष्ट्रीय बौद्धिक दबावों के  कारण व्यक्ति के  नैतिक मूल्य व समाजगत आदर्शों में तब्दीलियां, पुराने के  प्रति उपेक्षा और नये के  प्रति आकर्षण जैसे स्थायी भाव को खासतौर से विमर्श के  के न्द्र में नहीं रखा। नयेपन के  प्रति आग्रह ने कहानी में जो भी तब्दीलियां की हैं उसमें काफी कुछ अबूझ सा हो जाता है। राजनीत की तरह साहित्य की भी राजधानी दिल्ली होती जा रही है। साहित्यिक मान्यताओं और स्थापनों के  लिए रचना गौण और रचना के  स्वरूप, संदर्भ पर आयोजित गोष्ठियों के  महत्वपूर्ण होते जाने तथा कहानी में व्यक्तिचित्र के  बढ़ते प्रभाव को पता नही ंक्यों उठाया नहीं गया। कहानी के  लिए जरूरी है कि वह जनवाद के  विज्ञापित राजनीतिक द्वंद से रहित,शोषित-पीड़ित लोगों के  संघर्षों को संवेदना में नकली तेवर दिये बिना फैशन और फार्मूला के  आग्रह से रहित हो। आज की कहानियों में कस्बा है, नगर है, महानगर है, विकासीय आयाम है, भ्रष्टाचार है, राजनीतिक चेहरे हैं, टीपिकल सांस्कृतिक चरित्र है, व्यक्ति है, परिवार है, पारिवारिक मूल्य है, परम्परागत मूल्यों के  पहचान के  साथ-साथ नये मूल्यों का संघर्ष है, सम्बन्धों का पुनर्मूल्यांकन है, पीड़ा के  विविध आयाम हैं, मजदूर हैं, भीखमंगे हैं, बच्चे हैं, अनाथ स्त्रियां हैं, बूढे़ और जीविकाहीन अकिंचन जनों को मुक्तहस्त सहानुभूति बांटते-चलते रचनाकार इन पर अपनी कलम चलाकर उपलब्धियां हासिल कर रहे हंै। इन रचनाकारों को देखकर यह साफ हो जाता है कि उसकी सहानुभूति का सच किन सवालों में उलझा पड़ा है। प्रश्न जो भी हो संगमन ने कहानी और रचना के  जिन भी बिन्दुओं को छुआ और उठाया वे विमर्श की अनवरत प्रक्रिया के  पाथेय के  रूप में अभिष्ठ तो हैं ही।

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