खेमेबाजी के सख्त विरोधी थे ‘भ्रमर’

Update:1998-12-02 15:10 IST
देश की सांस्कृतिक ऊर्जा को अपनी रचनाओं की पृष्ठभूमि बनाकर शिखर प्राप्त करने वाले नवगीत के  उन्नायक और सहज कविता के  प्रवर्तक रवीन्द्र भ्रमर अपने गीतों में लय की चिरंतन विशेषता की रक्षा करते हुए समकालीन सामाजिक संदर्भों को जिस ताजा भाव-भाषा, शिल्प रचने में सफल हुए वह शैली अगली पीढ़ी के  नवगीतकारों की प्रवृत्ति बनकर स्थापित हुई। छायावाद ने गीत रचना को एक अत्यंत परिमार्जित ‘पैटर्न’ दिया। बाद की नयी कवि प्रतिभाओं के  लिए उक्त पैटर्न को छोडऋकर गीत रचना करना बहुत मुश्किल प्रतीत हुआ। परिणामतः अधिकांश कवि अनुकरण तथा पृष्ठप्रेषण के  रोग से ग्रसित हो उठे। इन स्थितियों में भी रवीन्द्र भ्रमर ने नये युगबोध की अभिव्यक्ति, गीतों के  व्यक्तिनिष्ठ परिधान, मुक्त छंद तथा मुक्त अनुभूतियों की परम्परागत गीत धारा के  साथ की। वे मानते थे कि प्रगतिवाद के  पास ऐसी सामग्री नहीं थी जिसे काव्य के  आन्तरिक संगीत से सम्पन्न बनाकर गीत को दिशा दी जा सकती है और प्रयोगवाद ने एक सीमा तक जान बूझकर आग्रहपूर्वक गीत रचना का विरोध किया। उनकी रचनाएं यह बताती हैं कि गीतों के  व्यक्तिनिष्ठ माध्यम से ही समाष्टि की, युग के  नये यथार्थ तथा नये सौन्दर्य की बोध की संतुलित अभिव्यक्ति की जा सके । परिणामतः प्रयोगवाद तथा नयी कविता के  परिपाश्र्व में एक नयी गीतधारा उनके  गीतों में निरन्तर अपना पथ संवारती रही और गीत रचना के  नये-नये आयाम विकसित होते रहे। उनका गीत प्रवाह सूक्ष्म और अन्तरवर्ती है उनमें मुक्त छंद के  प्रबल वेग का जहां पुट दिखता है, वहीं पाश्चात्य गीत काव्य के  प्रभाव से मुक्ति थी।
वे मानते थे कि छायावाद युग में गीतों की संज्ञा को विषय और रचना के  एक संकुचित दायरे में बांध दिया गया था। उनके  नये गीतों में अर्थ संकोच के  स्थान पर विस्तार की प्रवृत्ति दिखी है। रवीन्द्र भ्रमर गीत की अति सहज परिभाषा देना चाहते हैं। वे गीत रचना के  लिए न तो व्यक्तिनिष्ठता की कैद लगाना चाहते हैं और न रागात्मिकावृृत्ति की। वे अपने गीतों में निरन्तर यह सिद्ध करना चाहते हैं कि कोई भी छंद, वाक्य अथवा पद जिसमें एक भावगत संगीत हो, गीत की संज्ञा का अधिकारी है। आज का गीत कवि-शब्द, लय अथवा छंदगत संगीत पर उतना बल नहीं देता है। काव्यगत संगीत का तात्पर्य वे कभी भी कवि कंठ के  ललित गायन अथवा सुरताल गत सांगीतिक विधान से नहीं लेते थे। रवीन्द्र भ्रमर काव्य के  संगीत और गायिकी के  संगीत को भिन्न-भिन्न स्वीकारते रहे। वे मानते थे कि काव्य में प्रयुक्त शब्द अपने अर्थ संगीत को मौन स्वरों में मुखरित करते हैं। इसके  विपरीत संगीत में अर्थ प्रायः मौन रहते हैं और मुखरित स्वरों के  संघात और संयोजन से राग-रागिनियों की सृष्टि की जाती है। अस्तु, काव्य अथवा गीत काव्य का संगीत आन्तरिक, अर्थ संयुक्त तथा भावगत ही होता है। नया गीत कवि अपनी गीत सृष्टि में इसी भावगत संगीत को प्रधानता देता है। रवीन्द्र भ्रमरण के  गीतों में गीत काव्य की परिभाषा बदलने की जहां कोशिश है वहीं यह भी सिद्ध करने की पहल जारी है कि गीत तो एक सहज एवं लोकप्रिय काव्य रूप मात्र है और इस विधा के  माध्यम से कैसी भी विषयवस्तु को सहृदयजनों तक परोसा जा सकता है। सामाजिक यथार्थ हो अथवा कोई नया मूल्य, सबकी अभिव्यक्ति गीतों के  रूप में की जा सकती है। इनकी गीत रचना का नया प्रवाह प्रयोगवाद तथा नयी कविता की उपलब्धियों से लाभान्वित होता आया है। छंद के  शिल्प की दृष्टि से उनके  गीतों में कोई खास समझौता नहीं दिखता है। हां, कहीं-कहीं तुकों के  दुराग्रह को छोडऋने की कोशिश भले दिखाई पड़ती हो लेकिन इसमें भी इस बात की सतर्कता बरती गयी है कि यह भी वहीं किया जाए, जहां पर छंद की गति भाव प्रतिमा को सहज निर्मिति में बाधक सिद्ध हो रही हो। वैसे तो गीत काव्य का अर्थगत संगीत छंद सापेक्ष होता है। मुक्त छंद से उसकी संगति नहीं बैठ पाती। रवीन्द्र भ्रमर ने अपने गीतों में नयी कविता के  कवि की भांति अपने युग धर्म का निर्वहन तो किया ही है साथ ही साथ वह अपनी गीत सृष्टि के  द्वारा युग की संघर्ष भावना तथा उसके  भीतर के  उभरते हुए नये मनुष्य की प्रतिष्ठा के  लिए भी निरन्तर प्रयत्नशील रहे हैं।
वर्णन की प्रतीकवादी पद्धति और व्यंजना के  लाक्षणिक विधान उनके  प्रणयानुभूति की रचनाओं में साफ तौर पर दिखाई पड़ते हैं। वे प्रेम को ऐसी गलत अथवा असामाजिक वृत्ति नहीं मानते थे जिसे काव्य में अभिव्यक्ति के  लिए गोपनीय बनाने की चेष्टा की जाये। काव्य में प्रेम की अभिव्यक्ति के  सवाल पर उनकी विचारधारा कई बार छायावादी विचारधारा से टकराती हुई नजर जरूर आती है। परन्तु प्रेम के  संयोग पक्ष के  उन्मुक्त एवं सहज अभिव्यक्ति की दृष्टि से उनकी रचनाएं कई बार छायावादी मानदंडों से बहुत आगे निकलती हुई भी दिखायी पड़ती हैं। उन्होंने छायावादी रचनाओं में प्रयुक्त होने वाली कोमलकान्त पदावली, संस्कृत गर्भित भाषा और थोड़े से एक ही ढर्रे के  मात्रिक छंद, जो छायावादी गीतों के  पहचान बन गये थे, उसका विरोध भी किया है। उन्होंने गीत रचना के  लिए भाषा की सरलता और अभिव्यक्ति की सादगी तथा सीधेपन पर बल दिया। उनकी रचनाएं शिल्प की दिशा में अन्वेषण तथा मौलिकता का आग्रह लेकर उपस्थित होती है। उनके  गीतों में के वल भाषा, छंद और अभिव्यक्ति की सादगी ही नहीं वरन् ताजे विम्ब और टटकी अनुभूतियों को भी लोकगीतों के  माध्यम से ग्रहण करने की चेष्टा की गयी है। वे यह साफ तौर पर स्वीकार करते थे, नये गीतों को अधिक प्रभावशाली तथा व्यंजनापूर्ण बनाने के  लिए लोकगीतों की मूल अन्तरवर्ती चेतना को आत्मसात करना चाहिए। इनकी गीत रचनाएं तीव्रतम अनुभूति को वाणी देती हंै। वे मानते थे कि रचना को विस्तार देने के  मोह से यदि अनुभूति को अनावश्यक रूप से  पल्लवित किया जाए तो वह वर्णन प्रधान हो उठती है और उसकी प्रभावान्विति क्रमशः क्षीण होती जाती है।
अपने गीतों के  बारे में रवीन्द्र भमर ने साफ तौर पर यह स्वीकार किया था कि उनके  गीतों की रचना सौन्दर्य और प्रीति के  राग तत्व से होती है। यह राग उनका अपना राग है। अपनी भाव चेतना के  सहज स्पंदन से उन्होंने इन गीतों के  लय का संधान किया है। इनमें अनुभूति की जो ताजगी और अभिव्यक्ति की जितनी मौलिकता है वह उन्हें परिवेश से मिली है। धरती के  आंचल में फूल टांकती हुई प्रकृति हो या जीवन के  आंगन में अलाप उठाती हुई प्रिया, मानवीय सम्बन्धों का तीखा दंश हो या दुःख और संघर्ष की बेला में झरता हुआ पावक राग-सभी इन गीतों के  भावस्रोत हैं, इनमें प्रयुक्त विम्ब प्रत्यक्ष जीवन से लिये गये हैं। इनकी लयात्मकता में जो वैविध्य है, वह अनुराग बांसुरी के  आरोह-अवरोध का द्योतक है। गीत रचना के  क्षेत्र मंे भाषा, लय, विम्ब और अभिव्यक्ति की नूतन संभावनाओं पर बल देते रहने के  बावजूद उसकी आन्तरिक प्रकृति में परिवर्तन की बात रवीन्द्र भ्रमर कभी नहीं सोचते थे। नवगीत की स्थापना करते समय राग तत्वों की अनिवार्यता को स्वीकारते हुए रागात्मक अनुभूति और लयात्मक अभिव्यक्ति को गीत काव्य का अनिवार्य धर्म बताकर इसकी स्थापना की दिशा में वे सतत प्रयत्नशील रहे। कवि का कोमल मन भावनाओं के  जिस रमणीय आकाश में विचरण करता है उसी के  पुलक स्पर्श से रवीन्द्र भमरण की रचनाएं स्वतः सुन्दर हो उठती हैं। वे यह मानते थे कि कल्पना के  जटिल विधान द्वारा कृत्रिम अलंकृत चित्रों की योजना में कवि करते हैं जिनमें यथार्थ, प्रेरणा और अनुभूति का अभाव होता है। यही कारण है कि ऐसी रचनाएं गीत काव्यात्मक प्रभाव उत्पन्न करने में प्रायः असफल सिद्ध होती हैं। रवीन्द्र भ्रमरण की रचनाएं इस बात का ठोस प्रमाण हैं कि रचना का मर्म और सौंदर्य रागात्मक अनुभूति, लयात्मक अभिव्यक्ति और हृदयावर्जक भावान्वित में निहित है। उनके  गीतों में चित्त को उद्वेलित करने और विश्व का परिष्कार करने की विस्फोटक क्षमता है। वे कहते थे, ‘आज के  तर्क-बुद्धि प्रधान युग में भी जीवन की कुछ ऐसी स्थितियां शेष रह गयी हैं जिनकी संगति गीत से हो उठती है। जहां अहं का विस्फोट है, यथार्थ का आग्रह है, बौद्धिकता का अतिरेक है और समसामयिक विशेषताओं से जूझने का संकल्प है, वहां नयी कविता से लेकर अकविता तक की सृष्टि होगी। जहां अहं के  विसर्जन, यथार्थ के  संवेदनशील साक्षात्कार और नवीन जीवन स्थितियों के  अनुरागपूर्ण आवेदन की मुद्रा होगी, वहां गीत सृष्टि अनिवार्य है।
बांसुरी का प्रतीक उन्हें बेहद प्रिय है। रवीन्द्र भ्रमर का निजी व्यक्तित्व उनकी छंद मुक्त कविताओं की अपेक्षा गीतों में अधिक स्पष्ट हुआ है। डा. भ्रमर मूलतः कवि हैं, गीत उनकी अभिव्यक्ति की प्रिय विधा हैं। इस विधा को स्थापित करने की दिशा में किये गये उनके  संघर्षों के  बीच शीशे जैसे टूटते संकल्प, सोने जैसी क्षीण होती आस्थाएं और चट्टान जैसे रेत-रेत होकर बिखर जाते प्रयास हिन्दी साहित्य की उपलब्धि है। इस संघर्ष के  टूटन को स्थायी भाव मान लेने का अर्थ होगा चरम निराशा और सार्वजनीन मृत्यु के  महाकाव्य की रचना, जिसके  लिए वे अंत तक कभी तैयार नहीं रहे। वे निश्चित तौर से इस बात को स्वीकार करते थे कि दुःख, दुर्दिन और दुश्चिंताओं के  प्रह में बांसुरी, संगीत और गीत का महत्व बढ़ जाता है। वे सौन्दर्य तथा प्रीति के  चितेरे थे किन्तु अंत तक उनके  सौंदर्य और प्रीति के  कैनवस की सीमाएं खींची नहीं जा सकतीं। वे कहीं भी कुछ भी असुन्दर मानने को तैयार नहीं थे और कहते थे, कहीं कुछ असुन्दर नहीं है देखने की दृष्टि चाहिए। उनकी दृष्टि में प्रत्येक दृष्टि सुन्दरता का कंचन फलक और प्रत्येक मनुष्य प्रीति का प्राणी मात्र है। दृष्टि सुन्दरता का कंचन फलक और प्रत्येक मनुष्य प्रीति का प्राणी मात्र है। उनकी दृष्टि में नवगीत की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि उसके  माध्यम से गीत विधा जीवित बच गयी, जनता तक पहुंचने और जन अनुभूतियों का रागात्मक चित्रण करने वाले इस काव्य रूप को नष्ट करने के  तो अनेक प्रयास किये गये। रवीन्द्र भ्रमर ने अपनी रचनाओं के  माध्यम से यह स्थापना की कि जनमानस को परिष्कृत, जन चेतना को उद्वेलित करने की दृष्टि से गीत काव्य सर्वथा उपयुक्त और अचूक माध्यम है। जो संवेदनशील है जिनके  भीतर सहज रचनाधर्मिता है और जिन्हें कण-कण के  स्पंदन में व्याप्त सहज नैसर्गिक लय का ज्ञान है, वे अंकुठ भाव से गीतों का सृजन करते रहे समय उनके  गीतों को जरूर गायेगा। नवगीत के  परिप्रेक्ष्य में अनुभूति की रागात्मकता अभिव्यक्ति के  बांकपन तथा शिल्प के  सहज स्फूर्तिजन्य लय को अनिवार्य बताते हुए कहते थे, ‘गीत की मूल रचनाधर्मिता से नवगीत जब तक जुड़ा रहेगा तब तक उसका अस्तित्व और भविष्य सुरक्षित है।’
गीत को अगीत बनाने वाले खेमेबाजी की नैतिकता का निर्वाह कर रहे लोगों के  वे सख्त विरोधी थे। कहते थे खुरदुरे यथार्थ आक्रोश, व्यंग्य और विद्रूपताओं के  सटीक अभिव्यक्ति के  लिए विचार तरंगों वाली छंदमुक्त रचना पद्धति का उपयोग भले ही किया जाए परन्तु अनुभूति रागात्मक और लयात्मक होकर गीत/नवगीत के  सांचे में ही अभिव्यक्त हो सकती है। नवगीत के  इस मनीषी का महाप्राण लय के  उस गति ने विराम देता है जिसमें जीवन के  सहज रागों के  ठोस अभिव्यक्ति की परम्परा का संघर्ष था और वे अक्सर यह कहते रहते थे-

रूठो मत-



मन मेरे



मुझसे मत रूठो!



लदे हुए फूलों से स्वप्न बिखर जाएंगे



अमलतास के  पीले गुच्छे झर जाएंगे



लौट नहीं आएंगे



फिर ये पहर बसंती,



छूटो मत-



क्षण मेरे,



मुझसे मत छूटो!



 
जून 1931 को जौनपुर में जन्मे डाॅ. रवीन्द्र भ्रमर की प्रारम्भिक शिक्षा गवर्नमेण्ट हाईस्कूल और उच्च शिक्षा तिलकधारी महाविद्यालय, जौनपुर में हुई। हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी से प्रथम श्रेणी में एम.ए. करने के  पश्चात् वहीं रहकर उन्होंने शोधकार्य किया और पीएच.डी. तथा डी.लिट् की उपाधियों से विभूषित हुए। 1957 में महाराजा कालेज, आरा (बिहार) में हिन्दी के  प्रवक्ता के  रूप में नियुक्त हुए प्रकारांतर 1980 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के  हिन्दी विभाग में प्रवक्ता के  रूप में नियुक्त हुए और वहीं रीडर, प्रोफेसर और विभागाध्यक्ष के  रूप में कार्य करते हुए 1994 में सेवामुक्त हुए।
उनके  सृजन का आसमान जिन प्रभादीप्त गीतों से विमोहित करता है, उनकी उजास भावावेश की है और ऊष्मा काल-चिन्तन की। ऐसे गीत उनकी काव्य-कृतियों, कविता-सविता, रवीन्द्र भ्रमर के  गीत-प्रक्रिया, सोन मछरी मन बसी, धूप दिखाये आरसी, और गीत रामायण मे ंसंग्रहीत है। उनकी अनेक रचनाएं नयी कविता, आधुनिक कविता, कविता और कविता, भारतीय कविता, पांच जोड़ बांसुरी, नवगीत अर्द्धशती, नवगीत सप्तदशक, स्वान्तः सुखाय, नवें दशक की कविता-यात्रा और माडर्न हिन्दी पोएट्री जैसे मानक और बहुचर्चित संकलनों में समाविष्ट हैं। कविता के  साथ-साथ समीक्षा साहित्य, ललित निबन्ध, संस्मरण और रेखाचित्रों के  लेखन में भ्रमर जी का महत्वपूर्ण अवदान रहा है। शोध और समालोचना विषयक गं्रथों में पद्मावत लोकतत्व, हिन्दी भक्ति साहित्य में लोकतत्व, लोक साहित्य की भूमिका, छायावाद एक पुनर्मूल्यांकन, समकालीन हिन्दी कविता, हिन्दी के  आधुनिक कवि और गीतकाव्य की रचना-प्रक्रिया विशेष उल्लेख हैं।
डाॅ. रवीन्द्र भ्रमर ने अभिजात, सहज कविता, भारती और अभिनव भारती का सम्पादन किया एवं एक सहयोगी लेखक के  रूप में हिन्दी साहित्य कोष, हिन्दी साहित्य का वृहद इतिहास, अत्याधुनिक हिन्दी साहित्य, काव्य की रचना प्रक्रिया, महादेवी अभिनन्दन ग्रंथ तथा भारतवाणी, ग्रंथों के  प्रणायन में उल्लेखनीय भूमिका निभायी।
डाॅ. रवीन्द्र भ्रमर अनेक विश्वविद्यालयों, कला और शिक्षण संस्थानों की विभिन्न समितियों से सम्बद्ध रहकर हिन्दी के  बहुमुखी विकास और उच्चस्तरीय शिक्षण तथा लेखन की योजनाओं को ठोस स्वरूप देते रहे। उन्होंने भारत सरकार के  गृह मंत्रालय और पर्यटन मंत्रालय की हिन्दी सलाहकार समिति के  सदस्य के  रूप में हिन्दी के  प्रचार-प्रसार और साहित्य के  संवर्द्धन में प्रचुर योगदान किया।

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