हाल ही के विधानसभा चुनाव के परिणाम का विश्लेषण राजनीतिक दल और राजनेता अपने-अपने दृष्टिकोण से कर रहे हैं। इन चुनाव परिणामों से जो संदर्भ हाथ लग रहे हैं वे हैं तीसरी ताकत के पराभाव के संके त। आम जरूरत की वस्तुआंे की उपलब्धता के प्रति सरकार की उपेक्षा तथा भारतीय जनता पार्टी की धर्म आधारित राजनीति कांग्रेस का सुखद और सुंदर भविष्य चुनाव परिणामों के बाद से ही केंद्र सरकार और भाजपा शासित राज्य सरकारों के कार्यकाल पर संदेह के बादल मंडराने लगे हैं। कुछ लोगों ने तो इन सरकारों की उलटी गिनती तक शुरू कर दी। परंतु सच यह है कि केंद्र की भाजपा सरकार को पद्च्युत करने वाली ताकत कांग्रेस और उसकी नेता सोनिया गांधी को ऐसे कोई जल्दी महसूस नहीं हो रही है। कांग्रेस यह जानती है कि विरोधी विचारधारा वाले तमाम गठबंधनों से बनी केंद्र की भाजपा सरकार अपने जितने दिन पूरे करेगी, उसकी सरकार में वापसी उतनी ही दुष्कर होती जाएगी। इतना ही नहीं, कांग्रेस भारतीय जनता पार्टी के पराभाव को उसी के सर पर मढ़ना चाहती है और यह बता देना चाहती है कि कालिदास की तरह भाजपा भी जिस डाल पर बैठी है, उसे काटने के लिए इतिहास में खुद को जिम्मेदार स्वीकार करती रहेगी। कांग्रेस के रुख से केंद्र में तीसरी ताकत के सहयोग से भाजपा को पदच्युत करने की तेजी दिखा रहे नेताओं को भले ही निराशा हाथ लग रही हो परंतु देश के आर्थिक परिदृश्य को देखें तो किसी भी समझदार पार्टी के लिए यह जरूरी सा लगता है कि अगला बजट वह भाजपा सरकार को पेश कर दें। क्योंकि वर्तमान आर्थिक स्थितियों में जन आकांक्षाओं की जरूरत पूरा करने वाले बजट को पेश कर पाना किसी सरकार के लिए सहज नहीं होगा। वैसे भी वल्र्ड इकोनाॅमिक फोरम के अध्यक्ष क्लाइड इस्मादूजा ने भारतीय की वित्तीय स्थिति को लेकर साफतौर पर यह कह दिया है कि राजकोषीय घाटे लगातार बढ़ने से स्थिति चिंताजनक है। अगला वर्ष भारत की आर्थिक स्थितियों के लिए बेहद चिंतनीय होगा। सच भी यह है कि रूपये की कीमत में पिछले नौ वर्षों में ढाई गुना की गिरावट दर्ज हुई है। यह सच है कि भाजपा की हार के कारण वैसे भी उसकी नीतियों में ही निहित रहे है। भाजपा की हार के कारण मंहगाई, पार्टीगत अनुशासन की विशेषताओं को दरकिनार करना प्रशासन चलाने की अदक्षता इसके पक्ष के कुछ वक्तव्यों पर गौर किया जा सकता है। सुषमा स्वराज कांग्रेस में भाजपा को नहीं हराया, वरन भाजपा को भाजपा ने ही हराया। भाजपा के नेताओं ने तो चुनाव परिणाम के दौरान यहां तक कहना शुरू कर दिया कि चुनाव में मंहगाई मुद्दा ही नहीं है। मंहगाई के संदर्भ में तो सरकार की नीति और नियत दोनों में खोट दिखी, तभी तो सरकार मुद्रास्फीति को मात्र कृषि उत्पादों तक ही सीमित रहने जैसा आधारहीन वक्तव्य देने में भी नहीं हिचकी। भाजपा ने यह समझने में शायद गलती कर दी कि मंहगाई महज अर्थनीति का ही नहीं वरन् राजनीति का भी एक अभिन्न हिस्सा है। इन चुनाव परिणामों से भाजपा ने जो संके त जुटाएं हैं, उसके परिणामस्वरूप भाजपा को मध्यमार्ग में जाने का इरादा छोड़ना पड़ सकता है। भाजपा के कुछ चिंतक राजनेताओं का यह भी मानना है कि भाजपा यदि वही करती जो नागपुर कहता है, तब भी उसका एक चरित्र बन सकता है। लेकिन ऐसा भी नहीं हुआ। भाजपा के विश्व हिन्दू परिषद राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और शिवसेना के रिश्तों की तहकीकात किया जाय तो कर्नाटक स्थित बाबा बूडनागिरि की दरगाह की कथित मुक्ति के सवाल को तूल दिये जाने से यह तो साफ होता है कि भाजपा हिंदुत्व के खोल में लौटने की कवायद कर रही है और वह यह समझने लगी है कि भावनात्मक मुद्दे उठाकर ही अपने पैर जमाए जा सकते हैं। राष्ट्रीय स्वयं संघ की सी ही संघ के सी सुदर्शन यह कह चुके हैं कि भाजपा यदि हिंदुत्व का मुद्दा नहीं छोड़ती तो उसकी यह गति नहीं होती।
उप्र की भाजपा सरकार पर गौर करें तो साफ होता है कि मप्र, राजस्थान और दिल्ली के चुनाव परिणामों के बाद सहयोगी दलों ने सरकार पर शिकंजा कसना शुरू कर दिया। समन्वय समिति बनाने की मांग समय और अवसर की दृष्टि से दबाव बनाने की राजनीति का ही हिस्सा है। इन चुनाव परिणामों के लोकतांत्रिक कांग्रेस और जनतांत्रिक बसपा जैसे दलों को यह लगने लगा है कि प्रदेश के अगले चुनाव परिणाम भाजपा के लिए सुखद नहीं होगे और ये दल भाजपा के साथ डूबने को कतई तैयार नहीं हैं। यह सही है कि जनाधार के रूप में इन दलों और इनके नेताओं के कई रेखांकित की जाने वाली उपलब्धि नहीं कही जा सकती। फिर भी सरकार का कार्यकाल पूरा करने के लिए इनका सहयोग बेहद जरूरी है। विधानसभा चुनाव परिणामों ने भाजपा को आत्मावलोकन का अवसर दिया है और यह बताया है कि भाजपा की हार उसकी सरकारों, नीतियों और दृष्टिकोणों की पराजय। सच यह है कि भाजपा नेतृत्व तथा अल्पसंख्यकों के प्रति नजरिया बदला है। इतना ही नहीं कुछ लोग तो यहां तक स्वीकार करने लगे हैं कि अल्पसंख्यकों के नजरिये में भी तब्दीली हुई है। इन दोनों के पक्ष में जो तर्क दिये जा रहे हैं वे हैं उप्र सरकार ने मुसलमानों के लिए एक पैके ज घोषित किया है, जिसमें वक्फ बोर्ड की माली इमिदाद करना प्रशासनिक सेवाओं के लिए अल्पसंख्यक वर्ग के छात्रों के लिए फ्री कोचिंग देना। नोएडा में हज हाउस बनाने, 250 मदरसों को आधुनिक शिक्षा के न्द्रों में परिवर्तन करने जैसे महत्वपूर्ण काम किए हैं। भाजपा के प्रति अल्पसंख्यकों की सोच में परिवर्तन आया है। क्योंकि जिस एक मात्र मुस्लिम बाहुल्य राज्य का (जम्मू कश्मीर को प्राप्त है) विशेष दर्जा समाप्त करना भाजपा की प्राथमिकता में शामिल हो, उसी राज्य का मुस्लिम मुख्यमंत्री भाजपा के समर्थन का हामी हो, तो इस नजरिये में परिवर्तन नही ंतो क्या कहेंगे। वैसे यह दोनों विचार अपनी जगह पर चाहें जितने सही हों, पर सच यह है कि इन विधानसभा चुनावों में अल्पसंख्यक मतदाताओं ने यह तय कर दिया कि भाजपा के विकल्प के रूप में राष्ट्रीय स्तर पर उन्हें हमेशा कांग्रेस के साथ खड़े होने की विवशता जीनी ही पड़ेगी। उप्र की भाजपा सरकार को यह बात साफ तौर पर स्वीकार कर लेना चाहिए कि उसके सहयोगी दल किसी भी समय गैर भाजपाई गिरोहबंदी मंे शामिल हो सकते हैं और इस सरकार को चलाने के लिए मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को संतुलन साधने की बाजीगरी करते हुए नट विद्या के कौशल को देखने और दिखाने होंगे। दिल्ली के चुनाव परिणामों से उप्र की भाजपा सरकार और संगठन को सबक लेना चाहिए। और यह महसूस करना चाहिए कि संगठन और सरकार के बीच दूरियां चाहें भी जितनी हों कारणों से बढ़ी हो, सरकार उतनी ही हाथ से सरकती जाएगी। भाजपा को यह तो समझ ही लेना चाहिए कि सरकार साख से चलती है। गणित से नहीं। पिछले दिनों भाजपा ने अपनी साख खोयी है। भाजपा के वोट बैंक का मोहभंग हुआ है। कांग्रेस की यह जुगत है कि भाजपा अपनी साख खोते हुए अपनी ही गलतियों से खुदकुशी करने पर मजबूर हो जाय। कांग्रेस भाजपा के पराभव का श्रेय लेकर कोई ऐसी पहल नहीं करना चाहती है जिससे उसे किसी लांछन का शिकार होना पड़े। ऐसा करके कांग्रेस किसी राजनीतिक सिद्धांत के अनुपालन और प्रतिस्थापन नहीं कर रही है। वरन् वह आश्वस्त और सैद्धांतिक राजनीति का यह हथियार भाजपा के लिए आत्मघाती होगा। इसलिए तीसरी ताकत के पक्ष और विपक्ष की बात करना बेमानी होगी। इन चुनावों ने राजनीतिक पार्टी को यह जरूर जता दिया कि जाति धर्म से अधिक जरूरी और महत्वपूर्ण है उसकी आम जरूरत की वस्तुएं। महत्वपूर्ण होते जा रहे धीरे-धीरे आर्थिक मुद्दे।
उप्र की भाजपा सरकार पर गौर करें तो साफ होता है कि मप्र, राजस्थान और दिल्ली के चुनाव परिणामों के बाद सहयोगी दलों ने सरकार पर शिकंजा कसना शुरू कर दिया। समन्वय समिति बनाने की मांग समय और अवसर की दृष्टि से दबाव बनाने की राजनीति का ही हिस्सा है। इन चुनाव परिणामों के लोकतांत्रिक कांग्रेस और जनतांत्रिक बसपा जैसे दलों को यह लगने लगा है कि प्रदेश के अगले चुनाव परिणाम भाजपा के लिए सुखद नहीं होगे और ये दल भाजपा के साथ डूबने को कतई तैयार नहीं हैं। यह सही है कि जनाधार के रूप में इन दलों और इनके नेताओं के कई रेखांकित की जाने वाली उपलब्धि नहीं कही जा सकती। फिर भी सरकार का कार्यकाल पूरा करने के लिए इनका सहयोग बेहद जरूरी है। विधानसभा चुनाव परिणामों ने भाजपा को आत्मावलोकन का अवसर दिया है और यह बताया है कि भाजपा की हार उसकी सरकारों, नीतियों और दृष्टिकोणों की पराजय। सच यह है कि भाजपा नेतृत्व तथा अल्पसंख्यकों के प्रति नजरिया बदला है। इतना ही नहीं कुछ लोग तो यहां तक स्वीकार करने लगे हैं कि अल्पसंख्यकों के नजरिये में भी तब्दीली हुई है। इन दोनों के पक्ष में जो तर्क दिये जा रहे हैं वे हैं उप्र सरकार ने मुसलमानों के लिए एक पैके ज घोषित किया है, जिसमें वक्फ बोर्ड की माली इमिदाद करना प्रशासनिक सेवाओं के लिए अल्पसंख्यक वर्ग के छात्रों के लिए फ्री कोचिंग देना। नोएडा में हज हाउस बनाने, 250 मदरसों को आधुनिक शिक्षा के न्द्रों में परिवर्तन करने जैसे महत्वपूर्ण काम किए हैं। भाजपा के प्रति अल्पसंख्यकों की सोच में परिवर्तन आया है। क्योंकि जिस एक मात्र मुस्लिम बाहुल्य राज्य का (जम्मू कश्मीर को प्राप्त है) विशेष दर्जा समाप्त करना भाजपा की प्राथमिकता में शामिल हो, उसी राज्य का मुस्लिम मुख्यमंत्री भाजपा के समर्थन का हामी हो, तो इस नजरिये में परिवर्तन नही ंतो क्या कहेंगे। वैसे यह दोनों विचार अपनी जगह पर चाहें जितने सही हों, पर सच यह है कि इन विधानसभा चुनावों में अल्पसंख्यक मतदाताओं ने यह तय कर दिया कि भाजपा के विकल्प के रूप में राष्ट्रीय स्तर पर उन्हें हमेशा कांग्रेस के साथ खड़े होने की विवशता जीनी ही पड़ेगी। उप्र की भाजपा सरकार को यह बात साफ तौर पर स्वीकार कर लेना चाहिए कि उसके सहयोगी दल किसी भी समय गैर भाजपाई गिरोहबंदी मंे शामिल हो सकते हैं और इस सरकार को चलाने के लिए मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को संतुलन साधने की बाजीगरी करते हुए नट विद्या के कौशल को देखने और दिखाने होंगे। दिल्ली के चुनाव परिणामों से उप्र की भाजपा सरकार और संगठन को सबक लेना चाहिए। और यह महसूस करना चाहिए कि संगठन और सरकार के बीच दूरियां चाहें भी जितनी हों कारणों से बढ़ी हो, सरकार उतनी ही हाथ से सरकती जाएगी। भाजपा को यह तो समझ ही लेना चाहिए कि सरकार साख से चलती है। गणित से नहीं। पिछले दिनों भाजपा ने अपनी साख खोयी है। भाजपा के वोट बैंक का मोहभंग हुआ है। कांग्रेस की यह जुगत है कि भाजपा अपनी साख खोते हुए अपनी ही गलतियों से खुदकुशी करने पर मजबूर हो जाय। कांग्रेस भाजपा के पराभव का श्रेय लेकर कोई ऐसी पहल नहीं करना चाहती है जिससे उसे किसी लांछन का शिकार होना पड़े। ऐसा करके कांग्रेस किसी राजनीतिक सिद्धांत के अनुपालन और प्रतिस्थापन नहीं कर रही है। वरन् वह आश्वस्त और सैद्धांतिक राजनीति का यह हथियार भाजपा के लिए आत्मघाती होगा। इसलिए तीसरी ताकत के पक्ष और विपक्ष की बात करना बेमानी होगी। इन चुनावों ने राजनीतिक पार्टी को यह जरूर जता दिया कि जाति धर्म से अधिक जरूरी और महत्वपूर्ण है उसकी आम जरूरत की वस्तुएं। महत्वपूर्ण होते जा रहे धीरे-धीरे आर्थिक मुद्दे।