केंद्र की अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में संगठन और सरकार के रिश्ते दरकते जा रहे हैं। भूख, भय और भ्रष्टाचार से निजात दिलाने में भाजपा की सरकारें असफल रही हैं। सरस्वती चंद्र पर आरोप सहयोगी दलों और विपक्षी दलों द्वारा लगाये जा रहे हैं। आरोपों से भिन्न नहीं हैं। वैसे सच यह है कि संसद में विपक्ष नहीं है। कांग्रेस अटल सरकार का ऐसा पक्ष है, जिसके चुनाव घोषणा पत्र के मुद्दों को अटल सरकार अमली जामा पहना रही है। पेटेंट बिल पर भाजपा सरकार में राज्यसभा के अपने ही सांसदों के साथ धोखा किया है। पार्टी के राज्यसभा के सदस्यों की बैठक में पेटेंट बिल को संयुक्त प्रवर समिति को सौंपने की बात कही गयी है। परंतु सदन में सरकार ने ऐसा नहीं किया। इतना ही नहीं इस बिल को इसी सत्र में पास कराने का संकल्प भी जताया गया। पेटेंट विधेयक को लेकर भाजपा के भीतर छिड़ा विवाद तूल पकड़ता जा रहा है। पेटेंट विधेयक को इसी सत्र में पास कराने को लेकर अड़े उद्योग मंत्री सिकंदर बख्त ने तीन दिन पूर्व अपना त्याग पत्र संसदीय कार्य मंत्री को सौंप दिया था और अब मंत्रालय छोड़ने की धमकी दे रहे हैं। बीमा विधेयक पर सरकार ने वही किया जो कांग्रेस के चुनाव घोषणा पत्र में कहा गया है। ऐसा करके कंेंद्र सरकार ने अपनी ही पार्टी के चुनाव घोषणा पत्रों को दरकिनार करके सदन के अंदर कांग्रेस से हाथ मिला लेने का खुलासा किया है। यह साफ तौर पर दिखने लगा कि सरकार चलाने के लिए केंद्र की अटल बिहारी सरकार किसी हद तक जा सकती है। लोगों का विश्वास चुनाव के समय भाजपा से अधिक अटल बिहारी वाजपेयी के साथ था। चुनाव का मुख्य नारा था-अबकी बार अटल बिहारी। चुनाव में कमल नहीं अटल जीता था। लोग अटल बिहारी वाजपेयी पर सत्ता में मदांध होने की बात अब कहने लगे हैं। भाजपा सांसद रतन मलकाड़ी ने सरकार पर अमरीकी दबाव के आगे घुटने टेकने का आरोप लगाया। पांच सूत्रकल्प योजना पर सरकार और संगठन के विचारों में मतभेद गहराये। बीमा विधेयक के विरोध में भारतीय मजदूर संघ ने प्रदर्शन किया। स्वेदशी जागरण मंच ने भी अपनी आपत्तियां अपने ढंग से जतायी। भारतीय मजदूर संघ के संस्थापक दत्तोपंत ठेगड़ी को यहां तक कहना पड़ा कि प्रधानमंत्री गलत सलाहकारों से घिरे हैं। कई मंत्री और अफसर देश विरोधी काम कर रहे हैं। भाजपा अध्यक्ष कुशाभाऊ ठाकरे भी अपने सांसदों को यह लालच देते फिर रहे हैं कि इस मुद््दे पर वे प्रधानमंत्री से बात करें। पार्टी अध्यक्ष बाल ठाकरे ने यह स्वीकारा। पार्टी से सलाह नहीं ली जा रही है। सरकार सम्मुख फैसलों में उसकी कोई शिरकत नहीं है। राम मंदिर, मथुरा और काशी के मुद्दे पर विहिप अटल सरकार के खिलाफ उग्र है। स्वदेशी प्रबल राष्ट्रवाद, विशिष्ट संस्कृतिवाद जैसे मुद्दों पर अटल सरकार का दृष्टिकोण आरएसएस को भी अब खासा अखरने लगा है। वंदे मातरम और सरस्वती वंदना पर सरकार के पक्ष में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ इतना आहत हुआ कि उनसे इन मुद्दों को आगामी वर्ष के लिए खास तौर पर रेखांकित किया है। हताश पार्टी और मुश्किलों के बीच काम कर रही सरकार के मतभेद आम हो गये हैं। सरकार का आरोप है कि भाजपा सरकार अपने असली मुद्दों प्रबल राष्ट्रवाद, विशिष्ट संस्कृतिवाद, हिंदू वाद, स्वदेश वाद और कश्मीर से धारा 370 की समाप्ति जैसे सवालों से कटती जा रही है। लगता है उसे स्मृतिलोप हो गया है और वह भूल गयी है कि यही मुद्दे और सवाल उसके खास राजनीतिक चेहरे के मेरुदंड हंै। सरकार संगठन के सवालों को हाशिये पर ढके लना भी चाहे तब भी सरकार चलाने के लिए भूख, भय और भ्रष्टाचार मिटाने के लिए उसने संकल्प की दिशा में काम करना तो जरूरी है ही भूख के सवाल पर केंद्र सरकार की असफलता का नजारा स्पष्ट दिखा है। आम जरूरत की वस्तुएं पहुंच से बाहर हो गयी है।। परंतु सरकार की मुद्रास्फीति दर जम गयी है। एक ऐसे देश में जहां गांव में पचपन फीसदी लोग मिट्टी और फूस के घरों में रहते हैं। उनके पीने के लिए न शुद्ध पेयजल की व्यवस्था है और न रोशनी के लिए बिजली की। बिहार में नल का पानी के वल तीन प्रतिशत घरों को, बंगाल में 09 प्रतिशत और मप्र में 11 प्रतिशत घरों को ही उपलब्ध है। महानगरों की चालीस फीसदी जनसंख्या झुग्गी झोपड़ियों में रहती है। इन आर्थिक स्थितियों में जीवन यापन करने के लिए विवश लोगों के लिए आम जरूरतों की चीजें। आलू, प्याज, नमक आदि जरूरी वस्तुओं के मूल्यों में बेतहाशा बढ़ोत्तरी, मूल्य वृद्धि के प्रति सरकार की लंबी उदासीनता और फिर अति विलंब से प्रकट हुई सक्रियता ने भूख के प्रति सरकार के नजरिये का खुलासा कर दिया है।
भ्रष्टाचार एक ऐसा आर्थिक रोग है, जिससे यह संगठन आकार ग्रहण कर लिया है। इसने सामाजिक नैतिकता की स्वीकृति प्राप्त कर ली है। समाज में विकास की गति अगर किसी भी क्षेत्र की सर्वोच्च रही है तो वह क्षेत्र भ्रष्टाचार एक छोटा व्यापारी, एक छोटा सामंत और गांव का लाल बुझक्कड़ आज के भूमंडलीय समाज में सेठ राजनेता और बुद्धिजीवी बन गये हैं। और ये बड़े पैमाने पर संगठित भ्रष्टाचार कर रहे हैं। व्यक्तिगत कार्य में भ्रष्टाचार अपराध माना जाता है। लेकिन जब यह जीवन यापन का साधन बना लिया जाता है तो वह सम्मानित हो जाता है। भ्रष्टाचारी जब धनवान बन जाता है तो वह दूसरों को अपने भ्रष्टाचार का एक भाग देकर उसे एक नयी सामाजिक व्यवस्था का रूप दे देता है। लोकतंत्र में व्यापारी अधिकारी और राजनेताओं में भ्रष्टाचार करने की होड़ मची हुई है। क्योंकि उनके पास यह जानकारी उपलब्ध रहती है कि उनके पास अमरीकी एनरान कंपनी के खाते में इस मद के लिए बासठ करोड़ रूपये हैं। भारतीय रिजर्व बैंक के अनुसार भारतीय राजनेताओं और अधिकारियों के विदेशी बैंकों में 500 अरब रूपये से अधिक की रकम जमा है। देश में 28 हजार करोड़ रूपये का कालाधन के रूप में है। बीडीआईएस के माध्यम से 105 अरब रूपये का कालाधन प्रकट किया गया है। अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष की इस रिपोर्ट के अनुसार अके ले 1986 में 200 करोड़ से अधिक रूपये भारत से विदेशी बैंको में जमा कराये गये।
भारत सरकार ने पूर्व में भ्रष्टाचार निवारण के लिए कई प्रयास किये। 1947 में भ्रष्टाचार निवारण कानून पास किया गया। 1949 में टेकचंद कमेटी की स्थापना की गयी। 1953 मंे आचार्य कृपालु की अध्यक्षता में रेलवे भ्रष्टाचार जांच कमेटी बनी। केंद्रीय गृह मंत्रालय ने 1955 में प्रशासन सतर्कता विभाग की स्थापना की। जून 1962 में संस्थानम कमेटी का गठन किया। जिसने 67 में प्रतिवेदन दिया। वैसे यह भी सच है कि भ्रष्टाचार जैसी बुराई को महज कानून बनाकर नहीं रोका जा सकता। क्योंकि भ्रष्टाचार की सीमा और शब्द बहुत व्यापक हैं। मोटेतौर पर रेखांकित किया जाय तो घूस लेना, यौनाचार, कम तौलना, मिलावट, स्मगलिंग, कालाबाजारी, चुनाव जीतने के लिए गड़बड़ी करना, आर्थिक घोटाले, घपले आदि आते हैं। भ्रष्टाचार के नाते अयोग्य के प्रति पक्षपात एवं योग्य के प्रति अन्याय होता है। जिससे अंततः समाज को हानि होती है। लेकिन इस मुद्दे पर कुछ कर पाने में केंद्र की अटल बिहारी वाजपेयी सरकार तो असफल रही है। उसके प्रशासनिक अधिकारियों ने भी यह संदेश दिया भ्रष्टाचार कोई मुद्दा नहीं है। भ्रष्टाचार हटाने जैसे अपने ही संकल्प से पलायन कर रही सरकार के पास बोफोर्स शेयर, घोटाला, हवाला जैसे तमाम भ्रष्टाचार को फैलाने वाले के स थे, जिनके खुलासा करके भाजपा सरकार, सरकार में लंबे समय तक बनी रह सकती थी और प्रबल राष्ट्रवाद और विशिष्ट संस्कृतिवाद, हिंदूवाद एवं ंस्वेदशी जैसे पार्टीगत मुद्दों को लागू न कर पाने जैसे आरोप से बच सकती थी और कुर्सी के लिए व्यापक जनाधार भी जुटाया जा सकता था। इस तरह देखा जाय तो भाजपा सरकार मतदाताओं के लिए तो असफलताओं का पर्याय हो ही गयी। उसने लोगों की उम्मीदों पर पानी फेरा। साथ ही अपने ही आनुषांगिक संगठन विहिप, आरएसएस, स्वदेशी जागरण मंच के मंसूबे भी ध्वस्त कर दिये और यह तमाम असफलताएं कांग्रेस की सत्ता में वापसी के रास्ते को सुगम और छोटा करती जा रही हैं।
भ्रष्टाचार एक ऐसा आर्थिक रोग है, जिससे यह संगठन आकार ग्रहण कर लिया है। इसने सामाजिक नैतिकता की स्वीकृति प्राप्त कर ली है। समाज में विकास की गति अगर किसी भी क्षेत्र की सर्वोच्च रही है तो वह क्षेत्र भ्रष्टाचार एक छोटा व्यापारी, एक छोटा सामंत और गांव का लाल बुझक्कड़ आज के भूमंडलीय समाज में सेठ राजनेता और बुद्धिजीवी बन गये हैं। और ये बड़े पैमाने पर संगठित भ्रष्टाचार कर रहे हैं। व्यक्तिगत कार्य में भ्रष्टाचार अपराध माना जाता है। लेकिन जब यह जीवन यापन का साधन बना लिया जाता है तो वह सम्मानित हो जाता है। भ्रष्टाचारी जब धनवान बन जाता है तो वह दूसरों को अपने भ्रष्टाचार का एक भाग देकर उसे एक नयी सामाजिक व्यवस्था का रूप दे देता है। लोकतंत्र में व्यापारी अधिकारी और राजनेताओं में भ्रष्टाचार करने की होड़ मची हुई है। क्योंकि उनके पास यह जानकारी उपलब्ध रहती है कि उनके पास अमरीकी एनरान कंपनी के खाते में इस मद के लिए बासठ करोड़ रूपये हैं। भारतीय रिजर्व बैंक के अनुसार भारतीय राजनेताओं और अधिकारियों के विदेशी बैंकों में 500 अरब रूपये से अधिक की रकम जमा है। देश में 28 हजार करोड़ रूपये का कालाधन के रूप में है। बीडीआईएस के माध्यम से 105 अरब रूपये का कालाधन प्रकट किया गया है। अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष की इस रिपोर्ट के अनुसार अके ले 1986 में 200 करोड़ से अधिक रूपये भारत से विदेशी बैंको में जमा कराये गये।
भारत सरकार ने पूर्व में भ्रष्टाचार निवारण के लिए कई प्रयास किये। 1947 में भ्रष्टाचार निवारण कानून पास किया गया। 1949 में टेकचंद कमेटी की स्थापना की गयी। 1953 मंे आचार्य कृपालु की अध्यक्षता में रेलवे भ्रष्टाचार जांच कमेटी बनी। केंद्रीय गृह मंत्रालय ने 1955 में प्रशासन सतर्कता विभाग की स्थापना की। जून 1962 में संस्थानम कमेटी का गठन किया। जिसने 67 में प्रतिवेदन दिया। वैसे यह भी सच है कि भ्रष्टाचार जैसी बुराई को महज कानून बनाकर नहीं रोका जा सकता। क्योंकि भ्रष्टाचार की सीमा और शब्द बहुत व्यापक हैं। मोटेतौर पर रेखांकित किया जाय तो घूस लेना, यौनाचार, कम तौलना, मिलावट, स्मगलिंग, कालाबाजारी, चुनाव जीतने के लिए गड़बड़ी करना, आर्थिक घोटाले, घपले आदि आते हैं। भ्रष्टाचार के नाते अयोग्य के प्रति पक्षपात एवं योग्य के प्रति अन्याय होता है। जिससे अंततः समाज को हानि होती है। लेकिन इस मुद्दे पर कुछ कर पाने में केंद्र की अटल बिहारी वाजपेयी सरकार तो असफल रही है। उसके प्रशासनिक अधिकारियों ने भी यह संदेश दिया भ्रष्टाचार कोई मुद्दा नहीं है। भ्रष्टाचार हटाने जैसे अपने ही संकल्प से पलायन कर रही सरकार के पास बोफोर्स शेयर, घोटाला, हवाला जैसे तमाम भ्रष्टाचार को फैलाने वाले के स थे, जिनके खुलासा करके भाजपा सरकार, सरकार में लंबे समय तक बनी रह सकती थी और प्रबल राष्ट्रवाद और विशिष्ट संस्कृतिवाद, हिंदूवाद एवं ंस्वेदशी जैसे पार्टीगत मुद्दों को लागू न कर पाने जैसे आरोप से बच सकती थी और कुर्सी के लिए व्यापक जनाधार भी जुटाया जा सकता था। इस तरह देखा जाय तो भाजपा सरकार मतदाताओं के लिए तो असफलताओं का पर्याय हो ही गयी। उसने लोगों की उम्मीदों पर पानी फेरा। साथ ही अपने ही आनुषांगिक संगठन विहिप, आरएसएस, स्वदेशी जागरण मंच के मंसूबे भी ध्वस्त कर दिये और यह तमाम असफलताएं कांग्रेस की सत्ता में वापसी के रास्ते को सुगम और छोटा करती जा रही हैं।