महज छियालिस वर्ष पहले भारत सुन्दरी इन्द्राणी रहमान ने विश्व सुन्दरी प्रतियोगिता के दौरान स्वीमिंग सूट पहनने से इनकार कर दिया था। परिणामतः इन्द्राणी रहमान विश्व सुन्दरी प्रतियोगिता के दौर से बाहर कर दी गयीं। इन्द्राणी रहमान के बाद भी कई भारतीय सुन्दरियां स्वीमिंग सूट पहनने के चरण में लम्बे समय तक प्रतियोगिताओं से बाहर होती रहीं। आज चार दशकों में हालात इतने बदल गये हैं कि सौन्दर्य प्रतियोगिता में महज शामिल हो जाना किसी भी मेट्रोपोलियन सिटी में रहने वाली आम लड़की का खास सपना है। सुष्मिता सेन, ऐश्वर्या राय और डायना हेडन उसकी आदर्श हैं। हमारी संस्कृति में सौदर्य बोध के साथ गहरे पवित्रता का भाव जुड़ा है। दीदारगंज की यक्षी का मूर्ति शिल्प हो या मोनालिसा की मुस्कान का चित्र, दोनों ही स्त्री-सौन्दर्य के उच्चतम प्रतिमान हैं। सौन्दर्य के प्रतिमानों के साथ पवित्रता का रिश्ता जुड़ा है। प्रतियोगिता का नहीं। पश्चिमी देशों ने इस सौन्दर्य को, सौन्दय के प्रतिबोध को प्रतियोगी बनाया। प्रतिस्पर्धी बनाया। सौन्दर्य का विशुद्ध व्यापारिक उपयोग करना शुरू किया। सौन्दर्य के विश्वव्यापी उत्सवों के माध्यम से स्त्रियों को उत्पाद के लिए, उत्पाद के रूप में परोसने वाली बहुराीय कम्पनियां नारी देह के प्रति ऐेसी आखेटक वृत्ति रखती हैं जिसमें क्रूरता के दर्शन होते हैं।
मानव का आदिम चित्त भेद नहीं करता है। कुरूपता एवं सौन्दर्य में कोई विभाजक रेखा नहीं खींचता है परन्तु आज का मानव चित्त जिसे कुरूप कहता है, आदिम चित्त उसे भी प्रेम करता था। आज हमें विभाजक रेखा खींच कर एक ऐसी बड़ी गलती की है जिसके चलते हम कुरूप को प्रेम नहीं कर पाते क्योंकि वह सुन्दर नहीं, दूसरी ओर हम जिसे सुन्दर समझते हैं, वह दो दिन बाद सुन्दर नहीं रह जाता है। परिचय से, परिचित होते ही सौन्दर्य का जो अपरिचित रस था, वह खो जाता है। सौन्दर्य का जो अपरिचित आकर्षण या आमंत्रण है, वह विलीन हो जाता है। इसी सौन्दर्य को विलीन होने से बचाने के लिए हमने मेकअप की शुरूआत की। मेकअप ओर मेकअप की पूरी धारणा बुनियादी रूप से पाखंड है क्योंकि स्वाभाविक सुन्दरता को किसी बनावट की जरूरत नहीं होती। फिर भी मेकअप का सामान बनाने वाली विश्व की दो बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियां ‘यूनीलिवर’ एवं ‘रेवलाॅन/प्राक्टर एं गैम्बिल’, ‘मिस यूनिवर्स’ और ‘मिस वल्र्ड’ नामक सौन्दर्य के विश्वव्यापी उत्सव करती है। इन प्रतियोगिताओं की राजनीति समझने की जरूरत है। सोवियत संघ के विघटन के तुरन्त बाद रूस की एक लड़की को विश्व सुन्दरी के खिताब से नवाजा गया। 1992-93 में जमैका ने जब उदारीकरण की घोषणा की तो उसी वर्ष जमैका की लिमहाना को विश्व सुन्दरी घोषित कर दिया गया। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को व्यापार की छूट देने के साथ ही वेनेजुएला को 1970 से आज तक ‘मिस वल्र्ड’, ‘मिस यूनिवर्स’ और ‘मिस फोटोजेनिक’ के तीस से अधिक खिलाब मिल चुके हैं। दक्षिण अफ्रीका की स्वाधीनता के बाद राष्ट्रपति नेल्सन मंेला द्वारा बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को आमंत्रण देने के पुरस्कार स्वरूप वास्तसाने जूलिया को ‘रनर विश्व सुन्दरी’ बनाया गया। इतना ही नहीं, विश्व बैंक और अन्तरराष्ट्र्रीय मुद्राकोष के निर्देशों के तहत ढांचागत समायोजन का कार्यक्रम संचालित कर रहे क्रोएशिया और जिम्बाव्वे की लड़कियों को भी चैथा और पांचवा स्थान इन विश्वव्यापी सौन्दर्य उत्सवों में मिला। 1966 में जब इन्दिरा गांधी के रुपये का 33 फीसदी अवमूल्यन किया तो उसी वर्ष भारत की रीता फारिया विश्व सुन्दरी बन बैठी। इतना ही नहीं मनमोहन सिंह द्वारा उदारीकरण और वैश्वीकरण की दिशा में चलाये जा रहे ढांचागत समायोजन के कार्यक्रमों का परिणाम हुआ कि 27 वर्ष बाद भारत के खाते में ‘मिस यूनिवर्स’ और ‘मिस वल्र्ड’ दोनों खिताब दर्ज हो गये। फिर भी 97 मंे मुरादाबाद की डायना हेन ‘मिस वलर््ड’ के ताज की हकदार हो गयीं।
‘मिस यूनिवर्स’ और ‘मिस यूनिवर्स’ के पुरस्कारों की राजनीति का सच कितना घिनौना है, यह पुरस्कार जिन अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति और समीकरणों के तहत प्रदान किये जाते हैं उन्हें जानकर इन पर इतराना किसी भी राष्ट्र के लिए गौरवपूर्ण नहीं हो सकता। महिला सौन्दर्य का शिकार कर रही ये व्यापारिक बहुराष्ट्रीय कम्पनियां सौन्दर्य के पवित्रता के भाव को तो मारती है साथ ही साथ उसमें उत्पाद का पुट देकर व्यापारिक एवं वाणिज्यिक तेवर देती है। सौन्दर्य प्रसाधन बनाने वाली ‘रेवलाॅन’ और ‘यूनीलीवर’ कम्पनियां विजेताओं को वर्ष भर खास किस्म के कब्जे में रखती हैं। वे कहां जायेंगी ? क्या बोलेंगीं ? क्या पहनेंगी ? सभी कुछ वर्ष भर तक ये प्रायोजित कम्पनियां ही तय करती हैं। उदाहरण के तौर पर 1966 में विश्व सुन्दरी खिताब प्राप्त भारत की रीता फारिया को अमरीका-वियतनाम युद्ध के समय प्रायोजित कम्पनी में अमरीकी सैनिकों का मनोरंजन करने के लिए वियतनाम भेजा था। ये कम्पनियां यह बेहतर ढंग से समती हैं कि विवाहित स्त्री का सौन्दर्य परोसने योग्य नहीं होता है इसलिए विजेताओं पर यह कठोर प्रतिबन्ध होता है कि ये वर्ष भर विवाह नहीं कर सकती हैं। उत्पाद बनने के लिये स्वतः तैयार नारी देह के सौन्दर्य अर्थशास्त्र का विस्तार इन विश्वव्यापी उत्सवों से निकलकर हमारे देश के गली, मुहे, शहरों, विद्यालय और विश्वविद्यालयों तक पांव पसार चुका है। भूमंलीकरण और भौतिकवाद के इस काल में स्त्री देह का उत्पाद या विज्ञापन बन जाना, उस नजरिये का विस्तार है, जिसमें स्त्री अपने लिये खुद बाजार तलाश रही है। विद्रूप बाजार में येन-के न-प्रकारेण अपना स्थान बना लेना चाहती है। उसे अपने स्थान बनाने की ‘अवसर लागत’ नहीं पता है। वह कहती है कि उसे यह तय करने का समय नहीं मिल पा रहा है कि किन-किन कीमतों पर क्या-क्या वह अर्जित कर रही है ? ‘फायर’ का प्रदर्शन वह अपने दमित इच्छाओं का विस्तार स्वीकारती है जिसके सामने पहले प्रेम निरुद्ध फिर विवाह के बाद प्रेम की वर्जना थी और अब ‘इस्टेंट लव’ के फैशन की खास और खुली स्वीकृति। पश्चिम के लिए विकृतियां ही सुखद प्रतीत होती है क्योंकि उनके लिए जीवन का सौन्दर्य अपरिचित हैं। भारत की अस्मिता और गरिमा भी इसलिये रही क्योंकि हमने अभ्यान्तर सौन्दर्य एवं शुद्धता को उसके पूरे विज्ञान को विकसित किया है। हमारा सौन्दर्य सत्यम्-शिवम्-सुन्दरम् है। हमारा सत्यम् अनुभव है, शिवम् है - कृत्य, वह कृत्य जो इस अनुभव से निकलता है और सौन्दर्य है उस व्यक्ति की चेतना का खिलना जिसने सत्य का अनुभव कर लिया है। मांग और पूर्ति के अर्थशास्त्रीय सिद्धान्त बाजारवादी अर्थव्यवस्था में वस्तुओं/ उत्पादों का मूल्य तय करते हैं। स्त्री देह के प्रदर्शन, उपलब्धता की पूर्ति का विस्तार मूल्यहीनता के उस ‘वर्ज’ पर खा है जहां मांग के गौण हो जाने का गम्भीर खतरा दिखायी दे रहा है इससे स्त्री सौन्दर्य के उच्चतम प्रतिमान तो खिर ही रहे हैं सौन्दर्य के साथ पवित्रता के रिश्तों में भी दरार चैड़ी होती जा रही है।
मानव का आदिम चित्त भेद नहीं करता है। कुरूपता एवं सौन्दर्य में कोई विभाजक रेखा नहीं खींचता है परन्तु आज का मानव चित्त जिसे कुरूप कहता है, आदिम चित्त उसे भी प्रेम करता था। आज हमें विभाजक रेखा खींच कर एक ऐसी बड़ी गलती की है जिसके चलते हम कुरूप को प्रेम नहीं कर पाते क्योंकि वह सुन्दर नहीं, दूसरी ओर हम जिसे सुन्दर समझते हैं, वह दो दिन बाद सुन्दर नहीं रह जाता है। परिचय से, परिचित होते ही सौन्दर्य का जो अपरिचित रस था, वह खो जाता है। सौन्दर्य का जो अपरिचित आकर्षण या आमंत्रण है, वह विलीन हो जाता है। इसी सौन्दर्य को विलीन होने से बचाने के लिए हमने मेकअप की शुरूआत की। मेकअप ओर मेकअप की पूरी धारणा बुनियादी रूप से पाखंड है क्योंकि स्वाभाविक सुन्दरता को किसी बनावट की जरूरत नहीं होती। फिर भी मेकअप का सामान बनाने वाली विश्व की दो बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियां ‘यूनीलिवर’ एवं ‘रेवलाॅन/प्राक्टर एं गैम्बिल’, ‘मिस यूनिवर्स’ और ‘मिस वल्र्ड’ नामक सौन्दर्य के विश्वव्यापी उत्सव करती है। इन प्रतियोगिताओं की राजनीति समझने की जरूरत है। सोवियत संघ के विघटन के तुरन्त बाद रूस की एक लड़की को विश्व सुन्दरी के खिताब से नवाजा गया। 1992-93 में जमैका ने जब उदारीकरण की घोषणा की तो उसी वर्ष जमैका की लिमहाना को विश्व सुन्दरी घोषित कर दिया गया। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को व्यापार की छूट देने के साथ ही वेनेजुएला को 1970 से आज तक ‘मिस वल्र्ड’, ‘मिस यूनिवर्स’ और ‘मिस फोटोजेनिक’ के तीस से अधिक खिलाब मिल चुके हैं। दक्षिण अफ्रीका की स्वाधीनता के बाद राष्ट्रपति नेल्सन मंेला द्वारा बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को आमंत्रण देने के पुरस्कार स्वरूप वास्तसाने जूलिया को ‘रनर विश्व सुन्दरी’ बनाया गया। इतना ही नहीं, विश्व बैंक और अन्तरराष्ट्र्रीय मुद्राकोष के निर्देशों के तहत ढांचागत समायोजन का कार्यक्रम संचालित कर रहे क्रोएशिया और जिम्बाव्वे की लड़कियों को भी चैथा और पांचवा स्थान इन विश्वव्यापी सौन्दर्य उत्सवों में मिला। 1966 में जब इन्दिरा गांधी के रुपये का 33 फीसदी अवमूल्यन किया तो उसी वर्ष भारत की रीता फारिया विश्व सुन्दरी बन बैठी। इतना ही नहीं मनमोहन सिंह द्वारा उदारीकरण और वैश्वीकरण की दिशा में चलाये जा रहे ढांचागत समायोजन के कार्यक्रमों का परिणाम हुआ कि 27 वर्ष बाद भारत के खाते में ‘मिस यूनिवर्स’ और ‘मिस वल्र्ड’ दोनों खिताब दर्ज हो गये। फिर भी 97 मंे मुरादाबाद की डायना हेन ‘मिस वलर््ड’ के ताज की हकदार हो गयीं।
‘मिस यूनिवर्स’ और ‘मिस यूनिवर्स’ के पुरस्कारों की राजनीति का सच कितना घिनौना है, यह पुरस्कार जिन अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति और समीकरणों के तहत प्रदान किये जाते हैं उन्हें जानकर इन पर इतराना किसी भी राष्ट्र के लिए गौरवपूर्ण नहीं हो सकता। महिला सौन्दर्य का शिकार कर रही ये व्यापारिक बहुराष्ट्रीय कम्पनियां सौन्दर्य के पवित्रता के भाव को तो मारती है साथ ही साथ उसमें उत्पाद का पुट देकर व्यापारिक एवं वाणिज्यिक तेवर देती है। सौन्दर्य प्रसाधन बनाने वाली ‘रेवलाॅन’ और ‘यूनीलीवर’ कम्पनियां विजेताओं को वर्ष भर खास किस्म के कब्जे में रखती हैं। वे कहां जायेंगी ? क्या बोलेंगीं ? क्या पहनेंगी ? सभी कुछ वर्ष भर तक ये प्रायोजित कम्पनियां ही तय करती हैं। उदाहरण के तौर पर 1966 में विश्व सुन्दरी खिताब प्राप्त भारत की रीता फारिया को अमरीका-वियतनाम युद्ध के समय प्रायोजित कम्पनी में अमरीकी सैनिकों का मनोरंजन करने के लिए वियतनाम भेजा था। ये कम्पनियां यह बेहतर ढंग से समती हैं कि विवाहित स्त्री का सौन्दर्य परोसने योग्य नहीं होता है इसलिए विजेताओं पर यह कठोर प्रतिबन्ध होता है कि ये वर्ष भर विवाह नहीं कर सकती हैं। उत्पाद बनने के लिये स्वतः तैयार नारी देह के सौन्दर्य अर्थशास्त्र का विस्तार इन विश्वव्यापी उत्सवों से निकलकर हमारे देश के गली, मुहे, शहरों, विद्यालय और विश्वविद्यालयों तक पांव पसार चुका है। भूमंलीकरण और भौतिकवाद के इस काल में स्त्री देह का उत्पाद या विज्ञापन बन जाना, उस नजरिये का विस्तार है, जिसमें स्त्री अपने लिये खुद बाजार तलाश रही है। विद्रूप बाजार में येन-के न-प्रकारेण अपना स्थान बना लेना चाहती है। उसे अपने स्थान बनाने की ‘अवसर लागत’ नहीं पता है। वह कहती है कि उसे यह तय करने का समय नहीं मिल पा रहा है कि किन-किन कीमतों पर क्या-क्या वह अर्जित कर रही है ? ‘फायर’ का प्रदर्शन वह अपने दमित इच्छाओं का विस्तार स्वीकारती है जिसके सामने पहले प्रेम निरुद्ध फिर विवाह के बाद प्रेम की वर्जना थी और अब ‘इस्टेंट लव’ के फैशन की खास और खुली स्वीकृति। पश्चिम के लिए विकृतियां ही सुखद प्रतीत होती है क्योंकि उनके लिए जीवन का सौन्दर्य अपरिचित हैं। भारत की अस्मिता और गरिमा भी इसलिये रही क्योंकि हमने अभ्यान्तर सौन्दर्य एवं शुद्धता को उसके पूरे विज्ञान को विकसित किया है। हमारा सौन्दर्य सत्यम्-शिवम्-सुन्दरम् है। हमारा सत्यम् अनुभव है, शिवम् है - कृत्य, वह कृत्य जो इस अनुभव से निकलता है और सौन्दर्य है उस व्यक्ति की चेतना का खिलना जिसने सत्य का अनुभव कर लिया है। मांग और पूर्ति के अर्थशास्त्रीय सिद्धान्त बाजारवादी अर्थव्यवस्था में वस्तुओं/ उत्पादों का मूल्य तय करते हैं। स्त्री देह के प्रदर्शन, उपलब्धता की पूर्ति का विस्तार मूल्यहीनता के उस ‘वर्ज’ पर खा है जहां मांग के गौण हो जाने का गम्भीर खतरा दिखायी दे रहा है इससे स्त्री सौन्दर्य के उच्चतम प्रतिमान तो खिर ही रहे हैं सौन्दर्य के साथ पवित्रता के रिश्तों में भी दरार चैड़ी होती जा रही है।