प्रशिक्षण शिविर की चिन्ता

Update:1999-03-28 15:22 IST
गढ़वाघाट वाराणसी में सम्पन्न भाजपा के  प्रशिक्षण शिविर में चिन्तन शिविर का आकार ग्रहण कर लिया। संगठन और सरकार में चरित्र के  सवाल को लेकर भाजपाई दो-तीन तक ने चार होते रहे। सत्ता के  चक्रव्यूह और संगठन के  भिरतघात से जूझती भाजपा को अपने अस्तित्व पर संकट के  गंभीर बादल दिखे। कुशाभाऊ ठाकरे, मुरली मनोहर जोशी, गोविन्दाचार्य, कल्याण सिंह, राजनाथ सिंह आदि दिग्गज नेताओं के  साथ संगठन और सरकार में किसी भी स्तर पर शिरकत कर रहे लगभग चार हजार कार्यकर्ताओं ने उन सवालों को ठीक से रेखांकित किया जिसे तमाम बड़े नेता अपने निजी हितों और गुटीय निष्ठाओं के  नाते उजागर नहीं कर रहे थे और कर भी रहे थे तो बेहद भोड़े तरीके  से। प्रशिक्षण के  लिए आरम्भ किये गये इस शिविर में भाजपा ने अपने कार्यों और कार्यक्रमों की गहन समीक्षा की। सहमतियों, असहमतियों के  कई चक्करों से गुजरते हुए तीन दिवसीय शिविर के  अन्तिम दिन जो तथ्य उभरकर सामने आये उनसे समस्याओं को धराशायी करने के  पुख्ता इंतजाम के  कोई लक्षण नहीं दिखे। आत्मा में शुद्धता और सामूहिकता जैसे सवालों के  इर्द-गिर्द घूमता हुआ यह शिविर एक बार फिर संगठन का सरकार पर दबाव रहे, सरकार का संगठन पर वर्चस्व दिखे जैसी कोशिशों में सिमट कर रह गया। सत्ता में पूर्ण बहुमत में आने के  लिए जनता के  विश्वास को कायम रखने और पाने के  लिए कोशिश होनी चाहिए इस बात का जिक्र लोकतंत्र के  लिए तो शुभ है परन्तु अब तक ऐसा न कर पाने के  लिए जिम्मेदार तत्वों को चिन्हित या सचेत करने की दिशा में कुछ भी नहीं किया जाना इस प्रतिबद्धता के  प्रति शिविर में उठी चिन्ता के  सामने सवाल खड़ा करता है। दृष्टव्य है कि ये वे मूल्य हैं जिन्हें अर्जित करने के  लिए दृढ़ संकल्प और हर प्रकार के  बलिदान की आवश्यकता होती है। क्या आत्मा के  अमूर्तन पर भरोसा करके  एक विराट लोकतंत्र का संचालन किया जा सकता है। लोकतंत्र में व्यक्तिगत गुणों को सामाजिक जीवन में, सांस्कृतिक चेतना में विकसित होना चाहिए, क्या यह संभव है, जबकि संगठन के  लोग सतता के  महाभोज में लूटमार करने के  लिए आतुर हों। संगठन के  आधार पर देश भर में अपनी पहचान लम्बे समय तक बनाये रखने वाली राजनीतिक पार्टी भाजपा को पता नहीं क्या हो गया है कि उसके  नेता सरकार पर दबदबा बनाने/दिखने के  लिए वे सारे हथियार अख्तियार कर रहे हैं जिनकी उनसे कभी अपेक्षा भी नहीं थी। भाजपा के  दलीय निष्ठा का चरित्र संकुचित होकर गुटीय निष्ठाओं तक सिमट गया है। संगठन और सरकार के  नेता एक दूसरे पर जिस तरह के  आरोप लगा रहे हैं वैसे आरोप लगाने की स्थिति में विपक्षी और विरोधी राजनीतिक पार्टियां भी नहीं हैं। संविद सरकारों के  बनने से पूरी पार्टी ने जहां अपना चरित्र खोया है वहीं सत्ता की भागीदारी में नेताओं के  व्यक्तिगत चरित्र से भी भाजपा की मेरूदण्ड आरएसएस का पाठ तिरोहित हुआ है। उदाहरण के  तौर पर देखा और समझा जा सकता है-आर्थिक चिन्तन सत्र में पेटेंट बिलों, बीमा बिलों, धारा 370 तथा भूसंरक्षण जैसे मुद्दों पर निर्णायक कार्य न कर पाने की विवशता व्यक्त की गयी। इसके  लिए संविद सरकारों को दोषी ठहराया गया। यह सत्य है कि साझा सरकारों ने भाजपा की छवि को गहरा आघात पहुंचाया है। भाजपा जिस विशिष्ट तेवर (जिसके  बारे में लोगों को अपनी निजी चाहे जो भी राय हो) के  लिए जानी जाती थी वह तिरोहित हो गया। परन्तु इसके  लिए संविद सरकारों को दोषी ठहराना उचित नहीं है क्योंकि जिन विभागों में खाटी भाजपाई मंत्री हैं उन विभागों के  चरित्र का संकट सहयोगी दलों को आवंटित विभागों के  चरित्र के  संकट से कहीं कम नहीं है। संभव है कि अगले शिविरों में इसके  लिए भी सहयोगी दलों पर जिम्मेदारी डालकर किनारा कस लिया जाये पर क्या यह समस्या से निजात पाने का कोई ठोस तरीका होगा। कुशाभाऊ ठाकरे ने फिलहाल समस्याओं के  न निपट पाने के  मुद्दे पर सरकार का बचाव करते हुए कहा है कि उसके  पास कोई अलादीन का चिराग नहीं है। लेकिन उन्हें यह वक्तव्य देने से पहले पिछली सरकारों के  अलादीन के  चिराग को ढूंढकर अपने पास रख लेना चाहिए था क्योंकि जिस जनता ने पिछली सरकारों से अलादीन के  चिराग का सुख पाया है वह इस सुख से वंचित होने के  लिए भाजपा को दोषी ठहराने से तो बाज नहीं आ सकती। शिविर में कहा गया कि राज्यों और के न्द्रांे में पूर्ण बहुमत पाने की योजना तभी कारगर हो सकती है जब सरकार के  पास जनता और कार्यकर्ताओं के  विश्वास को अर्जित करने के  लिए कोई न कोई ठोस कदम उठाना ही होगा जिसे जादुई ढंग से पेश करने का राजनीतिक कौशल भी वर्तमान लोकतांत्रिक ढांचे में जरूरी है। आरएसएस और भारतीय जनता पार्टी दोनों संगठनों से खासे ढंग से जुड़े रहने के  कारण भाजपाई नेताओं के  व्यक्तित्व में व्याप्त दोहरापन खास ढंग से समय-समय पर दिखायी पड़ जाता है तभी तो एक ओर राम मंदिर निर्माण के  मुद्दे को विहिप का मुद्दा बताकर किनारा कसते हैं तो दूसरी ओर हिन्दुत्व की पुरानी अवधारणा को स्वदेशी व सुराज के  आलोक में विकसित करने की बात पर बल देते हैं। एक ओर विदेशी कम्पनियों के  लिए भारत के  द्वार खोलना, स्वागत करना, दूसरी ओर स्वदेशी का राग अलापना? भारतीय जनता पार्टी के  इस शिविर में कांग्रेस पर विरोधी दल की सकारात्मक भूमिका नहीं निभा पाने का आरोप लगाया गया वस्तुतः यह आरोप बिहार के  संदर्भ के  साथ सीधे तौर से जुड़ता है। पर सच यह है कि जब बिहार सरकार के  बारे में निर्णय लेते समय के न्द्र सरकार ने कांग्रेस से कोई स्वीकृति नहीं ली थी तो कांग्रेस पर यह आरोप लगाना मुंह चुराने जैसा है। वैसे भी भाजपा की यह राजनीतिक समझदारी है कि वह कांग्रेस से किसी किस्म का सहयोग की अपेक्षा न करें। राजनीतिक उद्ण्डता और अपराधीकरण पर भाजपा की चिन्ता जायज है। इस पर नोटिस ली जानी चाहिए लेकिन जिस राजनीतिक पार्टी के  सामने अपने जम्बो मंत्रिमंडल में अपराधियों को मंत्री बनाने की विवशता हो उसके  द्वारा इस तरह के  सवाल खड़े करने से कोई ठोस पहल हो पाने की संभावना नहीं दिखती है। यह बात सच है कि भारत की राजनीतिक एकता का आधार सांस्कृतिक राष्ट्रवाद है। लेकिन क्या यह संस्कृति किसी सरकार की हो, किसी व्यक्ति की, किसी दल की किसी वर्ग और/या भारत में दूर-दूर तक फैली हुई संस्कृतियों का समुच्य। चिन्तन शिविर में भारतीय जनता पार्टी ने समाज, सरकार, संगठन को लेकर जो सवाल खड़े किये व सचमुच ऐसे प्रश्न हैं जिनसे निजात पाना बेहद जरूरी है लेकिन पता नहीं क्यों इस बात पर विचार नहीं किया गया कि अपने गठन के  एक वर्ष, डेढ़ वर्ष की उपलब्धियों का गौरवगान कर रही सरकारों ने इस दिशा में अब तक क्या किया और कितना किया। संगठन ने सरकार पर हमला किया। स्थानान्तरण उद्योग पर सवाल खड़े हुए। संगठन और सरकार में समन्वय की स्थितियां बनायी जाये यह कहा जाए। संगठन में गुटीय निष्ठाओं से ऊपर उठकर एकता कायम करने की बात उठी। पर पता नहीं क्यों इस सवाल पर ठोस विमर्श नहीं हुआ कि के न्द्र और प्रदेश दोनों सरकारों में सत्ता बड़ी या संगठन के  शाश्वत सवाल निरन्तर गहराते जा रहे हैं। प्रशिक्षण शिविर का चिन्तन शिविर में तब्दील हो जाना शुभ संके त तो है परन्तु इस तरह के  परिवर्तनों के  लिए जिम्मेदार व्यक्तियों, गुटों, वर्गों की शिनाख्त करना भी बेहद जरूरी है। भाजपा की राजनीतिक यात्रा के  अगले पड़ाव यह बताएंगे कि प्रशिक्षण शिविर की चिन्ता के  प्रति संगठन और सरकार दोनों सचमुच कितने सचेत और चिन्तित हैं।

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