जल बिच मीन पियासी

Update:1999-04-18 15:29 IST
यह लोकोक्ति महज एक रूपक नहीं है, इसका यथार्थ देखना है कि वर्तमान में भौतिकवाद की दौड़ पर दृष्टि डाली जानी चाहिए। यह एक ऐसी दौड़ है जिसमें उपलब्धियां क्षण भर में एकदम बौनी हो जाती है। मुट्ठी में आते ही भैतिकवाद की बड़ी से बड़ी चीज अपने एक नये विकल्प के  साथ हमारे सामने खड़ी दिखायी पड़ती है। कुछ पा लेने की अर्थवत्ता भी बहुत कुछ खो देने की निरर्थकता के  सामने एकदम बौनी होती जाती है। इस दौड़ में जाने है। इस दौड में जाने-अनजाने हर कोई दौड़ रहा है। पता नहीं क्यों पराजय की निश्चितता के  बाद भी यह दौड़ अनवरत जारी है। समझ में नहीं आता है कि हम अभावों से घिरे व्यक्तियों के  अभिशाप पर संवेदित हों और / या सुविधाओं से आक्रांत लोगों की महा ऊब पर विलाप करें। क्या यह व्यर्थताबोध की सार्वभौमिक विजय का संके त नित नये पराजय का फलक विकसिक नहीं कर रहा है। आज स्वयं को सुखी कौन कहता हैं किसके  पास संतोष का धन है। कौन संग्रह और त्याग के  विवेक से सम्पन्न है। चारों ओर ‘चाहिए’, और चाहिए, और चाहिए’ का विचित्र कोलाहल है। जो दूसरों का हिस्सा पचा चुके  है। वे तीसरे और चैथे का हिस्सा पचाने का कार्यक्रम बना रहे हैं। इतना ही नहीं, अंशदारी के  इस घोटाले को सामाजिक, राजनीतिक, राजनीतिक समस्या कह कर टालने की गंभीर साजिश भी चल रही है। यदि हम मनोविश्लेषकों पर विश्वास करें तो पायेगें कि यह समस्या मानसिक है और इसके  चलते स्थिति गंभीर है। मनोविश्लेषण तमाम आंकड़ों के  आधार पर यह कह रहे हैं कि सौ साल पहले के  मानव अधिक सहिष्णु, अधिक क्षमाशील अर्थात अधिक मानवीय थे। भौतिकवादी विकास एवं समृद्धि की अवधारणा के  सामने मनोविश्लेषकों के  इस निष्कर्ष को रखकर देखा जाये तो साफ होता है कि विकास की इस अवधारणा में कोई गंभीर खोट है। जिस खोट से आज समाज निर्माण की ओर पहला कदम बाने वाले आदि पुरखों भी दुखी हैं, क्योंकि विकास के  इस समीकरण मेें आदमी और मानवीयता हशिये पर होते जा रहे है। विजय बहादुर सिंह के  शब्दों में इन्हंे ऐसे महसूस किया जा सकाता है-

मुझे ही बनाया गया था दुनिया का मालिक, निकाला गया मुझे ही सबसे पहले।



मेरे लिए ही रची गयी थी दुनिया, मुझे ही खारिज किया गया, सबसे पहले।।



मनोविश्लेषक यह भी कहते हैं कि जाति, वर्ग, भाषा, देश, रंग और सम्प्रदाय के  सवाल को लगातार मनुष्य का रक्त पिलाया जा रहा है। कुछ शातिर व्यक्तियों की निरन्तर कोशिश है, सहज रूप से जीने का सारा सुख समाप्त हो जाय। ‘वे’ जैसे चाहें वैसे हम जिएं। जब हम कहें कि हम तृप्त हैं - वे कहें कि नहीं कि तुम अभी प्यासे हो। हमारे संतृप्ति के  सवाल ‘वे’ हम करें। इन विकट बुद्धिजीवियों का शाश्वत षड़यंत्र हैं कि मनुष्य पशु स्तर पर ही जीता रहे। मशीनी स्तर पर जीता रहे। तभी तो भौतिकवाद में का इतना विस्तार किया जा रहा है कि आदमी हाशिये पर आ जाये। आदमी के  लिए जीवन की उच्च, उदात्त स्थितियों की ओर ताकना भी दुष्कर हो जाये। मनोविश्लेषकों ने एक स्वर से कहा है कि मशीनों का आदमी को ‘रिप्लेस’ करना ठीक नहीं है। उन मशीनों का इजाद भी ठीक नहीं है, जो आदमी होने का दावा ठोंकती हैं - जैसे रोबोट। किसी समाज की मशीनों पर इतनी निर्भरता भी सुखद नहीं है, जितनी कि देखी और पायी जा रही है। सच यह है कि आज पूरा का पूरा समाज अबूझ किन्तु दुर्दमनीय प्यास से छटपटा रहा है जैसे जल के  बीच रहने वाली मडली प्यास से छटपटाती रहती है। यह बात दूसरी है कि  हर व्याक्ति के  प्यास की अपनी परिभाषाएं है, अपने तर्क हैं। परिपेक्ष हैं। मनुष्य गहराई में भ्रमित है कि उसे सुविधाएं ही अंतिम रूप से संतृप्त कर सकती है। वह पता नहीं क्यों भूलता जा रहा है, ‘जब आवे संतोष धन सब धूरि समान’। ‘जरूरत और स्टेट्स’ में अंतर करने की हमारी कला निरन्तर क्षीण हो रही है। हमारे प्रदर्शक अपनी हितचिन्तना के  अनुसार नागरिकों की कामनाएं.. ऐषणाएं उदीप्त कर रहे हैं। व्यक्ति संतु भी होना चाहे तो उपभोक्तावादी को आपत्ति है। व्यक्ति को सुराही श्रेष्ठ भले ही लगे, मगर महगे फ्रिज को ‘जीवन मूल्य’ जैसे बना दिया गया है। आखिर ये जानलेवा प्रतियोगिताए, गलाकाट स्पर्धाएं क्या सिद्ध करना चाहती है? धूम फिर कर एक ही सिद्धान्त का डंका बजाया जा रहा है-‘सर्वाइवल आॅफ द फिटेस्ट’। विकासवाद के  इस सिद्धांत में भी फिटेस्ट को जिन संदर्भो और प्रसंगों से प्रयोग किया गया था, उससे इसे काट दिया गया है। जिन संदर्भ में विकासवाद का यह सिद्धान्त करने की साजिश चल रही हैै उसी का परिणाम है कि नैतिकता धार्मिकता, मानवता, करूणा, दया, ममता, श्रद्धा, बलिदान, उत्सर्ग, उपकार, त्याग जैसे शब्द अपने अर्थ के  लिए तरस रहे हैं। लंबे समय से इनका उन सही संदर्भ में प्रयोग हुआ है जिनका लिए ये बने थे। बने है। आज का समय संक्रन्तिकाल तो है ही। संभ्रन्तिकाल भी है। अनिश्चित मन। अनिश्चित भविष्य। मनुष्य एकदम किंकाव्र्यविमूढ़ है ! उसे क्या पता कि वह जल में है और प्यास-प्यास चिल्ला रही मीन की भांति हास्यास्पद, दयनीय और चिन्तनीय होता जा रहा है। इन स्थितियों में निराला का कथन अपनी अर्थवत्ता में गंभीर हो गया है।

गहन यह अंधकारा, स्वार्थ के  अवगुंठनों से, हुआ है लुठन हमारा।



प्रश्न यह है कि क्या इस अंधकार से उद्धार संभव है। क्या आधुनिक सभ्यता के  अगुवा व्यक्ति आम मनुष्य की छोटी-छोटी अभिलाषाओं का सम्मान सीख पाएंगे? क्या प्रकृति का दोहन लिप्सा के  उपकरणों से यूॅ ही होता रहेगा? समय उत्तर मांग रहा है। प्रकृति तो जननी है उसके  पास सबकी प्यास का समाधान है। हमारी ही बुद्धि उससे युद्ध ठानती रहती है। इस युद्ध पर पुनर्विचार अपेक्षित है। कबीर ने वर्षों पूर्व इन्हीं संभव स्थितियों को उलटवांसी में प्रस्तुत किया था। महाकवि इन्हीं अर्थों में काल का अतिक्रमण करते हैं। महापुरुष भी इन्हीं अर्थों में काल का अतिक्रमण करते हैं। वे इस द्वन्द्व में किनारे खे होकर भौकिकवाद को विजय की ओर जाते हुए चुपचाप देखते रहते हैं। वे वर्तमान की दौड़ के  सामने ठगे से खड़े रहकर भी प्रसन्न रहते हैं। वे इस दौड़ में शामिल नहीं रहते हैं। उनका जीवन इतिहास के  पन्नों में कोई नया अध्याय दर्ज कराने के  लिए चिरन्तन जुटा रहता है। अर्हनिश लगा रहता है। क्योंकि वे ठीक से जानते है कि वर्तमान/भौतिकवाद की इस दौड़ में क्षण-क्षण, वस्तु-वस्तु पराजय निश्चित और निर्धारित है। इस दौड़ में इतने ढेर सारे लोग शरीक भी है कि उन्हें समझाकर पथ मोड़ा नहीं जा सकता है। कबीर ने यूं ही नहीं कहा था -

‘पानी बिच मीन पियासी। मोहे सुन-सुन आवै हांसी’



भौतिकवादी प्यास के  मरुस्थल में भटकते मृगतृष्णाओं से उलझते मानव समूह को इस हंसी से सावधान होना चाहिए। उसे एक दिन इस शब्दों में पुकारना ही होगा-

‘मौला मुझे पानी दे, मैने नहीं मांगा था। चांदी की सुराही को, सोने के  पियालो को।।’



आमीन !

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