जनादेश लीजिए जनाब

Update:1999-04-25 15:47 IST
मात्र एक सप्ताह पूर्व विष्णु भागवत और मोहन गुस्वामी की ओट में, अन्नाद्रमुक नेता जे.जयललिताने तमिलनाडु सरकार की बर्खास्गी और अपने खिलाफ चल रहे मामलों को समाप्त करने की दिशा की ओर सार्थक कदम न उठाए जाने के  विरोध में सरकार से समर्थन वापस लेकर वाजपेयी सरकार के  पतन को मार्ग प्रशस्त कर दिया। तेरह माह पुरानी अटल सरकार को 17 अप्रैल को मात्र एक वोट से विश्वास मत के  दौरान पराजित होना पड़ा। वाजपेयी सरकार गिराने की कमान दस जनपथ में सोनिया गांधी के  हाथों में थी परंतु हरिकिशन सिंह सुरजीत, अर्जुन सिंह एवं सुब्रमण्यम स्वामी दस जनपद के  इशारे पर काम करते रहे। गंभीरता से देखा जाए तो केंद्र सरकार के  पराभाव में बसपा की अस्थिरमना नेता सुश्री मायावती की भूमिका जहां प्रमुख है। वहंीं भाजपा सांसदों की अदूरदर्शिता भी कम जिम्मेदार नहीं है। भाजपा सांसदों की उड़ीसा के  मुख्यमंत्री गिरधर गमांग के  सदन में प्रवेश करते ही जबरदस्त विरोध कर गमांग को सदन से बाहर करने पर अध्यक्ष को विवश करना चाहिए था।
खैर, भाजपा सरकार को गिराने में कांग्रेस ने जो भूमिका निभायी वह पंचमढ़ी सम्मेलन की सोच और संकल्प से मेल नहीं खाती है। पंचमढ़ी में कांग्रेस साझा सरकार के  विरेाध में थी।  अपने इस संकल्प को दरकिनार करते हुए कांग्रेस ने सरकार बनाने के  लिए वह सब किया जो उसे इस संकल्प के  बाद नहीं करना चाहिए था। भाजपा सरकार के  पराभाव के  बाद से संसद और सरकार से महत्वपूर्ण पद हथियाने की फिराक में है। संभावनाओं के  ऐेसे-ऐसे द्वार खोले जा रहे हैं जिसके  मेल-मिलाप क्षण भर के  लिए थी। संदिग्ध है। राजीव गांधी हत्याकांड से संबंधित जैन रिपोर्ट में संदिग्ध सुब्रमण्यम स्वामी कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी मुकदमा चलाने की पैरवी करने वाले स्वामी आज कहते हैं, ‘भागवत मुद्दे से देशहित के  महत्वपूर्ण मामले जुड़े हैं और जयललिता की देशभक्ति उन्हें इस पर समझौता नहीं करने देगी। सोनिया गांधी पर एक वर्ष पूर्व टिप्पणी करते हुए ज्योति बसु ने कहा था कि वे एक गृहणी हैं। कभी राजनीति में नहीं रही। उनकी योग्यता क्या है। आज उसी ज्योति बसु की पूरी पार्टी सोनिया की सरकार को बाहर से समर्थन देने को तैयार है। बहुजन समाज के  हित की बात करते हुए अस्थिरमना मायावती को बहस के  दौरान कांग्रेस और भाजपा सांपनाथ और नागनाथ भले नजर आएं हो परंतु सांपनाथ के  साथ अचानक खड़े हो जाने की विवशता बहुजन समाज को बताने का वह औचित्य नहीं समझती है। संभवतः वह भूल गई कि दो वर्ष पहले उन्होंने भाजपा को क्लीनचिट देते हुए कहा था। मैंने विस्तार से जांच की और पाया कि उस पार्टी में एक भी अपराधी नहीं है। मुलायम सिंह ने तो गैर कांग्रेसवाद की मृत्यु की घोषणा करते हुए कहा कि भाजपा को हराने के  लिए कांग्रेस को आगे आने को आमंत्रित किया था। तमिल मनीला कांग्रेस कहती है कि वह अन्नाद्रमुक वाली सरकार का विरोध करेगी। जद के  रामविलास पासवान तय कर चुके  हैं कि जिस सरकार में लालू रहेंगे वहां वे नहीं रहेंगे। ये तो कुछ ऐसे अंतरविरोध है जिनको रेखांकित किया जाना बेहद जरूरी है। तमाम अंतविर्रोधों के  बाद भी वैकल्पिक विरोध और वैमनस्य की अग्नि में निरंतर जल रहे हमारे सांसद वैकल्पिक सरकार न दे पाने की अपनी असफलता को पिाने के  लिए राष्ट्रीय सरकार की बात एक राजनीतिक विकृति है। यह राष्ट्रीय लूट की सरकार बनाने का षडयंत्र ऐसा है जसमें लूट की जिम्ममेदारी तय कर पाना संभव नहीं होगा। लूट की प्रक्रिया अनवरत जारी रहने की संभावनाएं प्रबल होंगी। राष्ट्रीय सरकार की बात करने वालों को शायद यह नहीं पता है कि सारे लोकतंात्रिक देश में पार्टी व्यवस्था है। पार्टी के  चुनाव चिन्ह, घोषणा पत्र पर चुनाव जीत कर आने वाले सांसदों को राष्ट्रीय सरकार जैसी बेमानी और यूटोपियाई बात करने का अधिकार कहां से मिल जाता है। राष्ट्रीय सरकार का गठन सबसे पहले हिटलर से मुकाबला करने क लिए चर्चिल के  नेतृत्व में लेबर पार्टी, लिबरल पार्टी और कंजरवेटिव पार्टी के  सहयोग से ब्रिटेन में हुआ था। भारत में 1947 में जो सरकार बनी थी वह राष्ट्रीय सरकार नही।वरन राष्ट्रीय प्रतिभा का दुष्परिणाम भुगतने की इन स्थितियों में संविधान विशेषज्ञ राष्ट्रपति को जो चाहे जो सलाह दे परंतु संसदीय लोकतंत्र की जरूरत को देखते हुए मध्यावधि चुनाव की घोषणा के  सिवाय कोई लोकतांत्रिक पथ नजर नहीं आता।
एक ऐसे समय जब दुनिया का सबसे बड़ा लिखित संविधान निरुत्तरित हो जाए तो लोकतंत्र के  मूल लोक के  पास जाने के  सिवाय कोई सार्थक दिशा नहीं दिखती है। भाजपा को अपदस्थ करने, वैकल्पिक सरकार न बना पाने, सदन में अपनी सरकार न बचा पाने के  लिए जिम्ममेदार सांसदों को जनता के  बीच भेजा जाना चाहिए। जब जनता उनसे उनके  किए का हिसाब मांगेगी तब उन्हें पता चलेगा कि वे कहां तक और कितने दोषी हैं। उनके  दोष का दंड तय करने का अधिकार भी अंततः उसी जनता के  पास है और होना चाहिए। जो अपने मतदान से इन नेताओं को लोकतंत्र का गौरव प्रदान करती है। बार-बार चुनाव होने से सफ¢दपोश नेताओं की यह साजिश है कि जितने कम चुनाव होंगे। उतनी ही उनकी जनता के  प्रति जिम्मेदारी कम निर्धारित होगी। उन्हें जनता को कम से कम बार जवाब देना पड़ेगा। जनता उनसे उनके  किए का चुनाव में ही हिसाब-किताब मांगती है। आज संसद को दीर्घजीवी बनाने की प्रक्रिया में जो लोग भी और जैसे भी जुटे हैं। उन्हें यह स्वीकार कर ही लेना चाहिए कि यह महज एक दिवास्वप्न है। दिन में सपने देखना अच्छा नहीं होता है जिन लोगांे ने, जैसे भी अटल सरकार के  पराभाव के  मार्ग प्रशस्त किए हैं। उन्हें संसद को आंकड़ों की बाजीगरी से निकालकर एक ऐसा स्वरूप देना चाहिए जिसमें जनता के  प्रति जवाबदेही की संवेदना हो।

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