रचना और जीवन के बीच

Update:1999-05-23 15:33 IST
अपने एक आलोचनात्मक लेख में डाॅ. परमानंद श्रीवास्तव ने कितना सटीक लिखा है कि साहित्य में बयान पीड़ा बयान करने वाले वस्तुतः कितना कम जानते हैं। पीड़ा के  साधारण सामाजिक तथ्य को वे उस डर को भी कहां जानते हैं जो आज की संस्कृति का मूल स्रोत है। इसी बिन्दु पर रचनाकार समाज की ओर से सामूहिक आत्म साक्षात्कार सा करते हुए कवि रघुवीर सहाय कहते हैं,

                ‘हम उपन्यास में बात मानव की करेंगे/और कभी बता नहीं पायेंगे/



                सूखी टांगें घसीट कर खम्भे के  पास में/आकर बैठे हुए/



                लड़के  सामने पड़े हुए तसले का अर्थ।’



                अर्थ का यह संकट एक सनातन प्रश्न की ओर संके त करता है। प्रश्न है कि रचना और जीवन का संबंध होना चाहिए। रचनाकार अपनी रचनाओं में जिन आदर्शों, सपनों, संघर्षों, परिवर्तनों, क्रांतियों की समावेश करता है। इन सबको अंगीकार करने के  लिए सामान्य जन (अर्थात् पाठक) का आवाह्न करता है। क्या स्वयं रचनाकार जीवन में इन तत्वों को जीता है। जिस रचना को रचते हुए रचनाकार सामाजिक बदलाव की वकालत करता है, प्रक्रिया में क्या वह स्वयं बदलता है। लिखे गये शब्द और जिये जा रहे जीवन में क्या कहीं कोई समानता है। वस्तुतः शब्द और कर्म सैद्धांतिक प्रश्न है। पर उपदेश कुशल बहुतेरे, जे आचरहिं ते नर न घनेरे’ लिखकर तुलसीदास पहले इस संकट को रेखांकित कर चुके  हैं। साहित्य और समाज की समकालीन स्थितियों पर विमर्श करें तो पायेंगे आज रचना और जीवन के  बीच पाखंड के  छोटे-छोटे द्वीप उभर आए हैं। आइये पाखंड के  बहुस्तरीय अस्तित्व का दृष्टिपात करें। साहित्य में देखें तो संवेदनाओं की बाढ़ आयी हुई है। विचारों के  चक्रवात चल रहे हैं। विमर्शों के  ज्वलंत उदाहरण फूट रहे हैं। कहानी के  शिल्प पर आचार्य प्रवचन कर रहे हैं। उपन्यास के  नये रूप को लेकर प्राणायाम चल रहा है। कागज स्याह हो रहा है। पुस्तकालयों की सप्लाई जारी है। कमीशन का खुला खेल फर्रूखाबादी चल रहा है। जिधर देखिए, साहित्य ही साहित्य, संवेदना ही संवेदना। विचार ही विचार। लाली मेरे लाल की, जित देखो तित लाल। समाज के  साहित्य में इतनी संवेदनशीलता है क्या उस समाज के  साहित्यकारों में भी संवेदना के  अवशेष हैं। साहित्य के  विचारों का जो विप्लव है, क्या उसका शतांश भी साहित्यकारों में है। यदि तर्कों और प्रमाणों पर भरोसा करें तो पायंेगे। उत्तर खासे निराशाजनक हैं। साहित्य में क्रांति की वकालत करने वाले जीवन में तस्करों और हत्यारों के  साथ भोजन करते देखे जा रहे हैं। दूर क्यों जाएं इसी शहर के  एक महत्वपूर्ण कवि रचना में जितने सामाजिक हैं, निजी जीवन में उतने ही समाज विरोधी। असामाजिक या अराजक। सामान्य पाठक तो दूर साहित्यकर्मी भी उनसे मिलने का समय नहीं पा सकते। कुछ लोगों को तो उनसे मिलते हुए भय भी लगता है। इस स्थिति को नमो नारायण कहकर नमस्कार न करें तो क्या करें। प्रेम पर कविताएं लिखकर साहित्य के  इतिहास में अपना नाम दर्ज करा लेने। प्रेममय जीवन जीने का दावा करने वाले तमाम लेखकों की प्रेमपूर्ण संवेदनाएं अपनी पत्नी के  लिए पता नहीं क्यों विलुप्त हो जाती हैं। उन्हें प्रेम का रसमय संसार अपने घर में नहीं दिखता। क्या भारतीय जीवन की विसंगतियों को वातानुकूलित कक्षों में रहकर जाना जा सकता है। तुर्रा यह है कि बहस चलती है। पाठक कम हो रहे हैं। अस्वादक सिमट रहे हैं। खरीदकर पढ़ने की आदत नहीं है तो महाशय पाठक आज आपकी शाब्दिक बाजीगरी को ही नहीं आपके  जीवन को भी देख रहे हैं। सूचना के  महातंत्र की संवेदनशील आंखों से आपका कोई भी कर्म/दुष्कर्म छिपा नहीं है। इसलिए पुरस्कार घोषित होने के  साथ-साथ यह बहस भी शुरू हो जाती है कि इस पुरस्कार को पाने के  लिए साहित्य को किन लम्पट नेताओं, पुष्ट दलालों और घोटाला शिरोमणि के  पांव चिकने करने पड़े हैं। स्पष्ट है कि पुरस्कृत रचनाकार के  प्रति पाठकों का भाव खंडित होता है और रचनाकार चीखता है कि यह रचना विरोधी समय है। मुक्तिबोध ने एक बुद्धिजीवी की जीवन शैली पर टिप्पणी करते हुए निष्कर्ष निकाला कि विदेश यात्राओं, पुरस्कारों, सम्मानों फेलोशिप का जुगाड़ ही उनका वर्चस्व है। शायद इसलिए आज कोई आदर्श ढूंढे नहीं मिलता, जिसे देखकर पाठकों का समुदाय उत्साहित हो सके । इसके  विपरीत रचनाकारों का बहुत बड़ा भाग अंधेरे में है और रचनाकार भूतों की शादी में कनात से तन रहे हैं। व्यभिचारी के  बिस्तर बन रहे हैं। जिंदगी के  निष्क्रिय तलघर में जी रहे हैं। स्वार्थों के  तेल में विवेक को बघार रहे हैं।
समाज में आग लगी है। गोलियां चल रही हैं और भारत-भवन के  भूतपूर्व शासता रति मुद्राओं का काव्यात्मक परीक्षण कर रहे हैं। ओ सामाजिक शोकों से निराशक्त शब्द शिल्पी हमें इतना सुंदर साहित्य नहीं चाहिए। हमें इतना सुंदर साहित्य नहीं चाहिए। हमें थोड़ा सार्थक भी चाहिए। यह सार्थकता पाठक तुम्हारे जीवन में भी देखना चाहते हैं। शब्द और कर्म के  बीच गहराता अंतराल अब साफ-साफ दिखने लगा है।
यदि रचनाकार कहे कि जितना कहा उतना जीवन में उतारना संभव नहीं है तो फिर उतना ही कहें कि जितना उनका अपना सच है। सच की सारी सम्भावनाओं को अगवा करने का उपक्रम रचनाकारों को छोड़ना ही होगा। रचनाकार देख सकें तो देखें कि अगणित लोग शब्द शक्यिों को न जानते हुए भी सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया को जारी रखे बिना उपमाओं और उत्प्रेक्षाओं की बारीकियां जाने जीवन सौहार्द को बचाने में सब कुछ होम किये दे रहे हैं। आप नदी पर कविता लिखते हैं। लोग नदी की सेवा कर रहे हैं। आप बच्चों पर कविता में दुलार लुटा रहे हैं। लोग बच्चों की मासूमियत बचाने के  लिए सदी की सबसे बड़ी लड़ाई लड़ रहे हैं। रचनाकार सामाजिक सक्रियता के  किन मोर्चों पर दिख रहे हैं। ये प्रश्न स्वयं रचनाकार अपने से पूछे। जो शब्द कर्म में नहीं ढलता, उसका वंश जीवन में नहीं चलता। कर्म की यह दूरी विलुप्त हुई है। कबीर, तुलसी, निराला, प्रेमचंद और नागार्जुन ने शायद इसीलिए पाठक आज भी इनमें अपना नायक देखता है। साहित्य देवता कभी अन्याय नहीं करता। प्रासंगिक तौर पर किसी को प्रसिद्धि मिल सकती है। किंतु जन मन में बसने के  लिए आचरण की कसौटी पर लिखित शब्द को कसना होता है। निवेदन है कि अगली शताब्दी में यदि साहित्य की सार्थकता अक्षुण्ण रखनी है तो रचनाकारों को अपने विचारों के  साथ दृढ़ता से खड़ा होना होगा। पुस्तकों के  संस्करणों से गदगद होकर अंधेरे कमरों में बंद होकर मयूर नृत्य करने वाले को सांस्कृतिक एकता के  प्रश्न को भी हल करना चाहिए। सांस्कृतिक एकता के  सवाल पर हमारी उदारता साम्यवादियों से भी पार जाकर देशभक्ति, धर्म निरपेक्ष, लोकतांत्रिक या समाजवादी ताकतों तक जानी चाहिए। यह सच है कि राजनैतिक एकता की तुलना में सांस्कृतिक एकता कठिन मामला है। जटिलताएं हैं लेकिन इन जटिलताओं का ज्यादा हिस्सा मनोगत अनावश्यक आशंकाओं निजी कमजोरियों और अतिरिक्त इच्छाओं से भरा होता है। इसका भी सम्यक् विश्लेषण होना चाहिए। वर्तमान की भयावहता का गहरा ऐतिहासिक तनाव भरा इतिहास दसो दिशाओं में भरा हुआ है। क्या हमारे रचनाकार इस अनुभव को सुन पायेंगे। देख पायेंगे। छू पायेंगे। अहम के  खोल से बाहर आकर जीवन में सम्मिलित होने का प्रयास ही शब्द और कर्म के  बीच पनप रहे छझ को भस्म कर सके गा। रचनाकार बस अरूण कमल की इस पंक्ति का अर्थ समझ ले कि सारा लोहा उन लोगों का, अपनी के वल धार, यह भी कि इस धार पर पाठक चले। इससे पूर्व रचनाकार को भी चलकर दिखाना होगा। उसे भी यह तय करना होगा कि ‘पहले जलूंगा, स्वयं प्रदाह में/फिर करूंगा तापमान पर टिप्पणी/पहले झेलूंगा सीने पर प्रभंजन/फिर लिखूंगा वायुमंडल पर निबंध/पहले लड़ूंगा जीवन के  मोर्चों पर/फिर रचूंगा आवाह्न के  गीत।’

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