यह प्रत्येक राष्ट्र की संस्कृति निश्चित करती है कि उसके देशकाल में मान्यताओं की मीमांसा किन मूल्यों के आधार पर की जाएगी। यह अप्रत्याशित नहीं है कि नवीन भोगवाद के मायावी आक्रमण ने भारतीय समाज की सहस्राब्दियों पुरानी धारणाओं को धूल चटा दी है। इसके उदाहरणार्थ के वल एक सामाजिक अवधारणा पर्याप्त है। वह है बड़प्पन की अवधारणा। भारतीय समाज में स्पष्ट रूप से तय था कि कुछ व्यक्ति धनी होते हैं। कुछ लोग बड़े होते हैं। जो निजता में सिमट कर सामाजिक विस्तार से विरहित होते थे। उन पर कबीर जैसे क्रांतिकारी संत कशाघात करते थे-
श्रमिक को छाया और क्षुधति फल न दे सकने वाले ओछे बड़प्पन को भारतीय संस्कृति ने कभी वरेण्य नहीं स्वीकार किया गया। उसी भावना से अभिभावक और गुरू बड़े बनो का सुभाशीष प्रदान करते थे। मुहावरों में गूंजा करता था कि वह बड़े दिल वाला है। धनपति भी स्वीकारते थे कि अमुक बड़ा व्यक्ति है। बड़ा अर्थात् जो स्वार्थों का परमार्थ के चरणों पर बलिदान कर चुका है। जिसके निज में संपूर्ण समाज समाहित होता हो। जो दूसरों के कष्ट में भाविगलित हो जाता हो, जिसे पड़ोसी के होठों पर तिरती सुख की तरल तरंग आनंदित करती हो, जो अपना सारा प्रभाव सामाजिक अभाव को निर्मूल करने में होम कर देता हो। क्या आज बड़े मनुष्य की यही अवधारणा जीवित है। वास्तविकता साक्ष्य देती है कि बौने युग में बड़प्पन की सोच भी बौनी हो गयी है।
इसका सर्वाधिक प्रखर एवं प्रत्यक्ष प्रभाव राजनीति में देखा जा सकता है। तुच्छ से तुच्छ निहित स्वार्थों के लिए जनहितकारी परियोजनाओं को फाइलों में आजीवन कारावास दे दिया जाता है। प्रायः समस्त दल अपना वोट बैंक मजबूत करने के लिए शासकीय योजनाएं बनाते हैं। संयोग से अथवा सौभाग्य से कोई प्रधानमंत्री दिलों को जोड़ने की कोई कोशिश करता है तो उसके मार्ग में अवरोधों के हिमालय खड़े कर दिये जाते हैं। स्थिति यह है कि संपूर्ण समाज को अपना कहने वाला राजनीतिक दल दुर्लभ है। क्या हमें दूसरा लाल बहादुर शास्त्री फिर नहीं मिलेगा। छोटे कद का वह बिरल बड़प्पन कहां चला गया।
यह संक्रामक व्याधि हमारी सोच में पहुंच गयी है। अपरिचित व्यक्ति के अच्छे कार्यों की हम भले ही गाहे-बगाहे प्रशंसा कर दें किन्तु परिचित की उपलब्धियों पर हमें मंुह से औपचारिक वाक्य फूट पडे़ कम संभव है। किंतु सराहना का बड़प्पन दूर-दूर तक नहीं दिखता। पहले क्षेत्र में किसी को जनपदीय, प्रादेशिक अथवा राष्ट्रीय उपलब्धि होती थी तो पूरा क्षेत्र उस पर गर्व करता था। अपवाद उस समय भी रहे होंगे किन्तु बहुलांश गहरी आत्मीयता से भर उठते थे। आज यह भावना भू-लुंठित है। दूसरी ओर यह भी सच है कि क्षेत्र से निकल कर प्रभावी पदों पर पहुंचे व्यक्ति भी अपने गांव, गेरांव के सुख-दुख के सहभागी बनते थे। कहां निर्वासित हो गयी वह समादारणीय सामाजिक सहभागिता। हृदय से उठता सराहना का उर्जस्वित सिन्धु सहसा डाह के प्रान्तों को सींचने लगा है। सचमुच दूसरों को स्वीकारने के लिए एक विराटता चाहिए, एक बड़ा व्यक्तित्व चाहिए।
क्या कारण है कि त्याग की महिमा से भरा देश अचानक संग्रह को जीवन का आधार घोषित कर रहा है। कारण छिपे हैं सांस्कृतिक अपरिचय में। अपनी जड़ों से कटकर सिवाय सूख जाने के और क्या हो सकता है। जीवन में नपुंसक सहिष्णुता समा जाती है तो संकल्प के सरोवर सूख जाते हैं। क्षुद्र से सहमत होते-होते हम विराट का सपना देखते ही सिहर जाते हैं। देवदारू की छाया से भय उन्हें लगता है जो कुकुरमुत्ता को सबसे बड़ा पादप मानते हैं। आज बड़ी चुनौतियां नहीं हैं जो समाज ओछे संघर्षों में उलझा है। दुर्भाग्य से स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अधिकांश समय परस्पर नीचा दिखाने में व्यतीत हुआ है। इसलिए मानवीय सदासयता भी संकुचित है। क्या यह चिन्ता का विषय नहीं होना चाहिए।
इस विकासशील अथवा विदेशी ऋण से त्रस्त राष्ट्र में किसी एक व्यक्ति को सुशिक्षित करने एवं सुयोग्य बनाने में कितनी राष्ट्रीय सम्पत्ति व्यय होती है, होना तो यह चाहिए कि प्रत्येक व्यक्ति स्वयं को एक निश्चित अंश में राष्ट्रीय सेवार्थ समर्पित करे। किन्तु ऐसा नहीं होता। सारे सुयोग्य स्वार्थों की अंधी दौड़ में भागने लगते हैं। क्या हम वियतनाम और चीन से कुछ शिक्षा प्राप्त करेंगे। इस समस्या के पीछे छिपी है एक ग्रंथि जो व्यक्ति को राष्ट्र से बड़ा मानती है, जो धन को ज्ञान पर वरीयता प्रदान करती है। जो सत्ता को सत्य के शीर्ष पर बैठाती है। इस ग्रंथि से पीड़ित व्यक्ति कुछ भी प्राप्त कर ले, वे हीन मानसिकता का अतिक्रमण नहीं कर सकते। हीनता से दीनता जन्मती है और दीनता से हर प्रकार की दरिद्रता। देख सके तो देखें कि आर्थिक भावनात्मक वैचारिक रूप से हम कितने दरिद्र हो चुके हैं। इस दारूण दरिद्रता से उबरने के लिए कुछ बड़े प्रयास आक्षेपित हैं।
बड़े प्रयासों को परिभाषित कौन करेगा। बड़प्पन के मलिन हो रहे संदर्भों को तेजोदीप्त कौन करेगा। जीवन मूल्यों के विपथन को उचित मार्ग पर कौन आगे बढ़ाएगा। यह सब वही करेगा, जिसकी आंखों में भास्वर भविष्य की सुनिश्चित रूपरेखा होगी। जो महाप्राण निराला की मंगलकामना को अपनी प्रभाति और संध्यार्चना बन सके गा-
आवश्यक है कि समाज मंे फिर से गांधी की गरिमा के पुष्प खिलंे। बोधिसत्व की शिक्षाओं के निर्झर बहे स्मरणीय है कि राजकुमार सिद्धार्थ से बड़ा बनने के लिए एक तपस्वी को बुद्धत्व प्राप्त करना पड़ा था। ऐसे बुद्धत्व से ही व्यक्ति विराट का साक्षी बनता है। ऐसा साक्षी भाव ही कण-कण में परम चेतना को अनुभव करने की आंतरिक शक्ति प्रदान करता है। पदार्थवाद के तुमुल संघर्ष में यदि भारतीय संस्कृति का सर्वोत्तम बचाना है तो खजूर की ऊंचाई को हाशिए पर डालना होगा। ऐसे वृक्ष विकसित करने होंगे जो छाया भी दें और फल भी। जो औरों के लिए ताप झेल सकें और फलित हो सकें। ऐसे मनुष्य ही बड़े होते हैं। स्वार्थों की अंध गुफा में तो कोई भी बड़ा होने का निशाचरी भ्रम पाल सकता है। स्मरणीय है कि बड़प्पन की एक मात्र कसौटी है जनहित। क्या हमारे समय में जीवित नागरिक इस कसौटी पर परीक्षा देने के लिए तैयार हैं।
‘बड़ा भया तो का भया, जैसे पेड़ खजूर। पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर।’
श्रमिक को छाया और क्षुधति फल न दे सकने वाले ओछे बड़प्पन को भारतीय संस्कृति ने कभी वरेण्य नहीं स्वीकार किया गया। उसी भावना से अभिभावक और गुरू बड़े बनो का सुभाशीष प्रदान करते थे। मुहावरों में गूंजा करता था कि वह बड़े दिल वाला है। धनपति भी स्वीकारते थे कि अमुक बड़ा व्यक्ति है। बड़ा अर्थात् जो स्वार्थों का परमार्थ के चरणों पर बलिदान कर चुका है। जिसके निज में संपूर्ण समाज समाहित होता हो। जो दूसरों के कष्ट में भाविगलित हो जाता हो, जिसे पड़ोसी के होठों पर तिरती सुख की तरल तरंग आनंदित करती हो, जो अपना सारा प्रभाव सामाजिक अभाव को निर्मूल करने में होम कर देता हो। क्या आज बड़े मनुष्य की यही अवधारणा जीवित है। वास्तविकता साक्ष्य देती है कि बौने युग में बड़प्पन की सोच भी बौनी हो गयी है।
इसका सर्वाधिक प्रखर एवं प्रत्यक्ष प्रभाव राजनीति में देखा जा सकता है। तुच्छ से तुच्छ निहित स्वार्थों के लिए जनहितकारी परियोजनाओं को फाइलों में आजीवन कारावास दे दिया जाता है। प्रायः समस्त दल अपना वोट बैंक मजबूत करने के लिए शासकीय योजनाएं बनाते हैं। संयोग से अथवा सौभाग्य से कोई प्रधानमंत्री दिलों को जोड़ने की कोई कोशिश करता है तो उसके मार्ग में अवरोधों के हिमालय खड़े कर दिये जाते हैं। स्थिति यह है कि संपूर्ण समाज को अपना कहने वाला राजनीतिक दल दुर्लभ है। क्या हमें दूसरा लाल बहादुर शास्त्री फिर नहीं मिलेगा। छोटे कद का वह बिरल बड़प्पन कहां चला गया।
यह संक्रामक व्याधि हमारी सोच में पहुंच गयी है। अपरिचित व्यक्ति के अच्छे कार्यों की हम भले ही गाहे-बगाहे प्रशंसा कर दें किन्तु परिचित की उपलब्धियों पर हमें मंुह से औपचारिक वाक्य फूट पडे़ कम संभव है। किंतु सराहना का बड़प्पन दूर-दूर तक नहीं दिखता। पहले क्षेत्र में किसी को जनपदीय, प्रादेशिक अथवा राष्ट्रीय उपलब्धि होती थी तो पूरा क्षेत्र उस पर गर्व करता था। अपवाद उस समय भी रहे होंगे किन्तु बहुलांश गहरी आत्मीयता से भर उठते थे। आज यह भावना भू-लुंठित है। दूसरी ओर यह भी सच है कि क्षेत्र से निकल कर प्रभावी पदों पर पहुंचे व्यक्ति भी अपने गांव, गेरांव के सुख-दुख के सहभागी बनते थे। कहां निर्वासित हो गयी वह समादारणीय सामाजिक सहभागिता। हृदय से उठता सराहना का उर्जस्वित सिन्धु सहसा डाह के प्रान्तों को सींचने लगा है। सचमुच दूसरों को स्वीकारने के लिए एक विराटता चाहिए, एक बड़ा व्यक्तित्व चाहिए।
क्या कारण है कि त्याग की महिमा से भरा देश अचानक संग्रह को जीवन का आधार घोषित कर रहा है। कारण छिपे हैं सांस्कृतिक अपरिचय में। अपनी जड़ों से कटकर सिवाय सूख जाने के और क्या हो सकता है। जीवन में नपुंसक सहिष्णुता समा जाती है तो संकल्प के सरोवर सूख जाते हैं। क्षुद्र से सहमत होते-होते हम विराट का सपना देखते ही सिहर जाते हैं। देवदारू की छाया से भय उन्हें लगता है जो कुकुरमुत्ता को सबसे बड़ा पादप मानते हैं। आज बड़ी चुनौतियां नहीं हैं जो समाज ओछे संघर्षों में उलझा है। दुर्भाग्य से स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अधिकांश समय परस्पर नीचा दिखाने में व्यतीत हुआ है। इसलिए मानवीय सदासयता भी संकुचित है। क्या यह चिन्ता का विषय नहीं होना चाहिए।
इस विकासशील अथवा विदेशी ऋण से त्रस्त राष्ट्र में किसी एक व्यक्ति को सुशिक्षित करने एवं सुयोग्य बनाने में कितनी राष्ट्रीय सम्पत्ति व्यय होती है, होना तो यह चाहिए कि प्रत्येक व्यक्ति स्वयं को एक निश्चित अंश में राष्ट्रीय सेवार्थ समर्पित करे। किन्तु ऐसा नहीं होता। सारे सुयोग्य स्वार्थों की अंधी दौड़ में भागने लगते हैं। क्या हम वियतनाम और चीन से कुछ शिक्षा प्राप्त करेंगे। इस समस्या के पीछे छिपी है एक ग्रंथि जो व्यक्ति को राष्ट्र से बड़ा मानती है, जो धन को ज्ञान पर वरीयता प्रदान करती है। जो सत्ता को सत्य के शीर्ष पर बैठाती है। इस ग्रंथि से पीड़ित व्यक्ति कुछ भी प्राप्त कर ले, वे हीन मानसिकता का अतिक्रमण नहीं कर सकते। हीनता से दीनता जन्मती है और दीनता से हर प्रकार की दरिद्रता। देख सके तो देखें कि आर्थिक भावनात्मक वैचारिक रूप से हम कितने दरिद्र हो चुके हैं। इस दारूण दरिद्रता से उबरने के लिए कुछ बड़े प्रयास आक्षेपित हैं।
बड़े प्रयासों को परिभाषित कौन करेगा। बड़प्पन के मलिन हो रहे संदर्भों को तेजोदीप्त कौन करेगा। जीवन मूल्यों के विपथन को उचित मार्ग पर कौन आगे बढ़ाएगा। यह सब वही करेगा, जिसकी आंखों में भास्वर भविष्य की सुनिश्चित रूपरेखा होगी। जो महाप्राण निराला की मंगलकामना को अपनी प्रभाति और संध्यार्चना बन सके गा-
‘नव गति नव लय ताल छंद नव, नवल कंठ नव जलद मंद्र रव
नव नभ के नव विह्ग वृंद को, नव पर नव स्वर दे।’
आवश्यक है कि समाज मंे फिर से गांधी की गरिमा के पुष्प खिलंे। बोधिसत्व की शिक्षाओं के निर्झर बहे स्मरणीय है कि राजकुमार सिद्धार्थ से बड़ा बनने के लिए एक तपस्वी को बुद्धत्व प्राप्त करना पड़ा था। ऐसे बुद्धत्व से ही व्यक्ति विराट का साक्षी बनता है। ऐसा साक्षी भाव ही कण-कण में परम चेतना को अनुभव करने की आंतरिक शक्ति प्रदान करता है। पदार्थवाद के तुमुल संघर्ष में यदि भारतीय संस्कृति का सर्वोत्तम बचाना है तो खजूर की ऊंचाई को हाशिए पर डालना होगा। ऐसे वृक्ष विकसित करने होंगे जो छाया भी दें और फल भी। जो औरों के लिए ताप झेल सकें और फलित हो सकें। ऐसे मनुष्य ही बड़े होते हैं। स्वार्थों की अंध गुफा में तो कोई भी बड़ा होने का निशाचरी भ्रम पाल सकता है। स्मरणीय है कि बड़प्पन की एक मात्र कसौटी है जनहित। क्या हमारे समय में जीवित नागरिक इस कसौटी पर परीक्षा देने के लिए तैयार हैं।