अचानक मैं तहजीब के शहर लखनऊ के हृदय से होकर निकलने वाली गोमती के पास खड़ा था। मन ने कहा, अंजुरी भर जल लेकर आचमन कर लूं। हाथ लगे तो बढ़े किंतु अंजुरी ने जल ग्रहण करने से मना कर दिया। गोमती में लगभग ठहरा जल व्याधिग्रस्त संस्कृति की भांति दूर तक पसरा था। अब मेरी अंजुरी में नहीं मेरी आंखों में जल था। अंतस में जाने क्या-क्या कौंध गया। क्या यह वही पुण्यतोया है जिसे वनगमन के प्रथम चरण में आचारण पुरुष श्रीराम ने सीता और लक्ष्मण के साथ पार किया था।
(दीर्घकाल तक चलकर उन्होंने समुद्र गामिनी गोमती नदी को पार किया तो शीतल जल का स्रोत बहाती थी। उसके कार में बहुत सी गाएं विचरती थीं।)
क्या यह वही गोमती है ? नहीं, यह उस युग की नदी है जिसमें कुमति की समांतर त्रासदी प्रवाहित होती है। गोमती ही क्यों भारत की समस्त नदियां औद्योगिक सभ्यता की अनिवार्य आपदाओं को वक्ष पर लिए संभवतः अंतिम यात्रा की तैयारी कर रही है। नदी तो प्रतीक रही है भारतीय संस्कृति की। संस्कृति जो सजल है। निरंतर है। अबाध है। तरंगित है। जीवन भी एक नदी है। यह नदी मीनार उठाती मीनार होती, अथक प्रवाहित होती है। धूप में झिलमिलाती है छांव में गुनगुनाती है। यह नदी हर शताब्दी के कान में गूढ़ रहस्यों के अर्थ उद्घाटित करती है। जहां यह मुड़ती है। संस्कृतियों के टर्निंग प्वाइंट प्रारूपित होते हैं। विश्व कवि रवींद्र नाथ ठाकुर ने जातीय जीवन प्रवाह को नदी से तौला था। जिसका प्रवाह रुके तो जड़ता, भीरुता और नाश के लक्षण प्रकट होते हैं।
ऐसा तो नहीं नदियों के प्रदूषण से हमारे आसन्न भविष्य में संकट के बादल घुमड़़ रहे हों। वस्तुतः ऐसा ही है। गंगा, यमुना, नर्मदा, क्या क¢वल जल धाराएं हैं। गंगं गच्छति गंगा भगीरथ के तप का प्रवाह है। अमृत स्त्रोतवासिनी है। भीष्म की जननी है। पूरे भारत की मैया है। यमुना की हर लहर लीला पुषोत्तम की वंशी धुन से आंदोलित है। इसके तट पर ब्रम्हांड और जीवात्माओं का महारास घटित हुआ है। इसमें धुलता रहा है कृष्ण का महाराग, इसमें मिलते रहे हैं। राधा के प्रेमाश्रु। नर्मदा। चिरकौमार्य का अपूर्व बिंब। प्रलय प्रभाव से मुक्त और अयोनिजा। इसके नाम पर एक पुराण ही है। इतनी पावन, इतनी मनभावन और सरयू इसकी धारा में तो धरती का सर्वाधिक मर्यादित अवतार नहाया है। समाया है। राम की प्रिय सरयू। मन फिर भटकता है कि इस गौरवगाथा से क्या लाभ। आज इन जलधाराओं की क्या स्थिति है।
नर्मदा को कभी देखा है आपने। उद्गम कुंड ही मलिन है। बरमान घाट से होशंगाबाद तक तैरती लाशें दिखती हैं। मंडला, जबलपुर, होशंगाबाद आदि बड़े नगरों से न जाने कितना कूड़ा इस नदी में उड़ेला जाता है। अमर कंटक के प्राकृतिक वैभव पर भी कष्ट की स्थितियां हैं। नर्मदा प्रदूषण से कराह रही है। गंगा, यमुना, सरयू और गोमती के पुनुरद्धार हेतु कितनी सरकारी योजनाएं बनीं और मिटीं। राष्ट्रीय संपत्ति की नदी बहायी गई जिसमें अवसरवादी खूब नहाए। नदी गंगा के सुर में सुर मिलाकर कहती रही- राम तेरी गंगा मेली हो गई पापियों के पाप धोते-धोते।
नदी के पास मानव जाति की क्या, प्रकृति की एक-एक क्रिया का लेखा-जोखा है। संस्कृतियों ने नदियों के तट ही चुने फलने-फूलने के लिए। आश्रम संस्कृति की सार्थकता एवं रमणीयता नहीं विकसित हुई। ऐसा अभिमत है कि नदी की प्रत्येक लहर के साथ लोकमानस का इतना गहरा तादात्मय स्थापित हो गया कि जीवन के हर पग पर जल और नदी की संस्कृति ने भारतीयता को परिभाषित कर दिया। छोटे से छोटे और बड़े से बड़े धार्मिक अनुष्ठान के अवसर पर घर बैठे पवित्र नदियों का स्मरण यही कहता है।
यह स्मरण संभवतः आज हमें पवित्र न कर सक¢गा। अज्ञेय ने ऐसे ही एक प्रसंग में चेतना का विवेचन किया था। उनके अनुसार आज यह दिखने लगा है कि भू-स्वर्ग बनाने की हमारी विधियों ने सार्वभौम नरक को तो नहीं तो अनेक नरकवत् प्रदेशों की रचना में योग दिया है। आज हम अपनी नैतिकताओं की पुनः परीक्षा को बाध्य हैं। क्या इस परीक्षा से गुजरकर हम अपने पापों का प्रायश्चित करेंगे। क्या छवि क¢दारनाथ अग्रवाल के अनुभव को आत्मसात कर सकेंगे -
नदी से प्यार करना ही होगा। भारत की धरती को अपने वक्षामृत से जीवन देने वाली नदियों को प्रदूषण मुक्त करना ही होगा। इसके लिए सरकारी प्रयास नितांत अपर्याप्त है। आवश्यकता है वृहत जनजागरण की। कुछ नयी चेतना जगी तो है जो नदियों को गटर में बदलने से रोकना चाहती है। उम्मीद है कि इस चेतना को आसेतु हिमालय प्रबल समर्थन प्राप्त होगा।
समय की पुकार है कि निरंतर निरीह होती नदियांे को नए प्राण दिए जाएं। हमें इस लोकोक्ति को भी निर्मूल सिद्ध करना होगा जो कहती है कि नगर के मध्य से निकलने वाली नदी और नगर के चैक में रहने वाली स्त्री नष्ट हो जाती है। नदी ने संास्कृतियों को जीवन दिया है ...। आज वही नदी हमसे प्राणों की भिक्षा मांग रही है। सचमुच हम कितने नीच और कृतघ्न युग में सांस ले रहे हैं। दल संस्कृति पर प्रदूषण के साथ कितने संकट मंरा रहे हैं। मेधा पाटकर एक ऐसे ही संकट का सामना कर रही हैं। संत के विरुद्ध एक लंबी लड़ाई का उदाहरण है मेधा। नदी और मेधा को समवेत याद करते हुए कवि एकांत श्रीवास्तव ने कितना सटीक कहा है -
वह गंगा हो या नर्मदा। गोमती हो या यमुना-सभी को सहस्त्रों मेधा पाटकर चाहिए। नदी जन समुदाय को पुकार रही है। क्या हम तक पानी की पुकार पहुंच रही है।
गत्वा तु सुचिरं कालं ततः शीतवहां नदीम्।
गोमती गोयुतानूपामतरत सांगरगमाम्।
(दीर्घकाल तक चलकर उन्होंने समुद्र गामिनी गोमती नदी को पार किया तो शीतल जल का स्रोत बहाती थी। उसके कार में बहुत सी गाएं विचरती थीं।)
क्या यह वही गोमती है ? नहीं, यह उस युग की नदी है जिसमें कुमति की समांतर त्रासदी प्रवाहित होती है। गोमती ही क्यों भारत की समस्त नदियां औद्योगिक सभ्यता की अनिवार्य आपदाओं को वक्ष पर लिए संभवतः अंतिम यात्रा की तैयारी कर रही है। नदी तो प्रतीक रही है भारतीय संस्कृति की। संस्कृति जो सजल है। निरंतर है। अबाध है। तरंगित है। जीवन भी एक नदी है। यह नदी मीनार उठाती मीनार होती, अथक प्रवाहित होती है। धूप में झिलमिलाती है छांव में गुनगुनाती है। यह नदी हर शताब्दी के कान में गूढ़ रहस्यों के अर्थ उद्घाटित करती है। जहां यह मुड़ती है। संस्कृतियों के टर्निंग प्वाइंट प्रारूपित होते हैं। विश्व कवि रवींद्र नाथ ठाकुर ने जातीय जीवन प्रवाह को नदी से तौला था। जिसका प्रवाह रुके तो जड़ता, भीरुता और नाश के लक्षण प्रकट होते हैं।
जे नदी हाराये स्रोत चलिते ना पारे।
जे जात जीवन हारा अचल असार।।
ऐसा तो नहीं नदियों के प्रदूषण से हमारे आसन्न भविष्य में संकट के बादल घुमड़़ रहे हों। वस्तुतः ऐसा ही है। गंगा, यमुना, नर्मदा, क्या क¢वल जल धाराएं हैं। गंगं गच्छति गंगा भगीरथ के तप का प्रवाह है। अमृत स्त्रोतवासिनी है। भीष्म की जननी है। पूरे भारत की मैया है। यमुना की हर लहर लीला पुषोत्तम की वंशी धुन से आंदोलित है। इसके तट पर ब्रम्हांड और जीवात्माओं का महारास घटित हुआ है। इसमें धुलता रहा है कृष्ण का महाराग, इसमें मिलते रहे हैं। राधा के प्रेमाश्रु। नर्मदा। चिरकौमार्य का अपूर्व बिंब। प्रलय प्रभाव से मुक्त और अयोनिजा। इसके नाम पर एक पुराण ही है। इतनी पावन, इतनी मनभावन और सरयू इसकी धारा में तो धरती का सर्वाधिक मर्यादित अवतार नहाया है। समाया है। राम की प्रिय सरयू। मन फिर भटकता है कि इस गौरवगाथा से क्या लाभ। आज इन जलधाराओं की क्या स्थिति है।
नर्मदा को कभी देखा है आपने। उद्गम कुंड ही मलिन है। बरमान घाट से होशंगाबाद तक तैरती लाशें दिखती हैं। मंडला, जबलपुर, होशंगाबाद आदि बड़े नगरों से न जाने कितना कूड़ा इस नदी में उड़ेला जाता है। अमर कंटक के प्राकृतिक वैभव पर भी कष्ट की स्थितियां हैं। नर्मदा प्रदूषण से कराह रही है। गंगा, यमुना, सरयू और गोमती के पुनुरद्धार हेतु कितनी सरकारी योजनाएं बनीं और मिटीं। राष्ट्रीय संपत्ति की नदी बहायी गई जिसमें अवसरवादी खूब नहाए। नदी गंगा के सुर में सुर मिलाकर कहती रही- राम तेरी गंगा मेली हो गई पापियों के पाप धोते-धोते।
नदी के पास मानव जाति की क्या, प्रकृति की एक-एक क्रिया का लेखा-जोखा है। संस्कृतियों ने नदियों के तट ही चुने फलने-फूलने के लिए। आश्रम संस्कृति की सार्थकता एवं रमणीयता नहीं विकसित हुई। ऐसा अभिमत है कि नदी की प्रत्येक लहर के साथ लोकमानस का इतना गहरा तादात्मय स्थापित हो गया कि जीवन के हर पग पर जल और नदी की संस्कृति ने भारतीयता को परिभाषित कर दिया। छोटे से छोटे और बड़े से बड़े धार्मिक अनुष्ठान के अवसर पर घर बैठे पवित्र नदियों का स्मरण यही कहता है।
गंगे च यमुने चैव गोदारी सरस्वती।
नर्मदे सिंधु कावेरी जलेस्मिन् सन्निधं कुरू।।
यह स्मरण संभवतः आज हमें पवित्र न कर सक¢गा। अज्ञेय ने ऐसे ही एक प्रसंग में चेतना का विवेचन किया था। उनके अनुसार आज यह दिखने लगा है कि भू-स्वर्ग बनाने की हमारी विधियों ने सार्वभौम नरक को तो नहीं तो अनेक नरकवत् प्रदेशों की रचना में योग दिया है। आज हम अपनी नैतिकताओं की पुनः परीक्षा को बाध्य हैं। क्या इस परीक्षा से गुजरकर हम अपने पापों का प्रायश्चित करेंगे। क्या छवि क¢दारनाथ अग्रवाल के अनुभव को आत्मसात कर सकेंगे -
वह चिड़िया जो चोंच मारकर
चढ़ी नदी का दिल टटोलकर
जल का मोती ले जाती है
वह छोटी गरबीली चिड़िया
नीले पंखों वाली मैं हूं
मुझे नदी से बहुत प्यार है।।
नदी से प्यार करना ही होगा। भारत की धरती को अपने वक्षामृत से जीवन देने वाली नदियों को प्रदूषण मुक्त करना ही होगा। इसके लिए सरकारी प्रयास नितांत अपर्याप्त है। आवश्यकता है वृहत जनजागरण की। कुछ नयी चेतना जगी तो है जो नदियों को गटर में बदलने से रोकना चाहती है। उम्मीद है कि इस चेतना को आसेतु हिमालय प्रबल समर्थन प्राप्त होगा।
समय की पुकार है कि निरंतर निरीह होती नदियांे को नए प्राण दिए जाएं। हमें इस लोकोक्ति को भी निर्मूल सिद्ध करना होगा जो कहती है कि नगर के मध्य से निकलने वाली नदी और नगर के चैक में रहने वाली स्त्री नष्ट हो जाती है। नदी ने संास्कृतियों को जीवन दिया है ...। आज वही नदी हमसे प्राणों की भिक्षा मांग रही है। सचमुच हम कितने नीच और कृतघ्न युग में सांस ले रहे हैं। दल संस्कृति पर प्रदूषण के साथ कितने संकट मंरा रहे हैं। मेधा पाटकर एक ऐसे ही संकट का सामना कर रही हैं। संत के विरुद्ध एक लंबी लड़ाई का उदाहरण है मेधा। नदी और मेधा को समवेत याद करते हुए कवि एकांत श्रीवास्तव ने कितना सटीक कहा है -
वह नर्मदा की आंख है
जल से भरी हुई
जहां अनेक किश्तियां
डूबने से बची हुई है
सत्ता के सीने पर तीन हुई बंदूक है
धरती की मांग का
दिप-दिप सिंदूर है मेधा पाटकर।
वह गंगा हो या नर्मदा। गोमती हो या यमुना-सभी को सहस्त्रों मेधा पाटकर चाहिए। नदी जन समुदाय को पुकार रही है। क्या हम तक पानी की पुकार पहुंच रही है।