‘शहीद’ मात्र एक शब्द नहीं है। शहीद एक दिवंगत व्यक्ति का सामान्य सम्बोधन नहीं है। शहीद कोई सामान्य घटना नहीं है। शहीद उनकी आत्पंतिक उपलब्धि है जो देश से भावात्मक सम्बन्ध जोते हैं जो इसे ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’ कहकर स्मरण करते हैं जो प्रण लेते हैं निस्सीम आकाश की पवित्र मर्यादाओं को अक्षुण्ण रखने का, जो वचन लेते हैं कि गंगा-यमुना गोदावरी-नर्मदा की जलधार में तलवार नहीं धोयी जायेगी, जो मनसा, वाचा, कर्मणा समर्पित हो जाते हैं, राष्ट्र सम्मान के लिए। जो कहते हैं -
मानी मन मानता नहीं है मुझे रोको मत,
मातृभूमि मानी बिन मानी रह जायेगी।
धीरता की धाक बंध जाएगी विरोधियों में,
वीरता की विश्व में कहानी रह जाएगी।
ज्ञातव्य है कि सामान्य नागरिक और सैनिक में बुनियादी अंतर है। हम जीते रहते हैं, ताकि मर सकें, वे मर जाते हैं ताकि एक कीर्तिमय जीवन प्रारम्भ हो सके । जीवन का सच्च उद्देश्य तो वीरों ने ही जाना है। वस्तुतः एक सैनिक भावयात्रा करता है। इस भावयात्रा में उसके साथी होते हैं - दिव्य विचार, संकल्प संयुत सुभाषित। वह नगपति का स्मरण करता है जो जननी का हिमकिरीट है और पौरुष का पंजीकृत ज्वाल है। सैनिक पुनः-पुनः प्रश्न करता है -
त्ुझको या तेरे नदीश गिरि वन को नमन करूँ मैं
किसको नमन करूँ मैं भारत ! किसको नमन करूँ मैं।
यदि सुदूर अतीत के स्वर्णिम पृष्टों को न भी पलटें तो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के बलिदानों के अद्वितीय उदाहरण हमें प्राप्त होते हैं। क्या चन्द्रशेखर आजाद, सरदार भगत सिंह, बिस्मिल, सुखदेव इत्यादि की शहादतें हम भुला सकते हैं ? इन्हीं के लिए कवि बंशीधर शुक्ल ने कहा था -
सर बांधे कफनवा हो, शहीदों की टोली निकली।
उस समय पूरा राष्ट्र एक संकल्प में आबद्ध था। फलतः राष्ट्र के कोने-कोने से वीरता का गर्जन सुनायी देता था। प्रेम धवन का एक गीत इसकी गवाही देता है -
कोई पंजाब से कोई महाराष्ट्र से
कोई यूपी से कोई बंगाल से
तेरी पूजा की थाली में लाये हैं हम
फूल हर रंग के आज हर डाल से।
और फूल क्या चाहता है, इसे स्वर दिया था माखन लाल चतुर्वेदी ने। उन्होंने ‘पुष्प की अभिलाषा में’ लिखा कि -
चाह नहीं मैं सुरबाला के गहनों में गंूथा जाऊं
चाह नहीं मैं देवों के सिर पर चढूं भाग्य पर इतराऊं
मुझे तोड़ लेना वन माली उस पथ पर देना तुम फेंक
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने जिस पथ जावें वीर अनेक
अर्थात् क्या मनुष्य, क्या प्रकृति सभी बलिदान की चरण आकांक्षा से परिपूर्ण थे। इसी आकांक्षा ने जो महास्वप्न देखें उनके फलस्वरूप राष्ट्र ने स्वतंत्रता का पुण्य प्रभात देखा। यह और बात है कि राजनेताओं ने शहीदों की भावनाओं का अपमान करते हुए दो राष्ट्र के सिद्धान्त को स्वीकारा, हिन्दुस्तान से पाकिस्तान निकला और विभाजन की त्रासदी ने बलिदानी गीतों को आहत किया।
स्वतंत्र भारत में भारतीय सेनाओं ने कितनी बार देश की सीमाओं पर और देश के भीतर अपने सर्वोत्तम योगदान को प्रमाणित किया। चाहे पाकिस्तान हो या चीन, भारतीय सैनिकों ने हमारे शत्रुओं के दांत खट्टे किये। यहां पर फिर राजनीतिक समझदारों की कमी आडंे आयी और कई बिन्दुओं पर सैनिकों का मनोबल टूटा। फिर भी सैनिक कैफी आजमी के स्वर में स्वर मिलाते रहे-
‘नब्ज जमती गयी सांस थमती गयी
फिर भी बढ़ते कदम को न रुकने दिया।
कट गये सिर हमारे तो कुछ गम नहीं,
सर हिमालय का हमने न झुकने दिया।
मरते-मरते रहा बांकपन साथियों।’
आज यही बांकपन कारगिल और अन्य सीमावर्ती स्थानों पर चमक रहा है। जब किसी सैनिक के शहीद होने का समाचार मिलता है तो मन दुख और गर्व से भर उठता है। दुख इसलिए कि कब तक पुत्र की अग्नि में जवानियों की आहुति दी जाती रहेगी। क्या स्वार्थ के समर कभी शान्त न होंगे।
गर्व इसलिए कि जीवन का सर्वोच्च उपयोग है यह। गर्व इसलिए कि एक और सैनिक ने मातृभूमि की माटी से तिलक किया। गर्व इसलिए कि जीवन ने मृत्यु को फिर एक बार परास्त किया। गर्व इसलिए कि मृत्यु के पार यहां का एक और सूर्य समुदित हुआ। गर्व इसलिए कि एक बार फिर राम प्रसाद बिस्मिल की पंक्तियां शंखनाद कर उठीं -
अब न पिछले बलवले हैं और न अरमानों की भी।
एक मर मिटने की हसरत अब दिल बिस्मिल में है।
सचमुच हृदय शहीदों के प्रति आभार से भर उठता है कि तुम न होते तो जननी का मान कौन रखता। देश के सम्मान की पताका तुम्हारे यशस्वी हाथों में सुरक्षित है। वीरों ! महाकाल तुम्हारा स्तवन कर रहा है, समय चक्र तुम्हारी आरती उतार रहा। कोटिशः नमन।