Interview : तकनीकी विश्वविद्यालय के पहले कुलपति दुर्ग सिंह चौहान

Update:2006-06-02 20:46 IST
दिनांक: 2_x007f_-_x007f_6-200_x007f__x007f_6
कभी सूबे में देश के अन्य राज्यों में तकनीकी पाठ्ïयक्रमों में प्रवेश कराने के लिए छुट्ïिटयों के दिनों में बिचौलियों के मार्फत विज्ञापन की भरमार होती थी। लेकिन वर्ष 2_x007f__x007f__x007f_ उ.प्र. तकनीकी विश्वविद्यालय की स्थापना के फैसले और इसके फाउन्डर कुलपति दुर्ग सिंह चौहान की दूरदर्शिता के चलते न केवल छात्रों और अभिभावकों को बिचौलियों से मुक्ति मिली बल्कि सूबे में तकनीकी प्रशिक्षण के तकरीबन 311 कालेजों को खोलने का मार्ग प्रशस्त कर तकनीकी शिक्षा के 46 पाठ्ïयक्रमों को पढऩे का अवसर मुहैया कराया जा सका। निजी क्षेत्रों में खुले कालेजों के प्रबन्धन पर नियमों के मुताबिक अंकुश लगाये रखने का ही नतीजा है कि अकेले तकरीबन बी.टेक. की प्रवेश परीक्षा में 116883 छात्रों के बैठने के बाद भी काउन्सिलिंग की जटिल प्रक्रिया भी आसान नजर आती है। काउन्सिलिंग के मैनुअल सिस्टम से कम्प्यूटर सिस्टम तक की यात्रा, आनलाइन परीक्षाओं का चलन सरीखे कई नए प्रयोग चौहान की कुशल क्षमता से ही सम्भव हो सका है। अपने कार्यकाल का दूसरा चरण भी जल्दी ही पूरा करने वाले तकनीकी विश्वविद्यालय के पहले कुलपति दुर्ग सिंह चौहान से ‘आउटलुक’ साप्ताहिक की बातचीत के मुख्य अंश:-
तकनीकी विश्वविद्यालय की जरूरत क्यों पड़ी?

 पूरे उप्र में आजादी के बाद से काफी समय तक 1_x007f_ या 12 कालेज हुआ करते थे। इनके लिए किसी विश्वविद्यालय की जरूरत नहीं थी। किसी विश्वविद्यालय के करीब सौ या दो सौ विद्यालयों की सम्बद्घता आवश्यक थी। आज तकनीकी शिक्षा के 311 कालेज तकनीकी विश्वविद्यालय से सम्बद्घ भी हो चुके हैं। इनमें से फार्मेसी पाठ्ïयक्रम चलाने वाले 52 कालेज हैं तो इंजीनियरिंग, एमसीए और एमबीए की तालीम देने के लिए राज्य भर में 9_x007f_-9_x007f_ कालेज अब तक खुल चुके हैं। इसके साथ ही आर्किटेक्चर की पढ़ाई कराने वाले 3 और होटल प्रबन्धन का कौशल सिखाने के लिए 4 कालेज अलग से हैं। ऐसे में इनके नियन्त्रण और एकरूपता कायम करने के लिए नीतियों की जरूरत के मद्ïदेनजर तकनीकी विश्वविद्यालय जरूरी समझा गया।
कुलपति के रूप में आपने अपना दूसरा कार्यकाल भी पूरा कर लिया है। आपके लक्ष्य क्या थे? इसमें सफलता किस हद तक मिली?

 तकनीकी पाठ्ïयक्रमों में प्रवेश को लेकर तमाम छात्रों और अभिभावकों को निराशा हाथ लगती थी या फिर उन्हें किसी अन्य राज्य में कैपिटेशन फीस देकर अपने बच्चे की पढ़ाई के मंसूबे पूरे करने पड़ते थे। अब हालात यह हैं कि तकनीकी शिक्षा पाने के लिए किसी भी छात्र को बाहर जाने की जरूरत नहीं है। अपने दोनों कार्यकाल में मैंने कुल मिलाकर 46 पाठ्ïयक्रम के अध्ययन अध्यापन की मुकम्मल व्यवस्था कराई। शैक्षणिक पद्घति के उत्थान के लिए किए गए प्रयासों में भी उत्साहजनक सफलता हासिल हुई। तकनीकी सिक्षा के क्षेत्र में विश्वविद्यालय खुलने के बाद क्रांति आई है। यह आपको आसानी से देखने को भी मिल सकती है। या फिर मिलती होगी।
क्या पाठ्ïयक्रम के हिसाब से सीटों की संख्या का निर्धारण फिर से नहीं किया जाना चाहिए?

 किया जामा लाजिमी है। सीटों की संख्या का निर्धारण अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद करती है। इसके पुर्ननिर्धारण के लिए हमने परिषद को लिखकर भेज दिया है।
निर्माण कार्य बढ़े हैं। लेकिन सिविल इंजीनियरिंग पढऩे वाले छात्रों की संख्या में इजाफा नहीं हुआ। सीटें जस साल पहले की तरह जस की तस ही हैं। क्या आपको नहीं लगता कि नौकरी के बड़े अवसर से छात्रों की बड़ी जमात वंचित हो रही है?

 सबको योग्यता के अनुसार नौकरियां हासिल हो रही हैं। शिक्षित लोगों के लिए जल्दी और ज्यादा नौकरियों के अवसर सुलभ हंैं। सिविल इंजीनियंिरग के क्षेत्र में नौकरी और काम के अपार संभावनाओं के द्वार तो खुले दिख ही रहे हैं।
तकनीकी शिक्षा के कम्प्यूटर और कम्यूनिकेशन पाठ्ïयक्रमों की ओर जिस तरह छात्रों और अभिभावकों का रूझान बढ़ रहा है। उससे क्या आपको नहीं लगता कि जल्द ही इस क्षेत्र में रोजगार की संभावनाएं चुक जाएंगी और इन विषयों की तालीम करने वाले बेरोजगार रहने लगेंगे?

 इस पर अभी कुछ कहना जल्दी होगी। समय आने दीजिए पता चलेगा कि किस क्षेत्र में रोजगार की कितनी सम्भावनाएं छिपी हैं। ऐसा नहीं कि इस क्षेत्र में रोजगार के द्वार खोलने की दिशा में काम नहीं हो रहा है।
प्रबन्धन कोटे को आप कितना औचित्यपूर्ण मानते हैं? इनकी दखलअंदाजी किस हद तक होनी चाहिए?


 प्रबन्धन का ढांचा एक समिति का होता है। अगर समिति एक हद तक अपनी सीमाओं का विस्तार करती है अथवा अधिकार का उपयोग तो कर सकती है। लेकिन सीमा से आगे बढऩे और अधिकार के दुरूपयोग करने का हक नहीं दिया जा सकता। अफने कोटे के मसले में भी प्रबन्धन को मेरिट की अनदेखी नहीं करनी चाहिए।
तकनीकी पढ़ाई करने वाले छात्रों को आप सन्देश क्या देना चाहेंगे?

 ज्ञान और संचार के इस युग में बच्चों को अधिक से अधिक ज्ञान अर्जित करने की कोशिश करनी चाहिए। अपनी खुद की डिजिटल लाइब्रेरी बनानी चाहिए। सीडी के दौर में 2_x007f_ हजार रूपए की किताबें दो हजार से कम रूपयों में आप अपने पुस्तकालय के लिए प्रबन्ध कर सकते हैं। कक्षाओं में सौ फीसदी उपस्थिति के साथ-साथ लैब में भी पूरा समय देना चाहिए। ज्ञान के साथ यह सीधा-सीधा जुड़ा है कि इसे जितना लेंगे अथवा देंगे, दोनों हालातों में यह बढ़ेगा ही। ज्ञान शक्ति है। ज्ञान धन है। ज्ञान स्वास्थ्य है। इंजीनियर तो वह भी हो सकता है जो होशियार न हो। केवल मेहनती हो तो भी इंजीनियर होने के रास्ते की रूकावटें दूर हो सकती हैं।
तकनीकी शिक्षण संस्थानों में आरक्षण को लेकर आपकी क्या राय है?

 यह एक सरकारी मुद्ïदा है। यह राज्य की नीति है जो ठीक लगता है। वह किया जाता है। मेरा मानना है कि आरक्षण केवल जातीय आधार पर न होकर आर्थिक आधार पर भी किया जाना चाहिए। हां, यदि जरूरी हो तो आर्थिक रूप से कमजोर जातियों की कोटि बनाकर उन्हें आरक्षण का लाभ दिलाया जा सकता है। इसके साथ ही यह समाज का भी दायित्व है कि वह अपने स्तर से समीक्षात्मक दृष्टिï से आरक्षण के हालात और स्थितियां तय करे। आज नहीं तो कल आर्थिक रूप से आरक्षण करना मजबूरी हो जाएगी कयोकि जब समाज का पचास प्रतिशत तबका ताजीय आरक्षण के दौर में आर्थिक रूप से पिछड़ जाएगा तो निश्चित तौर पर यह आवश्यक हो जाएगा।
जातीय वजीफे को लेकर आपका क्या नजरिया है?

 पिछड़े वर्ग और अनुसूचित जाति के छात्रों को वजीफा दिया जाना तो जायज है। इसकी जरूरत भी है। औचित्य भी। लेकिन वजीफा विभागों के मार्फत देने की वजह से कई बार विभागीय बजटों के अभाव के चलते दो-दो, तीन-तीन साल तक वजीफे की रकम स्कूल तक नहीं पहुंच पाती है। इसका सीधा असर स्कूलों को भुगतना पड़ता है।
अगर आपको अगला कार्यकाल भी मिले तो आपकी वरीयतायें अब क्या होंगी?

 मेरा शेष बचा प्रमुख कार्य यह है कि रिसर्च सेंटर तथा पोस्ट ग्रेजुएशन के लिए बड़े कैम्पस का निर्माण कराऊँ। कोशिश तो है कि इस शेष बचे समय में ही निर्माण कार्य शुरू हो जाए। इसके लिए जमीन देखी जा चुकी है। मुझे भरोसा है कि इस काम को शुरू करने के लिए अगले कार्यकाल की नहीं जरूरत पड़ेगी। पूरा भले ही यह भविष्य में हो। शुरू तो जल्द ही होगा। इसके लिए जमीन देखी जा चुकी है। संस्थाओं की जमीन की खरीद के लिए रजिस्ट्री पर होने वाले भारी भरकम खर्च से छूट की सरकारी व्यवस्था है। इसका लाभ लेने की कोशिश की जा रही है। फाइलें ऊपर से नीचे जा रही हैं। ऐसे कामों में थोड़ा समय तो लगता ही है।
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तकरीबन छह साल पहले खोले गये उ.प्र. तकनीकी विश्वविद्यालय ने आकार और नियन्त्रण के ही लिहाज से नहीं बल्कि अपनी परीक्षा प्रणाली के मार्फत भी कई कीर्तिमान स्थापित किए हैं। तकनीकी पाठ्ïयक्रमों के लिहाज से देश की सबसे बड़ी परीक्षा प्रणाली ही नहीं सबसे सफल भी कही जाने वाली राज्य प्रवेश परीक्षा को चाक चौबन्द ढंग से करा लेना छोटा काम नहीं है। तभी तो तकनीकी विश्वविद्यालय की विशेषताओं और कामकाज की सूची में प्रवेश परीक्षा की सफलता का भी कालम है। बीते साल प्रवेश परीक्षा देश के 26 शहरों एवं 189 परीक्षा केन्द्रों पर सफलतापूर्वक हुई। इस परीक्षा के विभिन्न पाठ्ïयक्रमों में कुल 159555 छात्रों ने आवेदन किया था। इनमें से 153894 छात्र/छात्रायें परीक्षा में बैठे। छात्रों की संख्या को देखते हुए विश्वविद्यालय प्रशासन ने यह महसूस किया कि त्रुटिरहित परीक्षा के बिना अफवाहों पर नियन्त्रण नहीं पाया जा सकता है। नतीजतन, तकनीकी शिक्षा पा रहे छात्रों को न केवल आनलाइन परीक्षा की सुविधा मुहैया कराई गई बल्कि प्रवेशार्थियों के लिए परीक्षण की ओएमआर पद्घति लागू की गई। जिससे न केवल प्रवेश परीक्षा में बैठने वाले लाखों बच्चों के बारे में सूचनायें रखना आसान हुआ बल्कि मैनुअल कामकाज के दौरान किसी असावधानी के चलते होने वाली त्रुटि से भी निजात मिल गई। मतलब साफ है कि पूरी परीक्षा प्रणाली फूल प्रूफ बना दी गई। इसी का नतीजा है कि मेडिकल प्रवेश परीक्षा को लेकर हर साल पर्चा आउट और मुन्ना भाई एमबीबीएस बनने की तमाम घटनाओं का भले ही खुलासा होता हो। लेकिन तकनीकी विश्वविद्यालय द्वारा संचालित परीक्षाओं में पिछले छह वर्षों के दौरान किसी किस्म की गड़बड़ी की शिकायत आम नहीं हो पाई है।
-योगेश मिश्र

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