दिनांक: 16._x007f_4.2_x007f__x007f_007
न_x008e_बे के दशक में जब धर्माचार्य, साधु-संत भारतीय जनता पार्टी के प्रचार अभियान की समानांतर कमान संभाले हुए योजनाबद्घ ढंग से जनसंपर्क करते हुए दिखते थे तो ‘धर्म की राजनीति’ और ‘राजनीति का धर्म’ जेरे बहस था। इन भगवा वेषधारियों को कमान देने वाली विश्व हिंदू परिषद की नीति और नियति पर भी सवाल उठे थे। पर भगवा ब्रिगेड के नुमाइंदे नेताओं ने कमल खिलने में इतनी मदद की थी कि पार्टी के अंदर इन सवालों के लिए कोई जगह नहीं थी। भाजपा का चाल, चरित्र और चेहरा भले ही भगवामय हो गया हो पर भगवा वेषधारियों-उमा, चिन्मयानंद, साक्षी महाराज, आदित्यनाथ की मुश्किलें रोज-बरोज उन्हें ही नहीं, पार्टी को भी खराद पर खड़ा करती हैं।
हिंदुत्व के अमली जामे में फिट होने वाले नेताओं की नाराजगी ने भले ही इस बात का एहसास किया और कराया हो कि हिंदुत्व और राष्टï्रवाद स_x009e_ाा पाने के टोटके भर है। राजनीति की असली कठोर हकीकत वोट बैंक है। यही वजह है कि सियासत की रपटीली राह को भावुकता से नही नापा जा सकता। तभी तो एक-एक करके भगवा वेषधारी एक बार फिर घर वापसी की इबारत लिख रहे हैं। हालांकि इस काम को अंजाम देने में भाजपा की जगह जिस तरह विश्व हिंदू परिषद के अशोक सिंघल और उनकी पूरी की पूरी टीम जुटी है। उससे साफ है कि संघ की तरह ही भाजपा पर अपनी पकड़ वह कम जरूरी नहीं समझती है। हैरत यह जरूर है कि कभी जम्मू-कश्मीर में भाजपा के समानांतर अपने उम्मीदवार उतार और मंदिर सरीखे तमाम मसलों पर गाहे-बगाहे भाजपा को हद तक जाकर कोसने वाली विहिप आखिर इस ‘नए रोल’ में क्यों है?
भगवावेषधारी नेताओं में भाजपा को सबसे ज्यादा किसी ने परेशान किया तो उनमें उमाभारती और योगी आदित्यनाथ का नाम आता है। वैसे पार्टी में कोई भी ऐसा भगवावेषधारी सांसद-विधायक नहीं है जिसके चलते भाजपा की एकाध बार भद न पिटी हो। मंडल और कमंडल दोनों ताकतों का प्रतिनिधित्व करने वाली उमा भारती आधी आबादी की नुमाइंदा होने की वजह से न केवल सियासी स्टारडम रखती हैं। बल्कि मध्य प्रदेश में वह अग्रिपरीक्षा भी पास कर चुकी हैं। फिर भी भाजपा उनके नखरे और तेवर सहने को तैयार नहीं हुई? लिहाजा, पहले उन्हें तिरंगा यात्रा के मार्फत मध्य प्रदेश से अलग किया गया। बाद में पार्टी से। हालांकि पार्टी की ‘कुछ’ जरूरतों के चलते वापस हो गयी। पर परिक्रमा बनाम पराक्रम की बहस छेडक़र पार्टी की एक बैठक में कई लोगों को आइना दिखाने की कोशिश में फूटे उनके गुस्से के ज्वालामुखी ने उन्हें फिर भाजपा से बाहर का रास्ता दिखवा दिया। नतीजतन, मध्य प्रदेश, उ_x009e_ार प्रदेश, उ_x009e_ाराखंड और पंजाब में भाजपा की जड़ों में मट्ïठा डालने का काम हाथ में ले लिया। उ_x009e_ाराखंड में उन्होंने भाजपा के नेताओं के ही मुताबिक, ‘‘छह विधानसभा और एक लोकसभा सीट हरवा दी।’’ उमाभारती के खाते में जो भी वोट दर्ज हो रहे थे। वह भाजपा के ही थे। वह पार्टी के हिंदूत्व और राममंदिर मुद्ïदे से भटकाव के कारण कुछ इस तरह गिनाती थीं कि भाजपा से उदासीन मतदाता विमुख हो जाता था। नतीजतन, हिंदू वोटों में बँटवारे के बहाने, भाजपा की जरूरत पूरी करने के लिए गुस्साई साध्वी को मनाने की विहिप ने ठानी। गोविंदाचार्य के अपोलो में भर्ती रहने के दौरान लालकृष्ण आडवाणी ने गोविंदाचार्य से उमा के मनाने के गुर जानने चाहे। दोनों रणनीतिकारों की बातचीत में तय हुआ कि भाजपा तो नहीं पर विहिप अगर ‘हिंदुत्व काज’ के लिए अपील करे तो उमा सुन सकती हैं। इन हालातों में उमा को शायद इसी खूबसूरत मोड़ का इंतजार था। नतीजतन, वह अपना अधूरा अफसाना छोडक़र पुराने घर के दरवाजे पर दोबारा दस्तक देने लगीं हैं।
भगवावेषधारियों की अलग या विरोधी मंच पर मौजूदगी भाजपा को शर्मिन्दा करती थी। नतीजतन, कई बार भाजपा को अपने सामने घुटनों के बल खड़े करने वाले योगी आदित्यनाथ को भी पटाने के काम को विहिप के अशोक सिंघल और पंकज जी ने भाजपा के एजेंट के तौर पर काम करते हुए अंजाम दिया। हिंदू महासभा के सर्वेसर्वा योगी के सामने पिछले विधानसभा चुनाव में पहली बार भाजपा तब निरीह नजर आयी थी जब उन्होंने गोरखपुर शहर के पार्टी उम्मीदवार शिवप्रताप शुक्ला के खिलाफ अपने हिंदू महासभा के उम्मीदवार को न केवल उतारा बल्कि विजय भी दिलायी। इस विधानसभा चुनाव में भी योगी के रूठने और मनाने की कहानी कुछ ऐसी रही कि भाजपा के बड़े से बड़े नेता उनके सामने हाथ बाँधकर खड़े दिखे। अंत में बाबा को विहिप के पंकज जी पर पता नहीं क्यों तरस आ गया। यह बात दीगर है कि अपने नाराजगी के तकरीबन 1०-15 दिनों में ही बाबा की ओर से भाजपा पर पैसे लेकर टिकट बेंचने के साथ ही साथ ऐसे लोगों को भी टिकट देने की तोहमत लगी। जो भाजपा के पूर्व सांसद के हत्यारे हैं। योगी ने पार्टी महासचिव रमापति राम त्रिपाठी को इसका दोषी भी बताया। बाबा तो मान गये पर उन्होंने जो सवाल उठाये थे। वे सब के सब पूर्वांचल में भाजपा के खिलाफ विपक्ष के आक्रामक और धारदार हथियार बने हुए हैं। हालांकि दो मंडलों में हिंदू युवा वाहिंनी की उनकी फौज इन सवालों का जवाब भाजपाइयों से ज्यादा तीखे और तल्ख लहजे में देने को मुस्तैद है। अभी पार्टी योगी आदित्यनाथ का ही भारी भरकम औरा पचा नहीं पा रही थी कि उन्होंने देवीपाटन शक्तिपीठ के भगवाधारी महंथ कौशलेंद्र नाथ को तुलसीपुर से उम्मीदवार बनवा दिया है। गोरक्षपीठ से संबद्घ इस निहंगम गद्ïदी का महात्मय पूर्वांचल समेत पूरे उ_x009e_ार भारत में पसरा है। तुलसीपुर नगर पंचायत से लेकर बलरामपुर की लोकसभा चुनाव में इस मंदिर के महंथ की अहम भूमिका होती है। इन्हीं के सहयोग से पंचायत अध्यक्ष पर नरेश विक्रम सिंह व विधायकी पर कमलेश सिंह जीते। इस बार नगर पंचायत तुलसीपुर पर बाबा समर्थित लल्ला सोनी विराजमान हैं।
आपरेशन दुर्योधन के मार्फत पिछले साल एक बार फिर चर्चा में आए एटा जिले के कुटहरा निवासी स्वामी सच्चिदानंद हर साक्षी भी भाजपा के भगवाधारियों में शुमार रहे हैं। इनका बोझ भी पार्टी बर्दाश्त नहीं कर पायी। कल्याण सिंह के सजातीय होने की वजह से वे एक दौर में मिनी मुख्यमंत्री की तरह करतब और कानून करते थे। कई सार्वजनिक सभाओं में कल्याण सिंह ने इन्हें अपना हनुमान कहकर इसे तस्दीक भी किया था। बाबरी आंदोलन के दौरान कल्याण सिंह के करीब आए साक्षी महाराज ने कल्याण का ही फायदा उठाकर समाजवादी सपा से राज्यसभा की सदस्यता हासिल कर ली थी। इन दिनों वे ‘अपने राम’ से भी नाराज हैं। कल्याण सिंह की राष्टï्रीय क्रांति पार्टी कुछ तकनीकी कारणों से भाजपा में विलय होने से रह गयी थी। नतीजतन, वे उन्हीं के नक्शे कदम पर चलते हुए इसी पार्टी को खाद-पानी दे रहे हैं। हालांकि विधानसभा चुनाव के ऐन पहले विश्वनाथ प्रताप सिंह के जनमोर्चा में जगह तलाशते हुए वे एक प्रेस कान्फ्रेंस तक पहुँच गए थे। लेकिन अचानक विश्वनाथ प्रताप सिंह ने उन्हें मीडिया से मुखातिब होने से रोक लिया। अरबों की संप_x009e_िा के मालिक इस कथित संत के आश्रम हरिद्वार, ऋषिकेश, एटा व उनकी शाखायें विदेशों मे भी हैं। भगवा में काले छीटें के रूप में आधा दर्जन से अधिक संगीन मुकदमें इनकी मूल प्रवृ_x009e_िा की चुगली करते हैं। साक्षी की सबसे ज्यादा फजीहत उस समय हुई जब इनके ही आश्रम में रहने वाली दो महिलाओं-दुर्गा भारती और सावित्री ने इनके ऊपर शारीरिक शोषण का आरोप लगाया। हमेशा की तरह साक्षी ने इसे विरोधियों की साजिश बताते हुए अपने भगवा चोले को पाक-साफ बताने की चेष्टïा करते रहे। इस बार साक्षी महाराज एटा जिले की सोरों विधानसभा सीट से राष्टï्रीय क्रांति पार्टी के प्रत्याशी हैं। अपनी बिरादरी में गहरी पैठ रखने वाले यह संत इस बार विधानसभा में अपनी दस्तक दे बैठें तो किसी को अचरज नहीं होना चाहिए। पर इस स्वामी को मनाने की कोशिश विहिप उनके इतिहास को देखते हुए करना मुफीद समझ नहीं रही है। हालांकि भाजपा के पाले में केंद्रीय गृह राज्यमंत्री रहे भगवाधारी स्वामी चिन्मयानंद को खड़ा करने में विहिप काफी हद तक कामयाब हो गई है। अपनी लोकसभा सीट न बचा पाने वाले स्वामी चिन्मयानंद एक सीट से दूसरी बार अपनी किस्मत नहीं आजमाते हैं। क्योंकि जब भी वे ऐसा करते हैं तो पराजय उनके गले आन पड़ती है। तभी तो बदायूँ से जीतने के बाद शाहजहाँपुर पहुँचे। पर यहाँ पहली बार ही पराजय ने उन्हें वर लिया। नतीजतन वे जौनपुर आ गये। यहाँ भी उनकी काठ की हांडी दोबारा नहीं चढ़ सकी। फिर भी पार्टी पर उनका गुस्सा इतना तारा था कि राष्टï्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह पर जातिवादी राजनीति करने की तोहमत मढ़ते हुए उमा भारती के साथ खड़े हो गए थे। यह बात दीगर है कि वह उमा भारती के साथ दूर तक चले नहीं। पर चिन्मयानंद ने पार्टी से नाराजगी के छोटे से समय में ही इतना कुछ किया-धिया कि भाजपा के चाल, चरित्र और चेहरे को धुल-पोंछकर तैयार करने के बाद भी कई दाग दिख ही जाते हैं। अब वे फिर भाजपा कार्यक्रमों में दिखने लगे हैं। पर वापसी की वजहों का आज तक किसी को खुलासा नहीं हो पाया। हाँ, वे जरूर यह कहते हैं, ‘‘हिन्दू वोट न बँटे इसलिए उमा भारती को सब कुछ त्याज्य कर फिर पार्टी की शरण गह लेना चाहिए।’’ भाजपाई भगवाधारियों में एक नाम स्वामी वेदांती का भी है। पहले प्रतापगढ़ और फिर मछली शहर से लोकसभा में पहुँचने वाले स्वामी वेदांती भी राम जन्मभूमि आंदोलन की उपज हैं। इनका मठ इसी आंदोलन की जमीन अयोध्या में है। वेदांती की भी हांडी दोबारा नहीं चढ़ती है। तभी तो वे बार-बार क्षेत्र बदल देते हैं। वैसे तो वेदांती की कोई ऐसी नाराजगी नहीं है कि वे पार्टी से बाहर का रुख करें। पर इसके पीछे खास वजह भाजपा नहीं बल्कि भगवा ब्रिगेड को कमांड करने वाली वह विहिप है। जहाँ स्वामी जी जाकर गाहे-बगाहे अपने गुस्से का इजहार करते हुए तोष पा लेते हैं। लेकिन भगवा वेषधारियों का भार वहन न कर पाने वाली भाजपा और उन्हें मनाने में एड़ी-चोटी का जोर लगाने वाली विहिप को यह तो तलाशना ही होगा कि उसके भगवाधारी ही क्यों गाहे-बगाहे विनाशकारी बन जाते हैं। दूसरे दलों के भगवाधारियों में यह नजीर, नखरे और नजाकत नहीं दिखती है कि वे जिस डाल पर बैठे हों, उसे ही काटते हों। राष्टï्रीय लोकदल में भी एक भगवाधारी विधायक हैं। बिजनौर से 12 किमी. दूर केवलानंद निगम आश्रम के स्वामी ओमवेश ने 1996 में पहली बार सियासत में बतौर निर्दल कदम रखा था। उसके बाद 1998 के चुनाव में उन्होंने अजित सिंह का हाथ ऐसा पकड़ा कि तब से अब तक छूटने का नाम ही नहीं लिया। इतना ही नहीं, स्वामी ओमवेश को लेकर रालोद को अब तक कोई भी दिक्कत और दुश्वारियां नहीं झेलनी पड़ी हैं। जबकि वे सार्वजनिक निर्माण विभाग और गन्ना महकमे के राज्यमंत्री भी रह चुके हैं। हालांकि यह बात दूसरी है कि अन्य सियासी दलों में इनकी तादाद कुछ खास नहीं है। फिर भी यह पता करना तो लाजमी होता ही है कि कब तक और क्यों भगवा वेषधारी भाजपा को पड़ेंगे भारी।
-योगेश मिश्र
न_x008e_बे के दशक में जब धर्माचार्य, साधु-संत भारतीय जनता पार्टी के प्रचार अभियान की समानांतर कमान संभाले हुए योजनाबद्घ ढंग से जनसंपर्क करते हुए दिखते थे तो ‘धर्म की राजनीति’ और ‘राजनीति का धर्म’ जेरे बहस था। इन भगवा वेषधारियों को कमान देने वाली विश्व हिंदू परिषद की नीति और नियति पर भी सवाल उठे थे। पर भगवा ब्रिगेड के नुमाइंदे नेताओं ने कमल खिलने में इतनी मदद की थी कि पार्टी के अंदर इन सवालों के लिए कोई जगह नहीं थी। भाजपा का चाल, चरित्र और चेहरा भले ही भगवामय हो गया हो पर भगवा वेषधारियों-उमा, चिन्मयानंद, साक्षी महाराज, आदित्यनाथ की मुश्किलें रोज-बरोज उन्हें ही नहीं, पार्टी को भी खराद पर खड़ा करती हैं।
हिंदुत्व के अमली जामे में फिट होने वाले नेताओं की नाराजगी ने भले ही इस बात का एहसास किया और कराया हो कि हिंदुत्व और राष्टï्रवाद स_x009e_ाा पाने के टोटके भर है। राजनीति की असली कठोर हकीकत वोट बैंक है। यही वजह है कि सियासत की रपटीली राह को भावुकता से नही नापा जा सकता। तभी तो एक-एक करके भगवा वेषधारी एक बार फिर घर वापसी की इबारत लिख रहे हैं। हालांकि इस काम को अंजाम देने में भाजपा की जगह जिस तरह विश्व हिंदू परिषद के अशोक सिंघल और उनकी पूरी की पूरी टीम जुटी है। उससे साफ है कि संघ की तरह ही भाजपा पर अपनी पकड़ वह कम जरूरी नहीं समझती है। हैरत यह जरूर है कि कभी जम्मू-कश्मीर में भाजपा के समानांतर अपने उम्मीदवार उतार और मंदिर सरीखे तमाम मसलों पर गाहे-बगाहे भाजपा को हद तक जाकर कोसने वाली विहिप आखिर इस ‘नए रोल’ में क्यों है?
भगवावेषधारी नेताओं में भाजपा को सबसे ज्यादा किसी ने परेशान किया तो उनमें उमाभारती और योगी आदित्यनाथ का नाम आता है। वैसे पार्टी में कोई भी ऐसा भगवावेषधारी सांसद-विधायक नहीं है जिसके चलते भाजपा की एकाध बार भद न पिटी हो। मंडल और कमंडल दोनों ताकतों का प्रतिनिधित्व करने वाली उमा भारती आधी आबादी की नुमाइंदा होने की वजह से न केवल सियासी स्टारडम रखती हैं। बल्कि मध्य प्रदेश में वह अग्रिपरीक्षा भी पास कर चुकी हैं। फिर भी भाजपा उनके नखरे और तेवर सहने को तैयार नहीं हुई? लिहाजा, पहले उन्हें तिरंगा यात्रा के मार्फत मध्य प्रदेश से अलग किया गया। बाद में पार्टी से। हालांकि पार्टी की ‘कुछ’ जरूरतों के चलते वापस हो गयी। पर परिक्रमा बनाम पराक्रम की बहस छेडक़र पार्टी की एक बैठक में कई लोगों को आइना दिखाने की कोशिश में फूटे उनके गुस्से के ज्वालामुखी ने उन्हें फिर भाजपा से बाहर का रास्ता दिखवा दिया। नतीजतन, मध्य प्रदेश, उ_x009e_ार प्रदेश, उ_x009e_ाराखंड और पंजाब में भाजपा की जड़ों में मट्ïठा डालने का काम हाथ में ले लिया। उ_x009e_ाराखंड में उन्होंने भाजपा के नेताओं के ही मुताबिक, ‘‘छह विधानसभा और एक लोकसभा सीट हरवा दी।’’ उमाभारती के खाते में जो भी वोट दर्ज हो रहे थे। वह भाजपा के ही थे। वह पार्टी के हिंदूत्व और राममंदिर मुद्ïदे से भटकाव के कारण कुछ इस तरह गिनाती थीं कि भाजपा से उदासीन मतदाता विमुख हो जाता था। नतीजतन, हिंदू वोटों में बँटवारे के बहाने, भाजपा की जरूरत पूरी करने के लिए गुस्साई साध्वी को मनाने की विहिप ने ठानी। गोविंदाचार्य के अपोलो में भर्ती रहने के दौरान लालकृष्ण आडवाणी ने गोविंदाचार्य से उमा के मनाने के गुर जानने चाहे। दोनों रणनीतिकारों की बातचीत में तय हुआ कि भाजपा तो नहीं पर विहिप अगर ‘हिंदुत्व काज’ के लिए अपील करे तो उमा सुन सकती हैं। इन हालातों में उमा को शायद इसी खूबसूरत मोड़ का इंतजार था। नतीजतन, वह अपना अधूरा अफसाना छोडक़र पुराने घर के दरवाजे पर दोबारा दस्तक देने लगीं हैं।
भगवावेषधारियों की अलग या विरोधी मंच पर मौजूदगी भाजपा को शर्मिन्दा करती थी। नतीजतन, कई बार भाजपा को अपने सामने घुटनों के बल खड़े करने वाले योगी आदित्यनाथ को भी पटाने के काम को विहिप के अशोक सिंघल और पंकज जी ने भाजपा के एजेंट के तौर पर काम करते हुए अंजाम दिया। हिंदू महासभा के सर्वेसर्वा योगी के सामने पिछले विधानसभा चुनाव में पहली बार भाजपा तब निरीह नजर आयी थी जब उन्होंने गोरखपुर शहर के पार्टी उम्मीदवार शिवप्रताप शुक्ला के खिलाफ अपने हिंदू महासभा के उम्मीदवार को न केवल उतारा बल्कि विजय भी दिलायी। इस विधानसभा चुनाव में भी योगी के रूठने और मनाने की कहानी कुछ ऐसी रही कि भाजपा के बड़े से बड़े नेता उनके सामने हाथ बाँधकर खड़े दिखे। अंत में बाबा को विहिप के पंकज जी पर पता नहीं क्यों तरस आ गया। यह बात दीगर है कि अपने नाराजगी के तकरीबन 1०-15 दिनों में ही बाबा की ओर से भाजपा पर पैसे लेकर टिकट बेंचने के साथ ही साथ ऐसे लोगों को भी टिकट देने की तोहमत लगी। जो भाजपा के पूर्व सांसद के हत्यारे हैं। योगी ने पार्टी महासचिव रमापति राम त्रिपाठी को इसका दोषी भी बताया। बाबा तो मान गये पर उन्होंने जो सवाल उठाये थे। वे सब के सब पूर्वांचल में भाजपा के खिलाफ विपक्ष के आक्रामक और धारदार हथियार बने हुए हैं। हालांकि दो मंडलों में हिंदू युवा वाहिंनी की उनकी फौज इन सवालों का जवाब भाजपाइयों से ज्यादा तीखे और तल्ख लहजे में देने को मुस्तैद है। अभी पार्टी योगी आदित्यनाथ का ही भारी भरकम औरा पचा नहीं पा रही थी कि उन्होंने देवीपाटन शक्तिपीठ के भगवाधारी महंथ कौशलेंद्र नाथ को तुलसीपुर से उम्मीदवार बनवा दिया है। गोरक्षपीठ से संबद्घ इस निहंगम गद्ïदी का महात्मय पूर्वांचल समेत पूरे उ_x009e_ार भारत में पसरा है। तुलसीपुर नगर पंचायत से लेकर बलरामपुर की लोकसभा चुनाव में इस मंदिर के महंथ की अहम भूमिका होती है। इन्हीं के सहयोग से पंचायत अध्यक्ष पर नरेश विक्रम सिंह व विधायकी पर कमलेश सिंह जीते। इस बार नगर पंचायत तुलसीपुर पर बाबा समर्थित लल्ला सोनी विराजमान हैं।
आपरेशन दुर्योधन के मार्फत पिछले साल एक बार फिर चर्चा में आए एटा जिले के कुटहरा निवासी स्वामी सच्चिदानंद हर साक्षी भी भाजपा के भगवाधारियों में शुमार रहे हैं। इनका बोझ भी पार्टी बर्दाश्त नहीं कर पायी। कल्याण सिंह के सजातीय होने की वजह से वे एक दौर में मिनी मुख्यमंत्री की तरह करतब और कानून करते थे। कई सार्वजनिक सभाओं में कल्याण सिंह ने इन्हें अपना हनुमान कहकर इसे तस्दीक भी किया था। बाबरी आंदोलन के दौरान कल्याण सिंह के करीब आए साक्षी महाराज ने कल्याण का ही फायदा उठाकर समाजवादी सपा से राज्यसभा की सदस्यता हासिल कर ली थी। इन दिनों वे ‘अपने राम’ से भी नाराज हैं। कल्याण सिंह की राष्टï्रीय क्रांति पार्टी कुछ तकनीकी कारणों से भाजपा में विलय होने से रह गयी थी। नतीजतन, वे उन्हीं के नक्शे कदम पर चलते हुए इसी पार्टी को खाद-पानी दे रहे हैं। हालांकि विधानसभा चुनाव के ऐन पहले विश्वनाथ प्रताप सिंह के जनमोर्चा में जगह तलाशते हुए वे एक प्रेस कान्फ्रेंस तक पहुँच गए थे। लेकिन अचानक विश्वनाथ प्रताप सिंह ने उन्हें मीडिया से मुखातिब होने से रोक लिया। अरबों की संप_x009e_िा के मालिक इस कथित संत के आश्रम हरिद्वार, ऋषिकेश, एटा व उनकी शाखायें विदेशों मे भी हैं। भगवा में काले छीटें के रूप में आधा दर्जन से अधिक संगीन मुकदमें इनकी मूल प्रवृ_x009e_िा की चुगली करते हैं। साक्षी की सबसे ज्यादा फजीहत उस समय हुई जब इनके ही आश्रम में रहने वाली दो महिलाओं-दुर्गा भारती और सावित्री ने इनके ऊपर शारीरिक शोषण का आरोप लगाया। हमेशा की तरह साक्षी ने इसे विरोधियों की साजिश बताते हुए अपने भगवा चोले को पाक-साफ बताने की चेष्टïा करते रहे। इस बार साक्षी महाराज एटा जिले की सोरों विधानसभा सीट से राष्टï्रीय क्रांति पार्टी के प्रत्याशी हैं। अपनी बिरादरी में गहरी पैठ रखने वाले यह संत इस बार विधानसभा में अपनी दस्तक दे बैठें तो किसी को अचरज नहीं होना चाहिए। पर इस स्वामी को मनाने की कोशिश विहिप उनके इतिहास को देखते हुए करना मुफीद समझ नहीं रही है। हालांकि भाजपा के पाले में केंद्रीय गृह राज्यमंत्री रहे भगवाधारी स्वामी चिन्मयानंद को खड़ा करने में विहिप काफी हद तक कामयाब हो गई है। अपनी लोकसभा सीट न बचा पाने वाले स्वामी चिन्मयानंद एक सीट से दूसरी बार अपनी किस्मत नहीं आजमाते हैं। क्योंकि जब भी वे ऐसा करते हैं तो पराजय उनके गले आन पड़ती है। तभी तो बदायूँ से जीतने के बाद शाहजहाँपुर पहुँचे। पर यहाँ पहली बार ही पराजय ने उन्हें वर लिया। नतीजतन वे जौनपुर आ गये। यहाँ भी उनकी काठ की हांडी दोबारा नहीं चढ़ सकी। फिर भी पार्टी पर उनका गुस्सा इतना तारा था कि राष्टï्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह पर जातिवादी राजनीति करने की तोहमत मढ़ते हुए उमा भारती के साथ खड़े हो गए थे। यह बात दीगर है कि वह उमा भारती के साथ दूर तक चले नहीं। पर चिन्मयानंद ने पार्टी से नाराजगी के छोटे से समय में ही इतना कुछ किया-धिया कि भाजपा के चाल, चरित्र और चेहरे को धुल-पोंछकर तैयार करने के बाद भी कई दाग दिख ही जाते हैं। अब वे फिर भाजपा कार्यक्रमों में दिखने लगे हैं। पर वापसी की वजहों का आज तक किसी को खुलासा नहीं हो पाया। हाँ, वे जरूर यह कहते हैं, ‘‘हिन्दू वोट न बँटे इसलिए उमा भारती को सब कुछ त्याज्य कर फिर पार्टी की शरण गह लेना चाहिए।’’ भाजपाई भगवाधारियों में एक नाम स्वामी वेदांती का भी है। पहले प्रतापगढ़ और फिर मछली शहर से लोकसभा में पहुँचने वाले स्वामी वेदांती भी राम जन्मभूमि आंदोलन की उपज हैं। इनका मठ इसी आंदोलन की जमीन अयोध्या में है। वेदांती की भी हांडी दोबारा नहीं चढ़ती है। तभी तो वे बार-बार क्षेत्र बदल देते हैं। वैसे तो वेदांती की कोई ऐसी नाराजगी नहीं है कि वे पार्टी से बाहर का रुख करें। पर इसके पीछे खास वजह भाजपा नहीं बल्कि भगवा ब्रिगेड को कमांड करने वाली वह विहिप है। जहाँ स्वामी जी जाकर गाहे-बगाहे अपने गुस्से का इजहार करते हुए तोष पा लेते हैं। लेकिन भगवा वेषधारियों का भार वहन न कर पाने वाली भाजपा और उन्हें मनाने में एड़ी-चोटी का जोर लगाने वाली विहिप को यह तो तलाशना ही होगा कि उसके भगवाधारी ही क्यों गाहे-बगाहे विनाशकारी बन जाते हैं। दूसरे दलों के भगवाधारियों में यह नजीर, नखरे और नजाकत नहीं दिखती है कि वे जिस डाल पर बैठे हों, उसे ही काटते हों। राष्टï्रीय लोकदल में भी एक भगवाधारी विधायक हैं। बिजनौर से 12 किमी. दूर केवलानंद निगम आश्रम के स्वामी ओमवेश ने 1996 में पहली बार सियासत में बतौर निर्दल कदम रखा था। उसके बाद 1998 के चुनाव में उन्होंने अजित सिंह का हाथ ऐसा पकड़ा कि तब से अब तक छूटने का नाम ही नहीं लिया। इतना ही नहीं, स्वामी ओमवेश को लेकर रालोद को अब तक कोई भी दिक्कत और दुश्वारियां नहीं झेलनी पड़ी हैं। जबकि वे सार्वजनिक निर्माण विभाग और गन्ना महकमे के राज्यमंत्री भी रह चुके हैं। हालांकि यह बात दूसरी है कि अन्य सियासी दलों में इनकी तादाद कुछ खास नहीं है। फिर भी यह पता करना तो लाजमी होता ही है कि कब तक और क्यों भगवा वेषधारी भाजपा को पड़ेंगे भारी।
-योगेश मिश्र