दिनांक: ०3.3.2००8
रहीम ने भले ही तकरीबन 4०० साल पहले ‘बिन पानी सब सून’ कहा हो लेकिन सरकार की खास तवज्जो वाली फेहरिश्त में पानी नदारद है। यही नहीं, पानी को लेकर भ्रष्टïाचार भी अपने उच्च सूचकांक पर है। राज्य के 53 जिलों में पानी अब पीने लायक नहीं रह गया है। शहरी और ग्रामीण इलाकों में रोजाना 15० व 4० लीटर पानी उपलब्ध नहीं हो पा रहा है। वह भी तब, जब पानी के लिए पैसा पानी की तरह बहाया जा रहा है। योजनाएं न तो समय पर पूरी हो पा रही हैं और न ही मुकम्मल तौर पर लोगों की प्यास बुझा पा रही हैं।
ग्रामीण और शहरी इलाकों में पानी देने की केंद्र प्रायोजित एक दर्जन से अधिक योजनाएं चल रही हैं। यही नहीं, डच सरकार, विश्व बैंक और यूनिसेफ सरीखी एजेंसियां भी नेक काम में हाथ बंटा रही हैं। राज्य के 12 नगर-निगम, 194 नगर पालिका परिषद और 421 नगर पंचायतों में चल रही 39० परियोजनाओं के अलावा लखनऊ, कानपुर, इलाहाबाद और आगरा में पानी के लिए 1118 करोड़ रूपये की जरूरत जेएनयूआरएम कार्यक्रम को अंजाम देने के लिए जतायी गयी है। जबकि सभी 7० जनपदों में राजीव गांधी राष्टï्रीय पेयजल मिशन भी जुटा हुआ है। पर राज्य सरकार के नजरिये का अंदाज इससे लगता है कि गांवों में पेयजल की गुणवत्ता जांचने के काम पर लगायी गयी एजेंसियों पर मनमाफिक रिपोर्ट तैयार करने का दबाव बनाया गया। गौरतलब है कि 3०-3० जिलों में पानी की गुणवत्ता जांचने का काम औद्योगिक विष विज्ञान अनुसंधान केंद्र (आईटीआरसी) और यहीं के वैज्ञानिक एमसी सक्सेना के स्वयंसेवी संगठन को मिला था जबकि छह जिलों का काम रिमोट सेन्सिंग एजेंसी के हवाले था। डा. एमसी सक्सेना ने ‘आउटलुक’ साप्ताहिक को बताया, ‘‘प्रोफार्मा पर आर्सेनिक का जिक्र था पर सरकार चाहती थी कि इसकी अनदेखी करके पानी की गुणवत्ता प्रमाणित कर दी जाय। वह भी तब, जब गुणवत्ता जांचने के लिए दिये गये कामकाज में देश की किसी भी अदालत में गलत रिपोर्ट देने वाले के खिलाफ कार्रवाई का प्रावधान था।’’ डा. सक्सेना की मानें तो, ‘‘जलनिगम के तत्कालीन अध्यक्ष राज्य के वरिष्ठï नौकरशाह रहे अखंड प्रताप सिंह ने हमें धौंस पटï्ïटी भी दी थी।’’
सन्ï 2००5 में राज्य के 7० में से 14 जिलों में आर्सेनिक (संखिया) की मात्रा सामान्य से नौ गुना अधिक पायी गयी थी। पर जल संस्थान, लखनऊ और दिल्ली के एक स्वयंसेवी संगठन के साथ मिलकर कराये गये सर्वे के मुताबिक, ‘‘आज पानी की विषाक्तता पसर कर 51 जिलों तक जा पहुंची है।’’ कैंसर, चर्मरोग और श्वास रोगों के लिए जिम्मेदार संखिया भूगर्भीय जल स्रोतों के मार्फत बांग्लादेश से आ रहा है। इंडियन टॉक्सिकोलॉजी रिसर्च सेंटर के मुताबिक, ‘‘गोरखपुर, गाजीपुर, बहराइच, चंदौली और बरेली समेत पूरब के तकरीबन सभी जिलों और पश्चिम में मेरठ, गाजियाबाद तथा शाहजहांपुर भी खतरे की जद में है। यहां भूजल में आर्सेनिक की मात्रा ०.5 माइक्रोग्राम तक पहुंच गई है।’’ कानपुर के दक्षिणी क्षेत्र में क्रोमियम के चलते 25 फीसदी हैंडपंपों पर जल संस्थान ने ‘पानी पीने लायक नहीं’ के बोर्ड लटका रखे हैं। उन्नाव के पानी में फ्लोरोसिस होने की वजह से सेक्स हारमोन के संतुलन बिगडऩे के साथ ही जीन में बदलाव ने भी दस्तक दी है। बच्चों में असामान्यता (एबनार्मलिटी) बढ़ रही है। अमेरिका के फ्लोरिडा विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक डा. एलिजाबेथ ए जिलेट ने इस इलाके पर तैयार की गयी अपनी रिपोर्ट में कहा है, ‘‘भूगर्भ जल में क्रोमियम, कैडमियम, मरकरी, लेड, फ्लोराइड, क्लोराइड के साथ कई तरह के पेस्टीसाइड्ïस मौजूद हैं। कठोरता तो चरम पर है। मिट्ïटी में इन धातुओं का प्रतिशत पानी से दो-तीन गुना ज्यादा है। पानी में बैक्टीरिया परजीवी कीटाणुओं के अंडे भी मिले हैं।’’ इलाहाबाद के जल विशेषज्ञ डा. मसूद का कहना है, ‘‘जिस तरह जल स्रोतों का दोहन हो रहा है, उससे बाहरी क्षेत्रों के जल स्रोत का यहां तक पहुंंचना आश्चर्य की बात नहीं है।’’ बुंदेलखंड को पानी देने वाली चंबल नदी में विषाक्तता के चलते लीवर सिरोसिस की बीमारी से पिछले महीने 1०5 घडिय़ालों ने दम तोड़ा। मुख्य वन संरक्षक सुखजिंदर सिंह तस्दीक करते हैं, ‘‘चंबल नदी सेंचुरी क्षेत्र में मरने वाले घडिय़ालों की पोस्टमार्टम रिपोर्ट में लीवर सिरोसिस की पुष्टिï हुई है।’’ तो गंगा की गंदगी साफ करने में अहम भूमिका निभाने वाले कछुओं की तादाद कानपुर से पटना के बीच में चालीस फीसदी भी नहीं बची है। इसकी सहायक नदियां घाघरा और गंडक के किनारे मगरमच्छ अंडे नहीं दे पा रहे हैं। लखनऊ की प्यास बुझाने वाली गोमती में मछलियां मर कर सतह पर आने की वारदात आम हो गयी है। सीडीआरआई के वैज्ञानिक कहते हैं, ‘‘शहीद स्मारक के पास फोकल क्वालिफार्म बैक्टीरिया की मात्रा दुनिया भर में सबसे अधिक है।’’ कमोबेश ऐसी ही कुछ स्थिति यमुना की भी है। लगभग 26 प्रतिशत भूमि जल पीने लायक नहीं है। पानी को साफ करने के लिए क्लोरीन मिलाने के चलन के भी खासे दुष्प्रभाव हैं। क्लोरीन के उप-यौगिक के रूप में ट्राइहैलोमिथेन और हैलोएसिटिक एसिड सहित अन्य रसायन बनते हैं जो इंसानी सेहत के लिए घातक है। इनसे कैंसर जैसा जानलेवा रोग हो सकता है। गौरतलब है कि पेयजल को कीटाणुरहित बनाने के लिए दो मिलीग्राम प्रति लीटर के हिसाब से क्लोरीन मिलानी चाहिये पर सटीक माप-तौल की बजाय अंदाज से क्लोरीन की मात्रा तय करने की वजह से बीमारियां बढ़ रही हैं। आईटीआरसी के वैज्ञानिकों का दावा है, ‘‘संशोधन की प्रक्रिया में प्रयुक्त कैमिकल्स से लोग लीवर, किडनी और आंत रोगों से ग्रसित हो रहे हैं। इस पानी को पीने के रूप में इस्तेमाल कर रहे 8० फीसदी लोग पेट में आव (आमीबियोबाइसिस) की बीमारी से ग्रसित हैं।’’
विषाक्त और प्रदूषित पानी पीने के लिए अभिशप्त लोगों को जरूरी पानी न मिल पाने का दंश भी झेलना पड़ रहा है। मसलन, कानपुर में 8०० एमएलडी पानी की जगह 45०, गाजियाबाद में 16० एमएलडी पानी के एवज में 13०, गोरखपुर में 25 एमएलडी कम पानी की आपूर्ति जारी है। जबकि मुरादाबाद में 1०6 एमएलडी पानी की जगह 52, अलीगढ़ में पानी की जरूरत 111 एमएलडी है जबकि 76 एमएलडी पानी आपूर्ति का दावा है। लखनऊ में रोजाना 25० एमएलडी कम पानी दिया जा रहा है। जबकि आगरा जलनिगम 2० लाख की जनसंख्या वाले इस शहर की आबादी 12 लाख मानकर पानी की आपूर्ति कर रहा है।
प्रदेश में 138 विकासखंड पानी के लिहाज से समस्याग्रस्त, 37 अति दोहित, 13 क्रिटिकल व 88 सेमी क्रिटिकल श्रेणी में हैं। लखनऊ, आगरा, कानपुर, वाराणसी, अलीगढ़, गाजियाबाद, मथुरा में भूजल स्तर में क्रमश: 56, 4०, 45, 23, 4०, 22 और 36 सेमी सालाना की गिरावट देखी जा रही है। 54 जिलों में भूजल स्तर दस मीटर से नीचे चला गया है। पानी की भावी किल्लत के बारे में बेखौफ होकर कहा जाए तो आगरा, रायबरेली, बदायूं, शाहजहांपुर में क्रमश: 2०19, 2०31 और 2०4० तक भूजल चुक जाएगा। फतेहपुर, फर्रूखाबाद और बुंदेलखंड इलाके में अतिदोहन के कारण ही जमीन फटने की प्राकृतिक आपदायें पहले ही आ चुकी हैं।
11वीं पंचवर्षीय योजना के लिए इस मद में 2००० करोड़ रूपये हैं। शहरवासियों को पानी पिलाने के लिए 47 अरब रूपये की जरूरत पूरी करने की दिशा में काफी दूरी तय की गयी है। पानी के लिये केंद्र सरकार और विदेशी एजेंसियां पैसा दोनो हाथ से उलचने को तैयार हैं। पर केवल 2००7-०8 की योजनाएं बताती हैं कि 317 में से 1०5 पूरी हो पायीं और 129 करोड़ रूपये खर्च हुए बिना रह गये। यही नहीं गोरखपुर-बस्ती मंडल में प्रशासनिक सुस्ती की वजह से 6० योजनाएं आज भी अधूरी हैं। गोरखपुर क्षेत्र के अधीक्षण अभियंता एके माथुर का दावा है, ‘‘कई जगहों पर जमीनी विवाद की वजह से परियोजनाओं के क्रियान्वयन में दिक्कत आ रही है। पेयजल परियोजनाएं शीघ्र पूरी कर ली जायेंगी।’’ सुप्रीमकोर्ट अनुश्रवण समिति के सदस्य डीके जोशी की मानें तो, ‘‘196 करोड़ रूपये सिर्फ पानी के लिए आगरा को विदेशी एजेंसियों से मिल चुके हैं।’’ तो कानपुर में 1962 से शुरू हुए दो करोड़ की लागत वाले बैराज योजना पर अब तक 4०० करोड़ रूपये खर्च कर देने के बाद भी शहरवासियों की प्यास बुझाने में यह योजना कामयाब नहीं हो पायी है। वह भी तब, जब पानी की उत्पादन लागत राज्य में सबसे कम 4 पैसे प्रति हजार लीटर झांसी में और सबसे अधिक इलाहाबाद में 4.56 रूपये प्रति लीटर आती हो। जबकि वसूली जा रही धनराशि भी उत्पादन लागत से एक रूपये से सवा रूपये प्रति हजार लीटर है।
-योगेश मिश्र
रहीम ने भले ही तकरीबन 4०० साल पहले ‘बिन पानी सब सून’ कहा हो लेकिन सरकार की खास तवज्जो वाली फेहरिश्त में पानी नदारद है। यही नहीं, पानी को लेकर भ्रष्टïाचार भी अपने उच्च सूचकांक पर है। राज्य के 53 जिलों में पानी अब पीने लायक नहीं रह गया है। शहरी और ग्रामीण इलाकों में रोजाना 15० व 4० लीटर पानी उपलब्ध नहीं हो पा रहा है। वह भी तब, जब पानी के लिए पैसा पानी की तरह बहाया जा रहा है। योजनाएं न तो समय पर पूरी हो पा रही हैं और न ही मुकम्मल तौर पर लोगों की प्यास बुझा पा रही हैं।
ग्रामीण और शहरी इलाकों में पानी देने की केंद्र प्रायोजित एक दर्जन से अधिक योजनाएं चल रही हैं। यही नहीं, डच सरकार, विश्व बैंक और यूनिसेफ सरीखी एजेंसियां भी नेक काम में हाथ बंटा रही हैं। राज्य के 12 नगर-निगम, 194 नगर पालिका परिषद और 421 नगर पंचायतों में चल रही 39० परियोजनाओं के अलावा लखनऊ, कानपुर, इलाहाबाद और आगरा में पानी के लिए 1118 करोड़ रूपये की जरूरत जेएनयूआरएम कार्यक्रम को अंजाम देने के लिए जतायी गयी है। जबकि सभी 7० जनपदों में राजीव गांधी राष्टï्रीय पेयजल मिशन भी जुटा हुआ है। पर राज्य सरकार के नजरिये का अंदाज इससे लगता है कि गांवों में पेयजल की गुणवत्ता जांचने के काम पर लगायी गयी एजेंसियों पर मनमाफिक रिपोर्ट तैयार करने का दबाव बनाया गया। गौरतलब है कि 3०-3० जिलों में पानी की गुणवत्ता जांचने का काम औद्योगिक विष विज्ञान अनुसंधान केंद्र (आईटीआरसी) और यहीं के वैज्ञानिक एमसी सक्सेना के स्वयंसेवी संगठन को मिला था जबकि छह जिलों का काम रिमोट सेन्सिंग एजेंसी के हवाले था। डा. एमसी सक्सेना ने ‘आउटलुक’ साप्ताहिक को बताया, ‘‘प्रोफार्मा पर आर्सेनिक का जिक्र था पर सरकार चाहती थी कि इसकी अनदेखी करके पानी की गुणवत्ता प्रमाणित कर दी जाय। वह भी तब, जब गुणवत्ता जांचने के लिए दिये गये कामकाज में देश की किसी भी अदालत में गलत रिपोर्ट देने वाले के खिलाफ कार्रवाई का प्रावधान था।’’ डा. सक्सेना की मानें तो, ‘‘जलनिगम के तत्कालीन अध्यक्ष राज्य के वरिष्ठï नौकरशाह रहे अखंड प्रताप सिंह ने हमें धौंस पटï्ïटी भी दी थी।’’
सन्ï 2००5 में राज्य के 7० में से 14 जिलों में आर्सेनिक (संखिया) की मात्रा सामान्य से नौ गुना अधिक पायी गयी थी। पर जल संस्थान, लखनऊ और दिल्ली के एक स्वयंसेवी संगठन के साथ मिलकर कराये गये सर्वे के मुताबिक, ‘‘आज पानी की विषाक्तता पसर कर 51 जिलों तक जा पहुंची है।’’ कैंसर, चर्मरोग और श्वास रोगों के लिए जिम्मेदार संखिया भूगर्भीय जल स्रोतों के मार्फत बांग्लादेश से आ रहा है। इंडियन टॉक्सिकोलॉजी रिसर्च सेंटर के मुताबिक, ‘‘गोरखपुर, गाजीपुर, बहराइच, चंदौली और बरेली समेत पूरब के तकरीबन सभी जिलों और पश्चिम में मेरठ, गाजियाबाद तथा शाहजहांपुर भी खतरे की जद में है। यहां भूजल में आर्सेनिक की मात्रा ०.5 माइक्रोग्राम तक पहुंच गई है।’’ कानपुर के दक्षिणी क्षेत्र में क्रोमियम के चलते 25 फीसदी हैंडपंपों पर जल संस्थान ने ‘पानी पीने लायक नहीं’ के बोर्ड लटका रखे हैं। उन्नाव के पानी में फ्लोरोसिस होने की वजह से सेक्स हारमोन के संतुलन बिगडऩे के साथ ही जीन में बदलाव ने भी दस्तक दी है। बच्चों में असामान्यता (एबनार्मलिटी) बढ़ रही है। अमेरिका के फ्लोरिडा विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक डा. एलिजाबेथ ए जिलेट ने इस इलाके पर तैयार की गयी अपनी रिपोर्ट में कहा है, ‘‘भूगर्भ जल में क्रोमियम, कैडमियम, मरकरी, लेड, फ्लोराइड, क्लोराइड के साथ कई तरह के पेस्टीसाइड्ïस मौजूद हैं। कठोरता तो चरम पर है। मिट्ïटी में इन धातुओं का प्रतिशत पानी से दो-तीन गुना ज्यादा है। पानी में बैक्टीरिया परजीवी कीटाणुओं के अंडे भी मिले हैं।’’ इलाहाबाद के जल विशेषज्ञ डा. मसूद का कहना है, ‘‘जिस तरह जल स्रोतों का दोहन हो रहा है, उससे बाहरी क्षेत्रों के जल स्रोत का यहां तक पहुंंचना आश्चर्य की बात नहीं है।’’ बुंदेलखंड को पानी देने वाली चंबल नदी में विषाक्तता के चलते लीवर सिरोसिस की बीमारी से पिछले महीने 1०5 घडिय़ालों ने दम तोड़ा। मुख्य वन संरक्षक सुखजिंदर सिंह तस्दीक करते हैं, ‘‘चंबल नदी सेंचुरी क्षेत्र में मरने वाले घडिय़ालों की पोस्टमार्टम रिपोर्ट में लीवर सिरोसिस की पुष्टिï हुई है।’’ तो गंगा की गंदगी साफ करने में अहम भूमिका निभाने वाले कछुओं की तादाद कानपुर से पटना के बीच में चालीस फीसदी भी नहीं बची है। इसकी सहायक नदियां घाघरा और गंडक के किनारे मगरमच्छ अंडे नहीं दे पा रहे हैं। लखनऊ की प्यास बुझाने वाली गोमती में मछलियां मर कर सतह पर आने की वारदात आम हो गयी है। सीडीआरआई के वैज्ञानिक कहते हैं, ‘‘शहीद स्मारक के पास फोकल क्वालिफार्म बैक्टीरिया की मात्रा दुनिया भर में सबसे अधिक है।’’ कमोबेश ऐसी ही कुछ स्थिति यमुना की भी है। लगभग 26 प्रतिशत भूमि जल पीने लायक नहीं है। पानी को साफ करने के लिए क्लोरीन मिलाने के चलन के भी खासे दुष्प्रभाव हैं। क्लोरीन के उप-यौगिक के रूप में ट्राइहैलोमिथेन और हैलोएसिटिक एसिड सहित अन्य रसायन बनते हैं जो इंसानी सेहत के लिए घातक है। इनसे कैंसर जैसा जानलेवा रोग हो सकता है। गौरतलब है कि पेयजल को कीटाणुरहित बनाने के लिए दो मिलीग्राम प्रति लीटर के हिसाब से क्लोरीन मिलानी चाहिये पर सटीक माप-तौल की बजाय अंदाज से क्लोरीन की मात्रा तय करने की वजह से बीमारियां बढ़ रही हैं। आईटीआरसी के वैज्ञानिकों का दावा है, ‘‘संशोधन की प्रक्रिया में प्रयुक्त कैमिकल्स से लोग लीवर, किडनी और आंत रोगों से ग्रसित हो रहे हैं। इस पानी को पीने के रूप में इस्तेमाल कर रहे 8० फीसदी लोग पेट में आव (आमीबियोबाइसिस) की बीमारी से ग्रसित हैं।’’
विषाक्त और प्रदूषित पानी पीने के लिए अभिशप्त लोगों को जरूरी पानी न मिल पाने का दंश भी झेलना पड़ रहा है। मसलन, कानपुर में 8०० एमएलडी पानी की जगह 45०, गाजियाबाद में 16० एमएलडी पानी के एवज में 13०, गोरखपुर में 25 एमएलडी कम पानी की आपूर्ति जारी है। जबकि मुरादाबाद में 1०6 एमएलडी पानी की जगह 52, अलीगढ़ में पानी की जरूरत 111 एमएलडी है जबकि 76 एमएलडी पानी आपूर्ति का दावा है। लखनऊ में रोजाना 25० एमएलडी कम पानी दिया जा रहा है। जबकि आगरा जलनिगम 2० लाख की जनसंख्या वाले इस शहर की आबादी 12 लाख मानकर पानी की आपूर्ति कर रहा है।
प्रदेश में 138 विकासखंड पानी के लिहाज से समस्याग्रस्त, 37 अति दोहित, 13 क्रिटिकल व 88 सेमी क्रिटिकल श्रेणी में हैं। लखनऊ, आगरा, कानपुर, वाराणसी, अलीगढ़, गाजियाबाद, मथुरा में भूजल स्तर में क्रमश: 56, 4०, 45, 23, 4०, 22 और 36 सेमी सालाना की गिरावट देखी जा रही है। 54 जिलों में भूजल स्तर दस मीटर से नीचे चला गया है। पानी की भावी किल्लत के बारे में बेखौफ होकर कहा जाए तो आगरा, रायबरेली, बदायूं, शाहजहांपुर में क्रमश: 2०19, 2०31 और 2०4० तक भूजल चुक जाएगा। फतेहपुर, फर्रूखाबाद और बुंदेलखंड इलाके में अतिदोहन के कारण ही जमीन फटने की प्राकृतिक आपदायें पहले ही आ चुकी हैं।
11वीं पंचवर्षीय योजना के लिए इस मद में 2००० करोड़ रूपये हैं। शहरवासियों को पानी पिलाने के लिए 47 अरब रूपये की जरूरत पूरी करने की दिशा में काफी दूरी तय की गयी है। पानी के लिये केंद्र सरकार और विदेशी एजेंसियां पैसा दोनो हाथ से उलचने को तैयार हैं। पर केवल 2००7-०8 की योजनाएं बताती हैं कि 317 में से 1०5 पूरी हो पायीं और 129 करोड़ रूपये खर्च हुए बिना रह गये। यही नहीं गोरखपुर-बस्ती मंडल में प्रशासनिक सुस्ती की वजह से 6० योजनाएं आज भी अधूरी हैं। गोरखपुर क्षेत्र के अधीक्षण अभियंता एके माथुर का दावा है, ‘‘कई जगहों पर जमीनी विवाद की वजह से परियोजनाओं के क्रियान्वयन में दिक्कत आ रही है। पेयजल परियोजनाएं शीघ्र पूरी कर ली जायेंगी।’’ सुप्रीमकोर्ट अनुश्रवण समिति के सदस्य डीके जोशी की मानें तो, ‘‘196 करोड़ रूपये सिर्फ पानी के लिए आगरा को विदेशी एजेंसियों से मिल चुके हैं।’’ तो कानपुर में 1962 से शुरू हुए दो करोड़ की लागत वाले बैराज योजना पर अब तक 4०० करोड़ रूपये खर्च कर देने के बाद भी शहरवासियों की प्यास बुझाने में यह योजना कामयाब नहीं हो पायी है। वह भी तब, जब पानी की उत्पादन लागत राज्य में सबसे कम 4 पैसे प्रति हजार लीटर झांसी में और सबसे अधिक इलाहाबाद में 4.56 रूपये प्रति लीटर आती हो। जबकि वसूली जा रही धनराशि भी उत्पादन लागत से एक रूपये से सवा रूपये प्रति हजार लीटर है।
-योगेश मिश्र