अदालत में शिकस्ती खाती मायावती की सरकार

Update:2008-04-08 17:38 IST
दिनांक : ०8.०4.2००8
क्षेत्रीय छत्रपों की सरकारों के मुखिया की आदत में विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और स्वघोषित पत्रकारिता में से किसी न किसी स्तम्भ के साथ छेड़छाड़ की आदत और शौक हमेशा दिखता है। नतीजतन, उनके फैसले अक्सर अदालत की दहलीज पर याचिकाओं के मार्फत पहुंचते रहते हैं। उप्र में मायावती और मुलायम दोनों को अदालती फटकार का अपने फैसलों को लेकर सामना करना पड़ता है। मायावती सरकार के शुरू से अब तक एक दर्जन से अधिक ऐसे फैसले हैं जिन पर सरकार को या तो पराजय का मुंह देखना पड़ा है अथवा फटकार सुननी पड़ी है। मायावती की महात्वाकांक्षी परियोजना अंबेडकर स्मारक, रमाबाई मैदान और कांशीराम स्मृति उपवन तो उन फैसलों में है जिनके लिये आज सरकार को सर्वोच्च अदालत की दहलीज तक पहुंचना पड़ा है। (रवींद्र जी, आज सर्वोच्च अदालत का जो फैसला आएगा वह यहां जोड़ दीजिएगा) हर ग्राम समाज में सफाई कर्मचारियों की भर्ती के लिये निकाले गये विज्ञापन में वाल्मीकि समाज के लोगों को ही रखने के सरकारी फैसले पर अदालत ने कड़ा रुख अख्तियार किया। नतीजतन, इन पदों पर किसी के भी भर्ती का मार्ग सरकार को प्रशस्त करना पड़ा। हालांकि सबसे पहली अदालती शिकस्त सरकार को अंबेडकर स्टेडियम को बगल स्थित अंबेडकर स्मारक का हिस्सा बनाने को लेकर झेलनी पड़ी। दिल्ली से लौटे मायावती के एक खास सचिव ने रातो-रात भीमराव अंबेडकर के नाम पर ही गोमतीनगर में चलने वाले क्रीड़ा संकुल (स्टेडियम) को खाली कराने का जब दबाव बनाया तो एक सिरफिरे ने सरकार के खिलाफ खड़े होने की हिम्मत दिखायी तो हाईकोर्ट के जजों को रात को अदालत लगाने को विवश होना पड़ा। अदालत ने न केवल स्थगन आदेश पारित किया बल्कि दूसरे दिन सरकार के इस कृत्य पर गंभीर और तल्ख टिप्पणी करते हुये सरकारी वकील को बताया, ‘‘सरकार पांच साल की है। इतनी जल्दी में क्यों दिख रहे हैं।’’ गोमतीनगर स्थित ताज होटल के पीछे जुगौली गांव की ०.8०8 हेक्टेयर तथा औरंगाबाद खालसा की 2.०6 हेक्टेयर ग्रीन बेल्ट की जमीन का भू उपयोग बदलने के लिये दायर याचिका पर सरकार को करारी शिकस्त मिली। अदालत ने सरकार के सभी निर्माण रोकने का फैसला सुना दिया। कारगिल शहीदों के नाम पर बने स्वर्ण जयंती स्मृति उपवन को पहले मान्यवर श्री कांशीराम स्मृति उपवन और बाद में बौद्घ विहार शांति वन नाम दिये जाने को लेकर भी हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ ने सरकार को ऐसा न करने की हिदायत दी। एक अहम फैसले में मंत्री और मुख्यमंत्री के चाहने पर होने वाले निलंबन के खिलाफ भी सरकार को खाद्य एवं रसद महकमे के एक अफसर की याचिका पर खरी-खोटी सुननी पड़ी। सरकारी इमारतों अथवा बंगलों को ढहा कर उसके स्थान पर नया निर्माण करने की मायावती सरकार की मंशा पर भी हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ ने पलीता लगा दिया। गौरतलब है कि गन्ना आयुक्त कार्यालय और कभी मंत्री आवास के रूप में विख्यात मायावती सरकार के मंत्री नसीमुद्दीन सिद्दीकी के घर को भी इस सरकार ने मनचाही इमारतों में तब्दील कर दिया। यह बात दीगर है कि इसके लिये सार्वजनिक निर्माण विभाग से कागजी खानापूर्ति ठीक से कर ली गयी थी। याची के अधिवक्ता प्रशांत चंद्रा ने फैसले के बावत बताया, ‘‘याचिका में शहर के सत्कार भवन, अंबेडकर पार्क, रमाबाई रैली स्थल व मॉल एवेन्यू सहित अन्य सरकारी इमारतों की यथास्थिति बहाल करने के लिये अदालत ने कहा। अदालत ने उनके ढहाने और नये निर्माण पर अंतरिम रोक लगायी। ’’ सरकार की अपनी कमजोरी के चलते ही हाईकोर्ट को लखनऊ विकास प्राधिकरण के उपाध्यक्ष हरभजन सिंह को निलंबित करने का आदेश देना पड़ा। मुलायम राज में नौकरी पाये तकरीबन 22 हजार पुलिसकर्मियों को बर्खास्त किये जाने के मामले पर जिस तरह हाईकोर्ट सुनवाई कर रहा है या फिर इस भर्ती में संलिप्त अफसरों की गिरफ्तारी न करने का फरमान हाईकोर्ट ने जारी किया, उससे साफ है कि अदालती दहलीज पर सरकार रोज बरोज नई शिकस्त झेल रही है। यह तो कुछ बड़ी नजीरें हैं। पर सरकार के लिये अदालत में पार पाना मुश्किल हो रहा है। यही वजह है कि कभी मायावती सरकार के महाधिवक्ता रहे ब्राम्हण राजनीति के प्रतीक पुरूष सतीश मिश्र को अदालत में सरकार की ओर से बतौर वकील उतरने के लिये राज्य फिल्म विकास परिषद के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देना पड़ा। यह पद सरकार में लाभ के पदों में शुमार होता है। सर्वोच्च अदालत में वकालत करने के नियमों के मुताबिक लाभ के पद पर रहते हुये किसी मुकदमें की पैरवी बतौर अधिवक्ता संभव नहीं है। अब महाधिवक्ता ज्योतीन्द्र मिश्र की लंबी-चौड़ी फौज के साथ दल-बदल के मामले में मायावती सरकार को पिछली बार विजय दिला चुके सतीश मिश्र भी साथ खड़े दिखेंगे।

-योगेश मिश्र

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