घाघरा की खूंखार लहरों ने बिगाड़ा तराई क्षेत्र का नक्शा तड़पते-बिलखते बाढ़ पीडि़तों का कोई पुरसाने हाल नहीं रिजवान

Update:2008-09-24 16:42 IST
बाराबंकी, 24 सितम्बर। कयामत खेज मंजर को नुमाया करती घाघरा की कातिलाना लहरोंं ने तराई क्षेत्र का नक्शा बिगाडक़र रख दिया है। चारों तरफ सिवाय हाहाकार के कुछ भी सुनाई नही पड़ता। जिला प्रशासन की मदद के सहारे अपनी बदकिस्मती को थोड़ा बहुत दूर करने की बाट जोहते लाखों बाढ़ पीडि़त बिल्कुल मायूस हैं क्योंकि वहां सब कुछ हवा हवाई है। पिछले बीस सालों में ऐसा दर्दनाक मंजर कभी नही देखा गया। वहीं इससे दर्जनों लोगों की मौत हो चुकी है, प्रशासन ने केवल तीन लाशों की पुष्टि की है।

घाघरा ने रामनगर इलाके को अपने कातिलाना तेवरों के बाहुपाश में जकडक़र एकदम नेस्तनाबूद कर डाला है। चारो ओर पानी ही पानी है। इस भीषण पनियल माहौल में ऐसा बेचारगी का आलम कि देखने वालों के तो दूर सुनने वालों तक के कलेजें दहल जायें। इस दिल दहला देने वाले माहौल में जिला प्रशासन की कारगुजारियां केवल औपचारिकता तक ही सीमित दिखायी पड़ती है। भीषण जलभराव में फंसे तकरीबन पांच लाख बाढ़ पीडि़तों के लिए केवल ग्यारह स्टीमर लगवाना मदद के मामले में सिफर साबित हो रहा है। सेना तब बुलायी गयी जब दर्जनों फिट गहरे पानी में घरों की छतों पर, पेड़ो पर और मचानों आदि पर लोग भूख प्यास से बेहाल अवस्था में मौत से भी बदत्तर हालात से गुजर रहे है। अब इन तक सेना या दीगर सरकारी अमला कैसे पहुंचे। यह सवाल दहकती आग की मानिन्द उठ खड़ा हुआ है। 5/8 गोरखा रेजीमेण्ट की 25, 25 सैनिकों की टुकडिय़ा हों, राजस्व कर्मी हों या प्रशासनिक अधिकारी हों सब के सब किनारे खड़े रहकर तमाशबीन की भूमिका में है। एल्ग्रिज ब्रिज को तटबंध टूटने से आयी भयावह स्थिति के बाद जितने लोग भागकर आ सके रेलवे लाइन पर शरणागत है। बाकी हजारों मर्द, औरतें और मासूम बच्चे पानी की सतह से किसी तरह ऊंचाई पर बैठे रहकर जिन्दगी और मौत की कशमकश में झूल रहे हैं।

सवाल यह भी उठता है कि इतनी भीषण तबाही के बाद प्रशासन करें भी तो क्या लेकिन इसके आगे एक सवाल यह भी है कि बाढ़ पीडि़तों के बचाव और राहत के लिए रणनीति क्या बनायी गयी है। इस मामले में स्थिति कुछ यह है कि न तो पानी में फंसे पीडि़तों को बाहर निकालने के पुख्ता इंतजाम है, न ही बाहर आ चुके हजारों परिवारों के खाने-पीने और सर छिपाने की व्यवस्था पर किसी का ध्यान है। अगर कुछ है तो हाथ जोडक़र पुर्नवास के लिए गिड़गिड़ाते दुखियारों को दुत्कारना और पानी में फंसे लोगों की मदद के लिए आहो पुकार को अनसुनी कर आगे बढ़ जाना।

घाघरा की विनाशलीला इस साल भी होना कोई नही बात नही है। यह तो प्रत्येक वर्ष की अप्रत्यक्ष परम्परा है। नेपाल द्वारा घाघरा में पानी छोडऩे की सूचना प्रत्येक वर्ष भारत सरकार को दी जाती है तथा यह पानी घाघरा में आने से पूर्व बनबसा, गिरजा बैराज, शारदा बैराज एवं सरयू बैराज को पार करता है जिसमें तकरीबन 24 घण्टे लगते है। इन 24 घण्टों में प्रशासन जानबूझकर एेसी कोई रणनीति तैयार नहीं करता जिससे हजारोंं गांवों की सुरक्षा सुनिश्चित हो जायें। वर्ष 1996 में इस बर्बादी को रोकने के लिए केन्द्र सरकार ने एक कार्य योजना तैयार कर इसको अमली जामा भी पहनाया था लेकिन बाद में अज्ञात कारणवश कार्य रोक दिया गया। जिसके नतीजे में आज घाघरा एक बार फिर तांडव मचाती दिख रही है।

जिला प्रशासन की टालू नीति का पुख्ता प्रमाण यह भी है कि अब तक पांच सौ से भी अधिक गांव बाढ़ से प्रभावित है लेकिन इनके रिकार्ड में केवल 177 गांव दर्ज है। मतलब साफ है कि अगर को भाग्य से रूखी सूखी पा गया तो गनीमत अन्यथा इन अभागे बाढ़ पीडि़तों का कोई पुरसाने हाल नहीं है।

उफ.... कहां जाये यह दर्द के मारेंं

बाराबंकी। जिन्दगी जीने की चाह किसको नही लेकिन जब यही जिन्दगी मौत से बदत्तर हो जायें तो लोग किससे फरियाद करें? यह अहम सवाल है। इसी जिन्दगी की बदहाली की परिभाषा वहंा प्रत्यक्ष मौजूद है जहां चारों तरफ सैलाब का मंजर है

और इस सैलाब में फंसे हजारों परिवार के जिन्दा रहने के बावजूद तिल-तिल मरने को मजबूर है।

घाघरा की मौत से भी खौफनाक लहरों ने किसी खूंखार दरिन्दे की मानिन्द कब तराई क्षेत्र के हजारोंं परिवारों को अपने खूनी पंजो से नोच खसोट डाला। किसी की समझ में नही आया। जो मरा सो मरा और जो बचा उसकी जिन्दगी कीड़े-मकोड़े से भी बदतर हो गयी। जब पानी ने तबाही मचानी शुरू की तो मासूम बच्चे अपनी मांआे के आंचल में यह सोचकर दुबक गये कि शायद इस पनाहगाह में उनकी जान बच जायें लेकिन कोई ताकतवर लहर जोरदार ठोकर के साथ मां को अपने साथ बहाकर कहीं दूर लिये चली गयी और बच्चा मां-मां की दर्दनाक सदा लगाता रह गया। घरों में रखा आटा, दाल, चावल पानी की चपेट में आकर पानी हो गया जितना माल असबाब था जाने कहां बहकर चला गया। बची एक जान तो इसकी हिफाजत के लिए न तो आशियाना है न तो भूख मिटाने के लिए अनाज का एक दाना है और इस बड़े हुलूम में हर बचा खुचा परिवार एक दूसरे के लिए बेगाना है।

सैलाब के बीच घरोंं की छतों, पेड़ो और मचानों पर शरणागत महिला पुरूषों व बच्चों की तरसती निगाहें कभी बचाव की दरकार में आंसुआें के धार बहाती है। तो कभी पेट की आग में जलने वाले यह बेबस लाचार लोग भगवान और खुदा को याद कर इस भयंकर मुसीबत से निजात देने की दुआ करते है। दर्दनाक यह भी है कि इस प्रलयकारी बाढ़ में ऊंचे स्थानों पर शरणागत पीडि़तों को भूख प्यास के साथ-साथ जहरीले और खतरनाक जानवरों के खौफ की त्रासदी भी झेलनी पड़ रही है क्योंकि अपनी जान बचाने के लिए सांप, बिच्छू व अन्य जानवर भी सुरक्षित स्थान की तलाश मेंं इर्द गिर्द मंडराते है।

इधर राहत शिविरों पर किसी तरह जमा हुए पीडि़तोंं का दर्द भी कम होने के बजाए बढ़ता दिखता है क्योंकि वहां लोग यह सोंचकर पहुंचे कि डूबते को कुछ तो तिनके का सहारा मिलेगा। लेकिन उनका यह ख्याल भी ख्याल ही रहा। वहां खाने पीने की बात करना इसलिए फिजूल साबित है क्योंकि वहां खिलाना पिलाना तो दूर कोई हालचाल तक पूंंछने वाला नहीं है। दूधमुंहे बेजुबान बच्चे जोर जोर से रोकर अपनी मां से दूध की फरियाद करते हैं। जितना था पिला दिया अब जिस्म में केवल जिन्दा रहने के लिए खून बचा है जिसे पिला पाना किसी भी मां के बस की बात नहीं। मां हसरत भरी नजरों से बच्चे के बाप की तरफ देखती है लेकिन बाप जब खुद मोहताज है तो अपने बाल बच्चों के लिए क्या करें। वह यह सोंचकर वहां से अलग हटकर दहाड़े मारकर रोने लगता है।

सैलाब के बीच फंसे लोगों के लिए खाना पीना तीन चार दिनों से एकदम ख्वाब जैसा है। जब पेट की आग जिस्म को जलाती है तो भरे हुए खारे पानी के दो चार घूंट इसमें डालकर इसे बुझाने के प्रयास में और भी दर्द से बेहाल हो जाते हैं। अगर किसी मददगार के भेष में कोई किनारे खड़ा नजर आता है तो दूर से हाथ जोडक़र बचाव की दर्दनाक फरियद करते हैं। दिन का उजाला हो या रात का खौफनाक अंधेरा इन पीडि़तोंं के लिए एक एक पल दुख और गमों से भरपूर है। एेसे में क्या कहिये उस बचाव और राहत अमले को जो केवल इनको देखकर यह कहकर आगे बढ़ जाता है कि रूक जाआें कुछ न कुछ किया जायेगा। जबकि होता कुछ भी नहीं। उफ यह बेबसी का आलम कब तलक रहेगा। यह तो ऊपर वाला ही जाने लेकिन इन्सानी जिन्दगी का असली दर्द इस वक्त तराई इलाके में हकीकत की शक्ल में साफ तौर पर देखा जा सकता है।

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