लखनऊ, 27 सितम्बर। तुम्हारा शहर, तुम्ही मुद्दई, तुम्ही मुंसिफ, हमें पता है हमारा कुसूर निकलेगा। किसी शायर की इन लाइनों ने राज्य के उच्च न्यायालय को इन दिनों हलकान कर रखा है। उसके अपने ही एक माननीय न्यायमूर्ति की नियुक्ति पर जहां सवाल उठ खड़े हुये हैं वहीं इलाहाबाद खंडपीठ में इस मामले की सुनवाई कर रहे माननीय दो न्यायधीशों ने जब अपनी ही अदालत से अपने इस ‘ब्रदर’ की नियुक्ति के दस्तावेज मांगे तो अदालत ने देने से मना कर दिया। उच्च न्यायालय के इस इंकार को मामले की सुनवाई कर रहे दोनों न्यायधीशों ने आम आदमी के साथ इस खिलवाड़ बताया।
न्यायमूर्ति डा. सतीश चंद्र की इलाहाबाद उच्च न्यायालय में नियुक्ति 6 अगस्त 2008 को हुई। उनकी नियुक्ति के साथ ही यह बहस भी छिड़ गयी कि क्या उच्च न्यायालय अपने ही किसी महत्वपूर्ण दस्तावेज को अपने ही न्यायमूर्तिगण के समक्ष पेश करने के लिये बाध्य है। हुआ यह कि नियुक्ति के विरुद्घ एक याचिका उसकी संवैधानिकता को लेकर अधिवक्ता महेश चंद्र गुप्ता ने दाखिल कर दी। उनका कहना था कि डा. चंद्रा न्यायमूर्ति के पद के लिये आवश्यकता संवैधानिक अर्हता नहंीं पूरी करते हैं। असली विवाद तो तब शुरू हुआ जब मामले की बहस सुन रही खंडपीठ के जज न्यायमूर्ति सुशील हरकौली और न्यायमूर्ति विक्रम नाथ ने उच्च न्यायालय को आदेश दिया कि जिस रिपोर्ट के आधार पर डा. चंद्रा को न्यायमूर्ति पद पर नियुक्त किया गया उसे पीठ के समक्ष प्रस्तुत किया जाये। यह आदेश पिछली 10 सितम्बर को जारी हुआ था, जिसमें कहा गया था कि, ‘कालीजियम’ के उस कार्रवाई को पीठ के समक्ष रखा जाये जिसमें डा. चंद्रा को जज बनाये जाने की सिफारिश की गयी थी। पीठ ने यह भी स्पष्टï कर दिया था कि कार्रवाई की रिपोर्ट बंद लिफाफे में न्यायालय में 12 सितम्बर को पीठ के न्यायमूर्ति गण के अध्ययन हेतु ही प्रस्तुत की जाये। हालांकि देखने के बाद उसे वापस करने की बात भी न्यायधीशों ने कह दी थी। मतलब यह कि यह कार्रवाई किसी भी हालत में ‘पब्लिक’ नहीं होगी।
पीठ ने मामले की बहस 16 सितम्बर के लिये निश्चित की। बताते चलें कि पीठ ने यहां तक भी स्पष्टï कर दिया था कि इस कार्रवाई की रिपोर्ट को देखने की इजाजत याची को भी नहीं होगी। आदेश होते समय उच्च न्यायालय की ओर से वरिष्ठï अधिवक्ता एस.पी.गुप्ता और अमित स्थालकर के साथ-साथ याची के अधिवक्ता रवि किरन जैन भी मौजूद थे।
12 सितम्बर को एक बंद लिफाफे में कार्रवाई पीठ के समक्ष प्रस्तुत हुई, जिसे देखने के चंद लमहे बाद ही पीठ ने उसे वापस कर दिया। 17 सितम्बर के अपने आदेश में पीठ ने कहा कि कार्रवाई में उल्लिखित था कि बेंच से जो लोग उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति पद हेतु चुने गये थे उनका आधार उच्च न्यायालय की तीन जजों की एक कमेटी की संस्तुति थी, जो मुख्य न्यायमूर्ति द्वारा सहमति के साथ अग्रसारित की गयी थी। पीठ ने कहा कि वह रिपोर्ट जो तीन न्यायमूर्ति गण की कमेटी ने भेजी थी, वह न तो अनिवार्य संवैधानिक अधिकारियों को भेजी गयी और न ही पीठ के समक्ष प्रस्तुत की गयी। जबकि पीठ ने स्पष्टï किया था कि ‘कालिजियम’ की कार्रवाई ‘संपूर्ण’ रूप से पीठ के समक्ष प्रस्तुत की जाये और कमेटी की रिपोर्ट तो उसका मूल आधार थी।
इसके बाद कड़ाई दिखाते हुये पीठ ने उच्च न्यायालय के अधिवक्ता श्री गुप्ता से कहा कि कमेटी की रिपोर्ट पीठ के समक्ष 16 सितम्बर को पेश की जाये और उच्च न्यायालय को यह विश्वास रहे कि वह रिपोर्ट आधिकारिक रूप से न्यायालय की कार्रवाई का हिस्सा नहीं बनायी जायेगी और न ही उसे आम किया जायेगा। श्री गुप्ता ने उसे पेश करने के लिये 24 घंटे मांगा था मगर 17 तारीख को पीठ के सामने उच्च न्यायालय उस रिपोर्ट को बंद लिफाफे में भी पेश करने से मुकर गया। मामले की सुनवाई कर रहे न्यायमूर्ति ने अपनी अप्रसन्नता साफ की, ‘समझ में नहीं आता कि ऐसा कौन सा कारण है जिसने उच्च न्यायालय को ऐसा अप्रत्याशित निर्णय लेने के लिये विवश किया है’।
पीठ ने कहा, ‘उच्चतम न्यायालय के 2004 के एक फैसले का हवाला देते हुये पीठ ने कहा कि उच्चतम न्यायालय ने तो यहां तक कह रखा है कि किसी भी सूचना को तभी प्रकाशित होने से रोका जाना चाहिए जब वह जनहित में हो अन्यथा सूचना देने के मामले में उदारता बरती जानी चाहिए। और यहां तो प्रकाशित किये जाने का सवाल ही नहीं उठता है। हम तो केवल एक अधिकारिक कागज मांग रहे हैं, और वो भी उस संस्था से जो उच्च न्यायालय है। मना करने के पीछे उच्च न्यायालय को अपवाद सरीखे मजबूत कारण देने चाहिए थे ताकि आम आदमी का भरोसा न्यायिक व्यवस्था में कायम रहे। हमारे पास इसके अलावा कोई विकल्प नहीं है कि हम आदेश दें कि 26 सितम्बर को यह रिपोर्ट या तो अदालत के सामने पेश हो या उच्च न्यायालय पेश न करने के पीछे अपना विशेषाधिकार प्रस्तुत करे।’
पीठ के सामने 26 सितम्बर को उच्च न्यायालय ने रिपोर्ट पेश करने से भी मना किया और कहा कि वह अपनी बात कहने के लिये सुप्रीम कोर्ट जायेगा। मामले की सुनवाई अब 22 अक्तूबर को होगी, क्योंकि पीठ ने उच्च न्यायालय को मौका दे दिया है। याची के वकील रवि किरन जैन कहते हैं कि, ‘डा. सतीश चंद्रा सर्विस कोटे से वकील बने हैं पर उनकी पूरी सेवा न्यायिक न होकर सरकारी, गैर सरकारी और अद्र्घ सरकारी रही है। यानि कि दस साल तक वह लगातार जज कभी नहीं रहे हैं’। यही नहीं हाईकोर्ट की साइट पर उपलब्ध डा. चंद्रा के बायोडाटा में एक ही समयावधि में तीन जगहों पर नौकरी करने का भी जिक्र है।
न्यायमूर्ति डा. सतीश चंद्र की इलाहाबाद उच्च न्यायालय में नियुक्ति 6 अगस्त 2008 को हुई। उनकी नियुक्ति के साथ ही यह बहस भी छिड़ गयी कि क्या उच्च न्यायालय अपने ही किसी महत्वपूर्ण दस्तावेज को अपने ही न्यायमूर्तिगण के समक्ष पेश करने के लिये बाध्य है। हुआ यह कि नियुक्ति के विरुद्घ एक याचिका उसकी संवैधानिकता को लेकर अधिवक्ता महेश चंद्र गुप्ता ने दाखिल कर दी। उनका कहना था कि डा. चंद्रा न्यायमूर्ति के पद के लिये आवश्यकता संवैधानिक अर्हता नहंीं पूरी करते हैं। असली विवाद तो तब शुरू हुआ जब मामले की बहस सुन रही खंडपीठ के जज न्यायमूर्ति सुशील हरकौली और न्यायमूर्ति विक्रम नाथ ने उच्च न्यायालय को आदेश दिया कि जिस रिपोर्ट के आधार पर डा. चंद्रा को न्यायमूर्ति पद पर नियुक्त किया गया उसे पीठ के समक्ष प्रस्तुत किया जाये। यह आदेश पिछली 10 सितम्बर को जारी हुआ था, जिसमें कहा गया था कि, ‘कालीजियम’ के उस कार्रवाई को पीठ के समक्ष रखा जाये जिसमें डा. चंद्रा को जज बनाये जाने की सिफारिश की गयी थी। पीठ ने यह भी स्पष्टï कर दिया था कि कार्रवाई की रिपोर्ट बंद लिफाफे में न्यायालय में 12 सितम्बर को पीठ के न्यायमूर्ति गण के अध्ययन हेतु ही प्रस्तुत की जाये। हालांकि देखने के बाद उसे वापस करने की बात भी न्यायधीशों ने कह दी थी। मतलब यह कि यह कार्रवाई किसी भी हालत में ‘पब्लिक’ नहीं होगी।
पीठ ने मामले की बहस 16 सितम्बर के लिये निश्चित की। बताते चलें कि पीठ ने यहां तक भी स्पष्टï कर दिया था कि इस कार्रवाई की रिपोर्ट को देखने की इजाजत याची को भी नहीं होगी। आदेश होते समय उच्च न्यायालय की ओर से वरिष्ठï अधिवक्ता एस.पी.गुप्ता और अमित स्थालकर के साथ-साथ याची के अधिवक्ता रवि किरन जैन भी मौजूद थे।
12 सितम्बर को एक बंद लिफाफे में कार्रवाई पीठ के समक्ष प्रस्तुत हुई, जिसे देखने के चंद लमहे बाद ही पीठ ने उसे वापस कर दिया। 17 सितम्बर के अपने आदेश में पीठ ने कहा कि कार्रवाई में उल्लिखित था कि बेंच से जो लोग उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति पद हेतु चुने गये थे उनका आधार उच्च न्यायालय की तीन जजों की एक कमेटी की संस्तुति थी, जो मुख्य न्यायमूर्ति द्वारा सहमति के साथ अग्रसारित की गयी थी। पीठ ने कहा कि वह रिपोर्ट जो तीन न्यायमूर्ति गण की कमेटी ने भेजी थी, वह न तो अनिवार्य संवैधानिक अधिकारियों को भेजी गयी और न ही पीठ के समक्ष प्रस्तुत की गयी। जबकि पीठ ने स्पष्टï किया था कि ‘कालिजियम’ की कार्रवाई ‘संपूर्ण’ रूप से पीठ के समक्ष प्रस्तुत की जाये और कमेटी की रिपोर्ट तो उसका मूल आधार थी।
इसके बाद कड़ाई दिखाते हुये पीठ ने उच्च न्यायालय के अधिवक्ता श्री गुप्ता से कहा कि कमेटी की रिपोर्ट पीठ के समक्ष 16 सितम्बर को पेश की जाये और उच्च न्यायालय को यह विश्वास रहे कि वह रिपोर्ट आधिकारिक रूप से न्यायालय की कार्रवाई का हिस्सा नहीं बनायी जायेगी और न ही उसे आम किया जायेगा। श्री गुप्ता ने उसे पेश करने के लिये 24 घंटे मांगा था मगर 17 तारीख को पीठ के सामने उच्च न्यायालय उस रिपोर्ट को बंद लिफाफे में भी पेश करने से मुकर गया। मामले की सुनवाई कर रहे न्यायमूर्ति ने अपनी अप्रसन्नता साफ की, ‘समझ में नहीं आता कि ऐसा कौन सा कारण है जिसने उच्च न्यायालय को ऐसा अप्रत्याशित निर्णय लेने के लिये विवश किया है’।
पीठ ने कहा, ‘उच्चतम न्यायालय के 2004 के एक फैसले का हवाला देते हुये पीठ ने कहा कि उच्चतम न्यायालय ने तो यहां तक कह रखा है कि किसी भी सूचना को तभी प्रकाशित होने से रोका जाना चाहिए जब वह जनहित में हो अन्यथा सूचना देने के मामले में उदारता बरती जानी चाहिए। और यहां तो प्रकाशित किये जाने का सवाल ही नहीं उठता है। हम तो केवल एक अधिकारिक कागज मांग रहे हैं, और वो भी उस संस्था से जो उच्च न्यायालय है। मना करने के पीछे उच्च न्यायालय को अपवाद सरीखे मजबूत कारण देने चाहिए थे ताकि आम आदमी का भरोसा न्यायिक व्यवस्था में कायम रहे। हमारे पास इसके अलावा कोई विकल्प नहीं है कि हम आदेश दें कि 26 सितम्बर को यह रिपोर्ट या तो अदालत के सामने पेश हो या उच्च न्यायालय पेश न करने के पीछे अपना विशेषाधिकार प्रस्तुत करे।’
पीठ के सामने 26 सितम्बर को उच्च न्यायालय ने रिपोर्ट पेश करने से भी मना किया और कहा कि वह अपनी बात कहने के लिये सुप्रीम कोर्ट जायेगा। मामले की सुनवाई अब 22 अक्तूबर को होगी, क्योंकि पीठ ने उच्च न्यायालय को मौका दे दिया है। याची के वकील रवि किरन जैन कहते हैं कि, ‘डा. सतीश चंद्रा सर्विस कोटे से वकील बने हैं पर उनकी पूरी सेवा न्यायिक न होकर सरकारी, गैर सरकारी और अद्र्घ सरकारी रही है। यानि कि दस साल तक वह लगातार जज कभी नहीं रहे हैं’। यही नहीं हाईकोर्ट की साइट पर उपलब्ध डा. चंद्रा के बायोडाटा में एक ही समयावधि में तीन जगहों पर नौकरी करने का भी जिक्र है।