सधी ओपेनिंग से बंधी सेंचुरी की उम्मीद

Update:2014-09-10 11:53 IST
 
छह करोड़ गुजराती...अब एक सौ बीस करोड़ भारतीय और शायद अब एक सौ अस्सी करोड़ दक्षिण एशियाई यही जुमला और भविष्य की रणनीति होगी नरेंद्र दामोदर दास मोदी की! भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चाय की केतली से लेकर सियासत तक के सभी उबाल देखे है। उन्हें सियासत की तासीर पता है, तभी तो वो घर हो या बाहर एक सधी शुरुआत करना चाह रहे हंै। घर में भले ही मोदी को भ्रष्टाचार व महंगाई के खिलाफ अपनी लड़ाई में सफलता के लिए अंकों के फेर में अपना परिणाम तलाशना पड़ रहा हो, लेकिन विदेश नीति में मोदी की अब तक की चालों को अगर अंकों की कसौटी पर कसा जाए, तो उन्हंे ‘परफेक्ट’ पूर्णांक प्राप्त होंगे।

दरअसल, विदेश नीति के मोर्चे पर मोदी ने पीएम बनने से पहले ही सधी शुरुआत कर दी थी। पर दस में दस अंक यानी इस पूर्णांक का सबसे बड़ा श्रेय जापान की यात्रा को जाता है। चीन दक्षिण एशिया के सागर में अपनी उपस्थिति बनाना चाहता है। चीन के सामरिक मंसूबों में म्यांमार में सामरिक निर्माण से लेकर जापान तक विस्तार की योजना है। ऐसे में चीन को रोकने के लिये मोदी ने जापान का बखूबी इस्तेमाल किया। अपनी सफल जापान यात्रा में मोदी ने कई मकसद हल किये। एक तो वे परमाणु ऊर्जा की लटक चुकी वार्ता को ट्रैक पर लाये। यह सच्चाई दीगर है कि अभी इस गाड़ी को चलने और दौड़ने में वार्ताओं के कई प्लेटफार्म पार करने होगें।

मोदी ने एक सफल ‘ब्रांड मैनेजर’ की तरह ‘ब्रांड इंडिया’ को ‘प्रमोट’ किया। देश में दो लाख 10 हजार करोड रूपए का निवेश लाने का मार्ग प्रशस्त किया और वह भी सर उठाकर। बल्कि वहां के उद्यमियों को यह बताकर कि भारत में व्यापार करने में उनका फायदा ज्यादा है भारत का कम। भारत के विशाल बाजार की जमकर ‘मार्केटिंग’ की। मोदी ने यह भी बता दिया कि यह सब कुछ ‘शार्ट टर्म प्लान’ नहीं है। 50 शहरों की मेट्रो ट्रेन, कई हजार मेगावाट परमाणु ऊर्जा और ‘मेक इन इंडिया’ जपान के उद्यमियों के लिये एक हसीन सपना है। उन्होने यह भी बताया कि जापान के पास ‘हार्डवेयर’ की ताकत है, तो भारत के पास ‘साफ्टवेयर’ की सलाहियत और दोनों का दूसरे के बिना काम नहीं चल सकता। साथ ही मोदी ने यह भरोसा भी दिलाया कि इन सपनों को साकार करने में देश की नौकरशाही ही उनका साथ देगी क्योंकि इस बार ‘रेडटेप’ नहीं ‘रेड कार्पेट’ उनका इंतजार कर रहा है।

मोदी ने अपने ड्रीम प्रोजेक्ट यानी बुलेट ट्रेन के लिये 60 हजार करोड के अलावा तकनीकी सहयोग का वादा हासिल किया। जापान के जरिये चीन को संदेश दिया कि अब 18 वीं सदी की विस्तारवादी नीति और उपनिवेशवाद का दौर चला गया। यानी, चीन संभल जाओ! जापान से लेकर फिलिपींस तक और भूटान से लेकर नेपाल तक सबकी नब्ज की नजाकत मोदी को पता है।

वैसे मोदी की विदेशी कूटनीति की चमक उनके प्रधानमंत्री बनने के साथ ही दिखने लगी थी। मोदी ने देश की कमान संभालते ही शपथ ग्रहण समारोह में पडोसी देशों यानी सार्क राष्ट्राध्यक्षों को न्यौता दिया। ऐसा कर मोदी ने देश के लिये ‘बिगब्रदर’ की हैसियत हासिल करने की कूटनीतिक चाल चली। इसी के साथ यह भी साबित कर दिया कि पडोसियों से मधुर संबंध बनाने के लिए भारत अपनी तरफ से कोई कोर कसर नहीं छोडेगा।

मोदी ने सार्क देशों से शुरुआत एक खास मकसद से की। दक्षिण एशिया के सभी आठ देश इस संगठन के सदस्य हैं। 5130 हजार वर्ग किमी क्षेत्र में फैले इन देशों की कुल जनसंख्या करीब एक सौ अस्सी करोड़ है, जो विश्व की जनसंख्या का लगभग एक चैथाई है, किन्तु विश्व के कुल उत्पादन अर्थात जीडीपी में इसका योगदान मात्र 2 प्रतिशत है। मोदी को पता है कि भारत और इन सार्क देशों में खेती की भूमि सिकुड़ रही है, आबादी बढ रही है। ऐसे में अब मोदी पेट के रास्ते दिमाग पर भी राज करने की जुगत भिड़ा रहे हैं। गौरतलब है कि अप्रैल 2007 में सार्क सदस्यों के बीच फूड बैंक के समझौते के तहत चावल और गेहूं के 241,580 टन खाद्यान्न के प्रारम्भिक भंडार के साथ इस बैंक ने अपना कार्य प्रारम्भ किया। इस 241,580 टन के खाद्यान्न भंडार में सदस्यों का अंशदान इस प्रकार निधार्रित किया गया - भारत 153,000 टन, पाकिस्तान 40,000 टन, बांग्लादेश 40,000 टन, नेपाल 4,000 टन, श्रीलंका 4,000 टन, अफगानिस्तान 1420 टन, भूटान 200 टन तथा मालदीव 180 टन। इस प्रकार सार्क फूड बैंक में भारत का खाद्यान्न के रूप में योगदान लगभग 63 प्रतिशत तय किया गया। वर्ष 2010 में फूड बैंक की कार्य समीक्षा में जनसंख्या वृद्धि, गरीबी में रहने वाले परिवारों की बढ़ती जनसंख्या व प्राकृतिक कारणों से खाद्यान्न उत्पादन में हो रही अनिश्चितता को देखते हुए सुरक्षित खाद्यान्न भंडार की मात्रा 480,000 टन करने का निर्णय लिया गया। इससे भारत का अंशदान बढकर 306,400 टन हो गया है।

सार्क फूड बैंक के भंडार में सामान्य किस्म के केवल दो खाद्यान्न, चावल एवं गेहूं शामिल किए गए हैं। इसलिए उच्च किस्म के चावल, गेहूं, दालें, खाद्य तेल व दुग्ध पदार्थों के लिए खुले बाजार पर निर्भर करना होगा। ऐसे में मोदी को पता है कि अगर खाद्यान्न की कीमतों को काबू में रखना है, तो इस बैंक को विस्तार देना होगा। सार्क देशों को एकजुट कर मोदी महंगाई से निजात का नया रास्ता निकाल सकते हैं; साथ ही एशिया में सुपर पावर बनने की चीनी हसरत को लगाम भी लग सकती है। यह बात और है कि पाकिस्तान को चीन के पाले से खींच कर लाना हिमालय पर बिना आक्सीजन के चढ़ने जैसा है। ऐसे में पाकिस्तान के मोर्च पर भी इस दावतनामे में मोदी की विदेश नीति की कुशलता जाहिर हुई। मोदी ने इस दावतनामे के जरिये यह साबित कर दिया कि देश में उनकी कट्टर छवि के विपरीत वह शांति के समर्थक हैं। इसके बाद पाकिस्तान के बार-बार ‘सीजफायर’ के उल्लंघन ने एक बार फिर दुनिया के सामने पाकिस्तान को शांति न चाहने वाले आक्रांता के रूप में ‘एक्सपोज’ कर दिया है।

पाकिस्तान के मोर्चे पर मोदी की ‘गिफ्ट डिप्लोमैसी’ ने भारत का एक और अप्रत्यक्ष फायदा किया। एक तरफ जहां नवाज शरीफ अमन और तरक्की की बात करते हैं, वहीं उनकी सेना तीन दिन में 20 बार युद्ध विराम तोड़ती है। यानी यह दुनिया को एहसास हो गया है कि बात भारत से रिश्तों की हो तो पाकिस्तान की हुकूमत और सेना दो अलग-अलग अस्तित्व हैं।

एशिया में चीन को मोदी ने कड़ी टक्कर के संकेत दिये, तो विश्व के पटल पर जरुरत पड़ने पर चीन परस्त या फिर भारत के हक में किसी से भी गठजोड का अनूठा तालमेल मोदी ने पेश किया। मोदी ने ब्रिक्स सम्मेलन में ब्रिक्स बैंक के जरिए चीन, रुस, ब्राजील और दक्षिण एशिया को नयी आर्थिक ताकत का मंत्र दिया। विश्व बैंक को इन दिनों एशिया बैंक और जापान की आर्थिक एजेंसी जापान इंटरनेशनल कारपोरेशन एजेंसी (जायका) के जरिये पूरी दुनिया मे चुनौती मिल रही है। अमरीका परस्त विश्व बैंक की एकात्मक सत्ता को ये दोनों एजेंसियां आर्थिक क्षेत्र में तगड़ी चुनौती दे रही हैं। जबकि ब्रिक्स बैंक की स्थापना ने अमरीका की आर्थिक शक्ति के सामने सवाल खड़े कर दिए। मोदी के ‘ब्रेन चाइल्ड’ इस बैंक ने ‘अनेक मिलकर एक होते हैं’ वाली कहावत के जरिये अमरीकी प्रभुत्व वाले विश्व बैंक को चुनौती दी है। इस आर्थिक चुनौती में यह संदेश भी निहित है कि भारत की लगातार बढती अर्थव्यवस्था को न तो नजरअंदाज किया जा सकता है न ही उसके पास विकल्पों की कमी है।
मोदी की राजनीति की शैली को समझने वाले यह जानते हैं कि मोदी को यह पता है कि कब, किसे, कैसे इस्तेमाल करना है ? चीन को साथ लेकर ब्रिक्स में तो चल सकते हैं, अमरीकी ताकत को चुनौती भी दे सकते हैं, पर एशिया में शक्ति संतुलन के लिये चीन की विस्तारवादी ताकत को भी रोकना होगा।

विदेश नीति पर एक के बाद एक सही चाल चल रहे मोदी ने चीन से लड़ने के लिए उसे हर तरफ से घेरने की रणनीति पर काम शुरु किया। पहले तो भूटान जाकर वहां दिए गए धाराप्रवाह हिंदी भाषण पर तालियां बटोरी। भूटान को अहसास दिलाया कि वह भारत का ‘प्रोटेक्टोरेट’ नहीं बल्कि मोदी की अंतरात्मा की आवाज है। भूटान के लोग बधाई संकेत के रूप में तालियां नहीं बजाते,लेकिन मोदी के हिंदी में दिए गए धाराप्रवाह भाषण को दुभाषिये की मदद से भूटानी सांसद समेत प्रधानमंत्री त्शेरिंग तोबगे और अन्य गणमान्य लोग बड़े ध्यान से सुन रहे थे। जैसे ही उनका भाषण खत्म हुआ अचानक तालियों की गड़गड़ाहट गूंज उठी।

मोदी ने अपनी पहली विदेश यात्रा में भूटान के लिए दिल के साथ ही तोहफों का पिटारा भी खोला। भारत ने भूटान को गेहूं, खाद्य तेल, दूध पाउडर और गैर-बासमती चावल के निर्यात प्रतिबंध के दायरे से बाहर रखने का भी एलान किया। प्रधानमंत्री ने भारत-भूटान संयुक्त उपक्रम में बन रही 600 मेगावाट की खोलोंगचू पनबिजली परियोजना के शिलान्यास के साथ ही आश्वासन दिया कि वह पिछली सरकार द्वारा किए वादों को पूरा करने के साथ ही सहयोग की नई परियोजनाएं भी आगे बढ़ाएंगे। इस संभावना को भी मोदी ने नया आयाम दिया कि भारत की बिजली समस्या से निजात दिलाने के लिये पडोसी उसके काम आ सकते हैं। मोदी ने भारत के पूर्वोत्तर राज्यों और भूटान के बीच संयुक्त खेल कार्यक्रम आयोजित करने और संयुक्त अनुसंधान के लिए हिमालय विश्वविद्यालय की स्थापना जैसे कुछ नए प्रस्तावों से दोनों देशों के रिश्ते प्रगाढ़ करने का प्रण किया। प्रधानमंत्री के इस दौरे ने उस तस्वीर को पलटा जिसके तहत भूटान में भारत विरोधी माहौल बन गया था। वह भी इसलिये कि भूटान में ऐन आम चुनाव के समय पिछली सरकार ने गैस में दी जा रही भारतीय सब्सिडी को खत्म कर दिया था। उस विरोध को तालियो में बदलना और भूटान की संसद में पहली बार हिंदी का गूंजना मोदी की विदेश नीति का ‘मैजिक’ ही माना जाना चाहिए।

‘बी4बी’ (भूटान फार भारत एंड भारत फार भूटान) की नई परिभाषा दे चुके मोदी ने कहा कि आतंकवाद तोड़ता है और पर्यटन जोड़ता है। मोदी ने भूटान में पहली यात्रा कर यह संदेश दिया कि भूटान कितना महत्वपूर्ण है। पिछले कुछ सालों से चीन भूटान में भारत विरोध के माहौल को हवा दे रहा है। मोदी की इस यात्रा ने इस माहौल को बहुत हद तक बदल दिया है। दरअसल, चीन काफी समय से भूटान में अपना दूतावास खोलने का दबाव बना रहा है। भूटान एकमात्र ऐसा पड़ोसी मुल्क है, जहां चीन की राजनयिक मौजूदगी नहीं है। भूटान की पूरी सीमा या तो भारतीय राज्यों से मिलती है या फिर चीन से। ऐसे में चीन से भूटान को छीन कर मोदी ने सधी और सही शुरुआत की।

मोदी ने भारत और चीन के बीच स्थित राष्ट्र नेपाल का दौरा कर भी चीन को संकेत दे दिये है। मोदी ने साफ कर दिया कि चीन और नेपाल की बीच कम्युनिस्ट अतीत के बंधन से ज्यादा प्रगाढ़ भारत और नेपाल की धार्मिक एकरुपता है। मोदी ने म्यांमार की तरफ भी दोस्ती का हाथ बढ़ाया। इससे फिलीपींस को चीन की दक्षिण एशियाई सागर में विस्तार के खिलाफ बोलने की ताकत आयी। नरेन्द्र मोदी की नेपाल यात्रा मुख्यतः सहयोग, संपर्क, संस्कृति और संविधान (4 सी) पर केन्द्रित थी। मोदी की दो दिन की नेपाल यात्रा को समग्र रूप में देखें तो ऐसा लगता है कि किसी हिन्दू राष्ट्र का प्रधानमंत्री एक दूसरे हिन्दू राष्ट्र में पहुंचा हो। उनका भाषण ज्यादातर स्थानों पर धार्मिक आग्रहों से भरा हुआ था। एमाले नेता माधव नेपाल की तिरुपति के मंदिर में सर मुंडवाने से लेकर माओवादी नेता अमिक शेरचन के देवी को भैंसे की बलि देने तक की घटनाओं का जिक्र इसी बात की तरफ इशारा करता रहा। मोदी ने अपने भाषण में बताया कि सोमनाथ की भूमि से चलते हुए उन्होंने काशी विश्वनाथ की छत्रछाया में राष्ट्रीय राजनीति की शुरुआत की और आज पशुपतिनाथ के चरणों में आ पहुंचे हैं। उन्होंने याद दिलाया कि काशी का प्रतिनिधि बनने की वजह से नेपाल से स्वतः भी उनका नाता जुड़ गया, ‘क्योंकि काशी में एक मंदिर है, जहां पुजारी नेपाल का होता है और नेपाल में पशुपतिनाथ है, जहां का पुजारी हिन्दुस्तान का होता है। उन्होंने यह भी याद दिलाया कि हिन्दू धर्म में पूज्य जो 51 शक्तिपीठ हैं उनमें से दो नेपाल में ही हैं। उन्होंने जनकपुर की धरती को याद किया जहां सीता माता पैदा हुई थीं। इसके अलावा पशुपतिनाथ मंदिर में 100 टन चंदन की लकड़ी की भेंट से लेकर सावन के सोमवार का दिन चुनने तक की प्रक्रिया मोदी के धार्मिक संबंधों की कड़ी दर कड़ी बानगी बन गयी।

धार्मिक आग्रहों से इतर मोदी ने यह इशारा भी किया कि नेपाल की भारत से दोस्ती उसके मुस्तकबिल के लिए फायदेमंद है। भारत ने नेपाल को एक अरब डाॅलर की ऋण सहायता देने की घोषणा की। प्रधानमंत्री ने खुद कहा है कि यह राशि पहले से मौजूद किसी अन्य ऋण सहायता के अतिरिक्त है। साथ ही पंचेश्वर विकास प्राधिकरण गठित किया जाना और एक साल के अंदर एक विस्तृत परियोजना रिपोर्ट पूरी करने का संकल्प लेना इसी की बानगी है। इसके अलावा दोनों देश एक बिजली व्यापार समझौता 45 दिनों के अंदर करने के लिए भी राजी हुए। भारत और नेपाल ने महाकाली नदी पर पंचेश्वर बहु-उद्देश्यीय परियोजना के कार्यक्षेत्र के संशोधन के सिलसिले में एक सहमति पत्र पर भी हस्ताक्षर किया। गौरतलब है कि पिछले कई साल से भारत और नेपाल के रिश्तों की खटास में चीन ने अपनी चासनी तलाश ली थी। चीन नेपाल के कई प्रोजेक्ट्स में चीनी डाल कर उसे भारत के लिये खट्टा अंगूर बना रहा था। मसलन, त्रिशूली और सेती नदी से संबंधित जल विद्युत परियोजनायें जिसमें भारत को पीछे छोड़ते हुए चीन ने हथिया लिया है।

मोदी ने नेपाल की भावनाओं को चोट पहुंचाने वाले किसी मुद्दे को नहीं उठाया। अपर करनाली परियोजना का जिक्र भी नहीं किया, जिसको लेकर सबसे ज्यादा तनाव और आशंका नेपाल में व्याप्त है। 900 मेगावाट की इस परियोजना पर जीएमआर नामक कंपनी के साथ वर्ष 2008 में ही समझौता पत्र (एमओयू) हस्ताक्षरित हुआ था लेकिन स्थानीय जनता के विरोध के कारण अभी तक इस पर काम शुरू नहीं हो सका। यहां तक कि दैलेख में इस कंपनी के दफ्तर को भी लोगों ने जला दिया। मोदी को पता है कि जल विद्युत परियोजनाओं के साथ भारत का उल्लेख नेपाल की एक दुखती रग है। अतीत में गंडकी और कोसी नदियों पर भारत के साथ हुए समझौतों के बाद नेपाल की जनता ने खुद को ठगा हुआ महसूस किया है। वर्ष 1997 में महाकाली नदी से संबंधित परियोजना ने तो इतना गंभीर रूप लिया कि एमाले पार्टी में विभाजन ही हो गया और कई वर्षों बाद पार्टी फिर एक हो सकी। बेशक उन्होंने पंचेश्वर से जुड़ी 5600 मेगावाट की परियोजना का जिक्र किया और वादा किया कि 17 साल से ठंडे बस्ते में पड़ी इस परियोजना पर एक साल के अंदर काम शुरू हो जाएगा। यानी मोदी ने संदेश दे दिया कि नेपाल की नब्ज की उन्हें पहचान है। उन्हें नेपाल की फिक्र है। मोदी ने ‘हिट’ ;भ्प्ज्द्ध का नायाब मंत्र दिया जिसका अर्थ उन्होंने बताया कि एच यानी हाइवे (सड़क), आइ यानी आइवे (सूचना क्रांति) और टी यानी ट्रांसवे (संचार क्रांति)। साथ ही मोदी ने हिमालय पर षोध से लेकर फोन की दरों को सस्ता करने, गरीबी के खिलाफ मिलजुल कर लड़ने, नेपाली छात्रों की स्काॅलरशिप में बढ़ोेत्तरी करने, महाकाली नदी पर पुल बनाने का वादा कर नेपाल की जनता का दिल जीता और यह जता दिया कि भारत चीन की अपेक्षा नेपाल के ज्यादा करीब है।

मोदी ने म्यांमार की तरफ भी दोस्ती का हाथ बढ़ाया। इससे फिलीपींस को चीन की दक्षिण एशियाई सागर में विस्तार के खिलाफ बोलने की ताकत आयी। मोदी ने अपने घर में कोई ज्यादा कमाल न किया हो पर विदेश नीति में उनका कमाल 2 प्लस 2 को 22 बनाने जैसा दिख रहा है। मोदी के संकेत साफ है कि चीन की विस्तारवादी नीति हो या फिर एकल सुपर पावर की चाहत, जैसे चाहे वैसे नहीं चल सकती।

पाकिस्तान को हथियार बनाकर अरब सागर में चीन ग्वादर पर सैन्य बेस बनाना चाहता है, तो मोदी ने चीन को जापान के जरिये संदेश दे दिया। तभी तो जापान दौरे के खत्म होने से पहले चीन ने भी बुलेट ट्रेन को लेकर भारत को सहायता की पेशकश कर दी। मोदी को यह भी पता है कि अमरीका के प्रभुत्व को स्वाभिमान से टक्कर देने के लिये चीन को सिर्फ दुश्मन मान कर नहीं चला जा सकता। मोदी से पहले भारत के प्रधानमंत्री रहे इंद्रकुमार गुजराल ने भी ‘लुक ईस्ट’ पालिस से पाकिस्तान को ‘साइड लाइन’ किया था। मोदी की सार्क देशों के बाद जापान यात्रा इसी का विस्तार है।

मोदी को पता है कि भारत की खाद्यान्न समस्या का निजात भविष्य में अगर सार्क फूड बैंक है तो उसकी आर्थिक जरुरत को आने वाले दिनों में ब्रिक्स बैंक पूरा कर सकता है। वहीं बिजली की जरुरत के लिये भूटान और नेपाल की पनबिजली से लेकर जापान और आस्ट्रेलिया की परमाणु उर्जा तक का काम लिया जा सकता है। मोदी को यह भी पता है कि घर और बाहर को अलग करके नहीं देखा जा सकता। मोदी ने अपने चुनाव में सबका साथ सबका विकास की बात की थी। उसी तर्ज पर मोदी ने पडोसी देशों का साथ चाहा है। कहीं न कहीं मोदी के मन में यह बात जरुर होगी की घर तभी सुखी रहेगा जब पडोसी खुश होगा। आने वाले दिनो में ‘नार्थ पोल’ से लेकर ‘साउथ पोल’ तक मोदी के दौरे होने हैं। अब देखना होगा कि सधी ओपनिंग के बाद मोदी विदेशी पिचों पर अपनी विदेशी नीति की पारी को कितना बढा पाते हैं।

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