राम मनोहर लोहिया और समाजवाद

Update:2014-09-20 12:02 IST
वर्ष 1991 में जब सोवियत संघ का पतन हो रहा था तब साम्यवाद के पराभव के साथ इस विचारधारा के दुनिया भर के पैरोकारों में इस बात को लेकर भी चिंता थी कि सब कुछ एक ध्रुवीय हो रहा है। सोवियत संघ के बने रहने तक दुनिया अगर बहुध्रुवीय नहीं कही गयी तो द्वि-ध्रुवीय तो रही ही। हांलांकि उस समय साम्यवाद के सन्मुख चुनौती पूंजीवाद के लगातार विस्तार के खिलाफ खडे होने की थी। सोवियत संघ के विघटन और चीन के बाजार आधारित अर्थव्यवस्था के अंगीकार करने के बाद पूंजीवादियों और साम्राज्यवादियों की इस घोषणा में भी लोगों की दम नजर आने लगा कि समाजवाद के दिन लद गये। समाजवाद इतिहास बन गया। लोगों को ये लगने लगा कि अब दौर पूंजीवादी शक्तियों का है। उदारीकरण, बाजारीकरण और भूमंडलीकरण के वर्तमान घटाटोप में समाजवाद की जरुरत खत्म हो गयी है, पर शायद यह सोचने वालों ने यह बिसरा दिया कि जब तक अन्याय, अत्याचार, शोषण, लूट और गैरबराबरी जारी रहेगी तब तक उसे चुनौती देने वाली शक्तियों का खात्मा संभव नहीं है। यह शक्ति ही समाजवाद है।

यह बात दीगर है आज जब समाजवाद 21 वीं शताब्दी में है, तब उसके सामने इसके अलावा एक ऐसी नयी और महत्वपूर्ण चुनौती मजबूती से उभरी है, जो ना तो कभी भारत के समाजवादी के सामने थी और ना ही दुनिया भर के साम्यवादियों अथवा समाजवादियों के सामने रही है। वह समस्या सांप्रदायिकता की है। सांप्रदायिकता को सिर्फ एक पार्टी से जोड़कर देख जाना भी इसलिये उचित नहीं है क्योंकि सांप्रदायिकता के जहर ने ही एक दूसरे ध्रुव पर आतंकवाद को भी खाद पानी मुहैया कराया है। सांप्रदायिकता की कोख से उपजी हुई यह चुनौती आज पुरी दुनिया के सामने सुरसा की तरह मुंह बाये खड़ी है। इस समस्या का सामना वे पूंजीवादी देश भी कर रहे हैं जो साम्यवाद के पराभव को अपनी सफलता मान कर जश्न मना रहे थे और समाजवाद के सिकुड़ते जनाधार के चैसर पर पूंजीवाद के लहराते परचम देख रहे थे।

समाजवाद का भारत मे अभ्युदय कांग्रेस विरोध से शुरु होता है। वर्ष 1937 में पटना से भारत में समाजवाद की शुरुआत हुई थी। देश की आजादी यानी वर्ष 1947 तक समाजवादियों का एजेंडा देश की आजादी और उसके बाद अपने तरीके देश में सबको बराबरी दिलाने का था। आजादी तक कांग्रेस के साथ और कभी-कभी विरोधी स्वर के बावजूद समाजवादियों ने देश की आजादी के लिये हर कदम आगे बढाया। देश की आजादी के बाद कांग्रेस और नेहरु के तरीकों का खुला विरोध। पूंजीवाद से आमने सामने टक्कर लेना और समाज में गैरबराबरी शोषण के तरीकों में समाजवादियों ने जमकर नाम कमाया। 20 वीं शताब्दी के अंत तक समाजवाद देश के पटल पर पूरी तरह छाया रहा। बल्कि यूं कहें कि कांग्रेस विरोध की पूरी लहर का नेतृत्व समाजवाद के परचम ने किया। वर्ष 1977 में तो कांग्रेस को जबरदस्त पटखनी दी पर 20 शताब्दी के अंत तक अन्याय और गैरबराबरी के खिलाफ लडाई के साथ डाॅ. राममनोहर लोहिया की सप्त क्रांतियां समाजवादियों के एजेंडें में थी। 20 वीं शताब्दी के अंतिम दशक में समाजवादी आंदोलन को सांप्रदायिकता की बीमारी एक नयी ताकत के साथ बडी चुनौती देने लगी। इससे पहले भारत के परिपे्रक्ष्य में समाजवाद अथवा दुनिया में साम्यवाद- समाजवाद को कभी इस तरह की चुनौती से रुबरू नहीं होना पड़ा था। इसकी वजह यह रही कि जब फ्रांस, ब्रिटेन, स्पेन, जर्मनी, स्वीडन, नार्वे, फिनलैंड और क्यूबा सरीखे यूरोपीय, लैटिन अमरीकी देशो में जब भी सरकारें आयी तो वहां के राजनीति में चर्च की कोई भूमिका नहीं थी। यूरोप और एशियाई सोवियत संघ में भी लोग धर्म को अफीम कहकर इस तरह खारिज कर चुके थे कि सियासत तक उसकी पहुंच ही नहीं हो पायी। आम जीवन में भी धर्म कोने-अतरे की जगह बनकर रह गया। भारत में धर्म आधारित राजनीति करने वाली भारतीय जनता पार्टी ने जब-जब देश के सामने बड़ी चुनौती आयी तब-तब समाजवादियों के साथ कदम से कदम मिलाकर लडाई लड़ी। इंदिरा गांधी के आपातकाल के खिलाफ तो समाजवाद और धुर दक्षिणपंथी जनसंघ एक साथ घुलमिल गये। इसीलिये धर्म आधारित राजनीति की पोषण भारतीय जनता पार्टी कभी चुनौती बनकर समाजवाद के सामने नहीं खडी हुई। डाॅ. राममनोहर लोहिया के समय में भी कई बार जनसंघ ने उनके साथ वैचारिक और राजनैतिक आधार पर छोटी बड़ी यात्रायें की। यह बात दीगर है कि अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री बनने के साथ ही समाजवाद और दक्षिणपंथी भाजपा के रिश्ते उलट से गये। अटल के पहले जनसंघ के लोग समाजवाद के प्लेटफार्म पर आये। अटल बिहारी वाजपेयी के राज्याभिषेक के साथ ही परिवर्तन यह हुआ कि समाजवादी टूटे। जार्ज फर्नांडीज और नितीश कुमार सरीखे कई समाजवादी राजग के बैनर तले भाजपा के सहयात्री बने। लालू सरीखे कुछ कांग्रेस से जा मिले। मुलायम सिंह यादव ने भी कांग्रेस विरोध के समाजवाद के तेवर को थोड़ा ढीला किया। यह मुलायम की सधी हुई चाल थी, क्योंकि उन्हें अपनी सारी शक्ति भाजपा के खिलाफ लगानी थी। भाजपा के शक्तिकेंद्र अयोध्या, मथुरा और काशी उत्तर प्रदेश में ही थे। ऐसे में मुलायम सिंह ने उत्तर प्रदेश में चले राममंदिर आंदोलन को सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता की लडाई बनाया। उत्तर प्रदेश में मुलायम और बिहार में लालू वर्ष 1989 के बाद करीब एक दशक से ज्यादा समय तक सांप्रदायिकता के विरोध में समाजवाद की सबसे बडी ताकत बनकर उभरे। यह बात और है कि इस दौरान इस विरोध ने भाजपा को भी जबरदस्त सियासी खाद पानी दिया। उ0प्र0 में तीन बार मुख्यमंत्री बनाने के साथ ही वर्ष 1998 राजग ने जार्ज ......... और नितीश कुमार जैसे समाजवादियों को ही तोडकर समाजवाद को एक बडा झटका दे दिया। हांलांकि राजग के बैनर तले भाजपा के हमकदम बने समाजवादी देश की आर्थिक और वैदेशिक नीति प्रभावित करने की स्थिति में नहीं आ पाये। ऐसे में धर्म आधारित राजनीति और आर्थिक और वैदेशिक नीति को प्रभावित करने की चुनौती समाजवाद के सामने है। यह बात दीगर है कि धर्म आधारित राजनीति की काट के लिये विश्वनाथ प्रताप सिंह ने ही जाति आधारित राजनीति का पासा इस कदर चला कि धर्म की राजनीति और राजनीति के धर्म विवाद और वितंडा के विषय हो गये। यह भी जमीनी हकीकत है जातीय राजनीति ने धार्मिक राजनीति को काउंटर भी किया। पर जिस तरह तुष्टीकरण की प्रक्रिया क्षेत्रीय और राष्ट्रीय पैमाने पर राजनीतिक दलों में लंबे समय से अपनायी जा रही थी, उसने एक बार फिर धर्म आधारित राजनीति को एक बडा ‘स्पेस’ दे दिया। बीते लोकसभा चुनाव में लोगों ने जातियों के खांचे से बाहर निकलकर स्पष्ट बहुमत की सरकार बनाकर यह साबित कर दिया कि तुष्टीकरण के खिलाफ धर्म की राजनीति के लिये कितनी बड़ी जगह है।समाजवादियों के लिये सत्ता साध्य नहीं है। वह एक साधन है। समाजवादी यह मानते है कि विधानसभा और सदन आगे भी जीवन है। तकरीबन दो सौ साल पहले सामाजिक परिवर्तन के लिये समाजवादी आंदोलन की शुरुआत हुई थी। समाजवाद का लक्ष्य था समाज बदलना। सत्ता पाने के लिये समझौता और सौदा करना पड़ता है। समीकरण बनाने पड़ते हैं। ऐसे में समाजवादी सिद्धांत फीके पड़ जाते हैं। लंदन स्कूल ऑफ इकोनामिक्स के सर्वसर्वा हेरल लास्की बड़े समाजवादी विचारक थे। इनकी चिट्ठी लेकर ही केरल के दलित के आर नारायणन भारत आये और तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से मिले। नेहरु ने उन्हें वर्ष 1948 में भारतीय विदेश सेवा में नियुक्ति दे दी। बाद में यही के.आर. नारायणन राष्ट्रपति बने और कांग्रेस की अध्यक्ष सोनिया गांधी को वर्ष 1999 में तब प्रधानमंत्री पद की शपथ दिला रहे थे, जब एक वोट से अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार लोकसभा में विश्वास मत हार गयी थी। सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव लंगड़ी नहीं लगाते तो सोनिया गांधी प्रधानमंत्री हो जातीं। उन्हें त्याग की प्रतिमूर्ति कहने वालों कांग्रेसियों को जरुर यह इल्म होगा कि उनके शपथ ग्रहण के लिये उनके रिश्तेदार भी इटली से चल दिये थे। यहां मुलायम सिंह यादव ने एक बार फिर कांग्रेस विरोध के समाजवादी सिद्धांत को और मजबूती प्रदान की।

समाजवादी विचारधारा समझौता, सौदा और समीकरण पर यकीन नहीं करती। भारत में समाजवाद के प्रतीक पुरुष डाॅ. राम मनोहर लोहिया का जीवन ऐसी कई नजीरों से भरा पड़ा है। मसलन, त्रावणकोर कोच्चि में समाजवादी सरकार थी। पट्टम थानु पिल्लै मुख्यमंत्री हुआ करते थे। उन दिनों डॉ लोहिया सोशलिस्ट पार्टी के जनरल सेक्रेट्री थे। पिल्लै की सरकार ने मजदूरो के प्रदर्शन पर गोली चला दी। लोहिया ने मुख्यमंत्री से इस्तीफे की मांग कर डाली। कहा कि जो सरकार मजदूरों पर गोली चलवा दे उसे शासन करने का अधिकार नहीं है। ड़ा लोहिया पार्टी से निकाल दिये गये। हांलांकि उन्होंने साफ किया कि गोली सिर्फ तीन स्थितियों में चलवाई जा सकती है। पहला, व्यापक आगजनी हो रही हो। दूसरा, प्रदर्शनकारी सशस्त्र हों। तीसरा, बडे पैमाने पर जान माल की हानि का अंदेशा हो। इसके अलावा गोली चलाना गलत है। कोच्चि में तो मजदूर शांतिपूर्वक प्रदर्शन कर रहे थे। हांलांकि समाजवादियों के एक कुनबे से जयप्रकाश नारायण की आवाज आयी कि राज काज के लिये गोली चलाना अनिवार्य हो जाता है। जयप्रकाश नारायण उन दिनों कार्यकारिणी में थे। यही नहीं वर्ष 1967 के चुनाव हो रहे थे, चुनाव प्रचार के दौरान ही डॉ लोहिया ने यूनीफार्म सिविल कोड का समर्थन कर दिया।उन्होने कहा एक मर्द एक बीवी। उनके इस एक वक्तव्य से इलाहाबाद से बरेली से तक सारी सीटें समाजवादी हार गये। मुसलमानों ने उन्हें एक भी वोट नहीं दिया पर ड़ा लोहिया ने इस पराजय में भी विजय का एहसास किया।

राष्ट्रभाषा हिंदी के प्रति उनके प्रेम का ही नतीजा था कि दुनिया भर के बुद्धिजीवियों ने उस समय उनकी विचारधारा की उपेक्षा की पर उन्होंने ‘मैनकाइंड’ पत्रिका निकाली। लेकिन अपना अधिकांश लेखन हिंदी में ही किया। ड़ा लोहिया का समकालीन समय राजनीति और बौद्धिक जगत जवाहर लाल नेहरू का सम्मोहन काल भी कहा जा सकता है। इस वजह से भी लोहिया का नेहरू विरोध तत्कालीन समय के कई बुद्धिजीवियों के निशाने पर लोहिया को ही ले आया। आज दुनिया सभ्यता के संकट, पूंजीवाद के संकट गरीबी और पर्यावरण, नदी प्रदूषण, विनाश, हिंसा और आतंकवाद राजनीति के धर्म और धर्म की राजनीति के सवालों से दो चार हो रही है। इन सब विषयों पर डा लोहिया ने ऐसी दृष्टि दी थी कि समाजवादी 21 वीं शताब्दी में उनके कहे पर अमल करके इन समस्याओं से निजात पा सकते हैं।

डॉ लोहिया कहा करते थे लोग मेरी बात सुनेगें लेकिन मेरे मरने के बाद। समाजवादी विचारधारा पर चलने और इसे आगे बढाने का संकल्प लिये हुए व्यक्ति को ही नहीं बल्कि हर शख्स को 21 वीं सदी की समस्याओँ का ना केवल लोहिया के साहित्य में मिल सकता बल्कि उससे निपटने के कारगर औजार भी उस समाजवाद में मौजूद हैं जिसके पराभव को लेकर कभी पूंजीवाद ने जश्न मनाया था क्योंकि समाजवाद सिर्फ एक नैतिक चयन नहीं है। बल्कि ये आम जरुरतो- शिक्षा और स्वास्थ्य मुहैया कराने बेरोजगारी,भुखमरी दूर कर जीवनस्तर सुधारने का अभियान है। समग्र सोच है।

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