चीनी यात्री ह्वेनसांग तकरीबन 2000 साल पहले ज्ञान की खोज में भारत भूमि पर आया था। सोलह वर्ष तक भारत में भ्रमण करने के बाद लिखे अपने यात्रा वृतांत में उसने भरूच, मालवा, और वल्लभी जैसी जगहों का जिक्र किया। ये जगहें आज के भारत के गुजरात में आती है। जब ह्वेनसांग भारत से लौटा तो उसने अपनी जिंदगी के आखिरी कुछ साल चीन के शियांग में बिताये। ह्वेनसांग की ये कड़ी भारत के प्रधानमंत्री और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग को भी जोड़ती है। गुजरात से नरेंद्र मोदी का गहरा संबंध है जबकि चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग का गृहनगर शियांग है। गुजरात और चीन पिछले कई साल से व्यापारिक सहयोगी रहे हैं। यही वजह है कि मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद अगर वैश्विक शक्ति माने जाने वाले देश के नेताओ में कोई सबसे पहले भारत आया तो वो हैं चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग।
भारत और चीन के शहरों और राष्ट्राध्यक्षों की मुलाकात को अगर ह्वेनसांग के इतिहास से जोड़कर देखें तो तमाम तरह के उतार चढाव दिखते हैं। शी जिनपिंग की यात्रा से ठीक पहले मोदी के कूटनीतिक कदम चीन की दीवार पर हथौडे की तरह ही लग रहे थे। मोदी ने जापान की यात्रा की। कूटनीतिक और व्यापारिक तौर पर चीन को जापान का सबसे कट्टर प्रतिद्वंदी माना जाता है। जापान यात्रा के पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भूटान और नेपाल की यात्रा की। साथ ही म्यांमार में विदेश मंत्री सुषमा स्वराज की यात्रा ने इस पूरे क्षेत्र में भारत की स्थिति को हिंद महासागर से लेकर कूटनीतिक तौर पर चीन की पेशानी पर बल डाल दिये। इसी के मद्देनजर चीन के राष्ट्रपति ने भारत आने में देर नहीं की। साथ ही इस यात्रा ने भारत को चीन के दुश्मन के बजाय एक सहयोगी के तौर पर पेश किया। चीन के सरकारी मीडिया ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच औपचारिकताओं को परे रखते हुए दोस्ताना माहौल बनाने के लिए अहमदाबाद में हुए मेल-मिलाप को वहां पहले पन्ने पर लेखों और तस्वीरों के साथ प्रमुखता से प्रकाशित किया । चाइना डेली की लीड स्टोरी में अहमदाबाद के होटल में शी और उनकी पत्नी फेंग लियुएन की अगवानी करते मोदी की तस्वीर के साथ लिखा था, ‘शी और मोदी ने औपचारिकता को परे रखकर दौरे के लिए दोस्ताना माहौल का निर्माण किया।’ इसमें कहा गया, ‘ऐसा पहली बार हुआ है जब किसी विदेशी गणमान्य अतिथि ने राजधानी के बाहर समझौतों पर हस्ताक्षर किया।’ जबकि पर्यवेक्षकों ने कहा कि शी के साथ अनौपचारिक मेलजोल से चीन-भारत संबंधों के लिए सकारात्मक माहौल बनाने में मदद मिलेगी। मोदी आकर्षण में बंधे भारतीय मीडिया ने भी चीनी राष्ट्रपति की यात्रा और नरेंद्र मोदी से उनकी मुलाकातोँ को कुछ उसी तरह पेश किया जैसे चीन का सरकारी मीडिया कर रहा था। नतीजतन, उम्मीद का एक माहौल बनता दिखने लगा। लेकिन इस माहौल को उस समय ठेस लगी, जब चीन की सेना ने, उनके राष्ट्रपति के भारत में उपस्थिति और एक खुशनुमा माहौल में दोनों की बातचीत व दोनों देशों के अतीत को भुलाकर आगे बढने के संकल्प को दरकिनार करते हुए डेमचेक और चुमार में भारतीय सीमा में अपनी जबरन उपस्थिति दर्ज करा दी। वर्ष 1955, 1962 और 1965 में चीन की हरकत से खराब हुए रिश्तों की कड़वी यादें भी एक बार फिर भारतीय जनमानस के दिलो-दिमाग पर ना केवल तारी हो गयीं, बल्कि पूरे माहौल की मिठास में कसैलापन भर गया।
हालांकि मेल मुलाकात में मशगूल दोनो देशों के शीर्ष नेताओं ने साफ कर दिया किया कि ऐसे मुद्दे दीर्घकालीन रिश्तों की मिठास को कम नहीं कर सकते। पर ये दावे तब बेमानी हो जाते हैं, जब चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग भारत यात्रा से लौटकर बीजिंग में यह कहने में कोई गुरेज नहीं करते कि चीनी सेना क्षेत्रीय युद्ध जीतने को तैयार रहे। यही नहीं उन्होंने यहां तक कहा कि सेना ये सुनिश्चित करे कि केंद्रीय नेतृत्व के सभी फैसलों का कड़ाई से पालन हो। यह पहला वाकया नहीं है, जब चीनी राष्ट्रपति ने पीपल्स लिबरेशन आर्मी को युद्ध के लिये तैयार रहने का आदेश दिया है। लेकिन लद्दाख क्षेत्र में भारतीय सीमा के अंदर चीनी सेना की आवाजाही और घुसपैठ के मद्देनजर ही नहीं, उनकी भारत यात्रा के लिहाज से भी ये बयान खासा महत्वपूर्ण हो जाता है। माओत्से तुंग, डेन शिओपिंग के बाद सबसे ताकतवर नेता के तौर पर उभरे शी जिनपिंग हालांकि वर्ष 2012 में ताजपोशी के बाद से ही सेना को अहमियत देते आ रहे हैं। उन्होंने चीनी सेना को दुनिया में बेजोड़ सैन्य षक्ति बनाया है। जिनपिंग 2012 में ‘द चायना ड्रीम’ के साथ आए। उनकी चीन स्वप्न की अवधारणा चीन के कायाकल्प पर आधारित है। वह भारत के लिए चीन के साथ अतीत के रिश्तों के मद्देनजर सबक लेने वाला है। जिनपिंग ने राष्ट्राध्यक्ष बनने के बाद सबसे पहली बैठक सेनाध्यक्षों के साथ की। तकरीबन दो दर्जन महत्वपूर्ण पदों पर सैनिक अफसरों को बदलकर अपने लोग लगाये। उनका पहला महत्वपूर्ण दौरा दक्षिण चीन सागर में वांगझु सैन्य क्षेत्र था। इन दिनों चीन एक साथ सात प्रकार की पनडुब्बियों और युद्धपोतों के निर्माण में जुटा है। यही गति रही तो एक दषक के बाद उसके पास सिर्फ पनडुब्बियों की संख्या चार गुना हो जाएगी। चीन की सैन्य तैयारियां भले ही भारत के मददेनजर न की गईं हों, पर हमारे लिए भय तो उत्पन्न करती ही हैं। इसी के साथ अक्साई चिन, यानी वो हिस्सा जो पाक अधिकृत कश्मीर में से पाकिस्तान ने चीन को उपहार मे दे दिया है, वहां उसने सड़क बना दी और बिजली घर बना रहा है। चीन अब अरब सागर और हिंद महासागर में अपनी उपस्थिति लगातार बढा और मजबूत कर रहा है। श्रीलंका में भी चीन की मौजूदगी और दखल लगातार बढ रहा है। नेपाल में चीन ने अपनी इतनी जगह बना ली है कि भारतीय सीमाओं पर आये दिन चीनी जासूस पकडे जाते हैं। नेपाल के हर छोटे-बडे शहर में चीनी बार बालायें और चीनी भाषा सिखाने के केंद्र के साथ ही साथ चीन के सामान वहां के बाजार में अटे पडे हैं। सामरिक भौगोलिक लिहाज से देखें तो चीन भारत के चारांे ओर अपने लिये जगह बना चुका है। भारत के पूर्व विदेश मंत्री और वर्तमान राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के एक बयान के अनुसार चीन भारत की 90,000 वर्ग किलोमीटर भूमि पर कब्जा जताता है। अक्साई चिन में चीन पहले से ही भारत की 38 हजार वर्ग किलोमीटर भूमि पर कब्जा किये हुए है और पाकिस्तान द्वारा अवैध रूप से हड़पे गए कश्मीर से भी 5180 वर्ग किलोमीटर भूमि वह उपहार में ले चुका है। भारत की संसद ने चीन से अपनी खोई हुई जमीन वापस लेने का सर्वसम्मत संकल्प पारित किया हुआ है लेकिन ऐसे संकल्प शक्ति के आधार पर ही पूरे किये जा सकते हैं।
वर्तमान चीन के निर्माणकर्ता माओ त्से तुंग ने चीन के साम्राज्यवादी विस्तार का बखान करते हुए अपनी विस्तारवादी वसीयत में लिखा है, ‘तिब्बत उस हाथ की हथेली है, जिसकी पांच उंगलियां लद्दाख कनिष्का, तर्जनी सिक्किम, अंगूठा नेपाल,मध्यमा भूटान और नेफा (वर्तमान अरुणाचल प्रदेश) अनामिका हैं । जब तक ये एक साथ नहीं होते चीन की आजादी और सर्वांगीण होने का सपना पूरा नहीं होता। ऐसे में इन सभी को आजाद कर चीन में शामिल करना जरूरी है।’ वैसे भी माओ त्से तुंग हमेशा से चीन के ऐतिहासिक और प्राचीन चीनी विस्तार की बात करते रहे थे और लद्दाख, नेफा(वर्तमान अरूणाचल प्रदेश), भूटान, सिक्किम ही नहीं बल्कि मंगोलिया, लाओस और कम्बोंडिया तक ऐतिहासिक चीन की सीमाएं मानते थे। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद सिंज्यांग पर भी उसने इसी दावे के साथ कब्जा किया था। अब जब 67 साल बाद चीन की सत्ता पर एक सेना पसंद शासक काबिज हो तो इस भय से आंखे मूंदना उचित नहीं होगा कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि फ्रांस, पुर्तगाल और ब्रिटेन की ईस्ट इंडिया कंपनी की तरह व्यापार का झांसा देकर चीन कहीं पर निगाहें और कहीं पर निशाना लगाने की फिराक में हो। अरुणाचल प्रदेश के नागरिकों को स्टेपल वीजा देना, माओ त्सेतुंग की 1947 की नीति पर परोक्ष ढंग से अमल का कोई नुस्खा तो नहीं है। इन सवालों के बीच जब कोई भी विकसित, प्रभुत्व और अर्थ संपन्न देश भारत को बाजार के तौर पर देखता है अथवा पेश किया जाता है तो मेरे लिये बड़ा चिंता का सबब हो जाता है। पहली वजह यह कि भारत केवल बाजार नहीं है। दूसरी वजह, बाजार के रुप में चीन ने जिस नेपाल का इस्तेमाल किया है, उसकी गति देखकर किसी को इस बात पर खुश नहीं होना चाहिये कि चीन भारतीय बाजार के मद्देनजर हमें कोई ताकत देने की मंशा रखता है। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कार्यकाल में वैश्वीकरण के नाम पर आयात-निर्यात के जो रास्ते खोले गये उसका फायदा उठाकर चीन ने भारतीय बाजारों में जिस तरह अपने माल खपाये वो भी चीन की मंशा पर सवालिया निशान खड़ा करता है। यह बात दीगर है कि जब मोदी ने भूटान, नेपाल और जापान से रिश्तों का ट्रंप कार्ड खेला तो अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में खुद को पिछड़ता देख चीन ने 20 अरब डालर के निवेश का प्रस्ताव उस समय रखा जब नरेंद्र मोदी अपनी लोकसभा चुनाव के दौरान लोगो की आंखों में उम्मीदों के इतने सपने बुन चुके थे कि उसे पूरा करने के लिये संसाधनों की जरुरत थी। उल्लेखनीय है कि चीन ने जो वित्तीय वायदे किए हैं, वे हाल में जापान की ओर से की गई घोषणाओं से कम हैं। मोदी की जापान यात्रा के दौरान उस देश ने अगले पांच साल में भारत में 35 अरब डालर निवेश का भरोसा दिलाया है, जबकि चीन ने इतने ही वर्षों में 20 अरब डालर का। हालांकि चीन के सर्वाधिक विकसित राज्य ग्वांगदोग और गुजरात के बीच हुए समझौते के चलते गुजरात के विकास की उम्मीदें और अहमदाबाद के ग्वांगझाउ की तरह विकसित होने की उम्मीद ने गुजरातियों को ज्यादा आषान्वित किया है। बहरहाल, मोदी ने शी की यात्रा को भारत और चीन के बीच के संबंधों के लिए ऐसा ऐतिहासिक अवसर बताया जो अपार संभावनाओं से भरा है।
यही नहीं, चीनी राष्ट्रपति के यात्रा के दौरान भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चीन से रिश्तों को प्रगाढ करने में औपचारिकताओं तक को आडे़ नहीं आने दिया, वहीं सीमा विवाद और अरुणाचल विवाद के मुद्दे पर मोदी ने चीनी राष्ट्राध्यक्ष की आंख में आंख मिलाकर बात की। भारत की तरफ से मोदी ने साफ कर दिया कि चीनी राष्ट्रपति शी वास्तविक नियंत्रण रेखा का स्पष्टीकरण करने की रुकी प्रक्रिया को बहाल करें और सीमा विवाद के सवाल का भी शीघ्र समाधान होना चाहिए।
भारत और चीन ने अपने व्यापारिक संतुलन को बनाने और इसे आगे जारी रखने के लिये रेलवे से लेकर अंतरिक्ष तक विभिन्न क्षेत्रों से जुड़े 12 समझौतों पर हस्ताक्षर किए। चीन ने आर्थिक संबंधों को प्रगाढ़ बनाने व व्यापार घाटा पर भारत की चिंताओं को दूर करने के लिए अगले पांच साल में बडे निवेश की प्रतिबद्धता जताई।
मोदी व चीन के राष्ट्रपति के बीच यहां हुई विस्तृत बैठक के बाद समझौतों पर हस्ताक्षर किए गए। ये समझौते आर्थिक व व्यापारिक रिश्तों के संतुलित व सतत विकास के लिए मध्यावधिक खाका पेश करते हैं। एक अन्य सहमति पत्र (एमओयू) पर विदेश मंत्री सुषमा स्वराज तथा चीन के विदेश मंत्री वांग यी ने हस्ताक्षर किए। इससे भारतीय तीर्थयात्री नाथुला दर्रे (सिक्किम) से भी कैलाश मानसरोवर की यात्रा पर जा सकेंगे। फिलहाल यह यात्रा लिपुलेख दर्रे (उत्तराखंड) से होती है। नाथुला के जरिए यात्रा शुरू होने से तीर्थयात्रियों के लिए यात्रा का समय व संकट कम होगा। अब और अधिक विशेष बुजुर्ग तीर्थयात्री यह यात्रा कर सकेंगे।
इसके साथ ही चीन ने भारत के रेलवे नेटवर्क को मजबूत बनाने पर सहमति जताई है। रेलगाड़ियों की गति बढाने, हाइस्पीड रेलवे में सहयोग की व्यवहार्यता का अध्ययन करने तथा रेलवे स्टेशनों के पुनर्विकास के लिए दो समझौते हुए हैं। रेलवे में सहयोग को बढ़ावा देने के लिए रेल मंत्रालय तथा चीन राष्ट्रीय रेलवे प्रशासन मिलकर कार्ययोजना तैयार करेंगे। सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने चीन के प्रेस, प्रकाशन प्रशासन के साथ आडियो वीडियो सह निर्माण समझौता किया है।
इसी तरह दोनों पक्षों ने सीमा शुल्क प्रशासन से जुड़े मुद्दों पर सहयोग बढाने का फैसला किया भी है। इस संबंध में एक समझौता किया गया है। इससे सीमा पारीय आर्थिक अपराधों से निपटने में सहयोग मजबूत बनाने में मदद मिलेगी। अंतरिक्ष के शांतिपूर्ण इस्तेमाल में सहयोग के लिए भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) व चाइना नेशनल स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन के बीच समझौता हुआ है। इसी तरह दोनों देशों के विभिन्न सांस्कृतिक संस्थानों के बीच दीर्घकालिक सहयोग बढ़ाने के लिए एक समझौता किया गया है। दोनों देशों ने दवा मानकों, पारंपरिक दवाओं व दवा परीक्षण के क्षेत्र में सहयोग पर सहमति जताते हुए एक समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं। इसी तरह मुंबई व शंघाई के बीच ‘सिस्टर सिटी’ संबंध स्थापित करने के लिए एक समझौता दोनों देशों ने किया है। वहीं, चीन ने नई दिल्ली विश्व पुस्तक मेले 2016 में भाग लेने पर सहमति जताभारत-चीन शीर्ष स्तरीय वार्ता पर लद्दाख गतिरोध का साया बना रहा और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सीमा पर लगातार हो रही घटनाओं के बारे में ‘गंभीर चिंता’ जताई तथा सीमा के सवाल का शीघ्र समाधान चाहा। भारत और चीन के विवाद को अगर परिभाषित करना हो तो चीन के प्रोफेसर मा जा ली के जरिये समझा जा सकता है। प्रोफेसर मा जा ली चीन के आधुनिक अंतरराष्ट्रीय संबंध अनुसंधान संस्थान के दक्षिणी एशिया अनुसंधान केंद्र के प्रधान हैं। वे तीस वर्षों से चीन व भारत के राजनीतिक संबंधों के अनुसंधान में लगे हैं। श्री मा जा ली ने पिछले भारत-चीन संबंधों के 55 वर्षों को पांच भागों में विभाजित किया है। उन के अनुसार, 1950 के दशक में चीन व भारत के संबंध इतिहास के सब से अच्छे काल में थे। दोनों देशों के शीर्ष नेताओं ने तब एक-दूसरे के यहां की अनेक यात्राएं कीं और उनकी जनता के बीच भी खासी आवाजाही रही। दोनों देशों के बीच तब घनिष्ठ राजनीतिक संबंध थे। लेकिन, 1960 के दशक में चीन व भारत के संबंध अपने सब से शीत काल में प्रवेश कर गये। इस के बावजूद दोनों के मैत्रीपूर्ण संबंध कई हजार वर्ष पुराने हैं। इसलिए, यह शीतकाल एक ऐतिहासिक लम्बी नदी में एक छोटी लहर की तरह ही था। 70 के दशक के मध्य तक वे शीत काल से निकल कर फिर एक बार घनिष्ठ हुए। चीन-भारत संबंधों में शैथिल्य आया, तो दोनों देशों की सरकारों के उभय प्रयासों से दोनों के बीच फिर एक बार राजदूत स्तर के राजनयिक संबंधों की बहाली हुई। 1980 के दशक से 1990 के दशक के मध्य तक चीन व भारत के संबंधों में गर्माहट आ चुकी थी। हालांकि वर्ष 1998 में दोनों देशों के संबंधों में भारत द्वारा पांच मिसाइलें छोड़ने से फिर एक बार ठंडापन आया। पर यह तुरंत दोनों सरकारों की कोशिश से वर्ष 1999 में भारतीय विदेशमंत्री की चीन यात्रा के बाद समाप्त हो गया। अब चीन-भारत संबंध कदम ब कदम घनिष्ठ हो रहे हैं। इस घनिष्ठता की ही वजह थी, यह यात्रा और इस यात्रा में प्रोटाकाॅल का टूटना।
भारत-चीन संबंधों को अतिरेकी धाराओं से परे होकर ही देखा जाना चाहिए। 1952 में चीन ने तिब्बत में अपनी सेनाएं भेजकर कब्जा कर लिया था। तब तक तिब्बत में दलाई लामा का स्वतंत्र राज्य था, उनकी अपनी मुद्रा थी और स्वतंत्र राट्र था। लेकिन एक कमजोर और सदाषय स्वतंत्र भारत ने तिब्बत पर चीनी कब्जे का विरोध करने के बजाय उसे स्वीकार कर लिया और तिब्बत को चीन का अविभाज्य अंग मान्य कर दिया।
उसके बाद 1959 में दलाई लामा तथा उनके हजारों अनुयायी चीनी सेना द्वारा प्रताड़ित और पीड़ित होकर भारत आए। यहां उन्हें शरण दी गई। तब से तिब्बती शरणार्थियों का भारत आने का सिलसिला जारी ही है। इसमें संदेह नहीं कि भारतीय नेताओं की यथार्थ से परे स्वप्नदर्शी कूटनीतिक नीति के कारण तिब्बत पर चीनी कब्जे का न विरोध किया गया और न ही उसे नीतिगत अस्वीकार किया गया।
19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में कश्मीर के सेनापति जनरल जोरावरसिंह ने कैलास मानसरोवर वापस भारतीय सीमा में लाने हेतु तिब्बत में सैन्य अभियान छेड़ा था और फिर बहुत बहादुरी से तकलाकोट के पार तक विजय पताका फहराते हुए पहुंचे भी थे, परन्तु ब्रिटिश दुरभि संधि के कारण वे 12, दिसंबर 1841 को हुए अचानक हमले में गोली का शिकार होकर वहीं वीर गति को प्राप्त हो गए।
उनकी बहादुरी से प्रभावित होकर तिब्बतियों ने तकलाकोट के पास तोया गांव में उनकी समाधि भी बनाई जो कुछ वर्ष पूर्व तक सुरक्षित थी। यह उल्लेखनीय है कि 17, अक्टूबर, 1842 को महाराजा रणजीत सिंह के लाहौर दरबार, जिसके अंतर्गत कश्मीर राज्य था, तथा ल्हासा के बीच हुई संधि में तत्कालीन सीमाओं को ही भारत तथा तिब्बत के बीच स्थाई सीमा माना गया था।
अब चीनी नेतृत्व इस सपने को साकार करने की कवायद में लगा है। अक्टूबर, 1949 में साम्यवादी क्रांति के बाद चीन की नई सरकार ने तिब्बत पर अपना अधिकार घोषित कर दिया था। वर्ष 1959 में चीन की ओर से तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को पत्र लिखा गया, जिसमें कहा गया कि चीन की किसी सरकार ने मैकमोहन लाइन को वैध नहीं माना है। इसके पीछे मकसद तिब्बत को हड़पना था। वर्ष 1914 के शिमला सम्मेलन में मैकमोहन लाइन को भारत और चीन के बीच सीमारेखा माना गया था, लेकिन चीन इसका लगातार उल्लंघन करता रहा है।
आज की वस्तुस्थिति यह है कि तिब्बत पर चीनी कब्जे को भारत और अमेरिका भी अधिकृत तौर पर मान्यता दे चुके हैं। तिब्बत के धर्मगुरु दलाई लामा भी वर्तमान यथार्थ को स्वीकार करते हैं। ऐसी स्थिति में उचित यह होगा कि भारत-चीन संबंध अमेरिकी कूटनीतिक चालों तथा उसके अंतर्गत भू-राजनीतिक जटिलताओं से परे केवल राष्ट्रीय हित की दृष्टि से देखे और परखे जाने चाहिए।
यद्यपि यह भारत के हित में था कि भारत और चीन के मध्य तिब्बत एक स्वतंत्र देश के रूप में स्थिर रहता, परन्तु आज यह स्थिति नहीं है, लद्दाख से अरूणाचल प्रदेश तक चीन के साथ सटी सीमा और नेपाल में चीन के बढ रहे प्रभाव को देखते हुए वर्तमान परिस्थिति को अपने हित के संदर्भ में सामरिक और कूटनीतिक तौर पर खुद मजबूत बनाना होगा। चीन की सैन्य तैयारियों, भारत के चारांे ओर अपनी सामरिक उपस्थिति दर्ज कराने और व्यापारिक रिश्तों की बहाली तथा निवेश के आकर्षण के बीच बन रहे नये रिश्ते कम से कम भारत के लिये तो दोधारी तलवार पर चलने सरीखे हैं। यह बात और संतुलन साधने की बाजीगरी और उनके मोर्चों पर जाकर अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हुए मोदी ने यह साबित कर दिया है कि दुधारी तलवार पर चलने का हुनर उन्हें भी कम नहीं आता है। वह साथ-साथ और सतर्क-सतर्क दोनों स्थितियों में रह सकते है। यही वजह है कि उन्होंने जहां अहमदाबाद में ‘अतिथि देवो भवः’ की तरह चीनी राष्ट्रपति के सत्कार में प्रोटोकाल का लचीलापन दिखाया, वहीं दिल्ली में भारतीय सीमा से जुडे सवालों पर तनकर खड़े भी हुए। तभी तो जिस समय चीन के राष्ट्रपति भारत में थे ठीक उसी समय भारतीय राष्ट्रपति चीन के धुर विरोधी वियतनाम की ना केवल यात्रा पर गये थे बल्कि वहां कई व्यापारिक रिश्तों को भी अंजाम दिया। यही नहीं, जब चीन की ओर से इस पर प्रतिवाद हुआ तो भारतीय राजनय की ओर से यह साफ कर दिया गया कि भारत के किसी दूसरे देश से रिश्ते चीन के रिश्तों के संदर्भ के मोहताज नहीं हैं। यह बड़ी कूटनीतिक और राजनयिक सफलता ही कही जायेगी कि इसके बावजूद आजादी के बाद से पहली बार चीन ने भारत में राजनयिक के तौर पर एक उपमंत्री की तैनाती की है। ये तैनाती अब से पहले सिर्फ अमरीका, उत्तरी कोरिया, रुस और जापान में की जाती रही है। इस स्तर की तैनाती अब तक इन चार देशो में इसलिये की जाती रही है क्योंकि ये चीन के लिये कूटनीतिक महत्व में सबसे ऊपर आते हैं। यानी भारत को पहली बार संबंधों के नजरिये से चीन ने यह अहमियत दी है।
भारत और चीन दोनों ने ही अपने सीमा विवाद वार्ता के माध्यम से सुलझाने के समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं और इन वार्ताओं के छह दौर सम्पन्न हो चुके हैं। इन वार्ताओं से सामाधान निकालने के लिए चीन को प्रत्यक्ष तौर पर कोई जल्दी नहीं है क्योंकि उसने पहले से ही अक्साई चिन और काराकोरम क्षेत्र में भारत की जमीन हड़पी हुई है तथा अरूणाचल पर वह अलग से दावा जताता है।
वास्तव में चीन एकान्तिक देश भक्ति और एकतंत्रीय तानाशाही के माध्यम से विश्व की महाशक्ति बनने का अपना सपना पूरा करने के लिए हर संभव प्रयास कर रहा है। वैष्वीकरण के वर्तमान दौर में सामरिक क्षमता नहीं, बल्कि आर्थिक संप्रभुता दुनिया में महाषक्ति होने का पैमाना बन बैठी है। चीन की इस कामना और चीन के पष्चिमी प्रांत में लगातार बढ़ रहे इस्लामिक आतंकवाद ने भी उसे भारत की ओर देखने के लिए विवष किया है, क्योंकि कल तक चीन जिस पाकिस्तान को मदद कर रहा था वह अब ‘एसेट’ की जगह ‘लायबिलिटी’ हो गया है। मोदी की राजनीतिक और कूटनीतिक चालों ने चीन के लिए यह भी भय खड़ा कर दिया है कि जिस नरेंद्र मोदी का इस्तकबाल जापान और अमेरिका में जारी है कहीं भारत इनके पाले में खड़ा न दिखे। भारत अपने प्रभाव के क्षेत्र अर्थात दक्षिण एशिया (भारतीय उप-महाद्वीप) और पूर्व एशिया (प्राचीन स्वर्ण भूमि क्षेत्र या हिन्देशिया) में अमेरिका की बढ़ती कूटनीतिक उपस्थिति तथा चीन का वर्चस्व घटाते हुए अपना प्रभुत्व बढ़ाने की स्पर्धा में जुटा है। उसने भी चीन के सामने भारत के साथ दोस्ती का हाथ बढ़ाने के अलावा हर रास्ते बंद कर दिए हैं। हालांकि ‘हिन्दी चीनी भाई-भाई’ का जुमला एक बार हमारे लिए नासूर बन चुका है। इसलिए भारत को ही चीन के साथ रिष्तों की पींगे बढ़ाने में सतर्क रहने की जरूरत है। यही स्थिति दोनो देशों को किसी तरह के टकराव से बचाती भी है।
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भारत और चीन के शहरों और राष्ट्राध्यक्षों की मुलाकात को अगर ह्वेनसांग के इतिहास से जोड़कर देखें तो तमाम तरह के उतार चढाव दिखते हैं। शी जिनपिंग की यात्रा से ठीक पहले मोदी के कूटनीतिक कदम चीन की दीवार पर हथौडे की तरह ही लग रहे थे। मोदी ने जापान की यात्रा की। कूटनीतिक और व्यापारिक तौर पर चीन को जापान का सबसे कट्टर प्रतिद्वंदी माना जाता है। जापान यात्रा के पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भूटान और नेपाल की यात्रा की। साथ ही म्यांमार में विदेश मंत्री सुषमा स्वराज की यात्रा ने इस पूरे क्षेत्र में भारत की स्थिति को हिंद महासागर से लेकर कूटनीतिक तौर पर चीन की पेशानी पर बल डाल दिये। इसी के मद्देनजर चीन के राष्ट्रपति ने भारत आने में देर नहीं की। साथ ही इस यात्रा ने भारत को चीन के दुश्मन के बजाय एक सहयोगी के तौर पर पेश किया। चीन के सरकारी मीडिया ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच औपचारिकताओं को परे रखते हुए दोस्ताना माहौल बनाने के लिए अहमदाबाद में हुए मेल-मिलाप को वहां पहले पन्ने पर लेखों और तस्वीरों के साथ प्रमुखता से प्रकाशित किया । चाइना डेली की लीड स्टोरी में अहमदाबाद के होटल में शी और उनकी पत्नी फेंग लियुएन की अगवानी करते मोदी की तस्वीर के साथ लिखा था, ‘शी और मोदी ने औपचारिकता को परे रखकर दौरे के लिए दोस्ताना माहौल का निर्माण किया।’ इसमें कहा गया, ‘ऐसा पहली बार हुआ है जब किसी विदेशी गणमान्य अतिथि ने राजधानी के बाहर समझौतों पर हस्ताक्षर किया।’ जबकि पर्यवेक्षकों ने कहा कि शी के साथ अनौपचारिक मेलजोल से चीन-भारत संबंधों के लिए सकारात्मक माहौल बनाने में मदद मिलेगी। मोदी आकर्षण में बंधे भारतीय मीडिया ने भी चीनी राष्ट्रपति की यात्रा और नरेंद्र मोदी से उनकी मुलाकातोँ को कुछ उसी तरह पेश किया जैसे चीन का सरकारी मीडिया कर रहा था। नतीजतन, उम्मीद का एक माहौल बनता दिखने लगा। लेकिन इस माहौल को उस समय ठेस लगी, जब चीन की सेना ने, उनके राष्ट्रपति के भारत में उपस्थिति और एक खुशनुमा माहौल में दोनों की बातचीत व दोनों देशों के अतीत को भुलाकर आगे बढने के संकल्प को दरकिनार करते हुए डेमचेक और चुमार में भारतीय सीमा में अपनी जबरन उपस्थिति दर्ज करा दी। वर्ष 1955, 1962 और 1965 में चीन की हरकत से खराब हुए रिश्तों की कड़वी यादें भी एक बार फिर भारतीय जनमानस के दिलो-दिमाग पर ना केवल तारी हो गयीं, बल्कि पूरे माहौल की मिठास में कसैलापन भर गया।
हालांकि मेल मुलाकात में मशगूल दोनो देशों के शीर्ष नेताओं ने साफ कर दिया किया कि ऐसे मुद्दे दीर्घकालीन रिश्तों की मिठास को कम नहीं कर सकते। पर ये दावे तब बेमानी हो जाते हैं, जब चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग भारत यात्रा से लौटकर बीजिंग में यह कहने में कोई गुरेज नहीं करते कि चीनी सेना क्षेत्रीय युद्ध जीतने को तैयार रहे। यही नहीं उन्होंने यहां तक कहा कि सेना ये सुनिश्चित करे कि केंद्रीय नेतृत्व के सभी फैसलों का कड़ाई से पालन हो। यह पहला वाकया नहीं है, जब चीनी राष्ट्रपति ने पीपल्स लिबरेशन आर्मी को युद्ध के लिये तैयार रहने का आदेश दिया है। लेकिन लद्दाख क्षेत्र में भारतीय सीमा के अंदर चीनी सेना की आवाजाही और घुसपैठ के मद्देनजर ही नहीं, उनकी भारत यात्रा के लिहाज से भी ये बयान खासा महत्वपूर्ण हो जाता है। माओत्से तुंग, डेन शिओपिंग के बाद सबसे ताकतवर नेता के तौर पर उभरे शी जिनपिंग हालांकि वर्ष 2012 में ताजपोशी के बाद से ही सेना को अहमियत देते आ रहे हैं। उन्होंने चीनी सेना को दुनिया में बेजोड़ सैन्य षक्ति बनाया है। जिनपिंग 2012 में ‘द चायना ड्रीम’ के साथ आए। उनकी चीन स्वप्न की अवधारणा चीन के कायाकल्प पर आधारित है। वह भारत के लिए चीन के साथ अतीत के रिश्तों के मद्देनजर सबक लेने वाला है। जिनपिंग ने राष्ट्राध्यक्ष बनने के बाद सबसे पहली बैठक सेनाध्यक्षों के साथ की। तकरीबन दो दर्जन महत्वपूर्ण पदों पर सैनिक अफसरों को बदलकर अपने लोग लगाये। उनका पहला महत्वपूर्ण दौरा दक्षिण चीन सागर में वांगझु सैन्य क्षेत्र था। इन दिनों चीन एक साथ सात प्रकार की पनडुब्बियों और युद्धपोतों के निर्माण में जुटा है। यही गति रही तो एक दषक के बाद उसके पास सिर्फ पनडुब्बियों की संख्या चार गुना हो जाएगी। चीन की सैन्य तैयारियां भले ही भारत के मददेनजर न की गईं हों, पर हमारे लिए भय तो उत्पन्न करती ही हैं। इसी के साथ अक्साई चिन, यानी वो हिस्सा जो पाक अधिकृत कश्मीर में से पाकिस्तान ने चीन को उपहार मे दे दिया है, वहां उसने सड़क बना दी और बिजली घर बना रहा है। चीन अब अरब सागर और हिंद महासागर में अपनी उपस्थिति लगातार बढा और मजबूत कर रहा है। श्रीलंका में भी चीन की मौजूदगी और दखल लगातार बढ रहा है। नेपाल में चीन ने अपनी इतनी जगह बना ली है कि भारतीय सीमाओं पर आये दिन चीनी जासूस पकडे जाते हैं। नेपाल के हर छोटे-बडे शहर में चीनी बार बालायें और चीनी भाषा सिखाने के केंद्र के साथ ही साथ चीन के सामान वहां के बाजार में अटे पडे हैं। सामरिक भौगोलिक लिहाज से देखें तो चीन भारत के चारांे ओर अपने लिये जगह बना चुका है। भारत के पूर्व विदेश मंत्री और वर्तमान राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के एक बयान के अनुसार चीन भारत की 90,000 वर्ग किलोमीटर भूमि पर कब्जा जताता है। अक्साई चिन में चीन पहले से ही भारत की 38 हजार वर्ग किलोमीटर भूमि पर कब्जा किये हुए है और पाकिस्तान द्वारा अवैध रूप से हड़पे गए कश्मीर से भी 5180 वर्ग किलोमीटर भूमि वह उपहार में ले चुका है। भारत की संसद ने चीन से अपनी खोई हुई जमीन वापस लेने का सर्वसम्मत संकल्प पारित किया हुआ है लेकिन ऐसे संकल्प शक्ति के आधार पर ही पूरे किये जा सकते हैं।
वर्तमान चीन के निर्माणकर्ता माओ त्से तुंग ने चीन के साम्राज्यवादी विस्तार का बखान करते हुए अपनी विस्तारवादी वसीयत में लिखा है, ‘तिब्बत उस हाथ की हथेली है, जिसकी पांच उंगलियां लद्दाख कनिष्का, तर्जनी सिक्किम, अंगूठा नेपाल,मध्यमा भूटान और नेफा (वर्तमान अरुणाचल प्रदेश) अनामिका हैं । जब तक ये एक साथ नहीं होते चीन की आजादी और सर्वांगीण होने का सपना पूरा नहीं होता। ऐसे में इन सभी को आजाद कर चीन में शामिल करना जरूरी है।’ वैसे भी माओ त्से तुंग हमेशा से चीन के ऐतिहासिक और प्राचीन चीनी विस्तार की बात करते रहे थे और लद्दाख, नेफा(वर्तमान अरूणाचल प्रदेश), भूटान, सिक्किम ही नहीं बल्कि मंगोलिया, लाओस और कम्बोंडिया तक ऐतिहासिक चीन की सीमाएं मानते थे। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद सिंज्यांग पर भी उसने इसी दावे के साथ कब्जा किया था। अब जब 67 साल बाद चीन की सत्ता पर एक सेना पसंद शासक काबिज हो तो इस भय से आंखे मूंदना उचित नहीं होगा कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि फ्रांस, पुर्तगाल और ब्रिटेन की ईस्ट इंडिया कंपनी की तरह व्यापार का झांसा देकर चीन कहीं पर निगाहें और कहीं पर निशाना लगाने की फिराक में हो। अरुणाचल प्रदेश के नागरिकों को स्टेपल वीजा देना, माओ त्सेतुंग की 1947 की नीति पर परोक्ष ढंग से अमल का कोई नुस्खा तो नहीं है। इन सवालों के बीच जब कोई भी विकसित, प्रभुत्व और अर्थ संपन्न देश भारत को बाजार के तौर पर देखता है अथवा पेश किया जाता है तो मेरे लिये बड़ा चिंता का सबब हो जाता है। पहली वजह यह कि भारत केवल बाजार नहीं है। दूसरी वजह, बाजार के रुप में चीन ने जिस नेपाल का इस्तेमाल किया है, उसकी गति देखकर किसी को इस बात पर खुश नहीं होना चाहिये कि चीन भारतीय बाजार के मद्देनजर हमें कोई ताकत देने की मंशा रखता है। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कार्यकाल में वैश्वीकरण के नाम पर आयात-निर्यात के जो रास्ते खोले गये उसका फायदा उठाकर चीन ने भारतीय बाजारों में जिस तरह अपने माल खपाये वो भी चीन की मंशा पर सवालिया निशान खड़ा करता है। यह बात दीगर है कि जब मोदी ने भूटान, नेपाल और जापान से रिश्तों का ट्रंप कार्ड खेला तो अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में खुद को पिछड़ता देख चीन ने 20 अरब डालर के निवेश का प्रस्ताव उस समय रखा जब नरेंद्र मोदी अपनी लोकसभा चुनाव के दौरान लोगो की आंखों में उम्मीदों के इतने सपने बुन चुके थे कि उसे पूरा करने के लिये संसाधनों की जरुरत थी। उल्लेखनीय है कि चीन ने जो वित्तीय वायदे किए हैं, वे हाल में जापान की ओर से की गई घोषणाओं से कम हैं। मोदी की जापान यात्रा के दौरान उस देश ने अगले पांच साल में भारत में 35 अरब डालर निवेश का भरोसा दिलाया है, जबकि चीन ने इतने ही वर्षों में 20 अरब डालर का। हालांकि चीन के सर्वाधिक विकसित राज्य ग्वांगदोग और गुजरात के बीच हुए समझौते के चलते गुजरात के विकास की उम्मीदें और अहमदाबाद के ग्वांगझाउ की तरह विकसित होने की उम्मीद ने गुजरातियों को ज्यादा आषान्वित किया है। बहरहाल, मोदी ने शी की यात्रा को भारत और चीन के बीच के संबंधों के लिए ऐसा ऐतिहासिक अवसर बताया जो अपार संभावनाओं से भरा है।
यही नहीं, चीनी राष्ट्रपति के यात्रा के दौरान भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चीन से रिश्तों को प्रगाढ करने में औपचारिकताओं तक को आडे़ नहीं आने दिया, वहीं सीमा विवाद और अरुणाचल विवाद के मुद्दे पर मोदी ने चीनी राष्ट्राध्यक्ष की आंख में आंख मिलाकर बात की। भारत की तरफ से मोदी ने साफ कर दिया कि चीनी राष्ट्रपति शी वास्तविक नियंत्रण रेखा का स्पष्टीकरण करने की रुकी प्रक्रिया को बहाल करें और सीमा विवाद के सवाल का भी शीघ्र समाधान होना चाहिए।
भारत और चीन ने अपने व्यापारिक संतुलन को बनाने और इसे आगे जारी रखने के लिये रेलवे से लेकर अंतरिक्ष तक विभिन्न क्षेत्रों से जुड़े 12 समझौतों पर हस्ताक्षर किए। चीन ने आर्थिक संबंधों को प्रगाढ़ बनाने व व्यापार घाटा पर भारत की चिंताओं को दूर करने के लिए अगले पांच साल में बडे निवेश की प्रतिबद्धता जताई।
मोदी व चीन के राष्ट्रपति के बीच यहां हुई विस्तृत बैठक के बाद समझौतों पर हस्ताक्षर किए गए। ये समझौते आर्थिक व व्यापारिक रिश्तों के संतुलित व सतत विकास के लिए मध्यावधिक खाका पेश करते हैं। एक अन्य सहमति पत्र (एमओयू) पर विदेश मंत्री सुषमा स्वराज तथा चीन के विदेश मंत्री वांग यी ने हस्ताक्षर किए। इससे भारतीय तीर्थयात्री नाथुला दर्रे (सिक्किम) से भी कैलाश मानसरोवर की यात्रा पर जा सकेंगे। फिलहाल यह यात्रा लिपुलेख दर्रे (उत्तराखंड) से होती है। नाथुला के जरिए यात्रा शुरू होने से तीर्थयात्रियों के लिए यात्रा का समय व संकट कम होगा। अब और अधिक विशेष बुजुर्ग तीर्थयात्री यह यात्रा कर सकेंगे।
इसके साथ ही चीन ने भारत के रेलवे नेटवर्क को मजबूत बनाने पर सहमति जताई है। रेलगाड़ियों की गति बढाने, हाइस्पीड रेलवे में सहयोग की व्यवहार्यता का अध्ययन करने तथा रेलवे स्टेशनों के पुनर्विकास के लिए दो समझौते हुए हैं। रेलवे में सहयोग को बढ़ावा देने के लिए रेल मंत्रालय तथा चीन राष्ट्रीय रेलवे प्रशासन मिलकर कार्ययोजना तैयार करेंगे। सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने चीन के प्रेस, प्रकाशन प्रशासन के साथ आडियो वीडियो सह निर्माण समझौता किया है।
इसी तरह दोनों पक्षों ने सीमा शुल्क प्रशासन से जुड़े मुद्दों पर सहयोग बढाने का फैसला किया भी है। इस संबंध में एक समझौता किया गया है। इससे सीमा पारीय आर्थिक अपराधों से निपटने में सहयोग मजबूत बनाने में मदद मिलेगी। अंतरिक्ष के शांतिपूर्ण इस्तेमाल में सहयोग के लिए भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) व चाइना नेशनल स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन के बीच समझौता हुआ है। इसी तरह दोनों देशों के विभिन्न सांस्कृतिक संस्थानों के बीच दीर्घकालिक सहयोग बढ़ाने के लिए एक समझौता किया गया है। दोनों देशों ने दवा मानकों, पारंपरिक दवाओं व दवा परीक्षण के क्षेत्र में सहयोग पर सहमति जताते हुए एक समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं। इसी तरह मुंबई व शंघाई के बीच ‘सिस्टर सिटी’ संबंध स्थापित करने के लिए एक समझौता दोनों देशों ने किया है। वहीं, चीन ने नई दिल्ली विश्व पुस्तक मेले 2016 में भाग लेने पर सहमति जताभारत-चीन शीर्ष स्तरीय वार्ता पर लद्दाख गतिरोध का साया बना रहा और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सीमा पर लगातार हो रही घटनाओं के बारे में ‘गंभीर चिंता’ जताई तथा सीमा के सवाल का शीघ्र समाधान चाहा। भारत और चीन के विवाद को अगर परिभाषित करना हो तो चीन के प्रोफेसर मा जा ली के जरिये समझा जा सकता है। प्रोफेसर मा जा ली चीन के आधुनिक अंतरराष्ट्रीय संबंध अनुसंधान संस्थान के दक्षिणी एशिया अनुसंधान केंद्र के प्रधान हैं। वे तीस वर्षों से चीन व भारत के राजनीतिक संबंधों के अनुसंधान में लगे हैं। श्री मा जा ली ने पिछले भारत-चीन संबंधों के 55 वर्षों को पांच भागों में विभाजित किया है। उन के अनुसार, 1950 के दशक में चीन व भारत के संबंध इतिहास के सब से अच्छे काल में थे। दोनों देशों के शीर्ष नेताओं ने तब एक-दूसरे के यहां की अनेक यात्राएं कीं और उनकी जनता के बीच भी खासी आवाजाही रही। दोनों देशों के बीच तब घनिष्ठ राजनीतिक संबंध थे। लेकिन, 1960 के दशक में चीन व भारत के संबंध अपने सब से शीत काल में प्रवेश कर गये। इस के बावजूद दोनों के मैत्रीपूर्ण संबंध कई हजार वर्ष पुराने हैं। इसलिए, यह शीतकाल एक ऐतिहासिक लम्बी नदी में एक छोटी लहर की तरह ही था। 70 के दशक के मध्य तक वे शीत काल से निकल कर फिर एक बार घनिष्ठ हुए। चीन-भारत संबंधों में शैथिल्य आया, तो दोनों देशों की सरकारों के उभय प्रयासों से दोनों के बीच फिर एक बार राजदूत स्तर के राजनयिक संबंधों की बहाली हुई। 1980 के दशक से 1990 के दशक के मध्य तक चीन व भारत के संबंधों में गर्माहट आ चुकी थी। हालांकि वर्ष 1998 में दोनों देशों के संबंधों में भारत द्वारा पांच मिसाइलें छोड़ने से फिर एक बार ठंडापन आया। पर यह तुरंत दोनों सरकारों की कोशिश से वर्ष 1999 में भारतीय विदेशमंत्री की चीन यात्रा के बाद समाप्त हो गया। अब चीन-भारत संबंध कदम ब कदम घनिष्ठ हो रहे हैं। इस घनिष्ठता की ही वजह थी, यह यात्रा और इस यात्रा में प्रोटाकाॅल का टूटना।
भारत-चीन संबंधों को अतिरेकी धाराओं से परे होकर ही देखा जाना चाहिए। 1952 में चीन ने तिब्बत में अपनी सेनाएं भेजकर कब्जा कर लिया था। तब तक तिब्बत में दलाई लामा का स्वतंत्र राज्य था, उनकी अपनी मुद्रा थी और स्वतंत्र राट्र था। लेकिन एक कमजोर और सदाषय स्वतंत्र भारत ने तिब्बत पर चीनी कब्जे का विरोध करने के बजाय उसे स्वीकार कर लिया और तिब्बत को चीन का अविभाज्य अंग मान्य कर दिया।
उसके बाद 1959 में दलाई लामा तथा उनके हजारों अनुयायी चीनी सेना द्वारा प्रताड़ित और पीड़ित होकर भारत आए। यहां उन्हें शरण दी गई। तब से तिब्बती शरणार्थियों का भारत आने का सिलसिला जारी ही है। इसमें संदेह नहीं कि भारतीय नेताओं की यथार्थ से परे स्वप्नदर्शी कूटनीतिक नीति के कारण तिब्बत पर चीनी कब्जे का न विरोध किया गया और न ही उसे नीतिगत अस्वीकार किया गया।
19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में कश्मीर के सेनापति जनरल जोरावरसिंह ने कैलास मानसरोवर वापस भारतीय सीमा में लाने हेतु तिब्बत में सैन्य अभियान छेड़ा था और फिर बहुत बहादुरी से तकलाकोट के पार तक विजय पताका फहराते हुए पहुंचे भी थे, परन्तु ब्रिटिश दुरभि संधि के कारण वे 12, दिसंबर 1841 को हुए अचानक हमले में गोली का शिकार होकर वहीं वीर गति को प्राप्त हो गए।
उनकी बहादुरी से प्रभावित होकर तिब्बतियों ने तकलाकोट के पास तोया गांव में उनकी समाधि भी बनाई जो कुछ वर्ष पूर्व तक सुरक्षित थी। यह उल्लेखनीय है कि 17, अक्टूबर, 1842 को महाराजा रणजीत सिंह के लाहौर दरबार, जिसके अंतर्गत कश्मीर राज्य था, तथा ल्हासा के बीच हुई संधि में तत्कालीन सीमाओं को ही भारत तथा तिब्बत के बीच स्थाई सीमा माना गया था।
अब चीनी नेतृत्व इस सपने को साकार करने की कवायद में लगा है। अक्टूबर, 1949 में साम्यवादी क्रांति के बाद चीन की नई सरकार ने तिब्बत पर अपना अधिकार घोषित कर दिया था। वर्ष 1959 में चीन की ओर से तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को पत्र लिखा गया, जिसमें कहा गया कि चीन की किसी सरकार ने मैकमोहन लाइन को वैध नहीं माना है। इसके पीछे मकसद तिब्बत को हड़पना था। वर्ष 1914 के शिमला सम्मेलन में मैकमोहन लाइन को भारत और चीन के बीच सीमारेखा माना गया था, लेकिन चीन इसका लगातार उल्लंघन करता रहा है।
आज की वस्तुस्थिति यह है कि तिब्बत पर चीनी कब्जे को भारत और अमेरिका भी अधिकृत तौर पर मान्यता दे चुके हैं। तिब्बत के धर्मगुरु दलाई लामा भी वर्तमान यथार्थ को स्वीकार करते हैं। ऐसी स्थिति में उचित यह होगा कि भारत-चीन संबंध अमेरिकी कूटनीतिक चालों तथा उसके अंतर्गत भू-राजनीतिक जटिलताओं से परे केवल राष्ट्रीय हित की दृष्टि से देखे और परखे जाने चाहिए।
यद्यपि यह भारत के हित में था कि भारत और चीन के मध्य तिब्बत एक स्वतंत्र देश के रूप में स्थिर रहता, परन्तु आज यह स्थिति नहीं है, लद्दाख से अरूणाचल प्रदेश तक चीन के साथ सटी सीमा और नेपाल में चीन के बढ रहे प्रभाव को देखते हुए वर्तमान परिस्थिति को अपने हित के संदर्भ में सामरिक और कूटनीतिक तौर पर खुद मजबूत बनाना होगा। चीन की सैन्य तैयारियों, भारत के चारांे ओर अपनी सामरिक उपस्थिति दर्ज कराने और व्यापारिक रिश्तों की बहाली तथा निवेश के आकर्षण के बीच बन रहे नये रिश्ते कम से कम भारत के लिये तो दोधारी तलवार पर चलने सरीखे हैं। यह बात और संतुलन साधने की बाजीगरी और उनके मोर्चों पर जाकर अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हुए मोदी ने यह साबित कर दिया है कि दुधारी तलवार पर चलने का हुनर उन्हें भी कम नहीं आता है। वह साथ-साथ और सतर्क-सतर्क दोनों स्थितियों में रह सकते है। यही वजह है कि उन्होंने जहां अहमदाबाद में ‘अतिथि देवो भवः’ की तरह चीनी राष्ट्रपति के सत्कार में प्रोटोकाल का लचीलापन दिखाया, वहीं दिल्ली में भारतीय सीमा से जुडे सवालों पर तनकर खड़े भी हुए। तभी तो जिस समय चीन के राष्ट्रपति भारत में थे ठीक उसी समय भारतीय राष्ट्रपति चीन के धुर विरोधी वियतनाम की ना केवल यात्रा पर गये थे बल्कि वहां कई व्यापारिक रिश्तों को भी अंजाम दिया। यही नहीं, जब चीन की ओर से इस पर प्रतिवाद हुआ तो भारतीय राजनय की ओर से यह साफ कर दिया गया कि भारत के किसी दूसरे देश से रिश्ते चीन के रिश्तों के संदर्भ के मोहताज नहीं हैं। यह बड़ी कूटनीतिक और राजनयिक सफलता ही कही जायेगी कि इसके बावजूद आजादी के बाद से पहली बार चीन ने भारत में राजनयिक के तौर पर एक उपमंत्री की तैनाती की है। ये तैनाती अब से पहले सिर्फ अमरीका, उत्तरी कोरिया, रुस और जापान में की जाती रही है। इस स्तर की तैनाती अब तक इन चार देशो में इसलिये की जाती रही है क्योंकि ये चीन के लिये कूटनीतिक महत्व में सबसे ऊपर आते हैं। यानी भारत को पहली बार संबंधों के नजरिये से चीन ने यह अहमियत दी है।
भारत और चीन दोनों ने ही अपने सीमा विवाद वार्ता के माध्यम से सुलझाने के समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं और इन वार्ताओं के छह दौर सम्पन्न हो चुके हैं। इन वार्ताओं से सामाधान निकालने के लिए चीन को प्रत्यक्ष तौर पर कोई जल्दी नहीं है क्योंकि उसने पहले से ही अक्साई चिन और काराकोरम क्षेत्र में भारत की जमीन हड़पी हुई है तथा अरूणाचल पर वह अलग से दावा जताता है।
वास्तव में चीन एकान्तिक देश भक्ति और एकतंत्रीय तानाशाही के माध्यम से विश्व की महाशक्ति बनने का अपना सपना पूरा करने के लिए हर संभव प्रयास कर रहा है। वैष्वीकरण के वर्तमान दौर में सामरिक क्षमता नहीं, बल्कि आर्थिक संप्रभुता दुनिया में महाषक्ति होने का पैमाना बन बैठी है। चीन की इस कामना और चीन के पष्चिमी प्रांत में लगातार बढ़ रहे इस्लामिक आतंकवाद ने भी उसे भारत की ओर देखने के लिए विवष किया है, क्योंकि कल तक चीन जिस पाकिस्तान को मदद कर रहा था वह अब ‘एसेट’ की जगह ‘लायबिलिटी’ हो गया है। मोदी की राजनीतिक और कूटनीतिक चालों ने चीन के लिए यह भी भय खड़ा कर दिया है कि जिस नरेंद्र मोदी का इस्तकबाल जापान और अमेरिका में जारी है कहीं भारत इनके पाले में खड़ा न दिखे। भारत अपने प्रभाव के क्षेत्र अर्थात दक्षिण एशिया (भारतीय उप-महाद्वीप) और पूर्व एशिया (प्राचीन स्वर्ण भूमि क्षेत्र या हिन्देशिया) में अमेरिका की बढ़ती कूटनीतिक उपस्थिति तथा चीन का वर्चस्व घटाते हुए अपना प्रभुत्व बढ़ाने की स्पर्धा में जुटा है। उसने भी चीन के सामने भारत के साथ दोस्ती का हाथ बढ़ाने के अलावा हर रास्ते बंद कर दिए हैं। हालांकि ‘हिन्दी चीनी भाई-भाई’ का जुमला एक बार हमारे लिए नासूर बन चुका है। इसलिए भारत को ही चीन के साथ रिष्तों की पींगे बढ़ाने में सतर्क रहने की जरूरत है। यही स्थिति दोनो देशों को किसी तरह के टकराव से बचाती भी है।
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