राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भारत को एक ऐसे देश के रूप में निरूपित किया था, जिसकी आत्माज गांवों में बसती है। बाद के तमाम राजनेताओं, साहित्यकारों, समाजसेवियों और सुधारकों ने महात्मा् गांधी के इस फलसफे को अपने ढंग से कुछ और जोड़ते हुए आगे बढ़ाया। पर इस पूरी कवायद में एक ही बात हर बार उभरकर सामने आई कि भारत गांवों का देश है। इस देश का विकास गांवों के विकास के बिना नहीं हो सकता है। आजादी के बाद से अब तक गांवों के विकास के लिए हर सरकार और हर राजनेता ने अपने-अपने ढंग से थोड़े-अधिक प्रयास किए पर प्रयासों की इस पूरी प्रक्रिया में हर बार और हर कड़ी में शहरी विकास, ग्रामीण विकास पर प्रभावी रहा। यही नहीं, योजनाओं में भी विकास सिर्फ ‘सिटी सेंट्रिक’ शहर केंद्रित होकर रह गए। यही वजह है कि ग्रामीण आबादी 72 दशमलव 19 फीसदी से घटकर 68 दशमलव 84 फीसदी रह गई जबकि शहरी आबादी में इजाफा दर्ज हुआ। वह तकरीबन चार फीसदी बढ़कर 31 फीसदी हो गई। यह तब है जब आम धारणा है कि गांव में जन्म दर शहरों की तुलना में जयादा है। यही नहीं, पिछले दशक में 907 नए कस्बे अस्तित्व में आए। इसी अवधि में शहरीकरण 30 फीसदी की दर से बढ़ा। हालांकि कोई भी सरकार, राजनेता अथवा राजनीतिक दल इस सत्य को स्वींकारने को तैयार नहीं होगा क्योंकि इससे आंख चुराना उसकी सियासत का अभिन्न हिस्सा है। लेकिन इस सच से आंख कैसे चुराई जा सकती है कि आखिर गांव का थोड़ा भी आर्थिक रूप से मजबूत आदमी अपने जिले के मुख्यालय पर अपना मकान क्यों बनवाता है ? उत्तर प्रदेश में मतदान के कम होते स्तर पर चिंता जताते हुए एक दिन मैं और राज्य के निर्वाचन अधिकारी उमेश सिन्हा गुफ्तगंू कर रहे थे। मैंने उन्हें अपनी नजीर दी कि मेरे पास गांव और लखनऊ दोनों जगहों का निर्वाचन कार्ड है, पर मैं वोट एक ही जगह डालता हूं। ऐसे तमाम वोटर कार्ड धारक होंगे, जिनसे मतदान प्रतिशत नहीं बढ़ता दिखता। इसके बाद बरेली जिले की मतदाता सूची को ‘डी-डुप्लीकेशन सॉफ्टवेयर’ पर रन कराया गया, तो पता चला कि आठ नौ फीसद लोगों के नाम जिला मुख्याालय स्तर पर ही दो बार दर्ज है। डॉक्टर और मास्टर गांवों की ओर रुख नहीं करते हैं। मैंने बुंदेलखंड, रुहेलखंड, पूर्वांचल, पश्चिमी उत्तटर प्रदेश, अवध और ब्रज के तमाम गांवों में प्रवास किया है। इन इलाकों के गांवों में डॉक्टर अपना खड़ाऊं झोलाछाप को पकड़ा देता है। मास्टर दो तीन हजार रुपये में किसी और को पढ़ाने के लिए रख छोड़ता है। हद तो यह है कि उत्तर प्रदेश में गांवों में जो लोग सफाई के लिए रखे गए, उन्होंने भी अपनी पगार में से दो तीन हजार रुपये देकर अपना काम दूसरे के हवाले कर दिया है।
उत्तर प्रदेश के सात प्रधानमंत्रियों और अब तक के सारे मुख्यमंत्रियों के गांवों में भी मैं गया हूं। भले ही इसे विवाद और वितंडा का सबब बनाया जाए पर हकीकत यह है कि मुलायम सिंह यादव और मायावती को छोड़कर किसी ने अपने गांव का ऐसा विकास नहीं किया है, जिसे मील का पत्थंर कहा जा सके। सभी पूर्व प्रधानमंत्रियों और पूर्व मुख्यमंत्रियों ने शहर मुख्यालयों में अपने आशियाने बना लिए। वैश्वीकरण के दौर से ठीक पहले की बात यदि याद करें तो हमें ठीक से याद है कि गांवों में बच्चे चैपहिया वाहन देखने उमड़ पड़ते थे। चुनाव के दौरान गांवों में अगर कोई नेता हेलीकॉप्टेर से अवतरित होता था, तो गांवों के लोग नेता से अधिक उसके हेलीकॉप्टवर को देखने उमडते थे। नेता और भीड़ दोनो गफलत में रहते थे कि कौन-किसे देखने आया है।
हालांकि वैश्वीकरण के दौर और मनरेगा आने के साथ ही गांव की तस्वीेर यह नहीं रह गई। बावजूद इसके, विकास देखने और इसका लुत्फं उठाने के लिए ग्रामवासियों को शहर ही आना पड़ता है। इस बीच गांवों के लोगों की बढ़ी क्रयशक्ति ने बाजार के लिए शहर की ओर आने का उनका सिलसिला बढ़ा दिया। ऐसे में विकास उनके गांवों तक नहीं पहुंचा, इसे लेकर उनमें आक्रोश का उपजना स्वााभाविक तौर पर दिखने लगा। हालांकि इन हालात और हकीकत के बीच अगर देश में पहली बार स्पष्ट बहुमत वाली गैर कांग्रेसी सरकार बनाने वाला प्रधानमंत्री गांवों के विकास के लिए एक नया सपना, नई उम्मीद और नई हकीकत पेश करता हो, तो उसके इंकार की गुंजाइश बहुत कम रह जाती है। वह भी तब जबकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गांवों के विकास के इस फलसफे में किसी को खारिज करते हुए आगे नहीं बढ़ रहे हैं। वह खुद मानते हैं कि हर सरकार ने अपने नजरिए से विकास कार्य किए हैं। मोदी यह भी दावा करते हैं कि उन्होंने गुजरात के बाहर तकरीबन पांच हजार गांवों में अपना समय गुजारा है। गुजरात में उन्होंने विकास का एक नया मॉडल भी पेश किया है। तब अगर वह सांसद आदर्श ग्राम योजना के मार्फत विकास की इबारत लिखने की तैयारी कर रहे हों तो कहा जा सकता है कि लंबे समय बाद ही सही, भारत की आत्मा तक पहुंचने की यात्रा शुरू हुई है। यह भी एक कठोर सच्चाई है कि पहली बार विकास का मॉडल मांग आधारित तैयार किया जा रहा है। अब तक विकास आपूर्ति आधारित था। यानी पहले विकास कहां और कितना होना है, ये सरकारें और हुक्मरान तय करते थे। यह काम नरेंद्र मोदी की इस योजना में जनता को दिया गया है। ऐसा भी नहीं कि यह पहली बार हो रहा है। इससे पहले भी उन्हीं की पार्टी के प्रतीक पुरुष पंडित दीनदयाल उपाध्याहय ने गांवों के विकास का मॉडल पेश किया था। केंद्र की अटल बिहारी वाजपेयी सरकार और उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकारों ने इसे जमीनी हकीकत पर उतारने की कोशिश भी की। उत्तराखंड में चलाई जा रही अटल आदर्श ग्राम योजना में जरूर कुछ गांव ऐसे देखने को मिले जिन्हें वास्तविक रूप से गांव कहा जा सकता है। एक गांव में आम लोगों की जरूरत की वह सारी मौलिक चीजें मौजूद हों तो उसे आदर्श की संज्ञा दी जा सकती है। जैसे सड़कें, साथ सुथरी गलियां- साफ नालियां, पोस्ट आफिस, स्कूल, बैंक, को-आपरेटिव सोसाइटी और उसका दफ्तर, पंचायत भवन, सार्वजनिक संकुल आदि। अगर आप उत्तराखंड में पर्यटन के लिए जाएं तो कौशानी से नैनीताल लौटते समय रास्तों में ऐसे दर्जनों आदर्श गांव मिलेंगे जिनमें यह सुविधाएं मौजूद हैं। हो सकता है कि वहां की सरकार ने महज पर्यटन क्षेत्रों में ऐसा कर रखा हो, बाकी जगह ऐसे विकसित गांव न हों। उत्तर प्रदेश में बसपा सुप्रीमो मायावती ने अंबेडकर ग्राम योजना के नाम से गांवों के विकास की योजना अपने सभी कार्यकालों में चलाई। सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव ने भी लोहिया ग्राम विकास योजना के मार्फत गांवों के विकास का काम किया। जबकि राष्ट्रपति शासन के दौरान मोतीलाल वोरा के राज्यपाल रहते हुए गांधी ग्राम योजना संचालित की। सूबे में जब-जब भाजपा की सरकार आई, उसने दीनदयाल ग्राम विकास योजना चलाई। इस बार जब अखिलेश यादव के नेतृत्व वाली सरकार है, तो जनेश्वर मिश्र के नाम से ग्राम विकास योजना चलाई जा रही हैं। उदाहरण के तौर पर बसपा नेता मायावती ने ऐसी योजनाओं में जब गांवों का चयन किया, तो उनका नजरिया अनुसूचित जाति के प्रति पक्षपाती रहा। अनुसूचित जाति में खासतौर से अपनी जाति के प्रति। ऐसा ही नजरिया समाजवादी पार्टी की सरकारों का भी रहा इसी वजह से उन गांवों को प्राथमिकता मिली जहां पिछड़ों की आबादी अधिक थी। इन योजनाओं में तत्कालीन सत्ताारूढ़ पार्टी की विचारधारा वाले महापुरुष का नाम अमर करने या बढ़ाने को खासी तरजीह दी गई। यही वजह रही कि इन योजनाओं को सरकारी अफसरों ने ऐसे गढ़ा है कि उनमें उनका भी कुछ फायदा हो और जिस पार्टी की सरकार है, उसके नेता का राजनीतिक हित भी सधे। इतना ही नहीं, चयन के समय यह भी आधार बनाया जाता है कि सत्तारूढ़ पार्टी को उस गांव विशेष से वोट मिले थे या नहीं। इसके अलावा वह नेता भी चयन में हस्तक्षेप करते हैं, जिनका संबंधित क्षेत्रों में निजी प्रभाव होता है। फिर आती है संबंधित गांवों के विकास कार्यों में ठेकेदारी की बारी। किसे ठेका मिले, यह उस क्षेत्र का प्रभावशाली नेता या विधायक तय करते हैं। इस पूरे खेल में विकासवाद में, बंदरबांट पहले ही शुरू हो जाती है और सरकारी अफसर या कर्मचारी इसका फायदा उठाने की कोशिश करते हैं। इसीलिए सरकारों की ओर से विकसित किए गए गांव भले ही विकसित न हो पाए हों, उन्हें विकसित करने का ठेका लेने वाले जरूर विकसित हो गए। उनकी पूंजी बढ़ गई। उनके घर अच्छे बन गए पर गांवों में बनी नालियां ज्यों की त्यों जाम पड़ी हैं। कहने का तात्पर्य यह नहीं कि योजना बेमतलब हैं या कोई काम नहीं हुआ। योजनाएं सार्थक थीं, कुछ काम भी हुआ पर योजनाओं के प्रति वास्ताविक समर्पण न होने से विकास की जिस अवधारणा को साकार किया जा सकता है, वह अधूरी रह गई।
यह भी एक कठोर सच्चाई है कि ग्राम विकास की इन सभी योजनाओं में गांवों का आधारभूत ढांचा विकसित करने को प्राथमिकता दी गई। ढांचा भी ऐसा कि गांवों के बाशिंदों की रायशुमारी ही नहीं की गई। जब भी किसी विकास में सिर्फ आधारभूत ढांचे पर ही ध्याान केंद्रित किया जाएगा तो जरूरत और तासीर पीछे छूट जाएगी। हालांकि यूपीए वन के मनमोहन सिंह के कार्यकाल में शुरू की गई मनरेगा योजना को बाद में इलाकाई जरूरत से जोड़ने की दिशा में प्रशंसनीय पहल हुई लेकिन दुर्भाग्य यह कि इस पहल में आधारभूत ढांचे के विकास में जरूरी भारी भरकम धनराशि का मिल पाना संभव नहीं था जबकि आधारभूत ढांचे के विकास के तौर में उसके रखरखाव की धनराशि पर कोई तवज्जो नहीं दी गई। वैसे रायबरेली और अमेठी में स्वयं सहायता समूहों के जरिए गांवों के बाशिंदों को रोजगार देने की बड़ी इबारत लिखी गई लेकिन यहां आधारभूत संरचना के अनिवार्य तत्व नदारद रहे। नतीजतन, तमाम दावों के बावजूद वह लक्ष्य हासिल नहीं किए जा सके जो आज की नरेंद्र मोदी ग्राम योजना को मुंह चिढ़ा सकें।
विकास की दिशा में नित नए कदम बढ़ा रहे देश के लिए हर रोज कुछ नया सोचने की जरूरत है। यह सोच केवल सरकार के स्तर से नहीं, बल्कि उस हर देश वासी को रखनी पड़ेगी जो देश की समस्याओं और मुद्दों पर न केवल प्रतिक्रिया देता है, वरन हर रोज अपने घर, चैपाल, चाय की दुकान या किसी चैराहे पर बहसो-मुबाहिसा करता दिखता है। केवल यह मानकर कि ‘हमने तो वोट दे दिया, अब जो करे, सरकार करे’ वाली सोच से बाहर आकर काम करना पड़ेगा, वास्तव में तभी देश का विकास होगा। यही सच्चे विकास का आधार और वास्तविक जन भागीदारी होगी। सांसद आदर्श ग्राम योजना की शुरुआत कराई है, उसे नायाब योजना भले ही न माना जाए पर इसके पीछे जो मंशा है, वह नायाब है। इस मंशा को खारिज करना प्रधानमंत्री के विरोधी विचार वालों के भी बूते की बात नहीं है। इसमें जिस तरह की जन भागीदारी और समर्पण की जरूरत है, वह अब तक चलाई जा रही किसी योजना में शामिल नहीं है, दिखी नही है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सांसद आदर्श ग्राम योजना के जरिए जो पहल की है अगर वह साकार रूप ले पाई तो देश भर के छह लाख अड़तीस हजार गांवों में से कम से कम सात-साढ़े सात सौ गांव तो ऐसे होंगे ही जिन पर फख्र किया जा सके। कम से कम उतने गांव तो खुशहाल हो जाएंगे। आप सब इन तथ्यों से अवगत हैं कि भारत में हजारों गांव ऐसे हैं, जो हर साल बाढ़ में तबाह होते हैं। सरकारें ग्रामीणों की थोड़ी बहुत मदद करके उन्हें जैसे तैसे आधा-अधूरा खड़ा करती हैं। अगले ही कुछ सालों में बाढ़ में फिर से वह अस्तित्वहीन हो जाते हैं। सांसद ग्राम योजना में अगर इस पहलू को ध्यान में रखा गया तो शायद सरकारी खजाने के करोड़ों रुपयों की बरबादी और ग्रामीणों की तबाही को रोका जा सकता है। लेकिन जैसा कि प्रधानमंत्री सोचते हैं, हर सांसद को समर्पण भाव से निष्पक्ष रहकर काम करना होगा। अगर इस योजना का हाल भी राज्य सरकारों की ओर से चलाई जा रही योजनाओं जैसा हुआ तो फिर वह मंशा फलीभूत नहीं होगी, जो प्रधानमंत्री की है। इसके लिए हर सांसद को पक्षपात रहित होकर, राग-द्वेष के बिना जैसा कि वह सांसद बनने की शपथ लेते हैं, सोचना होगा और समर्पण दिखाना होगा, तभी अगले कुछ सालों में हम ऐसे गांव खड़े कर पाएंगे जहां पहुंचने पर हमें फख्र हो। हालांकि किसी भी सांसद के लिए यह कम मुश्किल काम नहीं है कि वह अपने संसदीय क्षेत्र में एक गांव का चयन कर सके। उसको जरूर इस दिक्कत से दो-चार होना पडेगा कि बाकी गांव वालों को वह क्या और कैसे जवाब दे ? हालांकि यह दिक्कत खुद नरेंद्र मोदी ने भी महसूस की है, तभी तो उन्हों ने साफ कहा है कि मैंने छोटा रिस्क नहीं लिया है। अगर मोदी ‘जोखिम’ ले रहे हैं, तो जोखिम’ संसद के दूसरे सांसदों को भी उठाना ही पड़ेगा। क्योंकि जोखिम और कर हमेशा किसी न किसी पर ट्रांसफर होते हैं। मोदी इस जोखिम के ट्रांसफर करने में जो नसीहतें देते हैं, उनमें हुक्मक की जगह प्रेरणा से काम करने, अपने-पराये के भेद से ऊपर उठने, वोट मिलने या न मिलने की सीमा से बाहर आने तथा अपने रिश्तेदारों और ससुराल की जो सीमा-रेखा खींचते हैं, वह इस जोखिम से निपटने में मदद करने में जरूर कामयाब होगी। जो भी लोग राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को मानते हैं अथवा जयप्रकाश नारायण, डाॅ. राम मनोहर लोहिया के अनुयायी हैं या फिर नानाजी देशमुख, दीनदयाल उपाध्याय, ष्यामा प्रसाद मुखर्जी जिनके प्रेरणास्रोत हो सकते हैं। इनको श्रद्धासुमन अर्पित करने का मौका भी होगा और दस्तूर भी। सांसद भले एक हो, उसके क्षेत्र में गांव भले एक हो। पर लोकसभा के 543 और राज्य सभा के 250 सांसदों के साथ-साथ नरेंद्र मोदी ने देश भर के 4020 विधायकों और 454 विधान परिषद सदस्यों को इस योजना में शामिल होने का न्योता दिया है। अगर हमारे राजनेता यह कार्यक्रम दिल से करते हुए लोगों के दिल तक पहुंचने में कामयाब हुए तो निश्चित तौर पर इस अभियान में देश के कितने औद्योगिक घराने और परोपकारी लोग जुड़ेगें। इसका आज अंदाज लगा पाना मुश्किल है क्योंकि भारतीय जनमानस की नजर में परहित से बड़ा दूसरा धर्म नहीं है और इसी गुण के आधार पर वह बार-बार व्यक्तित्व का मूल्यांकन करता रहा है।
उत्तर प्रदेश के सात प्रधानमंत्रियों और अब तक के सारे मुख्यमंत्रियों के गांवों में भी मैं गया हूं। भले ही इसे विवाद और वितंडा का सबब बनाया जाए पर हकीकत यह है कि मुलायम सिंह यादव और मायावती को छोड़कर किसी ने अपने गांव का ऐसा विकास नहीं किया है, जिसे मील का पत्थंर कहा जा सके। सभी पूर्व प्रधानमंत्रियों और पूर्व मुख्यमंत्रियों ने शहर मुख्यालयों में अपने आशियाने बना लिए। वैश्वीकरण के दौर से ठीक पहले की बात यदि याद करें तो हमें ठीक से याद है कि गांवों में बच्चे चैपहिया वाहन देखने उमड़ पड़ते थे। चुनाव के दौरान गांवों में अगर कोई नेता हेलीकॉप्टेर से अवतरित होता था, तो गांवों के लोग नेता से अधिक उसके हेलीकॉप्टवर को देखने उमडते थे। नेता और भीड़ दोनो गफलत में रहते थे कि कौन-किसे देखने आया है।
हालांकि वैश्वीकरण के दौर और मनरेगा आने के साथ ही गांव की तस्वीेर यह नहीं रह गई। बावजूद इसके, विकास देखने और इसका लुत्फं उठाने के लिए ग्रामवासियों को शहर ही आना पड़ता है। इस बीच गांवों के लोगों की बढ़ी क्रयशक्ति ने बाजार के लिए शहर की ओर आने का उनका सिलसिला बढ़ा दिया। ऐसे में विकास उनके गांवों तक नहीं पहुंचा, इसे लेकर उनमें आक्रोश का उपजना स्वााभाविक तौर पर दिखने लगा। हालांकि इन हालात और हकीकत के बीच अगर देश में पहली बार स्पष्ट बहुमत वाली गैर कांग्रेसी सरकार बनाने वाला प्रधानमंत्री गांवों के विकास के लिए एक नया सपना, नई उम्मीद और नई हकीकत पेश करता हो, तो उसके इंकार की गुंजाइश बहुत कम रह जाती है। वह भी तब जबकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गांवों के विकास के इस फलसफे में किसी को खारिज करते हुए आगे नहीं बढ़ रहे हैं। वह खुद मानते हैं कि हर सरकार ने अपने नजरिए से विकास कार्य किए हैं। मोदी यह भी दावा करते हैं कि उन्होंने गुजरात के बाहर तकरीबन पांच हजार गांवों में अपना समय गुजारा है। गुजरात में उन्होंने विकास का एक नया मॉडल भी पेश किया है। तब अगर वह सांसद आदर्श ग्राम योजना के मार्फत विकास की इबारत लिखने की तैयारी कर रहे हों तो कहा जा सकता है कि लंबे समय बाद ही सही, भारत की आत्मा तक पहुंचने की यात्रा शुरू हुई है। यह भी एक कठोर सच्चाई है कि पहली बार विकास का मॉडल मांग आधारित तैयार किया जा रहा है। अब तक विकास आपूर्ति आधारित था। यानी पहले विकास कहां और कितना होना है, ये सरकारें और हुक्मरान तय करते थे। यह काम नरेंद्र मोदी की इस योजना में जनता को दिया गया है। ऐसा भी नहीं कि यह पहली बार हो रहा है। इससे पहले भी उन्हीं की पार्टी के प्रतीक पुरुष पंडित दीनदयाल उपाध्याहय ने गांवों के विकास का मॉडल पेश किया था। केंद्र की अटल बिहारी वाजपेयी सरकार और उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकारों ने इसे जमीनी हकीकत पर उतारने की कोशिश भी की। उत्तराखंड में चलाई जा रही अटल आदर्श ग्राम योजना में जरूर कुछ गांव ऐसे देखने को मिले जिन्हें वास्तविक रूप से गांव कहा जा सकता है। एक गांव में आम लोगों की जरूरत की वह सारी मौलिक चीजें मौजूद हों तो उसे आदर्श की संज्ञा दी जा सकती है। जैसे सड़कें, साथ सुथरी गलियां- साफ नालियां, पोस्ट आफिस, स्कूल, बैंक, को-आपरेटिव सोसाइटी और उसका दफ्तर, पंचायत भवन, सार्वजनिक संकुल आदि। अगर आप उत्तराखंड में पर्यटन के लिए जाएं तो कौशानी से नैनीताल लौटते समय रास्तों में ऐसे दर्जनों आदर्श गांव मिलेंगे जिनमें यह सुविधाएं मौजूद हैं। हो सकता है कि वहां की सरकार ने महज पर्यटन क्षेत्रों में ऐसा कर रखा हो, बाकी जगह ऐसे विकसित गांव न हों। उत्तर प्रदेश में बसपा सुप्रीमो मायावती ने अंबेडकर ग्राम योजना के नाम से गांवों के विकास की योजना अपने सभी कार्यकालों में चलाई। सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव ने भी लोहिया ग्राम विकास योजना के मार्फत गांवों के विकास का काम किया। जबकि राष्ट्रपति शासन के दौरान मोतीलाल वोरा के राज्यपाल रहते हुए गांधी ग्राम योजना संचालित की। सूबे में जब-जब भाजपा की सरकार आई, उसने दीनदयाल ग्राम विकास योजना चलाई। इस बार जब अखिलेश यादव के नेतृत्व वाली सरकार है, तो जनेश्वर मिश्र के नाम से ग्राम विकास योजना चलाई जा रही हैं। उदाहरण के तौर पर बसपा नेता मायावती ने ऐसी योजनाओं में जब गांवों का चयन किया, तो उनका नजरिया अनुसूचित जाति के प्रति पक्षपाती रहा। अनुसूचित जाति में खासतौर से अपनी जाति के प्रति। ऐसा ही नजरिया समाजवादी पार्टी की सरकारों का भी रहा इसी वजह से उन गांवों को प्राथमिकता मिली जहां पिछड़ों की आबादी अधिक थी। इन योजनाओं में तत्कालीन सत्ताारूढ़ पार्टी की विचारधारा वाले महापुरुष का नाम अमर करने या बढ़ाने को खासी तरजीह दी गई। यही वजह रही कि इन योजनाओं को सरकारी अफसरों ने ऐसे गढ़ा है कि उनमें उनका भी कुछ फायदा हो और जिस पार्टी की सरकार है, उसके नेता का राजनीतिक हित भी सधे। इतना ही नहीं, चयन के समय यह भी आधार बनाया जाता है कि सत्तारूढ़ पार्टी को उस गांव विशेष से वोट मिले थे या नहीं। इसके अलावा वह नेता भी चयन में हस्तक्षेप करते हैं, जिनका संबंधित क्षेत्रों में निजी प्रभाव होता है। फिर आती है संबंधित गांवों के विकास कार्यों में ठेकेदारी की बारी। किसे ठेका मिले, यह उस क्षेत्र का प्रभावशाली नेता या विधायक तय करते हैं। इस पूरे खेल में विकासवाद में, बंदरबांट पहले ही शुरू हो जाती है और सरकारी अफसर या कर्मचारी इसका फायदा उठाने की कोशिश करते हैं। इसीलिए सरकारों की ओर से विकसित किए गए गांव भले ही विकसित न हो पाए हों, उन्हें विकसित करने का ठेका लेने वाले जरूर विकसित हो गए। उनकी पूंजी बढ़ गई। उनके घर अच्छे बन गए पर गांवों में बनी नालियां ज्यों की त्यों जाम पड़ी हैं। कहने का तात्पर्य यह नहीं कि योजना बेमतलब हैं या कोई काम नहीं हुआ। योजनाएं सार्थक थीं, कुछ काम भी हुआ पर योजनाओं के प्रति वास्ताविक समर्पण न होने से विकास की जिस अवधारणा को साकार किया जा सकता है, वह अधूरी रह गई।
यह भी एक कठोर सच्चाई है कि ग्राम विकास की इन सभी योजनाओं में गांवों का आधारभूत ढांचा विकसित करने को प्राथमिकता दी गई। ढांचा भी ऐसा कि गांवों के बाशिंदों की रायशुमारी ही नहीं की गई। जब भी किसी विकास में सिर्फ आधारभूत ढांचे पर ही ध्याान केंद्रित किया जाएगा तो जरूरत और तासीर पीछे छूट जाएगी। हालांकि यूपीए वन के मनमोहन सिंह के कार्यकाल में शुरू की गई मनरेगा योजना को बाद में इलाकाई जरूरत से जोड़ने की दिशा में प्रशंसनीय पहल हुई लेकिन दुर्भाग्य यह कि इस पहल में आधारभूत ढांचे के विकास में जरूरी भारी भरकम धनराशि का मिल पाना संभव नहीं था जबकि आधारभूत ढांचे के विकास के तौर में उसके रखरखाव की धनराशि पर कोई तवज्जो नहीं दी गई। वैसे रायबरेली और अमेठी में स्वयं सहायता समूहों के जरिए गांवों के बाशिंदों को रोजगार देने की बड़ी इबारत लिखी गई लेकिन यहां आधारभूत संरचना के अनिवार्य तत्व नदारद रहे। नतीजतन, तमाम दावों के बावजूद वह लक्ष्य हासिल नहीं किए जा सके जो आज की नरेंद्र मोदी ग्राम योजना को मुंह चिढ़ा सकें।
विकास की दिशा में नित नए कदम बढ़ा रहे देश के लिए हर रोज कुछ नया सोचने की जरूरत है। यह सोच केवल सरकार के स्तर से नहीं, बल्कि उस हर देश वासी को रखनी पड़ेगी जो देश की समस्याओं और मुद्दों पर न केवल प्रतिक्रिया देता है, वरन हर रोज अपने घर, चैपाल, चाय की दुकान या किसी चैराहे पर बहसो-मुबाहिसा करता दिखता है। केवल यह मानकर कि ‘हमने तो वोट दे दिया, अब जो करे, सरकार करे’ वाली सोच से बाहर आकर काम करना पड़ेगा, वास्तव में तभी देश का विकास होगा। यही सच्चे विकास का आधार और वास्तविक जन भागीदारी होगी। सांसद आदर्श ग्राम योजना की शुरुआत कराई है, उसे नायाब योजना भले ही न माना जाए पर इसके पीछे जो मंशा है, वह नायाब है। इस मंशा को खारिज करना प्रधानमंत्री के विरोधी विचार वालों के भी बूते की बात नहीं है। इसमें जिस तरह की जन भागीदारी और समर्पण की जरूरत है, वह अब तक चलाई जा रही किसी योजना में शामिल नहीं है, दिखी नही है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सांसद आदर्श ग्राम योजना के जरिए जो पहल की है अगर वह साकार रूप ले पाई तो देश भर के छह लाख अड़तीस हजार गांवों में से कम से कम सात-साढ़े सात सौ गांव तो ऐसे होंगे ही जिन पर फख्र किया जा सके। कम से कम उतने गांव तो खुशहाल हो जाएंगे। आप सब इन तथ्यों से अवगत हैं कि भारत में हजारों गांव ऐसे हैं, जो हर साल बाढ़ में तबाह होते हैं। सरकारें ग्रामीणों की थोड़ी बहुत मदद करके उन्हें जैसे तैसे आधा-अधूरा खड़ा करती हैं। अगले ही कुछ सालों में बाढ़ में फिर से वह अस्तित्वहीन हो जाते हैं। सांसद ग्राम योजना में अगर इस पहलू को ध्यान में रखा गया तो शायद सरकारी खजाने के करोड़ों रुपयों की बरबादी और ग्रामीणों की तबाही को रोका जा सकता है। लेकिन जैसा कि प्रधानमंत्री सोचते हैं, हर सांसद को समर्पण भाव से निष्पक्ष रहकर काम करना होगा। अगर इस योजना का हाल भी राज्य सरकारों की ओर से चलाई जा रही योजनाओं जैसा हुआ तो फिर वह मंशा फलीभूत नहीं होगी, जो प्रधानमंत्री की है। इसके लिए हर सांसद को पक्षपात रहित होकर, राग-द्वेष के बिना जैसा कि वह सांसद बनने की शपथ लेते हैं, सोचना होगा और समर्पण दिखाना होगा, तभी अगले कुछ सालों में हम ऐसे गांव खड़े कर पाएंगे जहां पहुंचने पर हमें फख्र हो। हालांकि किसी भी सांसद के लिए यह कम मुश्किल काम नहीं है कि वह अपने संसदीय क्षेत्र में एक गांव का चयन कर सके। उसको जरूर इस दिक्कत से दो-चार होना पडेगा कि बाकी गांव वालों को वह क्या और कैसे जवाब दे ? हालांकि यह दिक्कत खुद नरेंद्र मोदी ने भी महसूस की है, तभी तो उन्हों ने साफ कहा है कि मैंने छोटा रिस्क नहीं लिया है। अगर मोदी ‘जोखिम’ ले रहे हैं, तो जोखिम’ संसद के दूसरे सांसदों को भी उठाना ही पड़ेगा। क्योंकि जोखिम और कर हमेशा किसी न किसी पर ट्रांसफर होते हैं। मोदी इस जोखिम के ट्रांसफर करने में जो नसीहतें देते हैं, उनमें हुक्मक की जगह प्रेरणा से काम करने, अपने-पराये के भेद से ऊपर उठने, वोट मिलने या न मिलने की सीमा से बाहर आने तथा अपने रिश्तेदारों और ससुराल की जो सीमा-रेखा खींचते हैं, वह इस जोखिम से निपटने में मदद करने में जरूर कामयाब होगी। जो भी लोग राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को मानते हैं अथवा जयप्रकाश नारायण, डाॅ. राम मनोहर लोहिया के अनुयायी हैं या फिर नानाजी देशमुख, दीनदयाल उपाध्याय, ष्यामा प्रसाद मुखर्जी जिनके प्रेरणास्रोत हो सकते हैं। इनको श्रद्धासुमन अर्पित करने का मौका भी होगा और दस्तूर भी। सांसद भले एक हो, उसके क्षेत्र में गांव भले एक हो। पर लोकसभा के 543 और राज्य सभा के 250 सांसदों के साथ-साथ नरेंद्र मोदी ने देश भर के 4020 विधायकों और 454 विधान परिषद सदस्यों को इस योजना में शामिल होने का न्योता दिया है। अगर हमारे राजनेता यह कार्यक्रम दिल से करते हुए लोगों के दिल तक पहुंचने में कामयाब हुए तो निश्चित तौर पर इस अभियान में देश के कितने औद्योगिक घराने और परोपकारी लोग जुड़ेगें। इसका आज अंदाज लगा पाना मुश्किल है क्योंकि भारतीय जनमानस की नजर में परहित से बड़ा दूसरा धर्म नहीं है और इसी गुण के आधार पर वह बार-बार व्यक्तित्व का मूल्यांकन करता रहा है।