उधार की कोख का बाजार

Update:2014-10-16 12:14 IST
 
कभी महिलाओं को ताने देने या लांछन लगाने के लिए किराए की कोख या उधार की मां के जुमले का इस्तेमाल होता था। लेकिन वैश्वीकरण की आंधी में इन दोनो जुमलों ने अब महिलाओं के बीच इस कदर पैठ बना ली है कि पिछड़े सूबों में शुमार उत्तर प्रदेश की महिलाएं किराए पर कोख देने के लिए इंटरनेट पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराती और इतराती हुई देखी जा सकती हैं। इसे ‘बोल्ड एंड ब्यूटीफुल’ जैसे जुमलों से नवाजते हुए वे इसे जिस्म फरोशी से ज्यादा पवित्र और वैध बताती नहीं थकती। वेबसाइट का होम पेज खोलते ही किराए की कोख के लिए उत्तर प्रदेश की महिलाओं की गुहार साफ सुनी जा सकती है। सरोगेसी षब्द लैटिन भाषा का है, जिसका अर्थ होता है किसी और को अपने काम के लिए नियुक्त करना।

रामपुर की 36 वर्षीय शहनाज ने अपनी कद-काठी और नक्श का जिक्र करते हुए लिखा है, ‘मैं कुंवारे बाप और निस्संतान दंपतियों की सेवा के लिये अपनी कोख किराए पर देने कि लिये तैयार हूं।’ इलाहाबाद की 29 वर्षीय किरन का खुला आफर उत्तर प्रदेश में किराए की कोख के बढ़ते चलन और बडे़ बाजार का खुलासा कर रहा है। सरोगेट माताओं की जानकारी मुहैया कराने वाली एक वेबसाइट पर किरन कहती हैं, ‘आई नो गाड हेल्प दोज हू हेल्प अदर्स मींस आई नीड मनी यू नीड बेबी सो बोथ आफ अस कैन फुलफिल ईच अदर्स’ (मै जानती हूं कि भगवान उनकी मदद करते हैं जो दूसरो की मदद करते हैं । मुझे पैसा चाहिए और आपको संतान....इसलिए हम दोनों एक दूसरे के काम आ सकते हैं) ” इसी वेबसाइट पर उत्तर प्रदेश के आजमगढ़, मोदीनगर रायबरेली, बिजनौर और मथुरा में दो-दो, आगरा में बीस, इलाहाबाद में 15 अलीगढ़, देहरादून, वाराणसी और सहारनपुर में तीन-तीन, गाजियाबाद में 43, कानपुर में 33, लखनऊ में 62, मेरठ में 14, मुरादाबाद में 5, बरेली में 9, बागपत, हाथरस, मवाना, कल्याणपुर, मऊ, प्रतापगढ़, रामपुर, रेणुकूट, सुल्तानपुर, टुंडला, बलरामपुर, बस्ती, उन्नाव और बिजनौर सरीखे छोटे शहरों में किराए की कोख देने के लिए तैयार महिलाओं की लंबी फेहरिस्त है। एक अनुमान के मुताबिक उप्र में किराए की कोख का कारोबार 500 गुना तेजी से बढ़ रहा है । इसका इलहाम इससे भी लगता है कि चार-पांच साल पहले सरोगेसी करने वाले इक्के-दुक्के अस्पताल थे। जहां महिलाएं चोरी-छिपे आती थीं। लेकिन अब बाकायदा डाक्टरों ने सरोगेट मदर्स के हास्टल संचालित करने षुरू कर दिए हैं। जहां इन्हें नौ महीने तक खास तवज्जो में रखा जाता है। ऐसा नहीं कि वेबसाइट पर ये फलसफा छद्म नामों से और महिलाओं को बदनाम करने के लिए शरारती तत्वों द्वारा किया जा रहा है, बल्कि इनमें कई के मोबाइल नंबर और फोटो तक दर्ज हैं। यह बात दीगर है कि दर्ज मोबाइल और फोन नंबरों पर बात करने पर अपनी कोख में किसी दूसरे का बच्चा नौ माह तक पालने वाली इन महिलाओं की जगह बिचैलिए ही मिलते हैं, जो इस धंधे की बडी रकम ऐंठ लेते हैं।
किराए की कोख के बढ़ते बाजार को इससे भी समझा जा सकता है कि सरोगेट मदर्स से संबंधित वेबसाइट के पन्ने पर उधार की मां बनने के लिए दीवाली और दशहरा पर्वों पर विशेष पैकेज और आफर का भी ऐलान है। यह जरुर है कि यह पैकेज और आफर गुडगांव और कोच्चि जैसे महानगरों की महिलाओं के लिए ही सीमित है। इस तरह के पैकेज और आफर उप्र की महिलाओं के लिए नहीं हैं। यह किराए के कोख के कारोबार में उतरी सूबे की महिलाओं के लिए यह गुस्से का सबब है। किराए की कोख के फैलते कारोबार का अहसास उन प्रतिष्ठानो को भी है जो इन वेबसाइटों पर धडल्ले से विज्ञापन देकर अपने प्रतिष्ठानों और उत्पादों का प्रचार कर रहे हैं।

गर्भधारण की इस नयी तकनीक से निसंतान दंपत्तियों का सबसे बड़ा सपना साकार हो रहा है। किराए की कोख के कारोबार के चलते चिकित्सा संस्थानों से लेकर वे औरतें भी मालामाल हो रही हैं, जो इसका हिस्सा बनने को तैयार हैं। हालांकि इस खेल में सबसे बड़ा हिस्सा किसके हाथ लग रहा है, यह अंदाजा लगाना बहुत मुश्किल है क्योंकि किराए पर कोख देने वाली महिलाएं बातचीत में नौ महीने के लिए दो तीन लाख रुपए से अधिक की धनराशि मिलने की बात से इनकार कर जाती हैं जबकि इस कारोबार में जुटे डाक्टरों का दावा है कि इस पैकेज का बडा हिस्सा सरोगेट मां और उसके दलाल के खाते में जा रहा है। सरोगेसी सेंटरों को हर केस पर दो चार लाख रुपए ही मिल पा रहे हैं।

गर्भधारण करने में अक्षम माताओं को अपनी संतान (जेनेटिकली) के मातृत्व सुख से समृद्ध करने के लिए बने सरोगेसी कानून को बालीवुड स्टार षाहरुख खान और उनकी तीसरी संतान ने इस कदर चर्चा में ला दिया कि अब यह एक बोल्ड पहल मानी जाने लगी है। कानून के मुताबिक सरोगेेसी का अधिकार उन्हीं महिलाओं को है, जो गर्भाषय की खराबी व अन्य मेडिकल कारणों से खुद गर्भ धारण नहीं कर सकती हैं। लेकिन पहले से दो बच्चों की मां बन चुकीं षाहरुख खान की पत्नी गौरी जाहिरा तौर पर ऐसी किसी समस्या से ग्रसित नहीं हंै। इसके बावजूद जब उन्होंने सरोगेसी का लाभ उठाया तो इसके कानूनी पहलुओं पर चर्चा तेज हो गयी। इन विट्रो फर्टिलाइजेषन (आईवीएफ) सेंटर चला रहे चिकित्सकों के अलावा अब वे डाॅक्टर भी मुखर हो रहे हैं, जो इस तकनीक से दूर हैं। अब कहा जा रहा है कि सरोगेसी के बाजार में इतना पैसा है कि कोई भी डाॅक्टर इससे चूकने को तैयार नहीं है। हालांकि एस.एन. कालेज, आगरा के बाल रोग विषेषज्ञ डाॅ. नीरज यादव कहते हैं, ‘हमारे यहां बाल मृत्यु दर 57 है, जो तीस होनी चाहिए। इन हालातों में डाक्टर इस तकनीकी की ओर केवल पैसे के लिए भाग रहे हैं। जबकि उन्हें बाल एवं नवजात मृत्यु दर पर नियंत्रण करने की ओर ध्यान देना चाहिए।’ आगरा के डाॅ. षरद गुप्ता कहते हैं, ‘सरोगेसी अपने संतानों की तकनीक न रहकर बेबी फैक्ट्री बन गयी है। जहां अब जिस तरह और जब चाहें एक बच्चा पा सकते हैं। यह सेक्स निर्धारण से भी आगे की तकनीकी हो गयी है।’

सरोगेसी केंद्रों के लिए अभी तक महाराष्ट्र और गुजरात के डाॅक्टरों का नाम लिया जाता रहा है। गुजरात के आणंद में डाॅ. नयना पटेल का आकांक्षा क्लीनिक प्रोफेषनल तरीके से सरोगेसी डिलीवरी को अंजाम दे रहा है। दुग्ध क्रांति के लिए पहचाने गए आणंद में खुले इस केंद्र के प्रबंधन का दावा है कि अब तक पांच सौ से ज्यादा महिलाओं को सरोगसी के जरिए मातृत्व सुख से सराबोर किया जा चुका है। हैदराबाद की डाॅ. पद्मजा का दावा है कि वह सबसे कम लागत पर किराए की कोख दिलाने का काम कर रही हैं। लेकिन देष के अगड़े सूबों के मुकाबले बीमारू राज्य उत्तर प्रदेष में बढ़ती तकनीकी सुविधा और लगातार खुलते आईवीएफ केंद्रों की कहानी एक अलग ही तस्वीर गढ़ रही है। उत्तर प्रदेष में सरोगेसी केंद्र अब गोरखपुर और वाराणसी से लेकर लखनऊ और दिल्ली के निकट आगरा तक ही नहीं पूर्वांचल के अति पिछड़े जिलों में भी संचालित हो रहे हंै। खास बात यह है कि ज्यादातर केंद्र अब कामर्षियल सरोगेसी का सुझाव देने के साथ ही किराए पर कोख देने वाली महिलाओं का न केवल ब्योरा जुटा रहे हैं, बल्कि मुहैया भी करा रहे हैं। आईवीएफ केंद्रों ने अपने परिसर के साथ ही ऐसे हास्टल भी विकसित कर लिए हैं, जहां किराए पर कोख देने वाली महिला को गर्भावस्था के दौरान रहने व मेडिकल केयर की सुविधा दी जा रही है।

बांझपन का इलाज करने वाले सूबे के आईवीएफ केंद्र तेजी से उधार की कोख के कारोबार में षामिल होते जा रहे हैं। इसकी वजह टेस्ट ट्यूब बेबी तकनीकी की सीमित सफलता है। इस तकनीकी से केवल उन महिलाओं को लाभ मिल रहा है, जिन्हें गर्भधारण प्रक्रिया के दौरान मुष्किल होती है। लेकिन जिन महिलाओं के गर्भाषय आकार में छोटे हैं अथवा किसी दुर्घटना या अन्य चिकित्सकीय वजहों से बच्चेदानी को हटा दिया गया हो। ऐसी महिलाओं को अपनी संतान के जन्म का सुख और मौका देने में उधार की कोख ही कामयाब है। इस तकनीक की मदद से विषेषज्ञ चिकित्सक मां-बाप के अंडाणु व षुक्राणु का निषेचन प्रयोगषाला (लैब) में कराते हैं और 1600 कोषिकाओं में परिवर्तित हो चुके भ्रूण को किसी अन्य स्वस्थ महिला (सरोगेट मदर) के गर्भ में प्रत्यारोपित करा देते हैं। सरोगेट मदर की भूमिका में अब तक संबंधित व्यक्ति के निकट रिष्तेदार ही षामिल होते रहे हैं। लेकिन बदलते सामाजिक माहौल में निकट संबंधियों का स्थान किराए पर कोख मुहैया कराने वालों ने ले लिया है। आगरा के वीमेंस हास्पिटल की संचालक डाॅ. रजनी पचैरी कहती हैं कि हम अपने अस्पताल में केवल उन्हीं मां-बाप की सरोगेसी करा रहे हैं जो निकट संबंधियों को लेकर आते हैं। किराए पर कोख की प्रक्रिया में कानूनी और व्यवहारिक कई दिक्कते हैं। जिससे निपटने में काफी परेषानी होती है। यह नैतिकता के भी खिलाफ है। मसलन, बच्चा जब विकलांग पैदा हो जाए या फिर करार एक बच्चे का हो और जुड़वा बच्चे पैदा हो जाए तो इस तरह के तमाम विवादों से दो-चार होती महिलाएं सूबे में मिलती हैं। ऐसे मामलों में जेनेटिक माता-पिता द्वारा बच्चे को अपनाने से इंकार कर दिया जाए या दोनों बच्चों को लेने की कोषिष में सरोगेट मदर की ओर से होने वाले विवाद की तमाम बातों का खुलासा हुआ है।

सरोगेसी की बढ़ती जरूरत और बाजार के दबाव में टूट रही है। लखनऊ की डाॅ. सीमा देव बताती हैं,‘ उधार की कोख की तादाद को इन दिनों की तेज रफ्तार जिंदगी ने बढ़ा दिया है।’ वह बताती हैं कि हाल ही में एक सेमिनार में मुंबई के एक दंपत्ति ने बिना वजह ही उधार की कोख की मंषा जतायी। चिकित्सकों को तब और हैरानी हुई जब उन्हें पता चला कि दंपत्ति की उम्र काफी कम है। दोनों ही साफ्टवेयर प्रोफेषनल्स हैं। उन्हें बच्चा तो चाहिए पर इसके लिए उनके पास समय नहीं है। साफ्टवेयर प्रोफेषनल्स तो महज बानगी है। मेट्रो षहर में रह रहे सैकड़ों दंपत्ति बिना किसी प्राकृतिक कारणों के ही उधार की कोख का सहारा ले रहे हैं। सरोगेसी कराने वाले चिकित्सक किराए पर कोख की अवधारणा में कमजोर के हित का सवाल खड़ा कर अपनी भूमिका को सही साबित करते दिख रहे हैं। आगरा के आईवीएफ सेंटर संचालक डाॅ. नरेंद्र मलहोत्रा के अनुसार, ‘किराए पर कोख की सुविधा से कई लोगों का भला हो रहा है। आर्थिक तौर पर संपन्न परिवारों को जहां अपनी संतान का सुख मिल रहा है। वहीं कई कमजोर परिवारों की महिलाओं की तमाम आर्थिक समस्याओं का समाधान भी हो रहा है। जो महिलाएं अपनी कोख का किराया ले रही हैं। उनके रहन-सहन में बदलाव आया है। मोटी रकम मिलने से उनका भविष्य सुरक्षित हुआ है।’ मेरठ के सिंह टेस्ट ट्यूब बेबी केंद्र के संचालक डाॅ. अनिरुद्ध सिंह कहते हैं, ‘पहले लोगों में सरोगेसी को लेकर काफी हिचक थी। लेकिन अब ऐसा नहीं है।’ बकौल अनिरुद्ध सिंह, हमारे केंद्र पर हर साल आठ-दस दंपत्ति सरोगेसी के लिए आते हैं। हमारा केंद्र तो केवल आने वाले दंपत्ति के लिए इन विट्रो फर्टिलाइजेषन ट्रीटमेंट (आईवीएफ) प्रदान करता है। सरोगेट मदर की व्यवस्था दंपत्ति को खुद करनी पड़ती है। मेरठ के अमन फर्टिर्लिटी केंद्र से जुड़े डाॅ. अनिप रस्तोगी भी इसे तस्दीक करते हुए कहते हैं, ‘अव्वल तो सरोगेट मदर का बंदोबस्त दंपत्ति खुद करते हैं। इसके लिए वे आमतौर पर अपनी ही किसी रिष्तेदार अथवा परिचित का चुनाव अधिक पसंद करते हैं। लेकिन जरूरत पड़ने पर हम भी सरोगेट मदर का बंदोबस्त कर देते हैं।’ इसी केंद्र से जुड़ी डाॅ. अंजू रस्तोगी कहती हैं कि सरोगेसी के लिए आने वाले दंपत्तियों की यहां कमी नहीं हैं। डाॅ. अनिप रस्तोगी किराए की कोख के इस कारोबार को खोलते हुए कहते हंै कि सरोगेसी के लिए संबंधित महिला के लिए गोरा और सुदंर होना इतना जरूरी नहीं होता है, जितना कि उसका पहले से मां होना होता है क्योंकि इससे यह पता चल जाता है कि वह बच्चा पैदा करने में सक्षम है। उसके पति की मंजूरी भी आवष्यक होती है। अनिप की मानें तो राजधानी दिल्ली के नजदीक होने के कारण मेरठ के बजाय लोग दिल्ली के सरोगेसी केंद्रों में जाना पसंद करते हंै। वह बताते हैं कि दिल्ली में सरोगेसी केंद्र चलाने वाली डाॅ. षिवानी के पास सरोगेसी मदर के लिए देष के अलावा बाहर के देषों से हर माह करीब पांच सौ दंपत्ति आते हैं। लखनऊ की डाॅ. सीमा देव की मानंे तो पिछले दो सालों में किराए की कोख के लिए विदेषी दंपत्तियों का उत्तर प्रदेष की ओर रुझान तेजी से हुआ है। दुनिया भर में भारत किराए की कोख के लिए सबसे सस्ता मुकाम माना जाता है। जबकि भारत में उत्तर प्रदेष। यही नहीं, इन दिनों उप्र आईवीएफ तकनीकी का हब बनता जा रहा है।

किराए पर कोख देने का चलन हालांकि जरूरत से षुरू हुआ। लेकिन अब यह पूरी तरह से बाजार के हवाले है। मेरठ के पुराने इलाके लिसाड़ी गेट में एक छोटे से मकान में रहने वाली आषा (परिवर्तित नाम) कहती हैं, ‘दुनिया में ऐसे काम कम होते हैं जिसमें इंसान पुण्य और धन दोनों कमाता है। सरोगेट मदर बनना भी ऐसे कामों में षुमार है। देखिए न ! सरोगेट मां बन हम सभी तरफ से निराष हो चुके एक बांझ दंपत्ति को औलाद जैसा दुनिया का बेषकीमती सुख देते हैं। इसके एवज में मिले धन से अपनी और अपने परिवार की जरूरत को पूरा करते हैं।’ मेरठ के ही षास्त्री नगर की रहने वाली तीस साल की कमला (परिवर्तित नाम) पांच महीने की सरोगेट मदर हैं। कमला कहती हैं, ‘षादी के दो साल बाद ही एक दुर्घटना में पति की मौत हो गयी। वह प्राइवेट ड्राइवर था। ससुराल वालों से बनती नहीं थी, सो पति की मौत के बाद बड़ा सवाल अपनी बेटी की परवरिष का था। इसके लिए अपनी एक महिला मित्र की सलाह पर मैं सरोगेट मदर बन गयी।’ कमला इससे पहले एक बार सरोगेट मदर के रूप में एक बेटे को जन्म दे चुकी है। बागपत के एक ग्रामीण इलाके से जुड़ी सलमा (परिवर्तित नाम) बताती हैं कि जिसका बच्चा वह अपनी कोख में पाल रही है । वह महाराष्ट्र के एक षहर का निवासी है। गांव के एक व्यक्ति के माध्यम से एक बार उससे दिल्ली में मुलाकात करायी गयी थी। बकौल सलमा, ‘मुझसे चिकित्सकों ने कुछ कागजों पर अंगूठा लगवाया था। अनपढ़ होने के कारण उसे यह नहीं मालूम कि कागजों पर क्या लिखा था। उसे पिछले छह महीनों से हर महीने दस हजार रुपए मिल रहे हैं। साथ ही रहने और खाने की सुविधा मिल रही है। पति मजदूर है । घर का खर्चा चलाने के लिए उसे यह सब करना पड़ रहा है।’ पर हकीकत यह है कि किराए पर कोख मुहैया कराने वाले एजेंट हैं, जो सूबे के सभी बड़े आईवीएफ केंद्रों पर जाकर अपनी ‘सेवा’ की कीमत तय कर रहे हैं। इस बाजार में सक्रिय एजेंटों की फीस भी हर केस के हिसाब से है। कई ऐसे एजेंट हैं जो किराए पर कोख देने वाली महिला को लाने में दो-चार लाख रुपए वसूल रहे हैं। इस बाजार में सरोगेट मदर की फीस उसकी उम्र, स्वास्थ्य और पूर्व प्रसव आदि से तय होती है। कम उम्र की महिलाओं को आसानी से दस-पंद्रह लाख रुपए तक मिल जाते हैं। हालांकि ज्यादा उम्र की महिला के लिए भी सरोगेसी कठिन नहीं है। लेकिन बाजार में उसकी फीस घटने लगती है। सरोगेसी के कारोबार में ज्यादा मुनाफे की इच्छा से डाॅक्टर और एजेंट भी किराए की कोख देने वाली महिला की तलाष में जुटे दिखने लगे हैं। उनकी कोषिष होती है कि महिला कम फीस लेकर काम करने को तैयार हो जाए। यही वजह है कि किराए पर कोख देने वाली ज्यादातर महिलाएं कमजोर आर्थिक पृष्ठभूमि और छोटे षहरों से संबंधित हैं। जानकारों की मानें तो कई एजेंटों ने कम उम्र की विधवा महिलाओं को दो-तीन लाख रुपए देकर ही कोख किराए पर दिला दी। हद तो यह है कि किराए की कोख के इस कारोबार में कारपोरेट कल्चर का असर दिखने लगा है। चूंकि किराए पर कोख देने वाली महिला का इंतजाम अस्पताल प्रबंधन की ओर से किया जाता है। इसलिए संतान की इच्छुक दंपत्ति के प्रति जवाबदेही व जिम्मेदारी भी अस्पताल प्रबंधन की होती है। बच्चे के जन्म के बाद कोई विवाद न हो इस लिहाज से एक विधिक करार (लीगल एग्रीमेंट) सरोगेट मदर और उसके पति से कराया जाता है। गर्भधारण के बाद पूरे नौ महीने तक सरोगेट मदर का खान-पान और रहना-खाना व मेडिकल जांचों का खर्च भी उसी व्यक्ति को वहन करना पड़ता है, जो संतान पाने का इच्छुक है। अस्पताल प्रबंधन भी अपनी ओर से फीस ले लेते हैं। वह खुद हास्टल का इंतजाम कर देते हैं। जहां सरोगेट मदर को रखा जाता है। आगरा के कमलेष टंडन टेस्ट ट्यूब बेबी केंद्र के डाॅक्टर अमित टंडन बताते हैं कि सरोगेट मदर के स्वास्थ्य और गर्भ के विकास पर नजर रखना बेहद जरूरी है। किसी भी लापरवाही का असर बच्चे के जन्म पर पड़ता है। हमारी कोषिष होती है कि सरोगेट मदर का चयन संबंधियों के बीच से हो।

इक्कीसवीं सदी की षुरुआत में केवल आईवीएफ ही ऐसी तकनीकी थी, जिसका उत्तर प्रदेष में जोर-षोर से प्रचार हुआ। टेस्ट ट्यूब बेबी वाले क्लीनिक धड़ल्ले से खुले लेकिन पिछले सात-आठ सालों में ऐसे सभी केंद्रों में सरोगेसी सबसे तेजी से बढ़ने वाला कारोबार है। डाॅ. अमित टंडन बताते हैं कि लगभग छह साल पहले उन्होंने पहली सरोगेसी की थी। लेकिन अब हर साल तादाद दो-तीन गुणे की दर से बढ़ रही है। इसकी वजह संतान पाने की तीव्र इच्छा और सरोगेसी तकनीकी का सर्वसुलभ होना है। सूबे के सभी बड़े षहरों में सरोगेसी केंद्रों की तादाद बढ़ी है। यह तस्दीक राजधानी लखनऊ के केंद्र भी कर रहे हैं। सीतापुर रोड पर चल रहे डाॅ. विजयश्री के केंद्र में सुविधा और सरोगेट मदर्स की मौजूूदगी इसका सुबूत है। यहां की संचालक डाॅ. विजयश्री का कहना है कि अब तक इस तरह की सुविधा महाराष्ट्र और गुजरात के केंद्रांे पर ही थी। लेकिन अब लखनऊ में प्रतिस्पर्धा बढ़ी है। इनकी मानें तो हर साल तकरीबन पचास सरोगेसी केंवल इन्हीं के केंद्रों पर होती है।

अब तक सौ से ज्यादा बच्चों का जन्म सरोगेसी तकनीकी से करा चुकीं आगरा की डाॅ. जयदीप मलहोत्रा एषिया पैसिफिक इनिषिएटिव आन रिप्रोडक्षन की अध्यक्ष भी हैं। उनके मुताबिक सूबे में सरोगेसी तकनीकी से बच्चा चाहने वालों की लाइन लंबी है। लगभग पंद्रह लाख स्त्री-पुरुषों को इस तकनीकी की जरूरत है। हालांकि सभी आईवीएफ केंद्रों पर सरोगेसी मुमकिन है। लेकिन जो ज्यादा दक्ष हैं, वहीं चिकित्सक यह काम कर रहे हैं। इतने सारे जरूरतमंदों के लिए न योग्य चिकित्सक हैं और न सरोगेट मदर। सरोगेसी में सतर्कता भी बेहद जरूरी है। इसलिए सरोगेट मदर्स होम बनाया जा रहा है। जहां महिला को प्रसव काल तक चिकित्सकीय देखरेख में रखा जाता है। यही वजह है कि सरोगेसी की फीस भी ज्यादा है।

सरोगेसी तकनीकी से बच्चों का जन्म कराने वाले कुछ केंद्र अनिवार्य तौर पर बेटा होने की गारंटी भी करने लगे हैं। इस काम में जुटे एक डाॅक्टर की मानें तो ऐसी मीडिया (तकनीकी) पर भारत में पूरी तरह रोक है। लेकिन विदेष से चोरी-छिपे ‘सेपरेषन मीडिया’ लाकर इस काम को अंजाम दिया जा रहा है। प्री-इम्प्लांटेषन जेनेटिक डाइग्नोसिस (पीजीडी) के जरिए अंडाणु और षुक्राणु के निषेचन काल में तय हो जाता है कि भ्रूण मादा है या नर । तीसरे दिन तक भू्रण का निर्माण सोलह कोषिका तक हो जाता है। इसी दौरान ही एक कोषिका की जांच कर ली जाती है। लेकिन यह पूरी तरह अनैतिक है। कन्या भ्रूण विकसित होने पर डाॅ. उस भ्रूण को नष्ट कर दोबारा निषेचन कराते हैं। और जब यह तय हो जाता है कि भ्रूण नर ही है, तब उसे सरोगेट मदर के गर्भ में पहुंचा दिया जाता है।

Similar News