चार हजार सत्तावन किलोमीटर की लंबी सीमा, चार देश, एक युद्ध, हर साल अतिक्रमण की दर्जनों कोशिश, लगातार चलती रंजिश और वर्चस्व की लडाई। भारत और चीन के रिश्तों को अगर परिभाषित करना हो तो ये जुमले एक दम फिट बैठते हंै। वह भी तब जब भारत और चीन का समृद्ध ऐतिहासिक साथ रहा है। यह साथ बौद्ध धर्म के चीन जाने से लकेर ह्वेन सांग के भारत भ्रमण से होता हुआ एक ऐसी जगह पहुंच गया, जहां पर अब हिन्दी-चीनी, भाई-भाई की जगह दोनो देशों के अवाम के बीच अविश्वास की इतनी गहरी रेखा खिंच गयी है कि किसी भी देश की ओर से दोस्ती के लिए बढा कोई भी हाथ दूसरे देश के नागरिकों के लिए आस्तीन का खंजर नजर आने लगता है। यह बात दीगर है कि अविश्वास की गहरी खाई खींचने के काम की शुरुआत हर बार चीन की ओर से हुई है।
पिछले वर्ष चीन के प्रधानमंत्री जब भारत की यात्रा पर थे, तब चीनी सेना भारतीय सीमा में दौलत बेग ओल्डी तक घुस आयी थी। साल 2013 में ही 155 बार सीमा का अतिक्रमण हुआ। इस साल ही बीते सितंबर महीने में जब चीनी राष्ट्रपति जिनपिंग दिल्ली और अहमदाबाद के दौरे कर व्यापारिक रिश्तों के मार्फत एक नयी इबारत लिखने की कोशिश कर रहे थे कि उसी बीच चीनी सेना भारतीय सीमा में चुमार इलाके तक घुस आयी। ऐसा नहीं कि चीन की सेना यह कदम अनायास उठाती है। हकीकत यह है कि चीन ऐसा कर दुनिया के तमाम देशों को यह संदेश देना चाहता है कि भारत एक कमजोर राष्ट्र है, जब वह चाहता है उसकी सीमा में अतिक्रमण कर सकता है। ऐसे में दुनिया का कोई देश भारत की ओर किसी भी तरह की उम्मीद से ना देखे। चीन अपने इस संदेश देने में कामयाब भी हो रहा है। यह बात दूसरी है कि चीन की कामयाबी के पीछे मुख्य वजह भारतीय राजनय की गलती है। मसलन, चीन के राष्ट्रपति के हालिया दौरे के समय सीमा विवाद पर बातचीत होनी थी। आमतौर पर सीमा विवाद पर बातचीत के दौरान विदेश और गृहमंत्री भी उपस्थित रहते हैं। देश के गृहमंत्री राजनाथ सिंह कहीं व्यस्त थे। ऐसे में केंद्रीय गृह राज्यमंत्री किरेन रिजिज्यू को मौका मिलना चाहिए था। किरेन रिजिज्यू अरुणाचल प्रदेश से भाजपा के सांसद हैं, ऐसे में उन्हें बातचीत में शामिल कर चीनी राष्ट्रपति को बडा संदेश दिया जा सकता था, पर पता किस चूक के चलते यह ऐसा फैसला हुआ जिसमें कूटनीति के स्तर पर भारत की कमजोरी उजागर की। हांलांकि चीनी राष्ट्रपति की अगुवाई, खैर मकदम और राजनैतिक- कूटनीतिक बातचीत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अंगभाषा मजबूत रही।
यही नहीं, राजीव गांधी के कार्यकाल में चीन के देन झयांग पिंग ने यहां तक कह दिया था कि अरुणाचल का तवांग हमे दे दीजिये फिर भी कोई जवाब नहीं दिया गया। जवाहर लाल नेहरु के कार्यकाल में तो भारत चीन युद्ध के बाद हुई हार पर लोकसभा मे एक बहस काफी चर्चित है। इस बहस में भारत-चीन युद्ध के बाद नेहरूजी ने अक्साई चिन को लेकर संसद में कहा, छवज ं इसंकम व िहतवेे हतवूे जीमतम (वहां तो घास की एक पत्ती भी नहीं उगती)। देहरादून, बिजनौर, सहारनपुर इलाके के 1952, 1957 और 1962 में सांसद रहे महावीर त्यागी, जो गंजे थे उन्होंने कहा, ‘मेरे सिर पर एक भी बाल नहीं है, तो इसका मतलब क्या यह कि आप मेरा सिर काटकर चीनियों को दे देंगे।’ वर्ष 1950 में तिब्बत की चीन का हिस्सा स्वीकार करना भी कूटनीतिक गलती थी। अरुणाचल जिसे चीन अपना समझता दिखाता है उस पूर्वोत्तर के राज्य में सत्रह साल तक भारत का कोई बडा नेता गया ही नही। वर्ष 1966 के बाद मनमोहन सिंह ही ऐसे नेता थे जो पहली बार अरुणाचल प्रधानमंत्री रहते हुए गये थे। वह भी तब जब पूर्वाेत्तर का यह इकलौता राज्य है, जहां भारत विरोधी गतिविधियों के लिये कोई जगह नही है। यहां पर आज भी लोग अभिवादन के लिये जयहिंद को नमस्कार प्रणाम पर तरजीह देते हंै। मतलब साफ है कि चीन भारत के साथ जो भी व्यवहार करता है, वह भारतीय सीमा नीति के संचित कर्म हैं। यह भी कम हैरतअंगेज नहीं है कि सीमाओं की सुरक्षा के लिये बनी कैबिनेट कमेटी ऑन सिक्योरिटी में सेना का कोई नुमाइंदा नहीं होता है। ऐसे में भारतीय विदेश नीति और सीमा नीति राजनेता और अफसरों की ड्राइंगरुम वाली समझ की मोहताज है। जबकि दूसरे तमाम देशों में ऐसा नहीं है। हांलांकि इन दिनों प्रधानमंत्री भारत के तीनों सेनाओ के सेना प्रमुखों से सीधे संवाद की दिशा में कदम बढ़ा रहे हैं। भारतीय सीमा नीति के संचित कर्मों का फल है कि आज जब भारत सरकार चीन से लगी सीमा पर 1800 किलोमीटर की सड़क बनाने की दिशा में कदम उठा रही है तभी ड्रैगन चेतावनी की फुंफकार मार रहा है।वह भी तब जब भारत का भाल कहे जाने वाले अक्साई चिन पर कब्जा करने के बाद वहां पर ना सिर्फ सड़क बल्कि मिलिट्री बेस भी बना लिया है।
भारत के बढते प्रभाव को निष्प्रभावी बनाने के लिए अब चीन ने भारत को हर तरफ से घेरना शुरु कर दिया है। यूं तो लेह-लद्दाख से लेकर अरुणाचल प्रदेश तक चीन सरहद पर माहौल बिगाड़ने से बाज नहीं आता. लेकिन पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह पर कब्जा जमाकर चीन समंदर में भी भारत को घेरने की तैयारी कर रहा है. अपनी इस नई चाल के साथ हिंद महासागर में भी कई अहम ठिकानों पर चीन बैठ चुका है। लद्दाख से लेकर अरुणाचल प्रदेश तक चीन हमारी जमीन हड़पने की फिराक में रहता है। कैसे वो सिक्किम से लेकर दूसरे इलाकों तक सरहद के पास फौजी बेस बना रहा है। और तो और,चीन ने तिब्बत और शिन्च्यांग में एंटी बैलेस्टिक मिसाइल भी तैनात कर रखी है।
भारत को घेरने की इस कवायद को चीन ने मोतियों की लड़ी का नाम दिया है। भारत को समंदर के रास्ते घेरने के लिए चीन ने मोतियों का हार अब मुकम्मल तैयार कर लिया है। पाकिस्तान का ग्वादर पोर्ट, उसके बाद अरब सागर में काफी नीचे उतरते जाइए तो मालदीव का मराओ एटॉल, फिर श्रीलंका का हंबनटोटा, इसके बाद बांग्लादेश का चटगांव और म्यांमार का सिट्वे पोर्ट। हिंद महासागर में हिंदुस्तान को घेरने की चीन की पूरी तैयारी साफ झलकती है। हिमालय के उस पार से कोई भी आहट खतरे की घंटी बजाती है, लेकिन अब तो वो खतरा समंदर की लहरों पर तैरता नजर आ रहा है। भारत को घेरने में चीन का प्रमुख सहयोगी है पाकिस्तान। जिसे यह पता है कि भारत से लोहा लेने में चीन के कंधे का सहारा मिल जाय तो भारत से दो-दो हाथ किये जा सकते हैं।
पाकिस्तान ने अपना ग्वादर पोर्ट चीन को सौंप दिया है। ग्वादर पोर्ट रहेगा तो पाकिस्तान का, लेकिन उस पर कब्जा और काम-धाम चीन का ही होगा। अब चीन ग्वादर पोर्ट का इस्तेमाल बीजिंग के लिए आर्थिक हब और मिलिट्री पोस्ट में कर सकेगा। इस्लामाबाद में हुए इस समझौते का बाकायदा टीवी पर प्रसारण किया गया। मौके पर मौजूद पाकिस्तानी राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी ने कहा कि ग्वादर पोर्ट पाकिस्तान और चीन ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के लिए कारोबार का अड्डा बनेगा। कारोबार की आड़ में चीन अरब सागर से लेकर हिंद महासागर तक अपनी नौसैनिक ताकत को बढ़ाना चाहता है. अरब सागर के किनारे मौजूद ग्वादर पोर्ट को स्ट्रेट ऑफ हॉर्मज के करीब है। स्ट्रेट ऑफ हॉर्मज, ओमान और फारस की खाड़ी के बीच की वह जगह है, जहां से दुनिया के 20 फीसदी तेल का कारोबार होता है।
ग्वादर बंदरगाह को बेचने की योजना पाकिस्तान ने तब बनायी, जब परवेज मुशर्रफ राष्ट्रपति थे. 2007 में परवेज मुशर्रफ ने ग्वादर बंदरगाह को सिंगापुर अथॉरिटी को दिया। इस बंदरगाह को बनाने में करीब 1331 करोड़ रुपये का खर्च आया। लेकिन इसमें से 75 फीसदी यानी करीब एक हजार करोड़ रुपये लगाकर चीन ने इस पर अपना हक जमा लिया है। चीन की चाहतों की चादर सिर्फ ग्वादर तक ही सिमटी हुई नहीं है। बल्कि हिंदुस्तान का हव्वा खड़ा करके वह पाकिस्तान से उसके दूसरे बंदरगाह ऐंठने के बारे में भी सोच सकता है।
कूटनीतिक और राजनैतिक स्तर पर भले ही चीन के साथ लगातर गलतियां की गयी हों अथवा दोहराई गयी हों पर सैन्य स्तर पर हमारी तैयारी भी अब चीन से कम नहीं कही जा सकती है। भारत ने पूर्वोत्तर राज्यों की सीमा पर चीन को घेरने की तैयारी शुरू कर दी है। तेजपुर व छबुआ में सुखोई 30 एम.के.आई. तैनात करने के बाद भारतीय वायुसेना ने पूर्वोत्तर इलाके में छह आकाश मिसाइलों की तैनाती की तरफ काम करना शुरू कर दिया है। इसके पीछे सेना का मकसद भारतीय सीमा में चीनी विमानों की घुसपैठ रोकना है। ‘आकाश’ की तैनाती के बाद सेना 25 किलोमीटर क्षेत्र में किसी भी तरह के खतरे का करारा जवाब दे सकती है। वायुसेना ने पहले दो आकाश मिसाइल की तैनाती ग्वालियर मिराज 2000 बेस और पुणे के सुखोई बेस पर की है। सुरक्षा पर केंद्रीय समिति ने हाल ही में 6 और आकाश मिसाइलों की तैनाती को मंजूरी दी थी। इसका मकसद चीन के साथ 4057 किलोमीटर लंबी सीमा (लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल) को पूरी मजबूती के साथ सुरक्षित करना है।
भारतीय महासगर में चीनी युद्धपातों के खतरे को टालने के लिए भारतीय जल सेना बेहतर स्थिति में है। धीरे-धीरे भारत भी अब चीन को टक्कर देने की तैयारी कर रहा है। 5000 किलोमीटर के रेंज वाले अग्नि-5 मिसाइल बनाने की योजना और फिर माउंटेन स्ट्राइक कॉर्प्स का गठन जिसमें 90000 से ज्यादा सेना के जवान शामिल होंगे, इस मिशन का हिस्सा हैं। इसके लिए 64678 करोड़ रुपए खर्चे का अनुमान है। इसके अलावा सीमा पर सेना के लिए इंफ्रास्ट्रक्चर को बेहतर बनाने की योजना भी बनायी गई है जिसके लिए 26,155 करोड़ रुपए खर्च किए जाएंगे। वायुसेना ने लद्दाख के न्योमा और दौलत बेग ओल्डी में विमानों और हेलिकॉप्टरों को लैंड कराने के लिए एडवांस्ड लैंडिंग ग्राउंड (एएलजी) का विकास किया है। भारत-चीन-म्यांमार की सीमा पर मौजूद विजयनगर में भी एएलजी का विकास किया गया है। इसी तरह के एएलजी का विकास पूर्वोत्तर के पासीघाट, मेचुका, वेलॉन्ग, टूटिंग और जीरो जैसे इलाकों में किया जा रहा है।
इन तैयारियों के बाद चीन को लेकर पुराने तरह की परंपरागत दकियानूसी सोच और ड़र से बाहर ना निकलने की कोई वजह नहीं दिखती। तकरीबन 111 साल पहले वर्ष 1903 में लार्ड कर्जन ने कहा था कि भारत को हिमालय बचा रहा है। एक समय आयेगा जब भारत को हिमालय बचाना पडेगा। यह एक ऐसा समय है, जब दोनों स्थितियां एक साथ चल रही हैं। चीन से भयभीत नहीं रहने की एक बड़ी वजह यह भी है कि भले ही चीन की सेना हमसे 4-5 लाख ज्यादा हो पर भारत चीन के बीच हिमालय है, जिसके अंदर 60 दर्रे हैं। दो दर्रों को छोड़कर बाकी 58 दर्रों पर भारत का कब्जा है। चीन को भारत पर बुरी निगाह ड़ालने से पहले इन दर्रों को जीतना होगा, जो उसके लिये संभव नहीं है। हमें चीन के साथ रिश्तों के लिये हिमालय की ऋंखला का आभारी होना चाहिये।
भारत और चीन के बीच सीमा विवाद की वजह यह भी है कि दोनों देशों के बीच आज तक सीमा का ठीक से निर्धारण नहीं हुआ। सीमाओं को लेकर दोनों देशों के अपने-अपने दावे हैं। कभी भारत मैकमहोन रेखा को चीन की सीमा रेखा मानता है, तो कभी वह वास्तविक नियंत्रण रेखा के दावे पर अड़कर खडा हो जाता है। एक समय तो ऐसा आया कि भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने खुद ही वास्तविक नियंत्रण रेखा को ही नकार दिया। कुछ यही स्थिति चीन की भी है। चीन अपनी सुविधा के मुताबिक इन रेखाओं को नकारता स्वीकारता रहता है। अगर मैकमहोन रेखा की बात की जाय तो यह भारत और तिब्बत के बीच सीमा रेखा है। यह सन् 1914 में भारत की तत्कालीन ब्रिटिश सरकार और तिब्बत के बीच शिमला समझौते के तहत अस्तित्व में आई थी। सन् 1914 के बाद से अगले कई वर्षो तक इस सीमा रेखा का अस्तित्व कई अन्य विवादों के कारण गुम गया था, किन्तु सन् 1935 में ओलफ केरो नामक एक अंग्रेज प्रशासनिक अधिकारी ने तत्कालीन अंग्रेज सरकार को इसे आधिकारिक तौर पर लागू करने का अनुरोध किया। सन् 1937 में सर्वे ऑफ इंडिया के एक मानचित्र में मैकमहोन रेखा को आधिकारिक भारतीय सीमा रेखा के रूप में दिखाया गया था। वही, चीन सन् 1914 के शिमला समझौते को मानने से इनकार करता रहा है। चीन के अनुसार तिब्बत स्वायत्त राज्य नहीं था और उसके पास किसी भी प्रकार के समझौता करने का कोई अधिकार नहीं था। वहीं वास्तविक नियंत्रण रेखा, जिसे अंग्रेजी में लाइन आफ एक्च्युअल कंट्रोल (एल.ए.सी.) कहते हैं, को लेकर भी कई तरह के दावे-प्रतिदावे हैं। वास्तविक नियंत्रण रेखा तकरीबन 4056 किलोमीटर लंबी है। जो जम्मू कश्मीर उत्तराखंड, हिमाचल और सिक्किम से गुजरती है। वहीं चीन की तरफ यह पूरी तरह से तिब्बत के स्वायत्त चीनी क्षेत्र से गुजरती है। वर्ष 1962 में हुए चीन भारत युद्ध के बाद वास्तविक नियंत्रण रेखा को एक अस्थाई पर मान्य युद्धविराम सीमा के तौर पर माना गया। वर्ष 1993 के बाद इसे वास्तविक नियंत्रण रेखा के तौर पर मान्यता दे दी गयी। तीन साल बाद यानी 1996 में भारत और चीन ने एक समझौता कर यह तय किया था कि इस वास्तविक नियंत्रण रेखा का उल्लंघन कोई भी पक्ष नहीं करेगा। पर यह सब सिर्फ कागजों तक ही सीमित रहा। दरअसल, भारत-चीन सीमा विवाद की ही परिणति भारत-चीन युद्ध में 1962 में हुई। चीनी सेना ने 20 अक्टूबर, 1962 को लद्दाख में और मैकमहोन रेखा के पार एक साथ हमले शुरू किये। चीनी सेना ने पश्चिमी क्षेत्र में चुशूल में रेजांग-ला एवं पूर्व में तवांग पर कब्जा कर लिया। जब चीन ने 20 नवम्बर, 1962 को युद्ध विराम और साथ ही विवादित क्षेत्र से अपनी वापसी की घोषणा की तब युद्ध खत्म हो गया।
इस लडाई के बाद से चीन की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर छवि धूमिल तो हुई पर वह विजेता भी रहा। भारत को अब तक हमला झेलने वाले देश के तौर पर देखा जाता है। पर अब सरकार बदलने के साथ ही भारत अपनी छवि के साथ ही कूटनीति, राजनीति, सीमा पर अपने तर्क को चीन के साथ एक ऐसे राष्ट्र के तौर पर पेश करना चाहता है, जो चीन से ड़रा सहमा नहीं बल्कि संप्रभु और अपनी सीमाओं के लिये सजग है। यही नही, नरेंद्र मोदी ने भी सरकार बनने के साथ एक ओर जहां चीन के साथ व्यापारिक रिश्तों को पेंग दी वहीं चीन को एक संकेत यह भी दिया कि एशिया में भारत अकेला नहीं खडा है। जापान के साथ गर्मजोशी, जापान में ही चीन की विस्तारवादी नीतियों पर कटाक्ष और वियतनाम, नेपाल और भूटान जैसे देशों को अपने पाले में खडा कर नयी सरकार ने यह साफ कर दिया कि अब भारत वर्ष 1962 से काफी आगे निकल कर अपनी विदेश नीति में संतुलन का हामी है। साथ ही इस संतुलन में भारत का सम्मान और स्वाभिमान भी उतना ही जरुरी है जितना दुनिया के किसी और देश का।
पिछले वर्ष चीन के प्रधानमंत्री जब भारत की यात्रा पर थे, तब चीनी सेना भारतीय सीमा में दौलत बेग ओल्डी तक घुस आयी थी। साल 2013 में ही 155 बार सीमा का अतिक्रमण हुआ। इस साल ही बीते सितंबर महीने में जब चीनी राष्ट्रपति जिनपिंग दिल्ली और अहमदाबाद के दौरे कर व्यापारिक रिश्तों के मार्फत एक नयी इबारत लिखने की कोशिश कर रहे थे कि उसी बीच चीनी सेना भारतीय सीमा में चुमार इलाके तक घुस आयी। ऐसा नहीं कि चीन की सेना यह कदम अनायास उठाती है। हकीकत यह है कि चीन ऐसा कर दुनिया के तमाम देशों को यह संदेश देना चाहता है कि भारत एक कमजोर राष्ट्र है, जब वह चाहता है उसकी सीमा में अतिक्रमण कर सकता है। ऐसे में दुनिया का कोई देश भारत की ओर किसी भी तरह की उम्मीद से ना देखे। चीन अपने इस संदेश देने में कामयाब भी हो रहा है। यह बात दूसरी है कि चीन की कामयाबी के पीछे मुख्य वजह भारतीय राजनय की गलती है। मसलन, चीन के राष्ट्रपति के हालिया दौरे के समय सीमा विवाद पर बातचीत होनी थी। आमतौर पर सीमा विवाद पर बातचीत के दौरान विदेश और गृहमंत्री भी उपस्थित रहते हैं। देश के गृहमंत्री राजनाथ सिंह कहीं व्यस्त थे। ऐसे में केंद्रीय गृह राज्यमंत्री किरेन रिजिज्यू को मौका मिलना चाहिए था। किरेन रिजिज्यू अरुणाचल प्रदेश से भाजपा के सांसद हैं, ऐसे में उन्हें बातचीत में शामिल कर चीनी राष्ट्रपति को बडा संदेश दिया जा सकता था, पर पता किस चूक के चलते यह ऐसा फैसला हुआ जिसमें कूटनीति के स्तर पर भारत की कमजोरी उजागर की। हांलांकि चीनी राष्ट्रपति की अगुवाई, खैर मकदम और राजनैतिक- कूटनीतिक बातचीत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अंगभाषा मजबूत रही।
यही नहीं, राजीव गांधी के कार्यकाल में चीन के देन झयांग पिंग ने यहां तक कह दिया था कि अरुणाचल का तवांग हमे दे दीजिये फिर भी कोई जवाब नहीं दिया गया। जवाहर लाल नेहरु के कार्यकाल में तो भारत चीन युद्ध के बाद हुई हार पर लोकसभा मे एक बहस काफी चर्चित है। इस बहस में भारत-चीन युद्ध के बाद नेहरूजी ने अक्साई चिन को लेकर संसद में कहा, छवज ं इसंकम व िहतवेे हतवूे जीमतम (वहां तो घास की एक पत्ती भी नहीं उगती)। देहरादून, बिजनौर, सहारनपुर इलाके के 1952, 1957 और 1962 में सांसद रहे महावीर त्यागी, जो गंजे थे उन्होंने कहा, ‘मेरे सिर पर एक भी बाल नहीं है, तो इसका मतलब क्या यह कि आप मेरा सिर काटकर चीनियों को दे देंगे।’ वर्ष 1950 में तिब्बत की चीन का हिस्सा स्वीकार करना भी कूटनीतिक गलती थी। अरुणाचल जिसे चीन अपना समझता दिखाता है उस पूर्वोत्तर के राज्य में सत्रह साल तक भारत का कोई बडा नेता गया ही नही। वर्ष 1966 के बाद मनमोहन सिंह ही ऐसे नेता थे जो पहली बार अरुणाचल प्रधानमंत्री रहते हुए गये थे। वह भी तब जब पूर्वाेत्तर का यह इकलौता राज्य है, जहां भारत विरोधी गतिविधियों के लिये कोई जगह नही है। यहां पर आज भी लोग अभिवादन के लिये जयहिंद को नमस्कार प्रणाम पर तरजीह देते हंै। मतलब साफ है कि चीन भारत के साथ जो भी व्यवहार करता है, वह भारतीय सीमा नीति के संचित कर्म हैं। यह भी कम हैरतअंगेज नहीं है कि सीमाओं की सुरक्षा के लिये बनी कैबिनेट कमेटी ऑन सिक्योरिटी में सेना का कोई नुमाइंदा नहीं होता है। ऐसे में भारतीय विदेश नीति और सीमा नीति राजनेता और अफसरों की ड्राइंगरुम वाली समझ की मोहताज है। जबकि दूसरे तमाम देशों में ऐसा नहीं है। हांलांकि इन दिनों प्रधानमंत्री भारत के तीनों सेनाओ के सेना प्रमुखों से सीधे संवाद की दिशा में कदम बढ़ा रहे हैं। भारतीय सीमा नीति के संचित कर्मों का फल है कि आज जब भारत सरकार चीन से लगी सीमा पर 1800 किलोमीटर की सड़क बनाने की दिशा में कदम उठा रही है तभी ड्रैगन चेतावनी की फुंफकार मार रहा है।वह भी तब जब भारत का भाल कहे जाने वाले अक्साई चिन पर कब्जा करने के बाद वहां पर ना सिर्फ सड़क बल्कि मिलिट्री बेस भी बना लिया है।
भारत के बढते प्रभाव को निष्प्रभावी बनाने के लिए अब चीन ने भारत को हर तरफ से घेरना शुरु कर दिया है। यूं तो लेह-लद्दाख से लेकर अरुणाचल प्रदेश तक चीन सरहद पर माहौल बिगाड़ने से बाज नहीं आता. लेकिन पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह पर कब्जा जमाकर चीन समंदर में भी भारत को घेरने की तैयारी कर रहा है. अपनी इस नई चाल के साथ हिंद महासागर में भी कई अहम ठिकानों पर चीन बैठ चुका है। लद्दाख से लेकर अरुणाचल प्रदेश तक चीन हमारी जमीन हड़पने की फिराक में रहता है। कैसे वो सिक्किम से लेकर दूसरे इलाकों तक सरहद के पास फौजी बेस बना रहा है। और तो और,चीन ने तिब्बत और शिन्च्यांग में एंटी बैलेस्टिक मिसाइल भी तैनात कर रखी है।
भारत को घेरने की इस कवायद को चीन ने मोतियों की लड़ी का नाम दिया है। भारत को समंदर के रास्ते घेरने के लिए चीन ने मोतियों का हार अब मुकम्मल तैयार कर लिया है। पाकिस्तान का ग्वादर पोर्ट, उसके बाद अरब सागर में काफी नीचे उतरते जाइए तो मालदीव का मराओ एटॉल, फिर श्रीलंका का हंबनटोटा, इसके बाद बांग्लादेश का चटगांव और म्यांमार का सिट्वे पोर्ट। हिंद महासागर में हिंदुस्तान को घेरने की चीन की पूरी तैयारी साफ झलकती है। हिमालय के उस पार से कोई भी आहट खतरे की घंटी बजाती है, लेकिन अब तो वो खतरा समंदर की लहरों पर तैरता नजर आ रहा है। भारत को घेरने में चीन का प्रमुख सहयोगी है पाकिस्तान। जिसे यह पता है कि भारत से लोहा लेने में चीन के कंधे का सहारा मिल जाय तो भारत से दो-दो हाथ किये जा सकते हैं।
पाकिस्तान ने अपना ग्वादर पोर्ट चीन को सौंप दिया है। ग्वादर पोर्ट रहेगा तो पाकिस्तान का, लेकिन उस पर कब्जा और काम-धाम चीन का ही होगा। अब चीन ग्वादर पोर्ट का इस्तेमाल बीजिंग के लिए आर्थिक हब और मिलिट्री पोस्ट में कर सकेगा। इस्लामाबाद में हुए इस समझौते का बाकायदा टीवी पर प्रसारण किया गया। मौके पर मौजूद पाकिस्तानी राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी ने कहा कि ग्वादर पोर्ट पाकिस्तान और चीन ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के लिए कारोबार का अड्डा बनेगा। कारोबार की आड़ में चीन अरब सागर से लेकर हिंद महासागर तक अपनी नौसैनिक ताकत को बढ़ाना चाहता है. अरब सागर के किनारे मौजूद ग्वादर पोर्ट को स्ट्रेट ऑफ हॉर्मज के करीब है। स्ट्रेट ऑफ हॉर्मज, ओमान और फारस की खाड़ी के बीच की वह जगह है, जहां से दुनिया के 20 फीसदी तेल का कारोबार होता है।
ग्वादर बंदरगाह को बेचने की योजना पाकिस्तान ने तब बनायी, जब परवेज मुशर्रफ राष्ट्रपति थे. 2007 में परवेज मुशर्रफ ने ग्वादर बंदरगाह को सिंगापुर अथॉरिटी को दिया। इस बंदरगाह को बनाने में करीब 1331 करोड़ रुपये का खर्च आया। लेकिन इसमें से 75 फीसदी यानी करीब एक हजार करोड़ रुपये लगाकर चीन ने इस पर अपना हक जमा लिया है। चीन की चाहतों की चादर सिर्फ ग्वादर तक ही सिमटी हुई नहीं है। बल्कि हिंदुस्तान का हव्वा खड़ा करके वह पाकिस्तान से उसके दूसरे बंदरगाह ऐंठने के बारे में भी सोच सकता है।
कूटनीतिक और राजनैतिक स्तर पर भले ही चीन के साथ लगातर गलतियां की गयी हों अथवा दोहराई गयी हों पर सैन्य स्तर पर हमारी तैयारी भी अब चीन से कम नहीं कही जा सकती है। भारत ने पूर्वोत्तर राज्यों की सीमा पर चीन को घेरने की तैयारी शुरू कर दी है। तेजपुर व छबुआ में सुखोई 30 एम.के.आई. तैनात करने के बाद भारतीय वायुसेना ने पूर्वोत्तर इलाके में छह आकाश मिसाइलों की तैनाती की तरफ काम करना शुरू कर दिया है। इसके पीछे सेना का मकसद भारतीय सीमा में चीनी विमानों की घुसपैठ रोकना है। ‘आकाश’ की तैनाती के बाद सेना 25 किलोमीटर क्षेत्र में किसी भी तरह के खतरे का करारा जवाब दे सकती है। वायुसेना ने पहले दो आकाश मिसाइल की तैनाती ग्वालियर मिराज 2000 बेस और पुणे के सुखोई बेस पर की है। सुरक्षा पर केंद्रीय समिति ने हाल ही में 6 और आकाश मिसाइलों की तैनाती को मंजूरी दी थी। इसका मकसद चीन के साथ 4057 किलोमीटर लंबी सीमा (लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल) को पूरी मजबूती के साथ सुरक्षित करना है।
भारतीय महासगर में चीनी युद्धपातों के खतरे को टालने के लिए भारतीय जल सेना बेहतर स्थिति में है। धीरे-धीरे भारत भी अब चीन को टक्कर देने की तैयारी कर रहा है। 5000 किलोमीटर के रेंज वाले अग्नि-5 मिसाइल बनाने की योजना और फिर माउंटेन स्ट्राइक कॉर्प्स का गठन जिसमें 90000 से ज्यादा सेना के जवान शामिल होंगे, इस मिशन का हिस्सा हैं। इसके लिए 64678 करोड़ रुपए खर्चे का अनुमान है। इसके अलावा सीमा पर सेना के लिए इंफ्रास्ट्रक्चर को बेहतर बनाने की योजना भी बनायी गई है जिसके लिए 26,155 करोड़ रुपए खर्च किए जाएंगे। वायुसेना ने लद्दाख के न्योमा और दौलत बेग ओल्डी में विमानों और हेलिकॉप्टरों को लैंड कराने के लिए एडवांस्ड लैंडिंग ग्राउंड (एएलजी) का विकास किया है। भारत-चीन-म्यांमार की सीमा पर मौजूद विजयनगर में भी एएलजी का विकास किया गया है। इसी तरह के एएलजी का विकास पूर्वोत्तर के पासीघाट, मेचुका, वेलॉन्ग, टूटिंग और जीरो जैसे इलाकों में किया जा रहा है।
इन तैयारियों के बाद चीन को लेकर पुराने तरह की परंपरागत दकियानूसी सोच और ड़र से बाहर ना निकलने की कोई वजह नहीं दिखती। तकरीबन 111 साल पहले वर्ष 1903 में लार्ड कर्जन ने कहा था कि भारत को हिमालय बचा रहा है। एक समय आयेगा जब भारत को हिमालय बचाना पडेगा। यह एक ऐसा समय है, जब दोनों स्थितियां एक साथ चल रही हैं। चीन से भयभीत नहीं रहने की एक बड़ी वजह यह भी है कि भले ही चीन की सेना हमसे 4-5 लाख ज्यादा हो पर भारत चीन के बीच हिमालय है, जिसके अंदर 60 दर्रे हैं। दो दर्रों को छोड़कर बाकी 58 दर्रों पर भारत का कब्जा है। चीन को भारत पर बुरी निगाह ड़ालने से पहले इन दर्रों को जीतना होगा, जो उसके लिये संभव नहीं है। हमें चीन के साथ रिश्तों के लिये हिमालय की ऋंखला का आभारी होना चाहिये।
भारत और चीन के बीच सीमा विवाद की वजह यह भी है कि दोनों देशों के बीच आज तक सीमा का ठीक से निर्धारण नहीं हुआ। सीमाओं को लेकर दोनों देशों के अपने-अपने दावे हैं। कभी भारत मैकमहोन रेखा को चीन की सीमा रेखा मानता है, तो कभी वह वास्तविक नियंत्रण रेखा के दावे पर अड़कर खडा हो जाता है। एक समय तो ऐसा आया कि भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने खुद ही वास्तविक नियंत्रण रेखा को ही नकार दिया। कुछ यही स्थिति चीन की भी है। चीन अपनी सुविधा के मुताबिक इन रेखाओं को नकारता स्वीकारता रहता है। अगर मैकमहोन रेखा की बात की जाय तो यह भारत और तिब्बत के बीच सीमा रेखा है। यह सन् 1914 में भारत की तत्कालीन ब्रिटिश सरकार और तिब्बत के बीच शिमला समझौते के तहत अस्तित्व में आई थी। सन् 1914 के बाद से अगले कई वर्षो तक इस सीमा रेखा का अस्तित्व कई अन्य विवादों के कारण गुम गया था, किन्तु सन् 1935 में ओलफ केरो नामक एक अंग्रेज प्रशासनिक अधिकारी ने तत्कालीन अंग्रेज सरकार को इसे आधिकारिक तौर पर लागू करने का अनुरोध किया। सन् 1937 में सर्वे ऑफ इंडिया के एक मानचित्र में मैकमहोन रेखा को आधिकारिक भारतीय सीमा रेखा के रूप में दिखाया गया था। वही, चीन सन् 1914 के शिमला समझौते को मानने से इनकार करता रहा है। चीन के अनुसार तिब्बत स्वायत्त राज्य नहीं था और उसके पास किसी भी प्रकार के समझौता करने का कोई अधिकार नहीं था। वहीं वास्तविक नियंत्रण रेखा, जिसे अंग्रेजी में लाइन आफ एक्च्युअल कंट्रोल (एल.ए.सी.) कहते हैं, को लेकर भी कई तरह के दावे-प्रतिदावे हैं। वास्तविक नियंत्रण रेखा तकरीबन 4056 किलोमीटर लंबी है। जो जम्मू कश्मीर उत्तराखंड, हिमाचल और सिक्किम से गुजरती है। वहीं चीन की तरफ यह पूरी तरह से तिब्बत के स्वायत्त चीनी क्षेत्र से गुजरती है। वर्ष 1962 में हुए चीन भारत युद्ध के बाद वास्तविक नियंत्रण रेखा को एक अस्थाई पर मान्य युद्धविराम सीमा के तौर पर माना गया। वर्ष 1993 के बाद इसे वास्तविक नियंत्रण रेखा के तौर पर मान्यता दे दी गयी। तीन साल बाद यानी 1996 में भारत और चीन ने एक समझौता कर यह तय किया था कि इस वास्तविक नियंत्रण रेखा का उल्लंघन कोई भी पक्ष नहीं करेगा। पर यह सब सिर्फ कागजों तक ही सीमित रहा। दरअसल, भारत-चीन सीमा विवाद की ही परिणति भारत-चीन युद्ध में 1962 में हुई। चीनी सेना ने 20 अक्टूबर, 1962 को लद्दाख में और मैकमहोन रेखा के पार एक साथ हमले शुरू किये। चीनी सेना ने पश्चिमी क्षेत्र में चुशूल में रेजांग-ला एवं पूर्व में तवांग पर कब्जा कर लिया। जब चीन ने 20 नवम्बर, 1962 को युद्ध विराम और साथ ही विवादित क्षेत्र से अपनी वापसी की घोषणा की तब युद्ध खत्म हो गया।
इस लडाई के बाद से चीन की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर छवि धूमिल तो हुई पर वह विजेता भी रहा। भारत को अब तक हमला झेलने वाले देश के तौर पर देखा जाता है। पर अब सरकार बदलने के साथ ही भारत अपनी छवि के साथ ही कूटनीति, राजनीति, सीमा पर अपने तर्क को चीन के साथ एक ऐसे राष्ट्र के तौर पर पेश करना चाहता है, जो चीन से ड़रा सहमा नहीं बल्कि संप्रभु और अपनी सीमाओं के लिये सजग है। यही नही, नरेंद्र मोदी ने भी सरकार बनने के साथ एक ओर जहां चीन के साथ व्यापारिक रिश्तों को पेंग दी वहीं चीन को एक संकेत यह भी दिया कि एशिया में भारत अकेला नहीं खडा है। जापान के साथ गर्मजोशी, जापान में ही चीन की विस्तारवादी नीतियों पर कटाक्ष और वियतनाम, नेपाल और भूटान जैसे देशों को अपने पाले में खडा कर नयी सरकार ने यह साफ कर दिया कि अब भारत वर्ष 1962 से काफी आगे निकल कर अपनी विदेश नीति में संतुलन का हामी है। साथ ही इस संतुलन में भारत का सम्मान और स्वाभिमान भी उतना ही जरुरी है जितना दुनिया के किसी और देश का।