शशि थरुर ने यूं ही नहीं थामी झाड़ू

Update:2014-10-30 12:24 IST
कहीं पर निगाहें कहीं पर निशाना। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और कांग्रेस के सांसद शशि थरुर के बीच स्वच्छ भारत अभियान के मार्फत जो कुछ चल रहा है, वह कहीं इसी कहावत को अमली जामा पहनाने की कवायद तो नहीं है। शशि थरुर और नरेंद्र मोदी के आसपास जो हालात हैं वे दोनों को एक दूसरे का मुखापेक्षी बनाते हैं। नरेंद्र मोदी के लिये शशि थरुर उस केरल में भाजपा का झंडा लहराने का जरिया हो सकते हैं, जहां हिन्दुत्व की पैरोकारी करते हुए तमाम स्वयंसेवक काल कवलित हुए हंै। यही नहीं, शशि थरुर भी इन दिनों अपनी तीसरी पत्नी सुनंदा की मौत को लेकर जिस तरह आरोप और संदेह की जद में हैं, उन हालातों में उन्हें भी एक सरपरस्ती की दरकार है। इतना ही नहीं, सोशल मीडिया के आइने में भी अगर इन दोनों को एक दूसरे की जरुरत के मद्देनजर देखा जाय तो साफ होता है कि ट्विटर पर एक दूसरे के आगे पीछे हैं। साल 2013 तक वो ट्विटर के बेताज बादशाह रहे बाद में नरेंद्र मोदी ने उन्हें पछाडा। साथ ही एक तरह से नई राजनीति की शुरुआत का क्रेडिट भी शशि थरुर को जाता है। सोशल मीडिया को राजनीति और खबरों का हथियार कैसे बनाया जाय, यह शशि थरुर ने भारतीय नेताओं को सिखाया। भारतीय नेताओ में थरुर पहले नेता बने जिन्हें फालो करने वालों की संख्या पहले एक लाख फिर 10 लाख पहुंची। इस समय उन्हें फालो करने वालों की संख्या 23 लाख है। थरुर का विवादों से पुराना नाता है पर इसके साथ ही एक सच्चाई यह भी है कि शशि थरुर ने इतने विवाद होने के बाद भी अपने समर्थकों का भरोसा नहीं खोया है।

शशि थरुर का आईपीएल विवाद हो या फिर सुनंदा की मौत का विवाद उनके इस गुण के आगे सियासी तौर पर बौना दिखने लगता है। तभी तो पहले मनमोहन ने आईपीएल विवाद को लकेर उनसे इस्तीफा लिया और बाद में उन्हें फिर से मंत्रिमंडल में जगह दे दी। कांग्रेस से शशि थरुर के मोहभंग होने की वजह भी कम बेवजह नहीं है। थरुर कांग्रेस के नहीं पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की टीम के सदस्य रहे हैं। यही वजह है कि हर विवाद में मनमोहन सिंह उनके साथ खडे मिले हैं। लेकिन यह वजह तो सतही है। हकीकत इससे कुछ और गहरी है। मनमोहन सिंह अपने पहले कार्यकाल के दो साल बहुत अच्छी तरह पूरा कर चुके थे कि इसी बीच कांग्रेस में प्रधानमंत्री पद के इच्छुक नेताओं ने संप्रग अध्यक्ष को मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री की जगह संयुक्त राष्ट्र संघ में चुनाव लड़ाकर महासचिव बनवाने की सलाह दी। आमतौर पर सिसायी चालों से नावाकिफ समझे जाने वाले मनमोहन सिंह ने इन नेताओं को इस कदर पटखनी दी कि वे आज तक अपनी पीठ सहला रहे होंगे। जब उम्मीदवारी की चर्चा चल रही थी उसी बीच शशि थरुर ने इस पद पर नामांकन कर कांग्रेस में प्रधानमंत्री बनने के सपने देख रहे लोगों को यह संदेश देने में कामयाबी हासिल कर ली कि मनमोहन राजनीति में खिलाडी भले ही ना हों पर अनाड़ी नहीं है। थरुर की चुनाव की वजह से संयुक्त राष्ट्र में महासचिव पद पर भारत के किसी दूसरे आदमी के चुनाव लडने के रास्ते बंद हो गये।
साल 2006 में भारत सरकार ने शशि थरुर को संयुक्त राष्ट्र परिषद के महासचिव के तौर पर अपना आधिकारिक उम्मीदवार बनाया। उनके विरोध में दक्षिण कोरिया के विदेश मंत्री बान की मून, लातविया के राष्ट्रपति वाइरा वाइक फ्रेइबर्गा, अफगानिस्तान के काबुल विश्वविद्यालय के चांसलर अशरफ घनी, थाइलैंड के उपप्रधानमंत्री सुराकिआर्त सथिराथाई, जार्डन के प्रिंस जैद बिन रआद और श्रीलंका से प्रत्याशी के तौर पर पूर्व सहायक महासचिव संयुक्त राष्ट्र महासंघ थे। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के सभी स्ट्रॉ पोल में बान की मून के एकदम करीब ही रहे और बीबीसी न्यूज बेबसाइट के आन लाइन पोल में तो शशि थरुर ने बान की मून को हरा भी दिया। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में शशि थरुर को सिर्फ दो वोटों से हार का सामना करना पडा। बावजूद इसके शशि थरुर ही सिर्फ एक ऐसे प्रत्याशी थे, जिन्हें संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में बहुमत प्राप्त था। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पांच वीटो सदस्यों में सिर्फ अमरीका ने शशि थरुर का विरोध किया था और चीन ने वोटिंग में हिस्सा नहीं लिया था। इस स्ट्रा पोल के चैथे संकलन के बाद थरुर ने अपनी प्रत्याशिता को वापस ले लिया। बान कू मून ने थरुर को कार्यकाल खत्म होने के बाद भी उपमहासचिव के पद पर काम करने की दावत दी पर 50 वर्षीय शशि थरुर ने इसे नकार कर 9 फरवरी, 2007 को इस्तीफा दे दिया और 1 अप्रैल, 2007 को संयुक्त राष्ट्र को अलविदा कह दिया।

वर्ष 2006 में चुनाव हारने के एक साल साल के अंदर ही शशि थरुर का अचानक अंतरराष्ट्रीय स्तर के तमाम पदों से मोहभंग होना और फिर कांग्रेस के मार्फत सियासत की डगर पकड़ना महज संयोग नहीं कहा जा सकता। मनमोहन सिंह के पहले कार्यकाल के बाद हुए लोकसभा चुनाव के दौरान ,यानी 2009 में, अपना अंतरराष्ट्रीय चाक-चिक्य और ओहदा छोड़कर शशि थरुर ने कांग्रेस के टिकट पर केरल के थिरुअनंतपुरम से अपना पहला चुनाव लड़ा। कई संस्थानों के निदेशक मंडल कई देशों के अकादमिक और आर्थिक संस्थानों के निदेशक पद से होते हुए सियासी मैदान में पहुंचे थरुर के खिलाफ इलीट, हवाई और बाहरी का मुद्दा बना पर थरुर ने एक लाख से सिर्फ दो वोट कम के अंतर से ये सीट जीतकर साबित कर दिया को वो राजनीति में नये भले हो सकते हैं, अनाड़ी नहीं हैं। ऐसे में मनमोहन के विश्वासपात्र होने और राजनयिक अनुभव को देखते हुए शशि थरुर को विदेश राज्यमंत्री के तौर पर मंत्रिमंडल में शपथ दिलाई गयी। उन्हें अफ्रीका, लैटिन अमरीका और खाडी देशों का प्रभार दिया गया। मंत्री के तौर पर थरुर ने ठंडे पड़ चुके अफ्रीकी देशों के साथ राजनयिक रिश्तों को फिर से ट्रैक पर लाने की कोशिश की। थरुर ने अफ्रीकी देशोँ और उनके राष्ट्राध्यक्षों से संबंध बनाने में अपनी फ्रेंच भाषा पर पकड़ का इस्तेमाल किया. साथ ही वर्ष 2010 में हैती के भूकंप के बाद वो पहले ऐसे मंत्री थे, जो हैती के राष्ट्रपति से मिले और राहत के काम में हाथ बंटाने का भरोसा दिलाया। हिंद महासागर में भी थरुर ने अपनी नयी नीति शुरु की और कई विश्व फोरम में देश का नेतृत्व किया।

दरअसल, शशि थरुर ने अपनी कैरियर की शुरुआत में राजनयिक शास्त्र में डी.लिट. की उपाधि तो हासिल कर ली थी पर इतना जरुर है कि शशि थरुर ने कभी राजनेता बनने की नहीं सोची थी। बल्कि वो अकादमिक और साहित्य के क्षेत्र को अपना समझते थे। साथ ही राजनय बनने की अपनी तमन्ना को पूरा करने के लिये शशि थरुर ने संयुक्त राष्ट्र संघ में बतौर स्टाफ मेंम्बर यूएन हाई कमिश्नर फार रिफ्यूजी जिनेवा में अपना कैरियर शुरु किया। 1981 से 1984 के बीच वो इसी आफिस के सिंगापुर में प्रमुख रहे। प्रमुख रहते हुए उन्होंने वियतनाम युद्ध के समय हुई समस्या का अच्छी तरह से सामना किया। बोट पीपल क्राइसिस नाम की इस मशहूर समस्या में वियतनाम युद्ध के बाद वहां के शरणार्थी नाव से दुनिया के दूसरे देशो में भाग गये थे। वर्ष 1975 से वर्ष 1995 के बीच इस तरह के वियतनामी शरणार्थियों की संख्या 8 लाख थी और उनकी पहली पसंद के तौर पर दक्षिण पूर्वी एशिया के देश - सिंगापुर, मलेशिया, इंडोनेशिया और हांगकांग थे। इस सफलता के बाद तो संयुक्त राष्ट्र संघ में उनका कैरियर हिलोरें मारने लगा. वर्ष 1989 में उन्हें संयुक्त राष्ट्र में उप महासचिव (विशेष राजनैतिक विषय) के विशेष सहायक के तौर पर नियुक्ति मिली। बाद में इसी यूनिट को न्यूयार्क में शांतिसेना आपरेशन विंग में तब्दील कर दिया गया। वर्ष 1996 तक शशि थरुर ने युगोस्लाविया के गृहयुद्ध के दौरान शांति सेना के आपरेशनों का नेतृत्व किया। इसमें काफी समय उन्हें संकटग्रस्त युगोस्लाविया के युद्ध क्षेत्र में भी बिताना पडा।

शशि थरुर ने इस काम को भी बखूबी अंजाम दिया और इसके नतीजतन उन्हें वर्ष 1996 में डायरेक्टर संचार एवं विशेष प्रोजेक्ट्स बना दिया गया। साथ ही उन्हें महासचिव संयुक्त राष्ट्र संघ कोफी अन्नान का कार्यकारी सहायक भी नियुक्त कर दिया गया। जनवरी, 2001 में शशि थरुर को सहायक महासचिव संयुक्त राष्ट्र के तौर पर नियुक्ति मिली और उन्हें संचार एवं जनसंपर्क विभाग का प्रमुख बनाया गया। साथ ही उन्हें जनसूचना विभाग का प्रमुख भी बना दिया गया। इस दायित्व के बाद थरुर को संयुक्त राष्ट्र संघ की संचार रणनीति, संगठन की ब्रांडिग और छवि को लेकर रणनीति बनाने का दायित्व दिया गया। साल 2003 में संयुक्त राष्ट्र महासचिव ने उन्हें बहुराष्ट्रवाद और बहुभाषावाद पर काम करने का अतिरिक्त काम भी दे दिया। थरुर ने इस पद पर रहते हुए कई ऐसे काम किये जो तब तक संयुक्त राष्ट्र महासंघ में कभी नहीं किये गये। मसलन, यहूदी विरोध और उसके मायनो पर उन्होंने कार्यशाला करवाई। वहीं उन्होंने 9 सितंबर की वल्र्ड ट्रेड टावर पर आतंकी हमले की घटना के परिपेक्ष्य में इस्लाम और भयवाद को लेकर पहली कार्यशाला करवाई। इस पद पर थरुर का एक काम अब तक चल रहा है, थरुर ने अपने कार्यकाल में दस ऐसी खबरों और कहानियों की लिस्ट जारी की जिन पर विश्व का ध्यान नहीं गया और विश्व समाज के लिहाज से वो बेहद जरुरी थी। ज्ीम जमद नदकमत तमचवतजमक ेजवतपमे ूवतसक वनहीज जव ादवूद ंइवनज दंद(द टेन अंडर रिपोर्टेड स्टोरीज वर्ल्ड ऑट टु नो अबाउट नन) की इस सिरीज को काफी सराहा गया।
नरेन्द्र मोदी के पास अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर राजनैतिक समझ रखने और सुरक्षा परिषद में भारत को जगह दिलाने की चिर इच्छा को पूरा कराने की सलाहियत रखने वाला फिलहाल कोई सूरमा नहीं दिख रहा है। यही नहीं, केरल में भी भाजपा के पास कोई चेहरा नहीं है। जिस तरह गुजरात समाजवादियों के लिये बंजर माना जाता है, उसी तरह केरल भी भारतीय जनसंघ से लेकर भारतीय जनता पार्टी तक के लिये बंजर ही है। यही वजह है कि केरल के जनसंघ और भाजपा का परचम लहराने वाले ओ राजागोपाल को मध्यप्रदेश राज्यसभा के मार्फत संसद में भेजकर अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में रेलराज्य मंत्री बनाया गया था। इन्ही ओ राजागोपाल को तकरीबन 15 हजार वोटों से हराकर शशि थरुर कांग्रेस के उम्मीदवार के तौर पर विजयी हुए है। केरल को राजनीति की प्रयोग शाला कहा जाता है। यही वजह है कि शत प्रतिशत साक्षर केरल में हर छोटी बड़ी पार्टी को थोड़ी या ज्यादा जगह मिल जाती है। सिर्फ भाजपा को यह मौका नहीं मिला है। वह भी तब जब इन्डियन यूनियन मुस्लिम लीग के नाम से दल वहां सक्रिय है। आर.एस.एस. की सक्रियता कई राज्यों से वहां बहुत ज्यादा है। केरल की राजनीति वाम मोर्चा नीत एल.डी.एफ. और कांग्रेस नीत यू.डी.एफ. में बंटी हुई है। 140 सीटों वाली विधानसभा में यूडीएफ को 72 और एलडीएफ को 68 सीटें हासिल हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा ने बहुत अच्छा प्रदर्शन करते हुए अपनी झोली में 10.33 फीसदी वोट झटकने में कामयाबी हासिल की साथ ही उसके सहयोगी केरल काग्रेस एन और आरएसपी बी के साथ एक गठबंधन बनाने में भी भाजपा कामयाब हुई। हांलांकि इस गठबंधन को भी आधा फीसदी वोट हासिल हुए। जबकि भाजपा को विधानसभा चुनाव में 6.03 फीसदी वोट मिले थे।

शशि थरुर स्वच्छ भारत अभियान के मार्फत जिस तरह नरेंद्र मोदी के एजेंडे को आगे बढा रहे हैं और कांग्रेस खार खाती हुए उनके खिलाफ कार्रवाई पर आमादा है। मोदी और थरुर की जरुरतें इस बात को पुख्ता कर रही हैं कि केरल में भाजपा कोई नई इबारत पेश करने की तैयारी में है। इसकी वजह यह भी है कि थरूर कांग्रेस के नहीं, मनमोहन सिंह के लोगो में शुमार थे। कांग्रेस में मनमोहन सिंह का युग खत्म नहीं हुआ बल्कि कांग्रेस की वर्तमान फजीहत के लिये कांग्रेसी मनमोहन सिंह को ही जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। थरुर को इस बात का इल्म है कि मनमोहन का ठप्पा उन्हें बहुत दिन तक कांग्रेस का साथ नहीं दिला सकेगा। वहीं इस समय भाजपा के सुप्रीम कमांडर नरेंद्र मोदी का उनके प्रति स्नेह तो जग जाहिर है। दोनो ही ट्विटिजेन हंै। दोनो ही टेक्नोसैवी हंै। ऐसे में मोदी की टीम में उनकी जगह ज्यादा स्वाभाविक होगी। इस लिहाज से भी कि वो केरल का चेहरा बन सकते हैं, वहीं जरुरत पडने पर अफ्रीका हिंद महासागर और दूसरे मुद्दों पर मोदी की दावेदारी को जोरदार ढंग से विश्व फोरम पर पेश भी कर सकते हैं।

यही नहीं, थरुर के पास राजनीति के लिये अभी 20 साल शेष हैं। नरेंद्र मोदी ने अपने आस पास जो आभा मंडल तैयार किया है, उसके मार्फत वह यह संकेत देने में कहीं नहीं चूकते हैं कि वह पांच साल के लिये नहीं, कम से कम दस साल के लिये आये हैं। ऐसे में जरुरतमंद थरुर अगर मोदी का दामन पकड़ ही लेते हैं, तो उन्हें इस बात की आश्वस्ति करने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिये कि भाजपा अगर आ.े राजागोपाल को राज्यसभा भेज सकती है, तो तिरुअनंतपुरम सीट खो देने के बाद वह सदन के मोहताज नहीं रहेंगे।

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