बंजर जमीन पर भी कमल खिलाने की कवायद

Update:2014-11-10 12:26 IST
भारतीय जनसंघ को भले ही या ओहदा ना हासिल हो पाया हो पर अपने गठन के बाद हुए पहले चुनाव में ही भारतीय जनता पार्टी को इंदिरा गांधी की हत्या से उपजी सहानुभूति की लहर के बावजूद तकनीकी तौर पर राष्ट्रीय दल का ओहदा हासिल हो गया था। हांलांकि उसके केवल दो सांसद जीतने में कामयाब हुए थे, लेकिन अपनी यह यात्रा भाजपा ने बरकरार रखते हुए जिस दिशा में कदम बढाया उसमें उसे पहली बार वर्ष 1996 में अटल बिहारी वाजपेयी की अगुवाई में सरकार बनाने का मौका मिल गया। बावजूद इसके उसे राष्ट्रीय फलक पर वह विस्तार नहीं मिला, जिसकी उसे दरकार थी। भाजपा हिंदुत्व के मुद्दे के उफान के समय भी हिंदी पट्टी की पार्टी के विशेषण से मुक्त नहीं हो पायी। हांलांकि पार्टी के विचार पुरुष और प्रतीक पुरुष दोनों कश्मीर और पश्चिम बंगाल से आते हैं। यही नहीं, पार्टी का रीढ कहा जाने वाला संगठन महाराष्ट्र से है। पर इन राज्यों में ही भाजपा कहीं बैसाखी पर खड़ी रही और कहीं वह अपने वजूद की लड़ाई लड़ रही है।

इन सारी हकीकतों से दो-चार होते हुए ही जब भाजपा ने इस साल पहली नवंबर को अपने सदस्यता अभियान का आगाज किया तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को यह कहना पड़ा कि पार्टी को सर्वस्पर्शी और समावेशी बनाया जाना चाहिए। सर्वस्पर्शी और समावेशी बनाने के मद्देनजर ही इस बार सदस्यता अभियान को पूरी तरह नए रंग ढंग और कलेवर में पेश किया गया है। अभियान मोदी के पिछले लोकसभा चुनाव के प्रचार की तरह हाईटेक कर दिया गया है। इसके लिए टोल फ्री नंबर को आम करने के लिए जो विज्ञापन जारी किए गए उसकी इबारत और प्रस्तुति भाजपा में एक बडे बदलाव का मौन नहीं मुखर संदेश देती है। ‘साथ आएं, देश बनाएं’ नारे के साथ जारी विज्ञापन में सिर्फ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ही नजर आ रहे हैं। विज्ञापन यह चुगली करता है कि पार्टी में ‘अटल-आडवाणी-मुरलीमनोहर, भारत मां की तीन धरोहर’ गए दिनों की बात हो गयी है। इससे पहले भाजपा की तरफ से जो भी विज्ञापन आम और खास हुए उसमें विचार पुरुष, प्रतीक पुरुष, प्रथम पुरुष, द्वितीय पुरुष और अन्य पुरुष सरीखे छोटे-बड़े और मझोले नेताओं के चित्र दिखाई देते रहे हैं। जिसको जिस इलाके में जगह और तरजीह देनी होती थी, उसका चित्र देश,काल,परिस्थितियों के हिसाब से छोटा और बडा कर दिया जाता था। पार्टी के केवल तकनीकी तौर पर ही राष्ट्रीय रहने की कुछ यह भी वजह कही जा सकती है। इन सरीखे तमाम कारणों के चलते भाजपा की कश्मीर से कन्याकुमारी, गुजरात से असोम तक के विस्तार की उसकी अभिलाषा अधूरी ही रही।

प्रधानमंत्री बनने की वजह कहें या भाजपा की विचारधारा पर सवारी का नतीजा कहा जाय कि अटल बिहारी वाजपेयी की स्वीकार्यता का विस्तार सबसे अधिक रहा। नरेंद्र मोदी लीक पर चलने के आदी नहीं हैं। नतीजतन, उन्हें इस संकुचित विस्तार की सीमाएं तोड़नी थी। ढहानी थी। इसीलिए उन्होंने पहले खुद को पार्टी का चेहरा और बाद में प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कराया। अब वह भाजपा के सदस्यता अभियान का संदेश देते हुए ‘साथ आएं, देश बनाएं’ कहते दिख रहे हैं। तकरीबन तीन गुना सदस्य बनाने के लक्ष्य की चुनौती अपने ‘हनुमान’ कहे जाने वाले अमित शाह को थमाने में कोई गुरेज नहीं करते हैं, तो यह स्पष्ट हो जाता है, मोदी एक ऐसी इबारत लिखने की तैयारी में हैं, जो भाजपा को सिर्फ तकनीकी ही नहीं, विस्तार के लिहाज से वास्तविक राष्ट्रीय पार्टी बना सके। यही वजह है कि वह यह दावा करने में कोई गुरेज नहीं करते कि नए सदस्यता अभियान के बाद भारत के 6 लाख गांवों में एक भी ऐसा गांव नहीं होगा, जहां भाजपा का कम से कम एक सदस्य ना हो। चाहे लेह लद्दाख का गांव हो या फिर अंडमान के किसी टापू पर बसा गांव हो अथवा कच्छ के सुदूर रेगिस्तान में स्थित गांव। पार्टी के गुलदस्ते में सभी तरह के फूल दिखें ताकि देश के सभी समाज और वर्ग के लोग पार्टी से सीधे जुड़े हुए दिखें। कार्यकर्ताओं को यह कार्य सौंपते हुए अपरोक्ष रुप से मोदी सवा सौ करोड भारतीयों के उस जुमले को अमली जामा पहनाने की शुरुआत कर रहे हैं, जिसमें अल्पसंख्यक समुदायों के लोग भी आते हैं। वह कार्यकर्ताओं को यह कठिन कार्य सौंप रहे हैं कि अल्पसंख्यकों को यह समझाने में कामयाबी हासिल करें कि अब भाजपा का ‘चाल, चरित्र और चेहरा’ बदल गया है। यह परिवर्तन महज ‘कास्मेटिक’ नहीं बल्कि समावेशी है।

मोदी इसीलिए भाजपा को राष्ट्रवाद के एक नए कलेवर में पेश कर रहे हंै। लोगों को आमंत्रण दे रहे है कि वे राष्ट्रवाद की विचारधारा की जगह राष्ट्र निर्माण में सहभागी बने। भाजपा से जुडें । मोदी राष्ट्रवाद और विचारधारा से लेकर विकास तक की परिधि में पड़ने वाले सभी पड़ावांे से लगाव रहने वाले लोगों को हर हाल में बांध लेना चाहते है। ऐसा कर सदस्यता अभियान के बूंद-बूंद से भाजपा के समुद्र को अखिल भारतीय शक्ल देना चाहते हैं। उनका सपना बंजर रहे इलाको में भी कमल खिलाने का है। हांलांकि वे जानते हैं कि इसके लिए उनकी साख और उपस्थिति अमित शाह के लिए बेहद अहम है। तभी तो वे परंपरिक खांचे वाले प्रचार के तौर तरीकों को पीछे छोडते हुए नए युग की भाजपा के दो नायकों को विज्ञापन में एक साथ खड़ा दिखाते हैं । जो यह बताता है कि अब भाजपा में विचारधारा के प्रति सम्मान और नेता के प्रति निष्ठा का समय आ गया है। पहले विचारधारा के प्रति निष्ठा और नेता के प्रति सम्मान का दौर था। उस दौर में भाजपा वह सब अर्जित नहीं कर पायी जो उसे चाहिए था। जिसकी वह हकदार थी। इस बदलाव की बानगी विज्ञापन में भी साफ तौर पर दिखती है। इसी विज्ञापन में ही बहुत ही चतुराई से ये परिधानों के मार्फत भी सशक्त शब्द के रंग और कलेवर अपने परिधान के गेरुए रंग से जोड़ते हुए पार्टी के हार्डलाइन को भी तवज्जो देना नहीं भूलते। जबकि राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के हरे रंग का परिधान प्रचार की इबारत में लिखे भाजपा और भारत शब्द के रंगों से मेल और साम्य बनाता दिखता है। विज्ञापन यह संदेश देता है कि दीनदयाल उपाध्याय 1953 में जिस स्थान में थे, वहां अब अमित शाह आ गए हैं।

मोदी चुनौतियों को अवसर बनाने में माहिर हैं। वह मौके को हाथ से जाने नहीं देते। तभी तो जन आंदोलनों के उभार से उभकर राजनीति में ना आने के जो तंज कसे जा रहे थे, उसका भी उन्होने हुनरमंद ढंग से जवाब दिया। आजादी के बाद से अब तक के राजनैतिक परिवर्तनों पर तस्करा करते हुए मोदी ने साफ किया कि शुरुआती दौर में राजनीति रचनात्मक थी, जो लोग रचनात्मक काम करते थे वही राजनीति करते थे। बाद में जन आंदोलनों का समय आया लेकिन अब जन आंदोलनो का दौर समाप्त हो गया है। अब लोग राजनैतिक दलों के कार्यकर्ताओं से आम आदमी के दैनिक जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने की उम्मीद करने लगे हैं। राजनैतिक कार्यकर्ता को भी समस्याओं का अध्ययन और समाधान करना होगा। ऐसा कार्य करने वाले कार्यकर्ता ही प्रासंगिक रहेंगे। मोदी को पता है कि अपने आकार को तीन गुना बनाने के लिए उन्हें उस प्रबुद्ध और युवा वर्ग को साधना होगा जो राजनीति को गंदा समझते-कहते हिकारत भरी निगाह से देखते हैं। तभी तो मोदी ने देश के सबसे बडे और सर्वमान्य नेता महात्मा गांधी जी का उदाहरण दिया कि अगर राजनीति गंदी होती तो गांधी उसमें ना आते। ऐसा कर मोदी ने ना सिर्फ गांधी को एक बार और अपना दिखाया बल्कि उनके जरिए इस वर्ग को साधने के लिए तुरुप का एक और पत्ता चला है।

कार्यकर्ताओं और अपने छोटे-बड़े सभी नेताओं को मोदी जिस संदेश पर अमल करने की नसीहत दे रहे हैं, वह सचमुच बड़े लक्ष्यों को हासिल करने में बड़ा हथियार हो सकता है। क्योंकि मोदी ने जो भाजपा का कायाकल्प किया ह,ै उसमें सवर्णों से हाथ से नेतृत्व फिसल गया है। वह जानते हैं कि ऐसा करना वोट की राजनीति की मद्देनजर जरुरी है, तभी तो जिस मोदी को तुष्टीकरण के खिलाफ नायक का ओहदा मिला, उसे कानपुर की रैली में आकर अपनी जाति का ऐलान करना पड़ा। यही नहीं, सदस्यता अभियान के समय उसे समावेशी बनाने की मुनादी पीटनी पड़ रही है, क्योंकि वह इस हकीकत से वाकिफ हैं कि अभी तक भाजपा की सदस्यता हिंदू और वह भी नगरीय सवर्णों तक समटी हुइ थी।

नरेन्द्र मोदी कोई वार बिना मौके का नहीं करते। पार्टी की सदस्यता को समावेशी बनाने का उनका ऐलान अनायास नहीं है। उन्होने समावेशी के ऐलान के साथ पार्टी के दरवाजे और रौशनदान जिनके लिए खोले हैं, अगर उन लोगों ने इसे अपने प्रयोग के लिए मुफीद माना या फिर रौशन दान से झांकने की भी स्थिति बनी तो मोदी जिस कांग्रेस मुक्त भारत के सपने देख रहे हैं, वह हकीकत में तब्दील हो सकता है। क्योंकि कांग्रेस अपने इसी वोट बैंक पर इस चुनाव से पहले तक इतरा रही थी। समावेशी सदस्यता के माध्यम से मोदी ने कांग्रेस मुक्त भारत के संदर्भ में तुरुप का पत्ता चला है। यह राजनैतिक ब्रह्मास्त्र है, तभी तो दलित स्वाभिमान की प्रतीक मायावती को भी बहुजन से सर्वजन की यात्रा करनी पड़ी। सांप्रदायिकता के खिलाफ जद्दोजेहद करने वाले और पिछडों के मसीहा सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव को भी स्पष्ट बहुमत की सरकार के लिय वर्ष 2012 के चुनाव में सर्वसमाज के वोटों की दरकार पड़ी।

समावेशी सदस्यता पर अगर दोनो तरफ से अमल हुआ तो इससे ना केवल आंचलिक राजनैतिक दलों का अस्तित्व खतरे में पडेगा बल्कि जातीय राजनीति के मठ और गढ भी उखड़ जायेंगे। नरेंद्र मोदी जानते हैं कि तकरीबन 56-57 साल तक एक छत्र करने वाली कांग्रेस को इस लोकसभा में प्रतिपक्ष की स्थिति भी हासिल नहीं हो पाने का सच यही है कि भाजपा ने आंचलिक राजनीति के क्षत्रपों को जाति के मठ और गढ तोड़कर शिकस्त दे दी। तभी तो मुलायम सिंह यादव का राजनैतिक विस्तार लोकसभा में परिवार से आगे नहीं बढ़ सका जबकि मायावती इस उपहास की पात्र बनीं कि हाथी को अंडा मिला।
हांलांकि मोदी के इस आमंत्रण और आगाज में खतरे भी कम नहीं हैं। बावजूद इसके यह नहीं कहा जा सकता कि मोदी उससे वाकिफ नहीं होंगे। पर यह जरुर कहा जा सकता है कि मोदी के आमंत्रण का असर सकारात्मक होगा क्योंकि वे सिर्फ यह नहीं बता रहे हैं कि नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री हैं बल्कि यह संदेश देने में भी कामयाब हो रहे हैं कि उन्होने अगले दस साल के लिए कोई राजनैतिक ‘स्पेस’ नहीं छोड़ा है। इसी कालावधि के मद्देनजर ही उनकी निर्भरता अपने मंत्रियों सहयोगियों पर उतनी नहीं है, जितनी पहले के प्रधानमंत्रियों की होती थी। हांलांकि आत्मनिर्भरता मोदी की शैली ही है। मोदी का सरकारी योजनाओं में जनता की भागदारी कराना, जन सहभागिता के माध्यम से सरकार चलाने का संदेश देना और फिर संपर्क, संवाद के मोड को बनाए रखना यह बताता है कि वे ‘पीपुल कनेक्ट’ के फार्मूले पर चल रहे है। लोकतंत्र में असली ताकत जनता के हाथ होती है। ‘पीपुल कनेक्ट’ का मोदी मंत्र लोकतंत्र की इस ताकत की नब्ज पर वह हाथ है, जो लोगों को यह अहसास कराने में कामयाब हो सकता है कि मोदी उनके दुख और दर्द के साक्षी ही नही, उसे दूर करने में लगे और जुटे रहने वाले शख्स हैं। जिस देश में बीमार का कुशलक्षेम पूछ लेना ही संवेदनात्मक धरातल पर एक दूसरे से जुड़ जाने का आधार बन जाता हो, वहां अगर दुख दर्द दूर करने में लगे रहने का संदेश हो तो यह समझा जा सकता है कि भाजपा का आकार अगले साल मार्च तक 3.25 करोड़ से 10 करोड़ तक पहुंचाया भी जा सकता है। आखिर इसके साथ तकनीक की पहुंच और तेजी का साथ भी तो है।

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