कहते हैं कि विरासत सबकी होती है। सभी वारिसों को बराबर हक देती है। सभी वारिसों के लिए बराबर का महत्व रखती है। पर पहले डाॅ. भीमराव अंबेडकर फिर सरदार वल्लभभाई पटेल और अब पंडित जवाहर लाल नेहरु पर सियासतदां अपने-अपने दावे ठोंक रहे हैं। विरासत पर सियासत के इस दौर में भारत के पहले प्रधानमंत्री और देश के आर्किटेक्ट कहे जाने वाले पंडित जवाहरलाल नेहरू की 125वीं जयंती मनाने का अवसर हो या फिर लौह पुरुष कहे जाने वाले सरदार वल्लभ भाई पटेल की प्रतिमा और उनकी जयंती पर ‘रन फार यूनिटी’ का आयोजन यह बयां करने के लिए पर्याप्त है कि हमारे पूर्वजों को, पुरखों को राजनेताओं ने किस तरह कुनबों, खेमों और खांचों में बांट दिया है।
इन दोनों महापुरुषों को लेकर शुरु हुए विवाद को कांग्रेस और भाजपा की तरह स्यापा पीटने की जगह एक नयी शुरुआत किए जाने की जरुरत के तौर पर देखा जाना चाहिए। क्योंकि भले ही इस विवाद की शुरुआत का ठीकरा कांग्रेस के माथे फूटे पर आज जब देश में स्पष्ट बहुमत की एक ही दल की गैर कांग्रेसी सरकार पहली बार आयी है, तब जरुर पुरानी गलतियों को दूर किए जाने का वक्त दिखता है। अगर इस सरकार ने भी कांग्रेस सरकार के समय की गलतियों में सुधार नहीं किया तो हम अपने आने वाली पीढियों को एक ऐसे द्वंद और द्वैत में खड़ा करेंगे जिसके लिए आने वाली पीढियां हमें माफ नहीं करेगी। महापुरुषों को कुनबों में बांटने, खांचों में फिट करने, अपनी दलीय प्रतिबद्धताओं के साथ खडा करने की शुरुआत का श्रेय कांग्रेस पार्टी को ही जाता है, क्योंकि आजादी के समय यह एक राष्ट्रीय आंदोलन थी। इसी आंदोलन से जुड़कर हर बड़ा नेता उस समय कांग्रेस का हिस्सा बना। जिसमें सुभाष चंद्र बोस, राजगोपालाचारी, ड़ाॅ. राममनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण और आचार्य जे.बी. कृपलानी सरीखे तमाम ऐसे नाम थे, जिनके आगे किसी भी भारतवासी का सर श्रद्धा से झुक जाने को विवश हो उठता है। पर आजादी के बाद से लेकर नरेंद्र मोदी की सरकार बनने तक कांग्रेस ने इन सारे लोगों को हाशिए पर रखा। इनकी कोई सुध नहीं ली गयी। कांग्रेस के शासन काल में जितनी भी सरकारी योजनाएं शुरु हुईं अथवा संस्थान खोले गए उनमें सरदार वल्लभ भाई पटेल के नाम पर केवल एक, ड़ाॅ. भीमराव अंबेडकर के नाम पर केवल चार, राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के नाम पर भी चार योजनाएं और संस्थान संचालित हो पाए। पर पंडित जवाहर लाल नेहरु, श्रीमती इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के नाम पर देश भर में 650 संस्थान और योजनाएं संचालित हैं। इनमें से 19 स्टेडियम, 5 हवाई अड्डे व विमान पत्तन, 51 पुरस्कार, 15 फेलोशिप इतने ही राष्ट्रीय अभ्यारण्य और पार्क, 74 सड़क और भवन, 37 संस्थान और 28 खेल टूर्नामेंट तथा ट्राफियां सिर्फ पंडित जवाहर लाल नेहरू, श्रीमती इंदिरागांधी और राजीव गांधी के नाम पर हैं। केंद्र सरकार ने 12 और राज्य सरकारों ने 52 योजनाएं व संस्थान इन तीन नेताओं के नाम कर रखे हैं। इसका बचाव करने वालों के लिए यह तर्क बेमानी नहीं हो सकता कि जवाहर लाल नेहरु नें 17 वर्ष, इंदिरा गांधी ने 16 वर्ष और राजीव गांधी ने 5 वर्ष प्रधानमंत्री की जिम्मेदारी संभाली है। यानी कुल 38 साल एक परिवार के हाथ देश की सत्ता रही है। दस साल जब डाॅ. मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे, तब भी सत्ता की ड़ोर इसी परिवार की श्रीमती सोनिया गांधी के हाथ रही। पर यह तर्क गले उतरने वाला इसलिए नहीं है क्योंकि पंडित जवाहरलाल नेहरु ने देश की बहुलता की सुरक्षा की तो सरदार पटेल ने देश को मौजूदा स्वरूप दिया साथ ही उसकी अखंडता को अक्षुण्य बनाया। तो क्या इस तरह का समान योगदान करने वाले दो नेताओं को लेकर नजरिए में इतना बड़ा अंतर होना चाहिए!
यह केंद्रीकरण इस बात की चुगली करता है कि कांग्रेस पार्टी और उसके नेताओं का हमारे देश के महापुरुषो, शहीदों और स्वतंत्रता सेनानियों को देखने का नजरिया क्या है। हांलांकि कांग्रेस के कुछ नेताओं के तर्क को स्वीकार किया जाय तो वे लोग श्रीमती इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के नाम से खोले गए संस्थानों और योजनाओं को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के उत्तराधिकार के रुप में पेश करते हैं। पर यह अर्धसत्य भी नहीं है ! महापुरुषों के कद और उनको दिए जाने वाले सम्मान को लेकर विभेद करने की रीति और नीति शुरु करने वाली कांग्रेस ने ही पंडित जवाहर लाल नेहरू की 125 वीं जयंती को लेकर विवाद की शुरुआत की। यह बात कांग्रेसपरस्त लोगों को नागवार लग सकती है पर हकीकत यह है कि कांग्रेस के नेता आनंद शर्मा ने प्रेस कांफ्रेंस में इस बात का ऐलान किया कि पंडित जवाहर नेहरु की 125 वीं जयंती के जलसे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को नहीं बुलाया गया है। प्रधानमंत्री इस जलसे की तारीख को देश से बाहर थे, ऐसे में कांग्रेस चाहती तो नरेंद्र मोदी पर देश के आर्किटेक्ट कहे जाने वाले नेता की जयंती में शरीक ना होने की तोहमत मढ़ सकती थी।वह यह बता और जता सकती थी कि नरेंद्र मोदी का इंदिरा गांधी के शहादत दिवस पर सरदार वल्लभ भाई पटेल के जन्मदिवस का भव्य आयोजन करने के पीछे सीधा मतलब पटेल के बहाने एक बड़ी लाइन खींचना था। पंडित जवाहर लाल नेहरु के जयंती के आयोजन पर वह नहीं शरीक होते तो कांग्रेसियों के इस तर्क और तोहमत को आधार भी मिलता। पर कांग्रेस ने ऐसा कुछ नहीं किया। वह पंडित नेहरु को नरेंद्र मोदी के खिलाफ हथियार बनाकर मैदान में उतर आयी।
यह थोड़ी कड़वी बात लग सकती है पर जिस तरह नेहरु जयंती के ठीक एक दिन पहले आयोजित कार्यक्रम में कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने तंज कसा कि गुस्से वाले लोग देश चला रहे हैं। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने बिना नाम लिए निशाना साधा- ‘नेहरु की विरासत को नष्ट किया जा रहा है।’ उससे तो यही बात पुष्ट होती है। यही नहीं, कांग्रेस की ओर से यह भी दलील दी गयी कि पंडित नेहरु की 125 वीं जयंती उन्हें नही बुलाया गया ह,ै जिन्हें नेहरु के आदर्शों और लोकतंत्र के प्रति आस्था है। शायद यह मुनादी पीटने वाले कांग्रेस के नेता इतिहास को झुठलाने पर आमादा हैं। वामपंथ कभी नेहरु समर्थक नहीं रहा। बावजूद इसके वामपंथी नेताओं का नाम अतिथि सूची में रहा। आजादी के आंदोलन के दौरान कांग्रेस में रहते हुए भी लालू प्रसाद यादव, नितीश कुमार और शरद यादव के राजनैतिक गुरु जयप्रकाश नारायण नेहरु विरोधी रहे। कमोवेश कुछ ऐसी ही स्थिति इन दिनों समाजवाद का परचम लहरा रहे मुलायम सिंह की पार्टी के प्रतीक पुरुष डाॅ. राम मनोहर लोहिया की भी रही। बावजूद इन सबको शिरकत का न्यौता दिया गया।
कांग्रेस के इस ‘स्टैंड’ और इन तर्कों से नेहरु का अपमान होता है। नेहरु को दल विशेष तक सीमित रखने का प्रयास अलोचना की जद में आता है। क्योंकि नेहरु का कद का अंदाजा सिर्फ उनके जीवन में ही मिल जाता है, जब उन्होंने भाजपा के नेता और उन दिनों विपक्ष की एक छोटी सी शख्सियत रहे अटल बिहारी वाजपेयी के भाषण को सुनकर कहा था- ’मैं भविष्य के प्रधानमंत्री को सुन रहा हूं !’ क्या कांग्रेस के नेताआंे को किसी काम के लिए नरेंद्र मोदी की तारीफ नहीं करनी चाहिए। कम से कम स्वच्छ भारत अभियान के लिए नरेंद्र मोदी के मंसूबे तो दलीय प्रतिबद्धता के मोहताज नहीं ही हंै। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, सरदार वल्लभ भाई पटेल, पंडित जवाहर लाल नेहरू और डाॅ. भीमराव अंबेडकर सरीखे नेताओं को शिद्दत से याद करने की नरेंद्र मोदी की कोशिशों के लिए उनकी पीठ नहीं थपथपायी जानी चाहिए ! वह भी तब जब यह सभी नेता भारतीय जनता पार्टी की मेरुदंड कहे जाने वाले राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के एजेंडे के बाहर के हैं। सरदार पटेल ने तो गृहमंत्री रहते हुए आर.एस.एस. को प्रतिबंधित तक कर दिया था।
पंडित नेहरू की पहचान सिर्फ एक प्रधानमंत्री के पद तक सीमित नहीं है। उन पर कांग्रेस सिर्फ अपने नेता होने का ठप्पा लगाती है, तो यह उनके साथ नाइंसाफी होगी। उनके कद को छोटा करने की कोशिश से ज्यादा इसके कुछ नहीं कहा जा सकता। नेहरू के व्यक्तित्व के आयाम कांग्रेस का नेता होने से कहीं ज्यादा है। कई बार तो उनके व्यक्तित्व के दूसरे महत्वपूर्ण पहलू राजनेता नेहरु को भी छोटा कर देते है। कोई भी अगर उनकी किताब ‘भारत एक खोज’ पढ़े, तो उनका मुरीद हुए बिना नहीं रह सकता है। इतिहास को कहानी में लिखकर पंडित नेहरू ने लेखन में एक ऐसे युग का सूत्रपात किया था, जिसके मील के पत्थर अभी तक वे ही हैं। शीत युद्ध के धड़ों में बंटी दुनिया को निर्गुट का एक मंत्र देकर जहां नेहरु ने खुद को विश्व पटल पर एक कालजयी राजनयिक के तौर पर स्थापित किया, वहीं बच्चों के दिल में उतरकर चाचा नेहरु का खिताब हासिल कर लिया। इन सारे प्रकरणों विशेषणों में नेहरु किसी दल के नहीं देश के नेता, काल के युगपुरुष थे और उनकी इन हैसियतों में कांग्रेस पार्टी का कोई योगदान नहीं था।
नोबल पुरस्कार देने वाली समिति वर्ष 2014 के पुरस्कार देने की तरह थोड़ी भी उदार रहती तो पंडित जवाहर लाल नेहरु कब के नोबल शांति पुरस्कार विजेता हो गए होते। अपने कालखंड में भी पंडित जवाहर लाल नेहरु के समकालीन नेताओं से कई मामलों पर मतभेद रहे । पर मनभेद नहीं था। लेकिन आज उन्हीं जवाहर लाल नेहरु को हथियार बनाकर मनभेद पैदा किया जा रहा है। जनाधार खोती कांग्रेस के लिए यह असुरक्षा बोध कहा जाएगा। ऐसा इसलिए क्योंकि कांग्रेस के मंच पर नेहरु की वापसी अब अपरिहार्य हो गयी है, वजह यह है कि सोनिया गांधी और राहुल गांधी कांग्रेस में जान फूंकने की स्थिति में नहीं है। कुछ यही वजह है कि लगातार प्रियंका गांधी को पार्टी में और मजबूत करने की मांग जोर पकड़ती जा रही है। नेहरु जयंती को एक दिन पहले मना लेना भी इस बात की चुगली करता है कि कांग्रेस सरकार के उस ऐलान से ड़री हुई थी जिसमें केंद्र सरकार ने व्यापक पैमाने पर पंडित नेहरू की 125 वीं जयंती मनाने की बात कही थी। नेहरु को याद कर निश्चित तौर से कांग्रेस के मन में शक्ति का संचार हुआ होगा पर इस आयोजन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ना बुलाकर कांग्रेस ने नेहरु के दर्शन, व्यवहार और आदर्श को वह श्रद्धांजलि नहीं दी जो अपेक्षित थी। क्या ऐसा संभव नहीं था कि जब नरेंद्र मोदी सरदार वल्लभ भाई पटेल के लिए ‘रन फार यूनिटी’ करा रहे थे, तो कांग्रेस के लोग भी दौडते। यह नहीं हुआ ? नरेंद्र मोदी इंदिरा गांधी की समाधि पर नहीं गए तो आमतौर पर हर बात पर उनकी तारीफ करने वाली जमात ने भी उन पर फितरे कसे। कम से कम इससे तो कांग्रेस को सबक लेना ही चाहिए था, कांग्रेस ने वही गलती की जो जामा मस्जिद के इमाम ने की थी।
स्वस्थ लोकतंत्र के लिए जरुरी है कि हम अपने दिवंगत महापुरुषों, स्वतंत्रता सेनानियों और शहीदों को सम्मान दें। दलीय प्रतिबद्धता की दीवारें तोड़कर उनके प्रति श्रद्धानवत हों। पर ऐसा नहीं हो पा रहा है, स्वार्थी राजनीति के चलते महापुरुषों को अपने अपने खांचे में बांटकर रखने और देखने की प्रवृति लगातार बढ रही है। हद तो यह हुई कि उत्तर प्रदेश में एक दौर में डाॅ. भीमराव अंबेडकर सिर्फ बहुजन यानी मायावती के होकर रह गए। सरदार पटेल की जयंती मनाते हुए हमने लंबे समय से सिर्फ कुर्मी बिरादरी को देखा। पतन की पराकाष्ठा ही कहेंगे कि राष्ट्रपति महात्मा गांधी की जयंती और पुण्यतिथि पर तैलीय समाज के लोग बैनर लगाकर आयोजन करते हुए उन पर अपना दावा ठोंकते नज़र आते हैं। हर छोटे-बडे दलों ने अपने नायक चुन लिए। पर मैने कभी भी किसी भी दल के किसी भी छोटे या बड़े कार्यकर्ता को अपने ही दल के प्रतीक पुरुष की किसी शहर मे लगी मूर्ति को उसकी पुण्यतिथि या जयंती पर साफ करते हुए नहीं देखा। यह काम नगर पालिकायें करती हैं। जब अपने-अपने नायक दलों ने बांट लिए हैं, तो सवाल यह भी है कि दिलों और देश के लिए नायक कहां बच पायेंगे।
इन दोनों महापुरुषों को लेकर शुरु हुए विवाद को कांग्रेस और भाजपा की तरह स्यापा पीटने की जगह एक नयी शुरुआत किए जाने की जरुरत के तौर पर देखा जाना चाहिए। क्योंकि भले ही इस विवाद की शुरुआत का ठीकरा कांग्रेस के माथे फूटे पर आज जब देश में स्पष्ट बहुमत की एक ही दल की गैर कांग्रेसी सरकार पहली बार आयी है, तब जरुर पुरानी गलतियों को दूर किए जाने का वक्त दिखता है। अगर इस सरकार ने भी कांग्रेस सरकार के समय की गलतियों में सुधार नहीं किया तो हम अपने आने वाली पीढियों को एक ऐसे द्वंद और द्वैत में खड़ा करेंगे जिसके लिए आने वाली पीढियां हमें माफ नहीं करेगी। महापुरुषों को कुनबों में बांटने, खांचों में फिट करने, अपनी दलीय प्रतिबद्धताओं के साथ खडा करने की शुरुआत का श्रेय कांग्रेस पार्टी को ही जाता है, क्योंकि आजादी के समय यह एक राष्ट्रीय आंदोलन थी। इसी आंदोलन से जुड़कर हर बड़ा नेता उस समय कांग्रेस का हिस्सा बना। जिसमें सुभाष चंद्र बोस, राजगोपालाचारी, ड़ाॅ. राममनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण और आचार्य जे.बी. कृपलानी सरीखे तमाम ऐसे नाम थे, जिनके आगे किसी भी भारतवासी का सर श्रद्धा से झुक जाने को विवश हो उठता है। पर आजादी के बाद से लेकर नरेंद्र मोदी की सरकार बनने तक कांग्रेस ने इन सारे लोगों को हाशिए पर रखा। इनकी कोई सुध नहीं ली गयी। कांग्रेस के शासन काल में जितनी भी सरकारी योजनाएं शुरु हुईं अथवा संस्थान खोले गए उनमें सरदार वल्लभ भाई पटेल के नाम पर केवल एक, ड़ाॅ. भीमराव अंबेडकर के नाम पर केवल चार, राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के नाम पर भी चार योजनाएं और संस्थान संचालित हो पाए। पर पंडित जवाहर लाल नेहरु, श्रीमती इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के नाम पर देश भर में 650 संस्थान और योजनाएं संचालित हैं। इनमें से 19 स्टेडियम, 5 हवाई अड्डे व विमान पत्तन, 51 पुरस्कार, 15 फेलोशिप इतने ही राष्ट्रीय अभ्यारण्य और पार्क, 74 सड़क और भवन, 37 संस्थान और 28 खेल टूर्नामेंट तथा ट्राफियां सिर्फ पंडित जवाहर लाल नेहरू, श्रीमती इंदिरागांधी और राजीव गांधी के नाम पर हैं। केंद्र सरकार ने 12 और राज्य सरकारों ने 52 योजनाएं व संस्थान इन तीन नेताओं के नाम कर रखे हैं। इसका बचाव करने वालों के लिए यह तर्क बेमानी नहीं हो सकता कि जवाहर लाल नेहरु नें 17 वर्ष, इंदिरा गांधी ने 16 वर्ष और राजीव गांधी ने 5 वर्ष प्रधानमंत्री की जिम्मेदारी संभाली है। यानी कुल 38 साल एक परिवार के हाथ देश की सत्ता रही है। दस साल जब डाॅ. मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे, तब भी सत्ता की ड़ोर इसी परिवार की श्रीमती सोनिया गांधी के हाथ रही। पर यह तर्क गले उतरने वाला इसलिए नहीं है क्योंकि पंडित जवाहरलाल नेहरु ने देश की बहुलता की सुरक्षा की तो सरदार पटेल ने देश को मौजूदा स्वरूप दिया साथ ही उसकी अखंडता को अक्षुण्य बनाया। तो क्या इस तरह का समान योगदान करने वाले दो नेताओं को लेकर नजरिए में इतना बड़ा अंतर होना चाहिए!
यह केंद्रीकरण इस बात की चुगली करता है कि कांग्रेस पार्टी और उसके नेताओं का हमारे देश के महापुरुषो, शहीदों और स्वतंत्रता सेनानियों को देखने का नजरिया क्या है। हांलांकि कांग्रेस के कुछ नेताओं के तर्क को स्वीकार किया जाय तो वे लोग श्रीमती इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के नाम से खोले गए संस्थानों और योजनाओं को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के उत्तराधिकार के रुप में पेश करते हैं। पर यह अर्धसत्य भी नहीं है ! महापुरुषों के कद और उनको दिए जाने वाले सम्मान को लेकर विभेद करने की रीति और नीति शुरु करने वाली कांग्रेस ने ही पंडित जवाहर लाल नेहरू की 125 वीं जयंती को लेकर विवाद की शुरुआत की। यह बात कांग्रेसपरस्त लोगों को नागवार लग सकती है पर हकीकत यह है कि कांग्रेस के नेता आनंद शर्मा ने प्रेस कांफ्रेंस में इस बात का ऐलान किया कि पंडित जवाहर नेहरु की 125 वीं जयंती के जलसे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को नहीं बुलाया गया है। प्रधानमंत्री इस जलसे की तारीख को देश से बाहर थे, ऐसे में कांग्रेस चाहती तो नरेंद्र मोदी पर देश के आर्किटेक्ट कहे जाने वाले नेता की जयंती में शरीक ना होने की तोहमत मढ़ सकती थी।वह यह बता और जता सकती थी कि नरेंद्र मोदी का इंदिरा गांधी के शहादत दिवस पर सरदार वल्लभ भाई पटेल के जन्मदिवस का भव्य आयोजन करने के पीछे सीधा मतलब पटेल के बहाने एक बड़ी लाइन खींचना था। पंडित जवाहर लाल नेहरु के जयंती के आयोजन पर वह नहीं शरीक होते तो कांग्रेसियों के इस तर्क और तोहमत को आधार भी मिलता। पर कांग्रेस ने ऐसा कुछ नहीं किया। वह पंडित नेहरु को नरेंद्र मोदी के खिलाफ हथियार बनाकर मैदान में उतर आयी।
यह थोड़ी कड़वी बात लग सकती है पर जिस तरह नेहरु जयंती के ठीक एक दिन पहले आयोजित कार्यक्रम में कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने तंज कसा कि गुस्से वाले लोग देश चला रहे हैं। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने बिना नाम लिए निशाना साधा- ‘नेहरु की विरासत को नष्ट किया जा रहा है।’ उससे तो यही बात पुष्ट होती है। यही नहीं, कांग्रेस की ओर से यह भी दलील दी गयी कि पंडित नेहरु की 125 वीं जयंती उन्हें नही बुलाया गया ह,ै जिन्हें नेहरु के आदर्शों और लोकतंत्र के प्रति आस्था है। शायद यह मुनादी पीटने वाले कांग्रेस के नेता इतिहास को झुठलाने पर आमादा हैं। वामपंथ कभी नेहरु समर्थक नहीं रहा। बावजूद इसके वामपंथी नेताओं का नाम अतिथि सूची में रहा। आजादी के आंदोलन के दौरान कांग्रेस में रहते हुए भी लालू प्रसाद यादव, नितीश कुमार और शरद यादव के राजनैतिक गुरु जयप्रकाश नारायण नेहरु विरोधी रहे। कमोवेश कुछ ऐसी ही स्थिति इन दिनों समाजवाद का परचम लहरा रहे मुलायम सिंह की पार्टी के प्रतीक पुरुष डाॅ. राम मनोहर लोहिया की भी रही। बावजूद इन सबको शिरकत का न्यौता दिया गया।
कांग्रेस के इस ‘स्टैंड’ और इन तर्कों से नेहरु का अपमान होता है। नेहरु को दल विशेष तक सीमित रखने का प्रयास अलोचना की जद में आता है। क्योंकि नेहरु का कद का अंदाजा सिर्फ उनके जीवन में ही मिल जाता है, जब उन्होंने भाजपा के नेता और उन दिनों विपक्ष की एक छोटी सी शख्सियत रहे अटल बिहारी वाजपेयी के भाषण को सुनकर कहा था- ’मैं भविष्य के प्रधानमंत्री को सुन रहा हूं !’ क्या कांग्रेस के नेताआंे को किसी काम के लिए नरेंद्र मोदी की तारीफ नहीं करनी चाहिए। कम से कम स्वच्छ भारत अभियान के लिए नरेंद्र मोदी के मंसूबे तो दलीय प्रतिबद्धता के मोहताज नहीं ही हंै। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, सरदार वल्लभ भाई पटेल, पंडित जवाहर लाल नेहरू और डाॅ. भीमराव अंबेडकर सरीखे नेताओं को शिद्दत से याद करने की नरेंद्र मोदी की कोशिशों के लिए उनकी पीठ नहीं थपथपायी जानी चाहिए ! वह भी तब जब यह सभी नेता भारतीय जनता पार्टी की मेरुदंड कहे जाने वाले राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के एजेंडे के बाहर के हैं। सरदार पटेल ने तो गृहमंत्री रहते हुए आर.एस.एस. को प्रतिबंधित तक कर दिया था।
पंडित नेहरू की पहचान सिर्फ एक प्रधानमंत्री के पद तक सीमित नहीं है। उन पर कांग्रेस सिर्फ अपने नेता होने का ठप्पा लगाती है, तो यह उनके साथ नाइंसाफी होगी। उनके कद को छोटा करने की कोशिश से ज्यादा इसके कुछ नहीं कहा जा सकता। नेहरू के व्यक्तित्व के आयाम कांग्रेस का नेता होने से कहीं ज्यादा है। कई बार तो उनके व्यक्तित्व के दूसरे महत्वपूर्ण पहलू राजनेता नेहरु को भी छोटा कर देते है। कोई भी अगर उनकी किताब ‘भारत एक खोज’ पढ़े, तो उनका मुरीद हुए बिना नहीं रह सकता है। इतिहास को कहानी में लिखकर पंडित नेहरू ने लेखन में एक ऐसे युग का सूत्रपात किया था, जिसके मील के पत्थर अभी तक वे ही हैं। शीत युद्ध के धड़ों में बंटी दुनिया को निर्गुट का एक मंत्र देकर जहां नेहरु ने खुद को विश्व पटल पर एक कालजयी राजनयिक के तौर पर स्थापित किया, वहीं बच्चों के दिल में उतरकर चाचा नेहरु का खिताब हासिल कर लिया। इन सारे प्रकरणों विशेषणों में नेहरु किसी दल के नहीं देश के नेता, काल के युगपुरुष थे और उनकी इन हैसियतों में कांग्रेस पार्टी का कोई योगदान नहीं था।
नोबल पुरस्कार देने वाली समिति वर्ष 2014 के पुरस्कार देने की तरह थोड़ी भी उदार रहती तो पंडित जवाहर लाल नेहरु कब के नोबल शांति पुरस्कार विजेता हो गए होते। अपने कालखंड में भी पंडित जवाहर लाल नेहरु के समकालीन नेताओं से कई मामलों पर मतभेद रहे । पर मनभेद नहीं था। लेकिन आज उन्हीं जवाहर लाल नेहरु को हथियार बनाकर मनभेद पैदा किया जा रहा है। जनाधार खोती कांग्रेस के लिए यह असुरक्षा बोध कहा जाएगा। ऐसा इसलिए क्योंकि कांग्रेस के मंच पर नेहरु की वापसी अब अपरिहार्य हो गयी है, वजह यह है कि सोनिया गांधी और राहुल गांधी कांग्रेस में जान फूंकने की स्थिति में नहीं है। कुछ यही वजह है कि लगातार प्रियंका गांधी को पार्टी में और मजबूत करने की मांग जोर पकड़ती जा रही है। नेहरु जयंती को एक दिन पहले मना लेना भी इस बात की चुगली करता है कि कांग्रेस सरकार के उस ऐलान से ड़री हुई थी जिसमें केंद्र सरकार ने व्यापक पैमाने पर पंडित नेहरू की 125 वीं जयंती मनाने की बात कही थी। नेहरु को याद कर निश्चित तौर से कांग्रेस के मन में शक्ति का संचार हुआ होगा पर इस आयोजन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ना बुलाकर कांग्रेस ने नेहरु के दर्शन, व्यवहार और आदर्श को वह श्रद्धांजलि नहीं दी जो अपेक्षित थी। क्या ऐसा संभव नहीं था कि जब नरेंद्र मोदी सरदार वल्लभ भाई पटेल के लिए ‘रन फार यूनिटी’ करा रहे थे, तो कांग्रेस के लोग भी दौडते। यह नहीं हुआ ? नरेंद्र मोदी इंदिरा गांधी की समाधि पर नहीं गए तो आमतौर पर हर बात पर उनकी तारीफ करने वाली जमात ने भी उन पर फितरे कसे। कम से कम इससे तो कांग्रेस को सबक लेना ही चाहिए था, कांग्रेस ने वही गलती की जो जामा मस्जिद के इमाम ने की थी।
स्वस्थ लोकतंत्र के लिए जरुरी है कि हम अपने दिवंगत महापुरुषों, स्वतंत्रता सेनानियों और शहीदों को सम्मान दें। दलीय प्रतिबद्धता की दीवारें तोड़कर उनके प्रति श्रद्धानवत हों। पर ऐसा नहीं हो पा रहा है, स्वार्थी राजनीति के चलते महापुरुषों को अपने अपने खांचे में बांटकर रखने और देखने की प्रवृति लगातार बढ रही है। हद तो यह हुई कि उत्तर प्रदेश में एक दौर में डाॅ. भीमराव अंबेडकर सिर्फ बहुजन यानी मायावती के होकर रह गए। सरदार पटेल की जयंती मनाते हुए हमने लंबे समय से सिर्फ कुर्मी बिरादरी को देखा। पतन की पराकाष्ठा ही कहेंगे कि राष्ट्रपति महात्मा गांधी की जयंती और पुण्यतिथि पर तैलीय समाज के लोग बैनर लगाकर आयोजन करते हुए उन पर अपना दावा ठोंकते नज़र आते हैं। हर छोटे-बडे दलों ने अपने नायक चुन लिए। पर मैने कभी भी किसी भी दल के किसी भी छोटे या बड़े कार्यकर्ता को अपने ही दल के प्रतीक पुरुष की किसी शहर मे लगी मूर्ति को उसकी पुण्यतिथि या जयंती पर साफ करते हुए नहीं देखा। यह काम नगर पालिकायें करती हैं। जब अपने-अपने नायक दलों ने बांट लिए हैं, तो सवाल यह भी है कि दिलों और देश के लिए नायक कहां बच पायेंगे।