संत कबीरदास ने कहा था- ‘जाति ना पूछो साधु की, पूछ लीजियो ग्यान।’ लेकिन उनकी यह उक्ति अब अपना अर्थ खो चुकी है। क्योंकि संत-महंत अब ना केवल श्रद्धालुओं की जाति पूछ रहे हैं, बल्कि अपनी जाति खुद ही बखान भी कर रहे है। और तो और अपनी ही जाति के ही लोगों को शिष्य परंपरा में जगह भी दे रहे है। यह एक आम चलन हो रहा है। कमोबेश कुछ ऐसी ही स्थिति उन भगवाधारी संतों की भी हो गयी है, जिन्होंने सियासत की ड़गर पकड़ ली है। उत्तर प्रदेश की लोकसभा सांसद साध्वी निरंजन ज्योति अपने एक विवादास्पद बयान से बीते दिनों सुर्खियों में क्या आयीं कि उनके बचाव में उतरी भगवा पार्टी के तमाम नेताओं ने यह जुमला उछलना शुरु कर दिया कि साध्वी निरंजन ज्योति पर किये जा रहे हमले के पीछे उनकी दलित जाति से होना है। यानी इस भगवाधारी साध्वी के समर्थक उनके बयान पर गौर करने, पछताने या फिर प्रयाश्चित करने के बजाय जातियों का खेल खेलने पर उतर आये। शायद वे भूल गये कि निरंजन ज्योति ने दिल्ली की सभा में जो बयान दिया वह निःसंदेह शर्मसार करने वाला है। उनका बयान यह भी बताता है कि कबीरदास के संत का ज्ञान अब कहां तक पहुंच गया है।
अगर साध्वी निरंजन ज्योति का बयान खेदजनक नहीं होता तो खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लोकसभा इस बयान पर सफाई नहीं देनी पड़ती। सफाई के साथ ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपने नेताओं को भाषा पर नियंत्रण की नसीहत भी देनी पड़ी। लाल किले की प्राचीर से स्वतंत्रता दिवस के अपने भाषण पर जिस पार्टी का नेता और देश का प्रधानमंत्री देश के विकास के लिए आवाम से जाति और धर्म की सीमाओं से ऊपर उठने की अपील करता हो। उसी पार्टी का एक मंत्री अगर साध्वी निरंजन ज्योति के बयान के बचाव में राज्य सभा में यह कहे कि निरंजन ज्योति दलित हंै, इसलिए उनके बयान का विरोध हो रहा है, तो यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है, इसे आसानी से समझा जा सकता है। मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी का बयान इसलिए भी बेहद कष्टप्रद है, क्योंकि मुख्तार अब्बास नकवी उसी उत्तर प्रदेश से आते हैं, जहां से साध्वी निरंजन ज्योति आती हैं। बावजूद इसके मुख्तार अब्बास नकवी यह नहीं जानते कि साधवी दलित नहीं पिछड़ी जाति से आती है। वह जाति से निषाद हंै, हांलांकि कई राज्यों में यह जाति अनुसूचित कोटे में है, पर उत्तर प्रदेश में नहीं है।
यह मुख्तार अब्बास नकवी को क्यों नहीं पता है ? यह लाख टके का सवाल है, पर सदन में साध्वी को दलित बताने वाले मंत्री को कुछ और बातों का ख्याल रखना ही चाहिए था। मसलन, देश के साथ ही उत्तर प्रदेश के लोगों ने जाति की सीमाएं तोड़कर और अपनी परंपरागत पार्टियों को छोड़कर भारतीय जनता पार्टी को बीते लोकसभा चुनाव में वोट दिया। तभी तो उसके खाते में उत्तर प्रदेश की अस्सी में 73 सीटें आ गयीं। यही नहीं, वह जिस पार्टी के नुमाइंदे हैं, उसमें जातियों के खांचे से ऊपर उठकर सियासत करने का चलन आम है। हांलांकि जिस नरेंद्र मोदी को कांग्रेस के खिलाफ पूरा देश सर माथे पर बिठाकर घूम रहा था, उन्होंने ही उत्तर प्रदेश पहुंचते ही खुद को पिछड़ी जाति का बताने की गलती कर ही दी थी। जिसकी कम से कम उन्हें कोई जरुरत नहीं है।
इतिहास इस बात का गवाह है कि देश में जातियों को हथियार और ढाल बनाकर इस्तेमाल किया गया। साध्वी निरंजन ज्योति के बचाव में उतरे मुख्तार अब्बास नकवी भी इसी काम को आगे बढा रहे थे। तभी तो बसपा सुप्रीमो मायावती आनन-फानन में यह बताने मीडिया के सामने अवतरित हो गयीं कि साध्वी दलित नहीं हंै। मानो वह कह रही हों दलित मायावती हैं, साध्वी नहीं। दलित कौन है इसका प्रमाण पत्र देने का जिम्मा उन्हें मिला है, मुख्तार अब्बास को नहीं। जातियों के इस सियासी खेल का पतन इससे समझा जा सकता है कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का जन्मदिन तैलीय समाज इस तरह मनाता है जैसे गांधी सिर्फ उसकी जागीर हों। सरदार वल्लभ भाई पटेल के जन्मदिन पर कुछ ऐसी ही मानसिकता में कुर्मी बिरादरी को देखा जा सकता है। सिर्फ बिरादरी ही नहीं पटेल देश के हंै या कांग्रेस भाजपा के, इसको लेकर दोनों दलों में खिंची तलवार अब तक म्यान में नहीं लौट सकी है। मायावती ने मानो बाबा साहेब डाॅ. भीमराव अंबेडकर का कापीराइट और पेटेंट करा लिया हो। इसी मानसिकता का विस्तार है कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस बंगाली, शहीदे आजम भगत सिंह पंजाबी, चंद्रशेखर आजाद ब्राह्मण और भारत के पहले राष्ट्रपति डाॅ. राजेंद्र प्रसाद कायस्थ हो गये हैं।
जातियों का उपयोग राजनीति मे कितना और किस तरह किया जाए ये सवाल आजादी के बाद से ही उठने लगा था। पंडित जवाहरलाल नेहरू और चैधरी चरण सिंह के बीच जातिवादी कौन को लेकर काफी खतो-किताबत हुई थी। चरण सिंह पंडित नेहरु को ब्राह्मणवादी बताते थे, पर खुद उन्होने ‘अजगर’ नाम से एक समीकरण गढा। जिसका जातीय विस्तार अहीर, जाट, गुर्जर और राजपूत तक जाता था। उस समय जातियों का सवाल हल नहीं हो पाया। यह विस्तार पाता चला गया। लालू प्रसाद यादव ने बिहार में ‘भूरा बाल साफ करो’ नारा दिया। भूरा बाल का विस्तार भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण और लाला यानी कायस्थ होता है। मुलायम सिंह यादव ने उत्तर प्रदेश में अपनी ताकत बढाने के लिए मुस्लिम-यादव (माई) समीकरण खड़ा किया। विश्वनाथ प्रताप सिंह ने अपनी सरकार की डूबती नैय्या पार लगाने के लिए मंडल कमीशन की जिस रिपोर्ट को हथियार बनाया उसमें भी जातीय अस्मिता के राजनैतिक प्रयोग को चरम पर पहुंचाया गया। राजनीति मे जातियों के खेल को बर्दाश्त करने के लिए लोकतंत्र में जनता ने सह्य-असह्य स्थितियों में खुद को तैयार कर लिया। लेकिन अब इस जातीय विस्तार, जातीय बोध जागृत करने के चलन को हथियार और ढाल बनाने में भी हमारे नेता नहीं चूक रहे हैं। साध्वी निरंजन ज्योति इसकी सबसे ताजा तरीन बानगी हैं। पर जाति को ढ़ाल और हथियार बनाने के मौका कोई भी नेता चूका यह विश्वास नहीं किया जा सकता। जिस कल्याण सिंह को समाज ने जननायक मान लिया था, जो मंडल और कमंडल दोनों ताकतों को साधने का करिश्मा करने वाले देश के इकलौते नेता बन बैठे थे। वही कल्याण सिंह जब कुसुम राय के साथ नई पार्टी में गये तो मंडल छोडिए सिर्फ लोध जाति के नेता भर रह गये। इसी लाइन पर उन्होंने पहले वनवास के दौरान बनायी अपनी पार्टी की सियासत को आगे बढाया। लोध बन ही वह कभी अपने प्रखर विरोधी रहे मुलायम के सिर्फ गले ही नहीं मिले उनके साथ मिलकर साढे तीन साल सरकार भी चलवायी।
मायावती जब अपना वैभवशाली जन्मदिन मनाती हैं, नोटों की माला पहनती हैं। हीरों के आभूषणों से लद जाती हैं और मीडिया या विपक्ष जब उस पर सवाल उठाता है तब मायावती दलित की बेटी बन जाती हैं। हांलांकि अगर मायावती की दिनचर्या के जानकारों की माने तो वो अपने कोआर्डिनेटरों को छोड़कर रोज दस पांच आम दलितों से भी नहीं मिलती हैं। इस मामले में मुलायम सिंह यादव ने काफी प्रगति की है। उनके यहां ना केवल यादव को तरजीह मिलती है बल्कि पिछडी जातियों के लिए भी खास जगह साफ दिखती है। यदि ऐसा नहीं होता तो जिस बालेश्वर यादव ने जनसभा में उनका विरोध किया था, जिस भालचंद्र यादव, रमाकांत यादव, उमाकांत यादव और डीपी यादव समय-समय पर मुलायम के विरोध में किसी हद तक गये, उनके लिए समाजवादी पार्टी के दरवाजे हमेशा खुले नहीं रहते। अगर मायावती और मुलायम के कार्यकाल में उनकी जातियों के आर्थिक और सामाजिक विकास, उन्नयन और समृद्धि पर नजर डाली जाय तब यह स्वीकार करने में किसी को गुरेज नहीं होगा कि मुलायम ने जातीय अस्मिता जागृत और पिछडो को लामबंद करने में सभी नेताओं को काफी पीछे छोड़ दिया। इसकी वजह भी साफ है। पहले कांशीराम और अब मायावती ने दलित अस्मिता की लड़ाई को नाक के सवाल से जोड़ा। जबकि मुलायम सिंह यादव ने पिछडों कि लडाई को पेट से जोड़ा। नाक की लडाई में कुछ करना नहीं होता। अगर नेता का कद भी बढ़ जाय तो जीत मानी जाती है लेकिन पेट की लड़ाई में पेट भरना जरुरी होता है। मुलायम सिंह ने यह करके जीत हासिल की है।.
हांलांकि दोनों नेताओं ने जातियों के खांचे में खुद को इस कदर बांध रखा है कि जातीय राजनीति को फलने-फूलने में ये भी खाद पानी का काम कर रहे हैं। यह जाति के हथियार और ढ़ाल का ही नमूना है कि जब देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद के.आर. नारायणन को आसीन कराने की सियासत चल रही थी, तब यह कहा जा रहा था कि दलित राष्ट्रपति का विरोध ना किया जाय। के.आर. नारायणन अखिल भारतीय सेवा के अफसर थे। देश की सबसे बड़ी सेवा में चयनित हो जाने के बाद भी वह दलित ही रहे ? उत्तर प्रदेश में मायावती और मुलायम दोनों के राज में प्रशासनिक सत्ता पर काबिज रहने वाले आईएएस अफसर पी.एल. पुनिया को अगर कांग्रेस दलित होने के नाते राज्यसभा में भेजने का तर्क गढती तो यह जाति के ढाल और हथियार का नमूना ही कहा जायेगा। जातीय ढाल और हथियार बनाने का यह सबसे मोहपाशी उदाहरण कहा जायेगा कि जब के.जी. बालाकृष्णन भारत के मुख्य न्यायाधीश के पद पर आसीन हुए तब मायावती इसलिए खुश हुईँ कि एक दलित इतने महत्वपूर्ण पद पर पहुंचा। वह उनके उत्तर प्रदेश प्रवास पर जब उनसे मिलने गईं तो स्मृति चिन्ह के रूप में अपनी पार्टी का चुनाव चिन्ह हाथी उन्हें भेंट किया। जिसे बालाकृष्णन ने हर्ष से स्वीकारा भी। जातीय हथियार और ढाल की बानगी ही है कि विदेश में तालीम पाने के बावजूद चैधरी चरण सिंह के बेटे अजित सिंह जाट सियासत की राजनीति के घेरे से बाहर ही नहीं निकल पाये। दलित नेता रहे जगजीवन राम की भारतीय विदेष सेवा में काम करने वाली बेटी मीराकुमार को जब कांग्रेस लोकसभा अध्यक्ष की कुर्सी पर आसीन करा रही थी, तब उसे इस बात का गर्व था कि पहली दलित महिला को इस कुर्सी पर बैठाने का श्रेय उसके खाते में जा रहा है। यह भी कम दुर्भाग्यपूर्ण नहीं है कि हमारे देश का बडा से बडा सियासतदां अपने लिए सुरक्षित क्षेत्र तलाशने की दिशा में उन इलाकों को ही तरजीह देता है, जहां उसकी जाति के मतदाता सबसे ज्यादा होंते हैं।
दरअसल, जाति को हथियार और ढाल बनाने का यह चलन अल्पसंख्यकों को वोट बैंक के रुप में इस्तेमाल करने का ‘एक्सटेंशन काउंटर’ कहा जायेगा।तुष्टीकरण की जो शुरुआत धर्म को लेकर हुई बाद में उसने जातीय हथियार और ढाल की शक्ल अख्तियार कर ली। बहुत साल तक भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान रहे खिलाडी से नेता बने अजहरुद्दीन को देश की जनता ने सर माथे पर बिठाया। लेकिन जब उनके ऊपर मैच फिक्सिंग के आरोप लगे तो वे सब भूल वो तपाक से अपने बचाव में बोल गये कि उन्हें उस मुद्दे में निशाने पर इसलिए लिया जा रहा है क्योंकि वो अल्पसंख्यक समुदाय से आते हैं। तोहमत लगने पर इस तरह की मुद्रा में मुलायम के कबीना साथी आजम खान को भी कई बार पाया गया है। ये तो महज बानगी है। जाति और धर्म को हमेशा से इस देश के हर कोने में सिसायतदां ने अपनी राजनैतिक फसल लहलहाने के लिए खाद पानी की तरह इस्तेमाल किया है। अब यह बीमारी तो मिटती नहीं दिखती। पर कबीरदास जी अगर जिंदा होते तो यह दोहा कुछ इस तरह शुरु करना पड़ता- ‘जाति ही पूछो साधु की।’
अगर साध्वी निरंजन ज्योति का बयान खेदजनक नहीं होता तो खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लोकसभा इस बयान पर सफाई नहीं देनी पड़ती। सफाई के साथ ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपने नेताओं को भाषा पर नियंत्रण की नसीहत भी देनी पड़ी। लाल किले की प्राचीर से स्वतंत्रता दिवस के अपने भाषण पर जिस पार्टी का नेता और देश का प्रधानमंत्री देश के विकास के लिए आवाम से जाति और धर्म की सीमाओं से ऊपर उठने की अपील करता हो। उसी पार्टी का एक मंत्री अगर साध्वी निरंजन ज्योति के बयान के बचाव में राज्य सभा में यह कहे कि निरंजन ज्योति दलित हंै, इसलिए उनके बयान का विरोध हो रहा है, तो यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है, इसे आसानी से समझा जा सकता है। मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी का बयान इसलिए भी बेहद कष्टप्रद है, क्योंकि मुख्तार अब्बास नकवी उसी उत्तर प्रदेश से आते हैं, जहां से साध्वी निरंजन ज्योति आती हैं। बावजूद इसके मुख्तार अब्बास नकवी यह नहीं जानते कि साधवी दलित नहीं पिछड़ी जाति से आती है। वह जाति से निषाद हंै, हांलांकि कई राज्यों में यह जाति अनुसूचित कोटे में है, पर उत्तर प्रदेश में नहीं है।
यह मुख्तार अब्बास नकवी को क्यों नहीं पता है ? यह लाख टके का सवाल है, पर सदन में साध्वी को दलित बताने वाले मंत्री को कुछ और बातों का ख्याल रखना ही चाहिए था। मसलन, देश के साथ ही उत्तर प्रदेश के लोगों ने जाति की सीमाएं तोड़कर और अपनी परंपरागत पार्टियों को छोड़कर भारतीय जनता पार्टी को बीते लोकसभा चुनाव में वोट दिया। तभी तो उसके खाते में उत्तर प्रदेश की अस्सी में 73 सीटें आ गयीं। यही नहीं, वह जिस पार्टी के नुमाइंदे हैं, उसमें जातियों के खांचे से ऊपर उठकर सियासत करने का चलन आम है। हांलांकि जिस नरेंद्र मोदी को कांग्रेस के खिलाफ पूरा देश सर माथे पर बिठाकर घूम रहा था, उन्होंने ही उत्तर प्रदेश पहुंचते ही खुद को पिछड़ी जाति का बताने की गलती कर ही दी थी। जिसकी कम से कम उन्हें कोई जरुरत नहीं है।
इतिहास इस बात का गवाह है कि देश में जातियों को हथियार और ढाल बनाकर इस्तेमाल किया गया। साध्वी निरंजन ज्योति के बचाव में उतरे मुख्तार अब्बास नकवी भी इसी काम को आगे बढा रहे थे। तभी तो बसपा सुप्रीमो मायावती आनन-फानन में यह बताने मीडिया के सामने अवतरित हो गयीं कि साध्वी दलित नहीं हंै। मानो वह कह रही हों दलित मायावती हैं, साध्वी नहीं। दलित कौन है इसका प्रमाण पत्र देने का जिम्मा उन्हें मिला है, मुख्तार अब्बास को नहीं। जातियों के इस सियासी खेल का पतन इससे समझा जा सकता है कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का जन्मदिन तैलीय समाज इस तरह मनाता है जैसे गांधी सिर्फ उसकी जागीर हों। सरदार वल्लभ भाई पटेल के जन्मदिन पर कुछ ऐसी ही मानसिकता में कुर्मी बिरादरी को देखा जा सकता है। सिर्फ बिरादरी ही नहीं पटेल देश के हंै या कांग्रेस भाजपा के, इसको लेकर दोनों दलों में खिंची तलवार अब तक म्यान में नहीं लौट सकी है। मायावती ने मानो बाबा साहेब डाॅ. भीमराव अंबेडकर का कापीराइट और पेटेंट करा लिया हो। इसी मानसिकता का विस्तार है कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस बंगाली, शहीदे आजम भगत सिंह पंजाबी, चंद्रशेखर आजाद ब्राह्मण और भारत के पहले राष्ट्रपति डाॅ. राजेंद्र प्रसाद कायस्थ हो गये हैं।
जातियों का उपयोग राजनीति मे कितना और किस तरह किया जाए ये सवाल आजादी के बाद से ही उठने लगा था। पंडित जवाहरलाल नेहरू और चैधरी चरण सिंह के बीच जातिवादी कौन को लेकर काफी खतो-किताबत हुई थी। चरण सिंह पंडित नेहरु को ब्राह्मणवादी बताते थे, पर खुद उन्होने ‘अजगर’ नाम से एक समीकरण गढा। जिसका जातीय विस्तार अहीर, जाट, गुर्जर और राजपूत तक जाता था। उस समय जातियों का सवाल हल नहीं हो पाया। यह विस्तार पाता चला गया। लालू प्रसाद यादव ने बिहार में ‘भूरा बाल साफ करो’ नारा दिया। भूरा बाल का विस्तार भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण और लाला यानी कायस्थ होता है। मुलायम सिंह यादव ने उत्तर प्रदेश में अपनी ताकत बढाने के लिए मुस्लिम-यादव (माई) समीकरण खड़ा किया। विश्वनाथ प्रताप सिंह ने अपनी सरकार की डूबती नैय्या पार लगाने के लिए मंडल कमीशन की जिस रिपोर्ट को हथियार बनाया उसमें भी जातीय अस्मिता के राजनैतिक प्रयोग को चरम पर पहुंचाया गया। राजनीति मे जातियों के खेल को बर्दाश्त करने के लिए लोकतंत्र में जनता ने सह्य-असह्य स्थितियों में खुद को तैयार कर लिया। लेकिन अब इस जातीय विस्तार, जातीय बोध जागृत करने के चलन को हथियार और ढाल बनाने में भी हमारे नेता नहीं चूक रहे हैं। साध्वी निरंजन ज्योति इसकी सबसे ताजा तरीन बानगी हैं। पर जाति को ढ़ाल और हथियार बनाने के मौका कोई भी नेता चूका यह विश्वास नहीं किया जा सकता। जिस कल्याण सिंह को समाज ने जननायक मान लिया था, जो मंडल और कमंडल दोनों ताकतों को साधने का करिश्मा करने वाले देश के इकलौते नेता बन बैठे थे। वही कल्याण सिंह जब कुसुम राय के साथ नई पार्टी में गये तो मंडल छोडिए सिर्फ लोध जाति के नेता भर रह गये। इसी लाइन पर उन्होंने पहले वनवास के दौरान बनायी अपनी पार्टी की सियासत को आगे बढाया। लोध बन ही वह कभी अपने प्रखर विरोधी रहे मुलायम के सिर्फ गले ही नहीं मिले उनके साथ मिलकर साढे तीन साल सरकार भी चलवायी।
मायावती जब अपना वैभवशाली जन्मदिन मनाती हैं, नोटों की माला पहनती हैं। हीरों के आभूषणों से लद जाती हैं और मीडिया या विपक्ष जब उस पर सवाल उठाता है तब मायावती दलित की बेटी बन जाती हैं। हांलांकि अगर मायावती की दिनचर्या के जानकारों की माने तो वो अपने कोआर्डिनेटरों को छोड़कर रोज दस पांच आम दलितों से भी नहीं मिलती हैं। इस मामले में मुलायम सिंह यादव ने काफी प्रगति की है। उनके यहां ना केवल यादव को तरजीह मिलती है बल्कि पिछडी जातियों के लिए भी खास जगह साफ दिखती है। यदि ऐसा नहीं होता तो जिस बालेश्वर यादव ने जनसभा में उनका विरोध किया था, जिस भालचंद्र यादव, रमाकांत यादव, उमाकांत यादव और डीपी यादव समय-समय पर मुलायम के विरोध में किसी हद तक गये, उनके लिए समाजवादी पार्टी के दरवाजे हमेशा खुले नहीं रहते। अगर मायावती और मुलायम के कार्यकाल में उनकी जातियों के आर्थिक और सामाजिक विकास, उन्नयन और समृद्धि पर नजर डाली जाय तब यह स्वीकार करने में किसी को गुरेज नहीं होगा कि मुलायम ने जातीय अस्मिता जागृत और पिछडो को लामबंद करने में सभी नेताओं को काफी पीछे छोड़ दिया। इसकी वजह भी साफ है। पहले कांशीराम और अब मायावती ने दलित अस्मिता की लड़ाई को नाक के सवाल से जोड़ा। जबकि मुलायम सिंह यादव ने पिछडों कि लडाई को पेट से जोड़ा। नाक की लडाई में कुछ करना नहीं होता। अगर नेता का कद भी बढ़ जाय तो जीत मानी जाती है लेकिन पेट की लड़ाई में पेट भरना जरुरी होता है। मुलायम सिंह ने यह करके जीत हासिल की है।.
हांलांकि दोनों नेताओं ने जातियों के खांचे में खुद को इस कदर बांध रखा है कि जातीय राजनीति को फलने-फूलने में ये भी खाद पानी का काम कर रहे हैं। यह जाति के हथियार और ढ़ाल का ही नमूना है कि जब देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद के.आर. नारायणन को आसीन कराने की सियासत चल रही थी, तब यह कहा जा रहा था कि दलित राष्ट्रपति का विरोध ना किया जाय। के.आर. नारायणन अखिल भारतीय सेवा के अफसर थे। देश की सबसे बड़ी सेवा में चयनित हो जाने के बाद भी वह दलित ही रहे ? उत्तर प्रदेश में मायावती और मुलायम दोनों के राज में प्रशासनिक सत्ता पर काबिज रहने वाले आईएएस अफसर पी.एल. पुनिया को अगर कांग्रेस दलित होने के नाते राज्यसभा में भेजने का तर्क गढती तो यह जाति के ढाल और हथियार का नमूना ही कहा जायेगा। जातीय ढाल और हथियार बनाने का यह सबसे मोहपाशी उदाहरण कहा जायेगा कि जब के.जी. बालाकृष्णन भारत के मुख्य न्यायाधीश के पद पर आसीन हुए तब मायावती इसलिए खुश हुईँ कि एक दलित इतने महत्वपूर्ण पद पर पहुंचा। वह उनके उत्तर प्रदेश प्रवास पर जब उनसे मिलने गईं तो स्मृति चिन्ह के रूप में अपनी पार्टी का चुनाव चिन्ह हाथी उन्हें भेंट किया। जिसे बालाकृष्णन ने हर्ष से स्वीकारा भी। जातीय हथियार और ढाल की बानगी ही है कि विदेश में तालीम पाने के बावजूद चैधरी चरण सिंह के बेटे अजित सिंह जाट सियासत की राजनीति के घेरे से बाहर ही नहीं निकल पाये। दलित नेता रहे जगजीवन राम की भारतीय विदेष सेवा में काम करने वाली बेटी मीराकुमार को जब कांग्रेस लोकसभा अध्यक्ष की कुर्सी पर आसीन करा रही थी, तब उसे इस बात का गर्व था कि पहली दलित महिला को इस कुर्सी पर बैठाने का श्रेय उसके खाते में जा रहा है। यह भी कम दुर्भाग्यपूर्ण नहीं है कि हमारे देश का बडा से बडा सियासतदां अपने लिए सुरक्षित क्षेत्र तलाशने की दिशा में उन इलाकों को ही तरजीह देता है, जहां उसकी जाति के मतदाता सबसे ज्यादा होंते हैं।
दरअसल, जाति को हथियार और ढाल बनाने का यह चलन अल्पसंख्यकों को वोट बैंक के रुप में इस्तेमाल करने का ‘एक्सटेंशन काउंटर’ कहा जायेगा।तुष्टीकरण की जो शुरुआत धर्म को लेकर हुई बाद में उसने जातीय हथियार और ढाल की शक्ल अख्तियार कर ली। बहुत साल तक भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान रहे खिलाडी से नेता बने अजहरुद्दीन को देश की जनता ने सर माथे पर बिठाया। लेकिन जब उनके ऊपर मैच फिक्सिंग के आरोप लगे तो वे सब भूल वो तपाक से अपने बचाव में बोल गये कि उन्हें उस मुद्दे में निशाने पर इसलिए लिया जा रहा है क्योंकि वो अल्पसंख्यक समुदाय से आते हैं। तोहमत लगने पर इस तरह की मुद्रा में मुलायम के कबीना साथी आजम खान को भी कई बार पाया गया है। ये तो महज बानगी है। जाति और धर्म को हमेशा से इस देश के हर कोने में सिसायतदां ने अपनी राजनैतिक फसल लहलहाने के लिए खाद पानी की तरह इस्तेमाल किया है। अब यह बीमारी तो मिटती नहीं दिखती। पर कबीरदास जी अगर जिंदा होते तो यह दोहा कुछ इस तरह शुरु करना पड़ता- ‘जाति ही पूछो साधु की।’