मेरे माता पिता ने अपनी जडों से जुडने और अतीत पर गर्व करने की सीख दी थी। नये अमरीकी राजदूत रिचर्ड राहुल वर्मा ने पिछले साल अपने एक साक्षात्कार में यह बात कही। राहुल रिचर्ड वर्मा को यह तनिक भी अंदेशा नहीं रहा होगा कि अमरीकी राष्ट्रपति ओबामा के एक बडे फैसले में उनकी मां के ये वाक्य अहम किरदार अदा करेंगे। अमरीका ने भारत में नये राजदूत के तौर पर पहले भारतीय अमरीकी रिचर्ड राहुल वर्मा को बेहद अहम जिम्मेदारी दी है। एक ऐसे समय में जब अमरीका को भारत की और भारत को अमरीका की बेहद जरूरत है। नरेंद्र मोदी के उत्कर्ष के बाद अमरीका का भारतपरस्ती के लिये यह पहला बदलाव नहीं है। अमरीका उन बदलाव को तरजीह दे रहा है, जिनसे मोदी की खुशी में इजाफा हो और उसकी बाजार की उम्मीदें परवान चढ़ें। ऐसा करने के पीछे अमरीका और मोदी के रिश्तों के अतीत पर पर्दा डालने की भी कोशिश है।
45 वर्षीय रिचर्ड के माता-पिता पंजाब से हैं। उनके पिता डॉ कमल वर्मा परिवार में शिक्षा हासिल करने वाले पहले शख्स थे। उनके परिवार की कहानी संघर्षों के सितम से शिखर तक की गाथा है। कमल वर्मा वर्ष 1963 में उधार लिए 24 अमरीकी डालर और उत्तरी लोवा के बस टिकट के साथ न्यूयार्क में उतरे थे। रिचर्ड वर्मा अपने पिता के संघर्ष को याद करते हुए अपने भाषण में कह चुके हैं कि अन्य प्रवासियों की तरह उनके पिता भी अपने बच्चों और पत्नी को भारत छोड़कर अमरीका आये थे। धीमी शुरुआत के बावजूद उन्होने अपने बेटे को किसी तरह की कमी नहीं होने दी । तभी मैं लॉ स्कूल जा सका और यूएस एयर फोर्स, कैपिटल हिल जैसी जगहों पर काम कर सका।
बराक ओबामा ने वर्ष 2009 में उन्हें यूएस डिपार्टमेंट ऑफ स्टेट्स में नियुक्ति दी थी, बतौर असिस्टेंट सेकरेट्री वे मार्च 2011 तक वहां रहे । भारत के साथ असैन्य परमाणु करार पर कांग्रेस की मुहर लगवाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने वाले वर्मा उस समय अमेरिकी सीनेट मेजॉरिटी लीडर हेनरी रीड के सलाहकार थे । वे सीनियर डिफेंस और फॉरेन पॉलिसी सलाहकार के तौर पर सीनेट कमेटी में थे। पेशे से वकील रिचर्ड हिलेरी क्लिंटन और पूर्व अमेरिकी रक्षा सचिव रॉबर्ट गेट्स के करीबियों में शुमार हैं। राष्ट्रीय सुरक्षा और दूसरे अहम मुद्दों पर काम करने के अनुभवी रिचर्ड ने यूएस एयरफोर्स को बतौर एयरफोर्स एडवोकेट अपनी सेवाएं भी दी हैं। उन्हें वर्ष 1998 में मेरिटोरियस सर्विस मेडल और 1996 में एयरफोर्स कमेंडेनशन मेडल मिले। वर्ष 1994 में नेशनल डिफेंस सर्विस मेडल से सम्मानित वर्मा को उस समय मोस्टं इंफ्लूएंशियनल इंडियन अमेरिकन कांग्रेस आइड का टाइटल दिया गया जब वह नेशनल सिक्योटरिटी एडवाइजर की पारी शुरू करने जा रहे थे। आतंकवाद निरोधी कई कमेटियों में भी अहम भूमिका निभा चुके रिचर्ड ने ओबामा प्रशासन के अनुरोध पर पेंटागन एजेंसी रिव्यू टीम को भी अपनी सेवाएं दी हैं। वर्ष 2013 में उन्हें अमेरिकी स्टेेट डिपार्टमेंट ने ‘डिस्टींग्यूकइश्डस सर्विस अवॉर्ड’ दिया ? फिलहाल नियुक्ति से पहले वह प्राइवेट सेक्टर की ‘स्टेपटो एंड जानसन एल.एल.पी. और अलब्राइट ब्रिज ग्रुप में वरिष्ठ काउंसलर के तौर पर काम कर रहे थे। साथ ही सेंटर फार अमेरिकन प्रोग्रेस में नेशनल सिक्योरिटी फेलो भी थे ।
भारतीय अमरीकी नागरिक रिचर्ड वर्मा भारत के राजदूत बनने वाले पहले भारतीय-अमरीकी हुए, नैंसी पॉवेल का स्थान लिया, जिन्होंने कथित वीजा फर्जीवाड़ा आरोपों पर भारतीय राजनयिक देवयानी खोबरागड़े के साथ हुए व्यवहार पर विवाद के बाद बीते मार्च में इस्तीफा दे दिया था। फिलहाल, दिल्ली के अमेरिकी दूतावास के नेतृत्व की जिम्मेदारी कैथलीन स्टीफंस पर है। भारत अमरीका के संबंधों के सबसे ऊंचाई की समय पर भारत में किसी भी पूर्णकालिक राजदूत का ना होना ना तो अमरीका के हित में था, ना अमरीकी प्रशासन के।
नियुक्ति से ठीक पहले सेनेट में हुए सवाल-जवाब में रिचर्ड वर्मा ने कहा था, इसमें कोई शक नहीं है कि भारत-अमरीका रिश्तों में एक नई उर्जा आ गई है, एक नया उत्साह भर गया है, रिचर्ड वर्मा ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अमरीकी दौरे का हवाला कुछ इस तरह दिया कि इस रिश्ते की सही शक्ति और क्षमता इस बात में है कि जब सबसे पुराना और सबसे बड़ा लोकतंत्र साथ आएगा तो पूरी दुनिया का भला होगा।
शीर्ष अमेरिकी थिंक टैंक ‘सेंटर फॉर अमेरिकन प्रोग्रेस’ में इंडिया 2020 शुरु करने वाले रिचर्ड वर्मा की इन्हीं खासियतों की राजदूत के तौर पर अमरीका को जरूरत है। रिचर्ड राहुल वर्मा अमरीकी भारतीय संबंधों में एक नयी ऊर्जा देख रहे हैं, अमरीकी भी इसी ऊर्जा की तलाश में है। रिचर्ड राहुल भी हैं और राहुल रिचर्ड भी हैं, तो इससे बेहतर बात अमरीकी प्रशासन के लिए क्या हो सकती है। तभी तो उनकी नियुक्ति के लिए प्रस्ताव रखते हुए अमेरिका की पूर्व विदेश मंत्री और अलब्राइट स्टोनब्रिज ग्रुप की प्रमुख मेडलीन अलब्राइट ने कहा कि भारत में अमेरिका के राजदूत पद के लिए चुने गए रिचर्ड वर्मा दोनों देशों के बीच संबंधों की मजबूती के लिए ‘उत्कृष्ट पुल’ का काम करेंगे। दोनों देशों द्वारा आपसी रणनीतिक साझेदारी को विस्तार और मजबूती दिए जाने के बीच अमेरिका के पास भारत में रिचर्ड वर्मा से बेहतर प्रतिनिधि हो ही नहीं सकता था।
इस नियुक्ति से भारत खुश है। एक भारतीय मूल का व्यक्ति इस मुकाम तक पहुंचा है। वहीं अमरीकी कांग्रेस की रिसर्च सर्विस की दक्षिण एशिया विशेषज्ञ ऐलेन क्रोनस्टैड ने कुछ इस तरह खुशी जाहिर की है, आप बस इतना समझ लीजिए कि अमरीका ने अब भारत पर दांव लगा दिया है. उतार-चढ़ाव आते रहते हैं लेकिन इस रिश्ते की बुनियाद अब ठोस है। अमरीका और प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदर दास का रिश्ता विषमताओं से भरा है। नरेंद्र मोदी वर्ष 2005 में अमरीका जाने वाले थे, अचानक अमरीका ने उन्हें वीजा देने से इनकार कर दिया। नतीजतन, दस साल तक नरेन्द्र मोदी ने अमरीका का रुख नहीं किया। फिर समय का फेर देखिए कि नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने से ऐन पहले ही दुनिया की सबसे बडी ताकत समझे जाने वाले अमेरिका ने अपनी राजनयिक नैंसी पावेल को सिर्फ इसलिए हटा दिया क्योंकि उसने नरेंद्र मोदी के बारे में सही जानकारी, उन्हें मिलने वाले प्रचंड बहुमत का अनुमान लगाने में कामयाब नहीं हो सकी थी। प्रधानमंत्री बनने से पहले से ही अमरीका के कई प्रतिनिधिमंडल गांधीनगर से दिल्ली के चक्कर लगाते रहे। हालांकि नरेंद्र मोदी को लेकर पहले के अमरीकी नजरिये से शायद ही कोई अपरिचित हो। लेकिन जब नरेंद्र मोदी प्रचंड बहुमत से भारत के प्रधानमंत्री बने तो दुनिया भर ने मोदी के बारे में अपने नजरिये में बदलाव किया। इसी बदलाव की कड़ी में साल 2014 की जुलाई महीने की अपनी सालाना अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता रिपोर्ट में पहली बार साल 2002 के गुजरात दंगों में नरेंद्र मोदी से संबंधित सभी अंश हटा दिए हैं। यही नहीं, मोदी के स्वागत में ओबामा का ‘केम छो’, नैंसी पावेल का हटाना और अब रिचर्ड राहुल वर्मा की नियुक्ति इसके आगे की कहानी बयां कर रहा है ।
कुछ महीने पहले अमरीकी कांग्रेस के सदस्य ने एक सुनवाई के दौरान दो भारतीय मूल के अमरीकी अधिकारियों को गलती से भारत सरकार का प्रतिनिधि समझ लिया था। उसी अंदाज में सवाल जवाब किए थे। उनमें से एक थीं दक्षिण एशिया मामलों की उप विदेश मंत्री निशा बिस्वाल और दूसरे थे वाणिज्य विभाग के अरुण कुमार। गणतंत्र दिवस पर ओबामा पहले अमरीकी राष्ट्रपति के तौर पर अतिथि बने, तो एक बार फिर से उसी तरह की भूल हो जाने की संभावना है क्योंकि अमरीका अब अपने चेहरे को भारतीय बना रहा है। ओबामा के इर्द गिर्द भारतीय चेहरों का दिखना अमरीका का नया चलन है। ऐसे में रिचर्ड राहुल वर्मा एक पुल ही नहीं हैं बल्कि अमरीकी आशाओं के ऐसे प्लैंक है जिससे अमरीकी व्यापारियों से लेकर प्रशासन ने बडी उम्मीदें पाल रखी हैं। अमरीका और भारत के बीच इस वक्त कई पेचीदे मामले भी हैं। इनमें से एक है भारत-अमरीका परमाणु संधि जो भारत के घरेलू कानूनों की वजह से अटकी पड़ी है। अमरीकी हितों के हिसाब से मोडकर भारतीय रुख में बदलाव कराना उनकी बडी चुनौती है। अमरीकी दवा उद्योग की तरफ से पेटेंट कानून और बौद्धिक सम्पदा कानून (इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट्स) में संशोधन का दबाव भी रिचर्ड के लिये लिटमस टेस्ट है। बावजूद इसके रिचर्ड को कई बातें अन्य अमेरिकी राजदूतों से बेहतर बनाती है। मसलन, पाकिस्तान में जन्मी और विभाजन के बाद भारत आ गयी अपनी पोस्टग्रेजुएट मां को एक साडी में जिंदगी की जद्दोजेहद करते भी देखना, मां से भारत की तासीर के बारे में मिली जानकारी और पिता डाॅ. कमल वर्मा को अंग्रेज राज में बंदी बनाये जाने की यादें बताती हैं कि उन्हें जिंदगी की वो सारी जद्दोजहद पता है, जो आम भारतीयों की हैं । ऐसे में रिचर्ड सिर्फ एक राजनयिक के तौर पर ड्राइंग रूम से नीति बनाने के बजाय ज्यादा व्यावहारिक सुझाव दे सकेंगे।
अमरीका ने आज तक साथियों का साथ अपने फायदे की हद तक ही दिया है। अमरीका के दोस्त उसके लिए स्थायी नहीं होतें। नजीरें इशारा करती हैं कि सद्दाम से लेकर तालिबान तक अमरीका के दोस्त से दुश्मन बने। अमरीकी राष्ट्रपति रहे जार्ज डब्ल्यू बुश के कार्यकाल में जब तत्कालीन सोवियत संघ ने अपने रिश्ते अमरीका से करीब किये तो अमरीका ने बोरिस येल्तिसिन के जरिये सोवियत संघ को ही इतिहास बना दिया। ऐसे में मोदी को अमरीकी प्रेम की नब्ज की असली चाल समझनी होगी क्योंकि इतिहास का इशारा कुछ और भी दर्शाता है।
45 वर्षीय रिचर्ड के माता-पिता पंजाब से हैं। उनके पिता डॉ कमल वर्मा परिवार में शिक्षा हासिल करने वाले पहले शख्स थे। उनके परिवार की कहानी संघर्षों के सितम से शिखर तक की गाथा है। कमल वर्मा वर्ष 1963 में उधार लिए 24 अमरीकी डालर और उत्तरी लोवा के बस टिकट के साथ न्यूयार्क में उतरे थे। रिचर्ड वर्मा अपने पिता के संघर्ष को याद करते हुए अपने भाषण में कह चुके हैं कि अन्य प्रवासियों की तरह उनके पिता भी अपने बच्चों और पत्नी को भारत छोड़कर अमरीका आये थे। धीमी शुरुआत के बावजूद उन्होने अपने बेटे को किसी तरह की कमी नहीं होने दी । तभी मैं लॉ स्कूल जा सका और यूएस एयर फोर्स, कैपिटल हिल जैसी जगहों पर काम कर सका।
बराक ओबामा ने वर्ष 2009 में उन्हें यूएस डिपार्टमेंट ऑफ स्टेट्स में नियुक्ति दी थी, बतौर असिस्टेंट सेकरेट्री वे मार्च 2011 तक वहां रहे । भारत के साथ असैन्य परमाणु करार पर कांग्रेस की मुहर लगवाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने वाले वर्मा उस समय अमेरिकी सीनेट मेजॉरिटी लीडर हेनरी रीड के सलाहकार थे । वे सीनियर डिफेंस और फॉरेन पॉलिसी सलाहकार के तौर पर सीनेट कमेटी में थे। पेशे से वकील रिचर्ड हिलेरी क्लिंटन और पूर्व अमेरिकी रक्षा सचिव रॉबर्ट गेट्स के करीबियों में शुमार हैं। राष्ट्रीय सुरक्षा और दूसरे अहम मुद्दों पर काम करने के अनुभवी रिचर्ड ने यूएस एयरफोर्स को बतौर एयरफोर्स एडवोकेट अपनी सेवाएं भी दी हैं। उन्हें वर्ष 1998 में मेरिटोरियस सर्विस मेडल और 1996 में एयरफोर्स कमेंडेनशन मेडल मिले। वर्ष 1994 में नेशनल डिफेंस सर्विस मेडल से सम्मानित वर्मा को उस समय मोस्टं इंफ्लूएंशियनल इंडियन अमेरिकन कांग्रेस आइड का टाइटल दिया गया जब वह नेशनल सिक्योटरिटी एडवाइजर की पारी शुरू करने जा रहे थे। आतंकवाद निरोधी कई कमेटियों में भी अहम भूमिका निभा चुके रिचर्ड ने ओबामा प्रशासन के अनुरोध पर पेंटागन एजेंसी रिव्यू टीम को भी अपनी सेवाएं दी हैं। वर्ष 2013 में उन्हें अमेरिकी स्टेेट डिपार्टमेंट ने ‘डिस्टींग्यूकइश्डस सर्विस अवॉर्ड’ दिया ? फिलहाल नियुक्ति से पहले वह प्राइवेट सेक्टर की ‘स्टेपटो एंड जानसन एल.एल.पी. और अलब्राइट ब्रिज ग्रुप में वरिष्ठ काउंसलर के तौर पर काम कर रहे थे। साथ ही सेंटर फार अमेरिकन प्रोग्रेस में नेशनल सिक्योरिटी फेलो भी थे ।
भारतीय अमरीकी नागरिक रिचर्ड वर्मा भारत के राजदूत बनने वाले पहले भारतीय-अमरीकी हुए, नैंसी पॉवेल का स्थान लिया, जिन्होंने कथित वीजा फर्जीवाड़ा आरोपों पर भारतीय राजनयिक देवयानी खोबरागड़े के साथ हुए व्यवहार पर विवाद के बाद बीते मार्च में इस्तीफा दे दिया था। फिलहाल, दिल्ली के अमेरिकी दूतावास के नेतृत्व की जिम्मेदारी कैथलीन स्टीफंस पर है। भारत अमरीका के संबंधों के सबसे ऊंचाई की समय पर भारत में किसी भी पूर्णकालिक राजदूत का ना होना ना तो अमरीका के हित में था, ना अमरीकी प्रशासन के।
नियुक्ति से ठीक पहले सेनेट में हुए सवाल-जवाब में रिचर्ड वर्मा ने कहा था, इसमें कोई शक नहीं है कि भारत-अमरीका रिश्तों में एक नई उर्जा आ गई है, एक नया उत्साह भर गया है, रिचर्ड वर्मा ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अमरीकी दौरे का हवाला कुछ इस तरह दिया कि इस रिश्ते की सही शक्ति और क्षमता इस बात में है कि जब सबसे पुराना और सबसे बड़ा लोकतंत्र साथ आएगा तो पूरी दुनिया का भला होगा।
शीर्ष अमेरिकी थिंक टैंक ‘सेंटर फॉर अमेरिकन प्रोग्रेस’ में इंडिया 2020 शुरु करने वाले रिचर्ड वर्मा की इन्हीं खासियतों की राजदूत के तौर पर अमरीका को जरूरत है। रिचर्ड राहुल वर्मा अमरीकी भारतीय संबंधों में एक नयी ऊर्जा देख रहे हैं, अमरीकी भी इसी ऊर्जा की तलाश में है। रिचर्ड राहुल भी हैं और राहुल रिचर्ड भी हैं, तो इससे बेहतर बात अमरीकी प्रशासन के लिए क्या हो सकती है। तभी तो उनकी नियुक्ति के लिए प्रस्ताव रखते हुए अमेरिका की पूर्व विदेश मंत्री और अलब्राइट स्टोनब्रिज ग्रुप की प्रमुख मेडलीन अलब्राइट ने कहा कि भारत में अमेरिका के राजदूत पद के लिए चुने गए रिचर्ड वर्मा दोनों देशों के बीच संबंधों की मजबूती के लिए ‘उत्कृष्ट पुल’ का काम करेंगे। दोनों देशों द्वारा आपसी रणनीतिक साझेदारी को विस्तार और मजबूती दिए जाने के बीच अमेरिका के पास भारत में रिचर्ड वर्मा से बेहतर प्रतिनिधि हो ही नहीं सकता था।
इस नियुक्ति से भारत खुश है। एक भारतीय मूल का व्यक्ति इस मुकाम तक पहुंचा है। वहीं अमरीकी कांग्रेस की रिसर्च सर्विस की दक्षिण एशिया विशेषज्ञ ऐलेन क्रोनस्टैड ने कुछ इस तरह खुशी जाहिर की है, आप बस इतना समझ लीजिए कि अमरीका ने अब भारत पर दांव लगा दिया है. उतार-चढ़ाव आते रहते हैं लेकिन इस रिश्ते की बुनियाद अब ठोस है। अमरीका और प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदर दास का रिश्ता विषमताओं से भरा है। नरेंद्र मोदी वर्ष 2005 में अमरीका जाने वाले थे, अचानक अमरीका ने उन्हें वीजा देने से इनकार कर दिया। नतीजतन, दस साल तक नरेन्द्र मोदी ने अमरीका का रुख नहीं किया। फिर समय का फेर देखिए कि नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने से ऐन पहले ही दुनिया की सबसे बडी ताकत समझे जाने वाले अमेरिका ने अपनी राजनयिक नैंसी पावेल को सिर्फ इसलिए हटा दिया क्योंकि उसने नरेंद्र मोदी के बारे में सही जानकारी, उन्हें मिलने वाले प्रचंड बहुमत का अनुमान लगाने में कामयाब नहीं हो सकी थी। प्रधानमंत्री बनने से पहले से ही अमरीका के कई प्रतिनिधिमंडल गांधीनगर से दिल्ली के चक्कर लगाते रहे। हालांकि नरेंद्र मोदी को लेकर पहले के अमरीकी नजरिये से शायद ही कोई अपरिचित हो। लेकिन जब नरेंद्र मोदी प्रचंड बहुमत से भारत के प्रधानमंत्री बने तो दुनिया भर ने मोदी के बारे में अपने नजरिये में बदलाव किया। इसी बदलाव की कड़ी में साल 2014 की जुलाई महीने की अपनी सालाना अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता रिपोर्ट में पहली बार साल 2002 के गुजरात दंगों में नरेंद्र मोदी से संबंधित सभी अंश हटा दिए हैं। यही नहीं, मोदी के स्वागत में ओबामा का ‘केम छो’, नैंसी पावेल का हटाना और अब रिचर्ड राहुल वर्मा की नियुक्ति इसके आगे की कहानी बयां कर रहा है ।
कुछ महीने पहले अमरीकी कांग्रेस के सदस्य ने एक सुनवाई के दौरान दो भारतीय मूल के अमरीकी अधिकारियों को गलती से भारत सरकार का प्रतिनिधि समझ लिया था। उसी अंदाज में सवाल जवाब किए थे। उनमें से एक थीं दक्षिण एशिया मामलों की उप विदेश मंत्री निशा बिस्वाल और दूसरे थे वाणिज्य विभाग के अरुण कुमार। गणतंत्र दिवस पर ओबामा पहले अमरीकी राष्ट्रपति के तौर पर अतिथि बने, तो एक बार फिर से उसी तरह की भूल हो जाने की संभावना है क्योंकि अमरीका अब अपने चेहरे को भारतीय बना रहा है। ओबामा के इर्द गिर्द भारतीय चेहरों का दिखना अमरीका का नया चलन है। ऐसे में रिचर्ड राहुल वर्मा एक पुल ही नहीं हैं बल्कि अमरीकी आशाओं के ऐसे प्लैंक है जिससे अमरीकी व्यापारियों से लेकर प्रशासन ने बडी उम्मीदें पाल रखी हैं। अमरीका और भारत के बीच इस वक्त कई पेचीदे मामले भी हैं। इनमें से एक है भारत-अमरीका परमाणु संधि जो भारत के घरेलू कानूनों की वजह से अटकी पड़ी है। अमरीकी हितों के हिसाब से मोडकर भारतीय रुख में बदलाव कराना उनकी बडी चुनौती है। अमरीकी दवा उद्योग की तरफ से पेटेंट कानून और बौद्धिक सम्पदा कानून (इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट्स) में संशोधन का दबाव भी रिचर्ड के लिये लिटमस टेस्ट है। बावजूद इसके रिचर्ड को कई बातें अन्य अमेरिकी राजदूतों से बेहतर बनाती है। मसलन, पाकिस्तान में जन्मी और विभाजन के बाद भारत आ गयी अपनी पोस्टग्रेजुएट मां को एक साडी में जिंदगी की जद्दोजेहद करते भी देखना, मां से भारत की तासीर के बारे में मिली जानकारी और पिता डाॅ. कमल वर्मा को अंग्रेज राज में बंदी बनाये जाने की यादें बताती हैं कि उन्हें जिंदगी की वो सारी जद्दोजहद पता है, जो आम भारतीयों की हैं । ऐसे में रिचर्ड सिर्फ एक राजनयिक के तौर पर ड्राइंग रूम से नीति बनाने के बजाय ज्यादा व्यावहारिक सुझाव दे सकेंगे।
अमरीका ने आज तक साथियों का साथ अपने फायदे की हद तक ही दिया है। अमरीका के दोस्त उसके लिए स्थायी नहीं होतें। नजीरें इशारा करती हैं कि सद्दाम से लेकर तालिबान तक अमरीका के दोस्त से दुश्मन बने। अमरीकी राष्ट्रपति रहे जार्ज डब्ल्यू बुश के कार्यकाल में जब तत्कालीन सोवियत संघ ने अपने रिश्ते अमरीका से करीब किये तो अमरीका ने बोरिस येल्तिसिन के जरिये सोवियत संघ को ही इतिहास बना दिया। ऐसे में मोदी को अमरीकी प्रेम की नब्ज की असली चाल समझनी होगी क्योंकि इतिहास का इशारा कुछ और भी दर्शाता है।