मशहूर गज़ल गायक गुलाम अली ने पाकिस्तान में शराब पीने पर सुनाई गयी सजा के बाबत अकबर इलाहाबादी की गज़ल- ‘हंगामा है क्यूं बरपा’.....गाकर दुनिया भर में खूब शोहरत बटोरी थी। आज इस गज़ल की लाइनें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के योजना आयोग को इतिहास बना देने के फैसले पर बेहद मौजूं और सटीक लगती हैं। विपक्ष योजना आयोग को खत्म कर नेशनल इंस्टीट्यूशन फॉर ट्रांसफार्मिंग इन्डिया (नीति) यानी नीति आयोग नामक संस्था के गठन पर हाय तौबा मचा रहा है, उन्हें इतिहास से सीख लेनी चाहिए । प्रधानमंत्री रहते हुए कांग्रेस के नेता और प्रचंड बहुमत की सरकार के प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने वर्ष 1985 में योजना आयोग को बंच ऑफ जोकर्स (जोकरों का समूह) कहा था। उस समय इस प्रतिष्ठित संस्था के उपाध्यक्ष अर्थशास्त्री डाॅ. मनमोहन सिंह थे। जो बाद में 10 साल तक सोनिया गांधी की सरपरस्ती में चलने वाली सरकार के प्रधानमंत्री रहे । यही नहीं, वित्त मंत्री रहते हुए इन्हीं डाॅ. मनमोहन सिंह ने आर्थिक सुधारों के लागू होने के बाद योजना आयेाग के पास कोई भविष्योन्मुख दृष्टि नहीं होने की बात की थी।
इन बयानों से सबक लेने की जगह कांग्रेस और उसके कई सहयोगी रहे दल भी योजना आयोग को खत्म करने के फैसले के खिलाफ खड़े नजर आ रहे हैं। इसे दुर्भाग्यपूर्ण इसलिए कहा जाना चाहिए क्योंकि विरोध के लिए विरोध का कालखंड 21 वीं शताब्दी में खत्म हो जाना चाहिए क्योंकि अच्छे काम के लिए नेताओं अथवा पक्ष-विपक्ष की पीठ थपथपाने वाले कद्दावर नेताओं की पीढ़ी अस्ताचल को है।
पंद्रह अगस्त को लाल किले से दिये गये भाषण में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने योजना आयोग के औचित्य पर सवाल उठाते हुए इसे खत्म कर किसी नये ढांचे के निर्माण का ऐलान किया था। तब लोगों को लगा था कि क्या उनके पास कोई वैकल्पिक ढांचा है। पर 19 अगस्त, 2014 को उन्होंने जनता से योजना आयोग की जगह दूसरी संस्था के लिए विचार आमंत्रित किये तब विपक्ष को लगा कि नरेंद्र मोदी के पास कोई वैकल्पिक ढांचा अथवा ऐसी संस्था नहीं है, जो योजना आयोग की प्रतिकृति बन सके। गुजरात में मुख्यमंत्री रहते हुए नरेंद्र मोदी के आत्मघटित और आत्म अनुभव के आधार पर यह कहा जा सकता है कि योजना आयोग की बारे में उनकी धारणा जरुर वेदनात्मक रही होगी। ऐसे में उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद योजना आयोग पर सवाल उठाना लाजमी था। बावजूद इसके नरेंद्र मोदी ने रायशुमारी करायी। किसी भी लोकतांत्रिक देश और व्यवस्था में रायशुमारी सबसे अहम प्रक्रिया है। लोगों से सोशल साइट्स से लेकर खतो-किताबत से सुझाव भी मांगे थे। नीति आयोग की घोषणा करने के बाद नरेंद्र मोदी ने खुद ट्वीट करके बताया भी कि नीति आयोग बनाने से पहले इससे जुडे हर व्यक्ति खासकर देश भर के मुख्यमंत्रियों से बात की गयी, उनसे सुझाव लिए गये।
योजना आयोग की संरचना वर्ष 1927 से पंडित जवाहर लाल नेहरू की सोवियत संघ की ी यात्रा का परिणाम कही जा सकती है। इस दौरान सोवियत माडल की इस संस्था से नेहरू बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने आजाद भारत में इस साम्यवादी योजनागत ढांचे को लागू करने के संकेत उसी समय दे दिये थे। सोवियत संघ के ‘कमान्ड एंड कंट्रोल माडल’ की प्रासंगिता वैसे वर्ष 1991 में सोवियत संघ की समाप्ति के साथ ही खत्म हो जानी चाहिए थी। लेकिन सोवियत संघ के पराभव, राजीव गांधी की टिप्पणी और मनमोहन सिंह के बयान के बाद भी कांग्रेस और बाद की सरकारों ने योजना आयोग के स्वरुप को बनाये रखा।
शायद ही कोई ऐसा विपक्ष का मुख्यमंत्री हो जिसने योजना आयोग के दंश ना सहे हों। गरीबी रेखा की परिभाषा को लेकर मोंटेक सिंह अहलूवालिया के उपाध्यक्ष रहते योजना आयोग ने जो जनता की नाराजगी झेली उसने भी इसके औचित्य पर बडा सवाल खड़ा किया था। जुलाई 2013 में जारी आकंडों में गरीबी को लेकर जिस तरह योजना आयोग ने सरकार के बचाव में आकंडे पेश किए, वह शर्मसार करने वाला था। डाॅ. मनमोहन सिंह की अगुवाई वाली सरकार की उपलब्धियों की फेहरिस्त बढ़ सके महज इसलिए योजना आयोग ने यह ऐलान कर दिया कि ग्रामीण इलाकों में 26 और शहरी इलाको में 32 रुपये खर्च करने वाला गरीब नहीं हो सकता। इस मानदंड के बाद ही देश की गरीबों की आबादी घटकर 21.9 प्रतिशत रह गयी, जो 2004-05 में 37.2 फीसदी थी । यह बात दीगर है कि देश भर में जगहंसाई के बाद योजना आयोग ने तेंदुलकर प्रणाली का इस्तेमाल कर ग्रामीण इलाकों में 816 रुपये रपये प्रति व्यक्ति प्रति माह से कम उपभोग करने वाला और शहरी इलाको में 1000 रुपये प्रति माह से कम उपभोग करने वाले व्यक्ति को गरीबी की रेखा के नीचे बताया। यानी ये आंकडा गांव के लिए 27 रुपये 20 पैसे और शहरों के लिए 33 रुपये 33 पैसे प्रतिदिन के हो गया। हांलांकि यह भी भारत की गरीबी की सच्ची तस्वीर नहीं कही जा सकती।
प्रधानमंत्री नेहरू की अध्यक्षता में 15 मार्च, 1950 को गठित योजना आयोग से काफी पहले ब्रिटिश राज में ही वर्ष 1930 में बुनियादी आर्थिक योजनाएं बनाने का काम शुरु हुआ था। इसके बाद औपनिवेशिक सरकार ने औपचारिक रूप से एक कार्य योजना बोर्ड बनाया। बोर्ड ने वर्ष 1944 से वर्ष 1946 तक कार्य किया और तीन योजनाएं बनाईं। आजाद भारत के योजना आयोग ने 12 पंचवर्षीय योजनाएं बनाईं। वर्ष 1951 में बनी पहली पंचवर्षीय योजना का आकार 2000 करोड़ का था। इसके बाद वर्ष 1965 तक दो और पंचवर्षीय योजनायें बनाई गयीं। वर्ष 1965 के बाद पाकिस्तान से युद्ध के कारण व्यवधान पड़ा। दो साल के लगातार सूखे, मुद्रा का अवमूल्यन, कीमतों में सामान्य वृद्धि और संसाधनों के क्षरण के कारण योजना प्रक्रिया बाधित हुई। वर्ष 1966 और वर्ष 1969 के बीच तीन वार्षिक योजना बनी। चैथी पंचवर्षीय योजना वर्ष 1969 में शुरू की गई। केंद्र में तेजी से बदलते राजनीतिक परिदृश्य के चलते आठवीं योजना वर्ष 1990 में शुरु नहीं की जा सकी और वर्ष 1990-91 और 1991-92 को वार्षिक योजनाएं माना गया। वर्ष 1992 में आठवीं योजना को शुरू हुई । पहली आठ योजनाओं में जोर सार्वजनिक क्षेत्र पर था। आधारभूत और भारी उद्योग में निवेश किया गया। वर्ष 1997 की नौवीं योजना से सार्वजनिक क्षेत्र पर जोर थोड़ा कम किया गया।
डाॅ. मनमोहन सिंह के शुरु किए गये वैश्वीकरण- उदारीकरण और नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद आर्थिक और राजनीतिक परिदृश्य में बदलाव के मद्देनजर ढांचे के स्तर पर ही नहीं, दर्शन (फिलास्फी) के स्तर पर भी योजना आयोग के स्वरूप में बदलाव की जरुरत महसूस की जा रही थी। साम्यवाद की जगह दुनिया में पूंजीवाद ने ले ली है। सरकार की भूमिका “प्रोवाइडर” की जगह “इनएबलर” की हो गयी है। वैसे तो वैश्वीकरण और न्यू-इकोनामिक पालिसी लागू किए जाने के साथ ही “कमांड एंड कंट्रोल माॅडल” खत्म कर दिया जाना चाहिए था। ‘टाप बॉस प्लानिंग’ का समय बीते जमाने की बात हो गया है। देश में विकास के साथ-साथ विविधताएं बढी हैं। क्षेत्रीय स्तर पर योजना की जरुरत महसूस की जाने लगी है। नीचे से ऊपर की ओर योजना के स्वरूप तय किये जाने का समय आ गया है। नीति आयोग इसी बदलाव को अमली जामा पहनाने के सबसे मुफीद हथियार के तौर पर पेश किया जा रहा है। यह आयोग सहकारी संघीय ढांचा की नीति को कार्यान्वित करेगा। क्योंकि इसमें क्षेत्रीय विषमताओं को दूर करने के लिए रीजनल काउंसिल को जगह दी गयी है। नीति आयोग अब ‘कमांड एंड कंट्रोल’ की जगह ‘पार्टिसिपेटरी माॅडल’ पर काम करेगा। क्योंकि इससे पहले के योजना आयोग में मुख्यमंत्रियों को सीधे अपनी बात कहने के लिए कोई मंच नहीं हुआ करता था। वो नौकरशाहों की काउंसिल के जरिये अपनी बात केंद्र तक पहुंचाते थे। अब नये नीति आयोग में मुख्यमंत्री गण नीतियो में सीधा हस्तक्षेप, रायशुमारी, सुझाव, टिप्पणी कर सकेंगे। नीति आयोग में केंद्रीय मंत्रियों की बडी फौज खत्म कर दी गयी है।
जब योजना आयोग बनाया गया था, तब देश में पैसे कम थे, इसलिए कम धनराशि को ठीक से निवेश कर जनता के समाजिक कल्याण के लिए सरकारी हस्तक्षेप किस तरह किया जाय यह तय करना था। आज देश में सरकार के पास ही नहीं लोगों के हाथ में भी पैसे आये है। क्रय शक्ति बढी है।जीवन स्तर बढा है। तब सरकार की भूमिका पूरी बदल जाती है। उसका काम यह तय करना होता है कि किस दिशा में, किस तरह निवेश किये और कराये जायें। जनता के आम जरुरतों को पूरा करने के लिए कौन-कौन से कदम उठाये जायें। यह तभी संभव है, जब कोई भी संस्था थिंक टैंक के तौर पर काम करे। ‘रिसोर्स एलोकेशन’ ना करे। वह विशेषज्ञ की तरह सलाह दे। नीति आयोग का स्वरूप कुछ इसी तरह तय किया गया है। यही वजह है कि, उसमें ‘नालेज बैंक’, ‘रिसोर्स सेंटर फॉर गुड गवर्नेंस’ खोलने का भी प्रावधान किया गया है। पहले की तरह नीति आयोग के अध्यक्ष प्रधानमंत्री ही होंगे। वही उपाध्यक्ष को नामित करेंगे। पहले जो काम सेकरेक्टरी का था अब वही काम सीईओ के हवाले कर दिया गयाहै। इसके अलावा संघीय ढांचे को बढावा देने वाली गवर्निग काउंसिल में राज्यों के मुख्यमंत्री और केन्द्रशासित प्रदेशों के उप राज्यपाल शामिल होगे। क्षेत्रीय परिषदें भी होगीं जो विशिष्ट मुद्दों और ऐसे आकस्मिक मामले, जिनका संबंध एक से अधिक राज्य या क्षेत्र से हो, को देखने के लिए गठित की जाएंगी। जरुरी विषयों पर संबंधित कार्य क्षेत्र की जानकारी वाले विशेषज्ञ विशेष आमंत्रित सदस्य होंगे जिन्हें प्रधानमंत्री नामित करेंगे।
आज की अर्थव्यवस्था में बाजार की भूमिका प्रभावी और महत्वपूर्ण है। योजना आयोग इस भूमिका को नजरअंदाज करता था। नीति आयोग इसकी अहमियत का अहसास करते हुए काम करेगा। नीति आयोग में स्थानीय जरुरतो, का ध्यान उसी तरह रखा जायेगा जैसा योजना आयोग के समय ‘वन साइज फार आल’ की नीति तय करने में रखा जाता था। हावर्ड विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्री अरविंद पनगडिया नीति आयोग के उपाध्यक्ष हंै।
बदलाव की जरुरत है और अभिप्राय नीति और योजना शब्दों के अर्थ में भी तलाशे जा सकते हैं। हिंदी भाषा में योजना का तात्पर्य सोच की ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें अपेक्षित परिणामो के बारे में चिंतन और क्रियान्वयन किया जाता है। वहीं नीति का तात्पर्य तार्किक परिणामों को हासिल करने के लिए तय किये गये सिद्धांत से है। अर्थव्यवस्था ने जब वैश्विक स्वरूप धारण कर लिया है, तब भी नीतियां महत्वपूर्ण हो गयी है। लेकिन इन सबको दरकिनार कर योजना आयोग योजना बनाता था। नीति बनाने का काम दूसरे हाथों में था। समीक्षा तीसरे करते थे। कभी न कभी इससे निजात तो पाना ही होगा।
इन बयानों से सबक लेने की जगह कांग्रेस और उसके कई सहयोगी रहे दल भी योजना आयोग को खत्म करने के फैसले के खिलाफ खड़े नजर आ रहे हैं। इसे दुर्भाग्यपूर्ण इसलिए कहा जाना चाहिए क्योंकि विरोध के लिए विरोध का कालखंड 21 वीं शताब्दी में खत्म हो जाना चाहिए क्योंकि अच्छे काम के लिए नेताओं अथवा पक्ष-विपक्ष की पीठ थपथपाने वाले कद्दावर नेताओं की पीढ़ी अस्ताचल को है।
पंद्रह अगस्त को लाल किले से दिये गये भाषण में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने योजना आयोग के औचित्य पर सवाल उठाते हुए इसे खत्म कर किसी नये ढांचे के निर्माण का ऐलान किया था। तब लोगों को लगा था कि क्या उनके पास कोई वैकल्पिक ढांचा है। पर 19 अगस्त, 2014 को उन्होंने जनता से योजना आयोग की जगह दूसरी संस्था के लिए विचार आमंत्रित किये तब विपक्ष को लगा कि नरेंद्र मोदी के पास कोई वैकल्पिक ढांचा अथवा ऐसी संस्था नहीं है, जो योजना आयोग की प्रतिकृति बन सके। गुजरात में मुख्यमंत्री रहते हुए नरेंद्र मोदी के आत्मघटित और आत्म अनुभव के आधार पर यह कहा जा सकता है कि योजना आयोग की बारे में उनकी धारणा जरुर वेदनात्मक रही होगी। ऐसे में उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद योजना आयोग पर सवाल उठाना लाजमी था। बावजूद इसके नरेंद्र मोदी ने रायशुमारी करायी। किसी भी लोकतांत्रिक देश और व्यवस्था में रायशुमारी सबसे अहम प्रक्रिया है। लोगों से सोशल साइट्स से लेकर खतो-किताबत से सुझाव भी मांगे थे। नीति आयोग की घोषणा करने के बाद नरेंद्र मोदी ने खुद ट्वीट करके बताया भी कि नीति आयोग बनाने से पहले इससे जुडे हर व्यक्ति खासकर देश भर के मुख्यमंत्रियों से बात की गयी, उनसे सुझाव लिए गये।
योजना आयोग की संरचना वर्ष 1927 से पंडित जवाहर लाल नेहरू की सोवियत संघ की ी यात्रा का परिणाम कही जा सकती है। इस दौरान सोवियत माडल की इस संस्था से नेहरू बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने आजाद भारत में इस साम्यवादी योजनागत ढांचे को लागू करने के संकेत उसी समय दे दिये थे। सोवियत संघ के ‘कमान्ड एंड कंट्रोल माडल’ की प्रासंगिता वैसे वर्ष 1991 में सोवियत संघ की समाप्ति के साथ ही खत्म हो जानी चाहिए थी। लेकिन सोवियत संघ के पराभव, राजीव गांधी की टिप्पणी और मनमोहन सिंह के बयान के बाद भी कांग्रेस और बाद की सरकारों ने योजना आयोग के स्वरुप को बनाये रखा।
शायद ही कोई ऐसा विपक्ष का मुख्यमंत्री हो जिसने योजना आयोग के दंश ना सहे हों। गरीबी रेखा की परिभाषा को लेकर मोंटेक सिंह अहलूवालिया के उपाध्यक्ष रहते योजना आयोग ने जो जनता की नाराजगी झेली उसने भी इसके औचित्य पर बडा सवाल खड़ा किया था। जुलाई 2013 में जारी आकंडों में गरीबी को लेकर जिस तरह योजना आयोग ने सरकार के बचाव में आकंडे पेश किए, वह शर्मसार करने वाला था। डाॅ. मनमोहन सिंह की अगुवाई वाली सरकार की उपलब्धियों की फेहरिस्त बढ़ सके महज इसलिए योजना आयोग ने यह ऐलान कर दिया कि ग्रामीण इलाकों में 26 और शहरी इलाको में 32 रुपये खर्च करने वाला गरीब नहीं हो सकता। इस मानदंड के बाद ही देश की गरीबों की आबादी घटकर 21.9 प्रतिशत रह गयी, जो 2004-05 में 37.2 फीसदी थी । यह बात दीगर है कि देश भर में जगहंसाई के बाद योजना आयोग ने तेंदुलकर प्रणाली का इस्तेमाल कर ग्रामीण इलाकों में 816 रुपये रपये प्रति व्यक्ति प्रति माह से कम उपभोग करने वाला और शहरी इलाको में 1000 रुपये प्रति माह से कम उपभोग करने वाले व्यक्ति को गरीबी की रेखा के नीचे बताया। यानी ये आंकडा गांव के लिए 27 रुपये 20 पैसे और शहरों के लिए 33 रुपये 33 पैसे प्रतिदिन के हो गया। हांलांकि यह भी भारत की गरीबी की सच्ची तस्वीर नहीं कही जा सकती।
प्रधानमंत्री नेहरू की अध्यक्षता में 15 मार्च, 1950 को गठित योजना आयोग से काफी पहले ब्रिटिश राज में ही वर्ष 1930 में बुनियादी आर्थिक योजनाएं बनाने का काम शुरु हुआ था। इसके बाद औपनिवेशिक सरकार ने औपचारिक रूप से एक कार्य योजना बोर्ड बनाया। बोर्ड ने वर्ष 1944 से वर्ष 1946 तक कार्य किया और तीन योजनाएं बनाईं। आजाद भारत के योजना आयोग ने 12 पंचवर्षीय योजनाएं बनाईं। वर्ष 1951 में बनी पहली पंचवर्षीय योजना का आकार 2000 करोड़ का था। इसके बाद वर्ष 1965 तक दो और पंचवर्षीय योजनायें बनाई गयीं। वर्ष 1965 के बाद पाकिस्तान से युद्ध के कारण व्यवधान पड़ा। दो साल के लगातार सूखे, मुद्रा का अवमूल्यन, कीमतों में सामान्य वृद्धि और संसाधनों के क्षरण के कारण योजना प्रक्रिया बाधित हुई। वर्ष 1966 और वर्ष 1969 के बीच तीन वार्षिक योजना बनी। चैथी पंचवर्षीय योजना वर्ष 1969 में शुरू की गई। केंद्र में तेजी से बदलते राजनीतिक परिदृश्य के चलते आठवीं योजना वर्ष 1990 में शुरु नहीं की जा सकी और वर्ष 1990-91 और 1991-92 को वार्षिक योजनाएं माना गया। वर्ष 1992 में आठवीं योजना को शुरू हुई । पहली आठ योजनाओं में जोर सार्वजनिक क्षेत्र पर था। आधारभूत और भारी उद्योग में निवेश किया गया। वर्ष 1997 की नौवीं योजना से सार्वजनिक क्षेत्र पर जोर थोड़ा कम किया गया।
डाॅ. मनमोहन सिंह के शुरु किए गये वैश्वीकरण- उदारीकरण और नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद आर्थिक और राजनीतिक परिदृश्य में बदलाव के मद्देनजर ढांचे के स्तर पर ही नहीं, दर्शन (फिलास्फी) के स्तर पर भी योजना आयोग के स्वरूप में बदलाव की जरुरत महसूस की जा रही थी। साम्यवाद की जगह दुनिया में पूंजीवाद ने ले ली है। सरकार की भूमिका “प्रोवाइडर” की जगह “इनएबलर” की हो गयी है। वैसे तो वैश्वीकरण और न्यू-इकोनामिक पालिसी लागू किए जाने के साथ ही “कमांड एंड कंट्रोल माॅडल” खत्म कर दिया जाना चाहिए था। ‘टाप बॉस प्लानिंग’ का समय बीते जमाने की बात हो गया है। देश में विकास के साथ-साथ विविधताएं बढी हैं। क्षेत्रीय स्तर पर योजना की जरुरत महसूस की जाने लगी है। नीचे से ऊपर की ओर योजना के स्वरूप तय किये जाने का समय आ गया है। नीति आयोग इसी बदलाव को अमली जामा पहनाने के सबसे मुफीद हथियार के तौर पर पेश किया जा रहा है। यह आयोग सहकारी संघीय ढांचा की नीति को कार्यान्वित करेगा। क्योंकि इसमें क्षेत्रीय विषमताओं को दूर करने के लिए रीजनल काउंसिल को जगह दी गयी है। नीति आयोग अब ‘कमांड एंड कंट्रोल’ की जगह ‘पार्टिसिपेटरी माॅडल’ पर काम करेगा। क्योंकि इससे पहले के योजना आयोग में मुख्यमंत्रियों को सीधे अपनी बात कहने के लिए कोई मंच नहीं हुआ करता था। वो नौकरशाहों की काउंसिल के जरिये अपनी बात केंद्र तक पहुंचाते थे। अब नये नीति आयोग में मुख्यमंत्री गण नीतियो में सीधा हस्तक्षेप, रायशुमारी, सुझाव, टिप्पणी कर सकेंगे। नीति आयोग में केंद्रीय मंत्रियों की बडी फौज खत्म कर दी गयी है।
जब योजना आयोग बनाया गया था, तब देश में पैसे कम थे, इसलिए कम धनराशि को ठीक से निवेश कर जनता के समाजिक कल्याण के लिए सरकारी हस्तक्षेप किस तरह किया जाय यह तय करना था। आज देश में सरकार के पास ही नहीं लोगों के हाथ में भी पैसे आये है। क्रय शक्ति बढी है।जीवन स्तर बढा है। तब सरकार की भूमिका पूरी बदल जाती है। उसका काम यह तय करना होता है कि किस दिशा में, किस तरह निवेश किये और कराये जायें। जनता के आम जरुरतों को पूरा करने के लिए कौन-कौन से कदम उठाये जायें। यह तभी संभव है, जब कोई भी संस्था थिंक टैंक के तौर पर काम करे। ‘रिसोर्स एलोकेशन’ ना करे। वह विशेषज्ञ की तरह सलाह दे। नीति आयोग का स्वरूप कुछ इसी तरह तय किया गया है। यही वजह है कि, उसमें ‘नालेज बैंक’, ‘रिसोर्स सेंटर फॉर गुड गवर्नेंस’ खोलने का भी प्रावधान किया गया है। पहले की तरह नीति आयोग के अध्यक्ष प्रधानमंत्री ही होंगे। वही उपाध्यक्ष को नामित करेंगे। पहले जो काम सेकरेक्टरी का था अब वही काम सीईओ के हवाले कर दिया गयाहै। इसके अलावा संघीय ढांचे को बढावा देने वाली गवर्निग काउंसिल में राज्यों के मुख्यमंत्री और केन्द्रशासित प्रदेशों के उप राज्यपाल शामिल होगे। क्षेत्रीय परिषदें भी होगीं जो विशिष्ट मुद्दों और ऐसे आकस्मिक मामले, जिनका संबंध एक से अधिक राज्य या क्षेत्र से हो, को देखने के लिए गठित की जाएंगी। जरुरी विषयों पर संबंधित कार्य क्षेत्र की जानकारी वाले विशेषज्ञ विशेष आमंत्रित सदस्य होंगे जिन्हें प्रधानमंत्री नामित करेंगे।
आज की अर्थव्यवस्था में बाजार की भूमिका प्रभावी और महत्वपूर्ण है। योजना आयोग इस भूमिका को नजरअंदाज करता था। नीति आयोग इसकी अहमियत का अहसास करते हुए काम करेगा। नीति आयोग में स्थानीय जरुरतो, का ध्यान उसी तरह रखा जायेगा जैसा योजना आयोग के समय ‘वन साइज फार आल’ की नीति तय करने में रखा जाता था। हावर्ड विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्री अरविंद पनगडिया नीति आयोग के उपाध्यक्ष हंै।
बदलाव की जरुरत है और अभिप्राय नीति और योजना शब्दों के अर्थ में भी तलाशे जा सकते हैं। हिंदी भाषा में योजना का तात्पर्य सोच की ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें अपेक्षित परिणामो के बारे में चिंतन और क्रियान्वयन किया जाता है। वहीं नीति का तात्पर्य तार्किक परिणामों को हासिल करने के लिए तय किये गये सिद्धांत से है। अर्थव्यवस्था ने जब वैश्विक स्वरूप धारण कर लिया है, तब भी नीतियां महत्वपूर्ण हो गयी है। लेकिन इन सबको दरकिनार कर योजना आयोग योजना बनाता था। नीति बनाने का काम दूसरे हाथों में था। समीक्षा तीसरे करते थे। कभी न कभी इससे निजात तो पाना ही होगा।