‘मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।’ लगता है प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इस जुमले पर अमल करने के लिए ही ‘मन की बात’ कार्यक्रम की रेडियो पर शुरुआत की है। इस शुरुआत ने एक ओर जहां बीते सदी का संचार माध्यम बन चुके रेडियो को पुनर्जीवन दिया, वहीं यह भी बताया कि राजनेता भी ‘मन की बात’ करने के मूड में हैं। ‘मन की बात’ सिर्फ जोड़ती नहीं बल्कि गहरे तक दिल में बैठ जाती है। दिल में गहरे उतर जाती है, पैठ जाती है। दिल में बैठने-पैठने, गहरे तक उतरने का सबब हमने अमेरिकी राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बीच हुई ‘मन की बात’ में दिखी। दोनों नेताओं ने दिल खोलकर रख दिया। प्रगाढ़ होते व्यक्तिगत रिश्ते, मजबूत होती साझेदारी, बाल विवाह के खिलाफ खड़े होने के लिए पीठ थपथपाना, मैरीकॉम, मिल्खा सिंह और शाहरुख का जिक्र यह सब दोनों देशों को कई अर्थवान संदेश दे रहे थे। मैरीकॉम, मिल्खा और शाहरुख भारत की धार्मिक विविधता को भी उकेरते हैं। हालाकि इन संदेशों के संकेत दुनिया के सभी मुल्क पढ़ रहे थे। क्योंकि यह बातचीत दुनिया के सबसे पुराने और दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश के बीच हो रही थी। यही वजह है कि अमेरिका और भारत दोनों न केवल अनंत संभावनाओं के द्वार खोलना चाहते थे बल्कि सम्भावनाओं को ठीक से भुनाने की होड़ अमेरिकी राष्ट्रपति की भारत यात्रा में दिखी।
शून्य से शिखर तक अपनी यात्रा के पड़ाव को बताते हुए दोनों राष्ट्राध्यक्षों ने न केवल अतीत की स्मृतियां उकेरीं बल्कि संघर्ष कर रही हर जिजीषिका को उम्मीद का सम्बल भी दिया। यह बात दीगर है कि ‘मन की बात’ की बात सुनाने से पहले ओबामा ने धार्मिक सहिष्णुता के सवाल को लेकर जो नसीहत दी। उसने ‘मन की बात’ की मिठास को कम किया। बेहद अनौपचारिक इस यात्रा के दौरान ओबामा की नसीहत ने भले ही यात्रा के उत्साह पर पानी फेरते हुए विपक्ष को एक हथियार थमा दिया हो। भारत - अमेरिका की नई मैत्री इबारत को फिर से पढ़ने के लिए विवश किया हो, लेकिन सऊदी अरब पहुंचते - पहुंचते मिशेल ओबामा के सर न ढकने को लेकर जो सोशल मीडिया में शोर-शराबा हुआ वह इस बात की चुगली करता है कि ओबामा की धार्मिक सहिष्णुता को लेकर दी गयी नसीहत अपेक्षित नहीं थी।
सात हजार सवालों में से ‘मन की बात’ के लिए उन सवालों को चुना गया था, जिसमें स्मृतियों की धरोहर हो, संघर्ष के लिए प्रेरणा हो अथवा आम लोगों के बारे में इन दोनों नेताओं की सोच प्रतिबिम्बित होती हो। अश्वेत होने से रंगभेद के कारण ओबामा को अमेरिका में और फिर गुजरात दंगों के कारण मोदी को भारत के तथाकथित एवं छद्म धर्मनिरपेक्ष ताकतों के बीच अस्पृश्यता का दंश सहना पड़ा था। खानसामे का पोता और चाय बेचने वाले के बेटे की उत्कर्ष की कथा में संघर्ष, रहस्य और रोमांच के पड़ाव काफी कुछ मिलते-जुलते हैं। यही वजह है कि ओबामा और मोदी एक दूसरे के इतने करीब आये कि अमेरिकी राष्ट्रपति भारतीय प्रधानमंत्री के लिए बराक हो गए और भारतीय प्रधानमंत्री अमेरिकी राष्ट्रपति के लिए मोदी। ‘चाय पर चर्चा’, ‘जयहिन्द’, ‘नमस्ते’, ‘धन्यवाद’ और फिर भारतीय फिल्म ‘दिल वाले दुल्हनियां ले जाएंगे’ के डायलाग की एक लाईन बोलना दोनों राष्ट्राध्यक्षों की एक-दूसरे की जीवन षैली (लाईफ स्टाइल) का जिक्र करना यह बयां करने के लिए पर्याप्त है कि अफ्रीकी देशों की स्वाइली भाषा में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक के नाम का जो अर्थ - सौभाग्यशाली (ब्लेस्ड) नरेन्द्र मोदी ने बताया वह मूलतः इस नई मैत्री इबारत पर भी उसी तरह लागू होता है। लाॅन में चहलकदमी, अकेले में बातचीत करने का उल्लेख और गप्प मारने का जिक्र भी इसे काफी हद तक पुष्ट करता है। नरेन्द्र मोदी ने ओबामा की यात्रा के दौरान प्रतीकात्मक लिहाज से बराबरी के पावदान पर खड़े होकर यह तो साबित कर ही दिया कि भारत किसी भी देश के साथ रिश्तों की नई इबारत लिखने को तैयार है। अब याचना और याचक का दौर भारत के संदर्भ में बीते युग की बात हो गया है। इस दौरे में मोदी सिर्फ अमेरिका को ही नहीं बल्कि पूरी दनिया को यह संदेश देने में कामयाब हुए हैं कि उभरता हुआ भारत अनन्त आकांक्षा और संभावना के साथ-साथ वैश्विक बाजार की जरूरतों पर खरा उतरने के काबिल है। शायद यही वजह थी कि ओबामा की पूरी यात्रा पाकिस्तान निरपेक्ष रही। ‘मेक इन इण्डिया’ के तहत तकरीबन चार अरब डालर निवेश की सम्भावनाएं उगीं। इसमें दो अरब डालर अक्षय ऊर्जा के क्षेत्र में और एक अरब डालर छोटे और मझोले उद्योगों में निवेश का ऐलान किया गया।
जलवायु संकट के जिक्र और कार्बन उत्सर्जन को लेकर चिन्ता जताने और इससे निपटने की बात तो हुई पर यह जरूर खयाल रखा गया कि इन मसलों पर भारत को चीन से ऊपर का ओहदा हासिल होगा। एशिया प्रशान्त हिन्द महासागर में संयुक्त सामुद्रिक रणनीति का ऐलान भारतीय सीमा का बार-बार उल्लंघन करने वाले चीन के लिए भी बड़ा सबब है। हालांकि हमें यह नहीं भूलना चाहिए था कि आज भारत और अमेरिका का व्यापार सौ अरब डालर का नहीं है जबकि चीन-अमेरिकी व्यापार की राशि पांच सौ पचास अरब डालर के आस-पास है। एक ऐसे समय जब अमेरिका मंदी का शिकार हो। विकसित देशों ने अपने यहां विकास के ढांचे खड़े कर लिए हों। वहां की कम्पनियों को विकासशील देशों की दरकार हो, बड़े बाजार की जरूरत हो। तब अमेरिका चीन को भी नाखुश नहीं करना चाहेगा। इसलिए अमेरिकी रिश्ते रस्सी पर करतब करते नट सरीखी सतर्कता की मांग करते हैं क्योंकि अमेरिका हमारे पुराने और परखे हुए मित्र रूस से अपने पुराने रिश्तों का हिसाब-किताब करने के लिए भी हमारा इस्तेमाल कर सकता है। अमरीका ऐसा वातावरण बना सकता है कि चीन पाकपरस्ती करने लगे। रूस को भारत की जगह पाकिस्तान में भरोसा नजर आने लगे। अमेरिका भरोसेमंद नहीं, व्यापारिक देश है। उसके लिए व्यापार बड़ा है। पर अमेरिका को यह भी नहीं भूलना होगा कि भारतीय सेना को अगले दस सालों में एक सौ तीस विलियन डालर की दरकार है, रेलवे में तकरीबन आठ लाख करोड़ का निवेश होना है, सड़कों के लिए दो लाख करोड़ रुपए चाहिए, बन्दरगाहों को विकसित करने के लिए तकरीबन चार लाख रुपए की दरकार है। उड्डयन सुविधाओं तथा विमानपत्तन के क्षेत्र में भी इतनी ही धनराशि चाहिए।
जिस अमरीका ने चीन से तकरीबन 30 अरब डालर बांडों में निवेश के मार्फत उधार लिया है, उसे वापस करने का रास्ता सिर्फ भारत से होकर जाता है। इस आस का लगना और इस आस का जगना बेमानी नहीं कहा जा सकता, शायद यही वजह है कि आस के लगने और आस के जगने में भारत अपने यहां की पेट्रोलियम कंपनी तेल एवं प्राकृतिक गैस निगम लिमिटेड (ओएनजीसी) अमरीका द्वारा काली सूची से बाहर निकालने, मेक इन इंडिया को कामयाब करने परमाणु उत्तरादायित्व कानून के हिसाब से छूट लेने सरीखी तमाम योजनाओं की कामयाबी का सपना भारत के लोगों की आंखों में तैरने लगा है। अमरीकी आखों में मंदी से उबरने का आश्वस्ति भाव पढा जा सकता है, क्योंकि मोदी सरकार विकास के लिये कानून की सीमाएं तोड़ने को तैयार है। पेंटागन, विदेश मंत्रालय और अमरीकी संसद तीनों पहले ही संभवतः इसी के मद्देनजर इस बात पर सहमति जता चुके हैं कि अमरीका द्वारा परमाणु संयंत्रों की निगरानी किसी भी देश की संप्रभुता में हस्तक्षेप है। इसी के चलते परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में अस्पृश्य कहे जाने से भारत को मुक्ति मिली।
यह यात्रा नई उम्मीदों, नये रिश्तों की शुरुआत भी है, क्योंकि भारत अमरीकी संबंध अगली सदियों के बदलाव को तय करेंगे। कुछ यही वजह है कि बेटी बचाओ, महिला सुरक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, एक्सपोर्ट इंपोर्ट बैंक बनाने, तीन स्मार्ट सिटी,स्वच्छ ऊर्जा और बिजली जैसे कई क्षेत्रों में हमकदम होने के संकल्प जताये गये। भविष्य के लिये नयी संभावनाओं की नींव रखी गयी। दोस्ती को कटूनीति में लपेट कर देशों के संबंधों में दोस्ती को ईंधन बना दिया गया। तभी तो जलवायु संकट के सवाल को हल करने के लिये मोदी ने इसे आने वाली पीढियों की बलिहारी किया। ओबामा के भाषण में भारतीय आध्यात्मिक प्रतीक पुरुष विवेकानंद और राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की नजीरें, योग और हिंदुत्व का बखान दोनों देश के राष्ट्राध्यक्षों को निकट तो ले आया पर अद्यतन सामरिक चुनौतियों और बाजार की जरुरतो के मद्देनजर इस निकटता को अभी कसौटी की दरकार है। पर यह कसौटी सिर्फ भारत और अमरीका की नहीं होगी। इस कसौटी पर खरा उतरने के लिए चीन, जापान, रूस और पाकिस्तान के पलड़ों को भी संतुलित करना होगा।
शून्य से शिखर तक अपनी यात्रा के पड़ाव को बताते हुए दोनों राष्ट्राध्यक्षों ने न केवल अतीत की स्मृतियां उकेरीं बल्कि संघर्ष कर रही हर जिजीषिका को उम्मीद का सम्बल भी दिया। यह बात दीगर है कि ‘मन की बात’ की बात सुनाने से पहले ओबामा ने धार्मिक सहिष्णुता के सवाल को लेकर जो नसीहत दी। उसने ‘मन की बात’ की मिठास को कम किया। बेहद अनौपचारिक इस यात्रा के दौरान ओबामा की नसीहत ने भले ही यात्रा के उत्साह पर पानी फेरते हुए विपक्ष को एक हथियार थमा दिया हो। भारत - अमेरिका की नई मैत्री इबारत को फिर से पढ़ने के लिए विवश किया हो, लेकिन सऊदी अरब पहुंचते - पहुंचते मिशेल ओबामा के सर न ढकने को लेकर जो सोशल मीडिया में शोर-शराबा हुआ वह इस बात की चुगली करता है कि ओबामा की धार्मिक सहिष्णुता को लेकर दी गयी नसीहत अपेक्षित नहीं थी।
सात हजार सवालों में से ‘मन की बात’ के लिए उन सवालों को चुना गया था, जिसमें स्मृतियों की धरोहर हो, संघर्ष के लिए प्रेरणा हो अथवा आम लोगों के बारे में इन दोनों नेताओं की सोच प्रतिबिम्बित होती हो। अश्वेत होने से रंगभेद के कारण ओबामा को अमेरिका में और फिर गुजरात दंगों के कारण मोदी को भारत के तथाकथित एवं छद्म धर्मनिरपेक्ष ताकतों के बीच अस्पृश्यता का दंश सहना पड़ा था। खानसामे का पोता और चाय बेचने वाले के बेटे की उत्कर्ष की कथा में संघर्ष, रहस्य और रोमांच के पड़ाव काफी कुछ मिलते-जुलते हैं। यही वजह है कि ओबामा और मोदी एक दूसरे के इतने करीब आये कि अमेरिकी राष्ट्रपति भारतीय प्रधानमंत्री के लिए बराक हो गए और भारतीय प्रधानमंत्री अमेरिकी राष्ट्रपति के लिए मोदी। ‘चाय पर चर्चा’, ‘जयहिन्द’, ‘नमस्ते’, ‘धन्यवाद’ और फिर भारतीय फिल्म ‘दिल वाले दुल्हनियां ले जाएंगे’ के डायलाग की एक लाईन बोलना दोनों राष्ट्राध्यक्षों की एक-दूसरे की जीवन षैली (लाईफ स्टाइल) का जिक्र करना यह बयां करने के लिए पर्याप्त है कि अफ्रीकी देशों की स्वाइली भाषा में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक के नाम का जो अर्थ - सौभाग्यशाली (ब्लेस्ड) नरेन्द्र मोदी ने बताया वह मूलतः इस नई मैत्री इबारत पर भी उसी तरह लागू होता है। लाॅन में चहलकदमी, अकेले में बातचीत करने का उल्लेख और गप्प मारने का जिक्र भी इसे काफी हद तक पुष्ट करता है। नरेन्द्र मोदी ने ओबामा की यात्रा के दौरान प्रतीकात्मक लिहाज से बराबरी के पावदान पर खड़े होकर यह तो साबित कर ही दिया कि भारत किसी भी देश के साथ रिश्तों की नई इबारत लिखने को तैयार है। अब याचना और याचक का दौर भारत के संदर्भ में बीते युग की बात हो गया है। इस दौरे में मोदी सिर्फ अमेरिका को ही नहीं बल्कि पूरी दनिया को यह संदेश देने में कामयाब हुए हैं कि उभरता हुआ भारत अनन्त आकांक्षा और संभावना के साथ-साथ वैश्विक बाजार की जरूरतों पर खरा उतरने के काबिल है। शायद यही वजह थी कि ओबामा की पूरी यात्रा पाकिस्तान निरपेक्ष रही। ‘मेक इन इण्डिया’ के तहत तकरीबन चार अरब डालर निवेश की सम्भावनाएं उगीं। इसमें दो अरब डालर अक्षय ऊर्जा के क्षेत्र में और एक अरब डालर छोटे और मझोले उद्योगों में निवेश का ऐलान किया गया।
जलवायु संकट के जिक्र और कार्बन उत्सर्जन को लेकर चिन्ता जताने और इससे निपटने की बात तो हुई पर यह जरूर खयाल रखा गया कि इन मसलों पर भारत को चीन से ऊपर का ओहदा हासिल होगा। एशिया प्रशान्त हिन्द महासागर में संयुक्त सामुद्रिक रणनीति का ऐलान भारतीय सीमा का बार-बार उल्लंघन करने वाले चीन के लिए भी बड़ा सबब है। हालांकि हमें यह नहीं भूलना चाहिए था कि आज भारत और अमेरिका का व्यापार सौ अरब डालर का नहीं है जबकि चीन-अमेरिकी व्यापार की राशि पांच सौ पचास अरब डालर के आस-पास है। एक ऐसे समय जब अमेरिका मंदी का शिकार हो। विकसित देशों ने अपने यहां विकास के ढांचे खड़े कर लिए हों। वहां की कम्पनियों को विकासशील देशों की दरकार हो, बड़े बाजार की जरूरत हो। तब अमेरिका चीन को भी नाखुश नहीं करना चाहेगा। इसलिए अमेरिकी रिश्ते रस्सी पर करतब करते नट सरीखी सतर्कता की मांग करते हैं क्योंकि अमेरिका हमारे पुराने और परखे हुए मित्र रूस से अपने पुराने रिश्तों का हिसाब-किताब करने के लिए भी हमारा इस्तेमाल कर सकता है। अमरीका ऐसा वातावरण बना सकता है कि चीन पाकपरस्ती करने लगे। रूस को भारत की जगह पाकिस्तान में भरोसा नजर आने लगे। अमेरिका भरोसेमंद नहीं, व्यापारिक देश है। उसके लिए व्यापार बड़ा है। पर अमेरिका को यह भी नहीं भूलना होगा कि भारतीय सेना को अगले दस सालों में एक सौ तीस विलियन डालर की दरकार है, रेलवे में तकरीबन आठ लाख करोड़ का निवेश होना है, सड़कों के लिए दो लाख करोड़ रुपए चाहिए, बन्दरगाहों को विकसित करने के लिए तकरीबन चार लाख रुपए की दरकार है। उड्डयन सुविधाओं तथा विमानपत्तन के क्षेत्र में भी इतनी ही धनराशि चाहिए।
जिस अमरीका ने चीन से तकरीबन 30 अरब डालर बांडों में निवेश के मार्फत उधार लिया है, उसे वापस करने का रास्ता सिर्फ भारत से होकर जाता है। इस आस का लगना और इस आस का जगना बेमानी नहीं कहा जा सकता, शायद यही वजह है कि आस के लगने और आस के जगने में भारत अपने यहां की पेट्रोलियम कंपनी तेल एवं प्राकृतिक गैस निगम लिमिटेड (ओएनजीसी) अमरीका द्वारा काली सूची से बाहर निकालने, मेक इन इंडिया को कामयाब करने परमाणु उत्तरादायित्व कानून के हिसाब से छूट लेने सरीखी तमाम योजनाओं की कामयाबी का सपना भारत के लोगों की आंखों में तैरने लगा है। अमरीकी आखों में मंदी से उबरने का आश्वस्ति भाव पढा जा सकता है, क्योंकि मोदी सरकार विकास के लिये कानून की सीमाएं तोड़ने को तैयार है। पेंटागन, विदेश मंत्रालय और अमरीकी संसद तीनों पहले ही संभवतः इसी के मद्देनजर इस बात पर सहमति जता चुके हैं कि अमरीका द्वारा परमाणु संयंत्रों की निगरानी किसी भी देश की संप्रभुता में हस्तक्षेप है। इसी के चलते परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में अस्पृश्य कहे जाने से भारत को मुक्ति मिली।
यह यात्रा नई उम्मीदों, नये रिश्तों की शुरुआत भी है, क्योंकि भारत अमरीकी संबंध अगली सदियों के बदलाव को तय करेंगे। कुछ यही वजह है कि बेटी बचाओ, महिला सुरक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, एक्सपोर्ट इंपोर्ट बैंक बनाने, तीन स्मार्ट सिटी,स्वच्छ ऊर्जा और बिजली जैसे कई क्षेत्रों में हमकदम होने के संकल्प जताये गये। भविष्य के लिये नयी संभावनाओं की नींव रखी गयी। दोस्ती को कटूनीति में लपेट कर देशों के संबंधों में दोस्ती को ईंधन बना दिया गया। तभी तो जलवायु संकट के सवाल को हल करने के लिये मोदी ने इसे आने वाली पीढियों की बलिहारी किया। ओबामा के भाषण में भारतीय आध्यात्मिक प्रतीक पुरुष विवेकानंद और राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की नजीरें, योग और हिंदुत्व का बखान दोनों देश के राष्ट्राध्यक्षों को निकट तो ले आया पर अद्यतन सामरिक चुनौतियों और बाजार की जरुरतो के मद्देनजर इस निकटता को अभी कसौटी की दरकार है। पर यह कसौटी सिर्फ भारत और अमरीका की नहीं होगी। इस कसौटी पर खरा उतरने के लिए चीन, जापान, रूस और पाकिस्तान के पलड़ों को भी संतुलित करना होगा।