अथ श्री हस्तिनापुर कथा......

Update:2015-02-04 13:48 IST
महाभारत में पांडवों को जीत हासिल नहीं होती, अगर कर्ण के कवच और कुंडल उन्हें न मिलते। या फिर इंद्र वृत्तासुर को मारने में तब तक कामयाब न होते अगर उनके पास दधीचि की हड्डी से बना धनुष ना होता। महाभारत और पुराणों की इस कहानी की प्रासंगिता आज भी बरकरार है। जीवन में भी और राजनीति में भी। अगर सियासत की बात की जाए तो देश के सबसे बडे उलटफेर में मुद्दे ही हथियार बने और मुद्दे ही ढाल। ये हथियार और ढाल हैं- भ्रष्टाचार। मोदी का किसी भी भ्रष्टाचार में लिप्त न होना उनकी सियासत का सबसे बड़ा कवच कुंडल है और कांग्रेस समेत सभी विरोधी और क्षेत्रीय पार्टियों पर हमला करने के लिए भ्रष्टाचार ही मोदी का सबसे बड़ा हथियार है। इस कवच कुंडल और हथियार के जरिए मोदी ने सियासी राजसूय यज्ञ शुरु किया, जिसमें कांग्रेस मुक्त भारत एक बडा ऐलान है। जिसके रथ पर सवार होकर पहले देश फिर झारखंड, हरियाणा, जम्मू कश्मीर, महाराष्ट्र में सबको पिछाड़ा। और अब हस्तिनापुर की लडाई में मोदी इसी रथ को आगे बढाते हुए कुछ नये प्रतिद्वंदी राजनैतिक दलों से दो-चार हैं। हस्तिनापुर ने महाभारत देखी थी। महाभारत यानी भारतवर्ष की अब तक की सबसे भीषण और रोमांचक लडाई। कुछ ऐसी ही सियासी लडाई अब दिल्ली के विधानसभा चुनाव में हो रही है। भाजपा की अर्जुन बनी किरण बेदी के पास मोदी जैसा सारथी कृष्ण है तो दूसरी सेना में राजनीति में कर्ण की तरह उदित अरविंद केजरीवाल है। अर्जुन और कर्ण दोनों के तरकश में तीर है। एक समान तीर हैं। दोनों को एक ही गुरु अन्ना से दीक्षा मिली है। दोने के पास अग्नेयास्त्र हैं, दोनों के निशाने में कमी नहीं। दोनों की धुनर्विद्या में कौन किससे उन्नीस है, यह कहा नहीं जा सकता। दिख यह रहा है कि इस युद्ध में भी जो रथ से उतरा उसकी हार तय है। यही वजह है साम- दाम-दंड-भेद के मार्फत एक दूसरे को रथ से उतारने की चालें चली जा रही हैं। कहीं और कभी घर का भेदिया लंका ढहा रहा है, तो कहीं इस कलयुगी युद्ध में विभीषण की महत्वाकांक्षा को इस कदर बढाने की जुगत है कि वह लंकापति का तख्ता युद्ध से पहले ही पलट दे।

दरअसल, अब तक मोदी के ब्रह्मास्त्र ने हर जगह काम किया है। भ्रष्टाचार के जिन बाणों ने अब तक कांग्रेस से लेकर झामुमो, इंडियन नेशनल लोकदल, राष्ट्रवादी कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेंस को चित किया वही इस बार काम नहीं कर रहे। क्योंकि जो कवच मोदी के पास है, वहीं केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी के पास भी है। केजरीवाल को भ्रष्टाचारियों की लीक से अलग नेता तो माना ही जाता है।

लोकसभा चुनाव, 2014 की तरह अब कोई वैसी परिस्थिति भी नहीं है, जिससे देश के उबारने के नाम पर कांग्रेस से लेकर तमाम दलों के लोग भाजपा में आ गए। किरण बेदी तब भी भाजपा में नहीं आई थीं। हांलांकि ट्विटर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तारीफ करती थीं, मगर इससे ज्यादा कुछ नहीं। अरविंद केजरीवाल पर भी कभी व्यक्तिगत हमला नहीं किया। इस मामले में उन्होंने कभी भी शाज़िया इल्मी की तरह नहीं कहा कि वह आम आदमी पार्टी के खिलाफ खुलासे करने वाली हैं। वैसे इन दोनों नेताओं से भी पूछा जाना चाहिए कि सूचना के अधिकार, पार्टी फंड और लोकपाल के मामले में उनकी राय अब अपनी है या वही है, जो भाजपा की होगी। भाजपा ने किरण बेदी के सहारे अरविंद केजरीवाल को मजबूत चुनौती दी है। दरअसल भाजपा यही करती है। जब केजरीवाल अपने खुलासों से भाजपा को परेशान कर देते हैं, तो भाजपा उनकी छवि वाला कोई नेता ले आती है। पिछली बार विजय गोयल को हटाकर हर्षवर्धन को ले आई। जिसके चलते केजरीवाल की सरकार बनते-बनते रह गई और भाजपा भी बराबरी पर आ गई। जब भाजपा नेता सतीश उपाध्याय पर लगे आरोपों और उसके जवाबों में दिन गुजरता, भाजपा ने किरण बेदी को उतारकर उपाध्याय पर लगे आरोपों की राजनीति की हवा निकाल दी। अब मीडिया में किरण बेदी ही होंगी। यह और बात है कि डाक्टर हर्षवर्धन इस एक साल में ईमानदार और पोलियो के नायक की छवि से कहीं दूर चले गए हैं। वह अब स्वास्थ्य मंत्री भी नहीं हैं।

इसके अलावा सोशल मीडिया के चक्रव्यूह में भाजपा आप को उस तरह नहीं फंसा सकती जैसे उसने लोकसभा में कांग्रेस या फिर सपा, बसपा जैसी पार्टियो को फंसाया था। यह बात और है कि भाजपा ने दिल्ली प्रदेश में कुल 740 सोशल मीडिया वालंटियर्स तैयार कर रखे हैं, प्रत्येक विधानसभा में तकरीबन 10 युवा ऐसे हैं, जो केवल सोशल मीडिया पर ही पार्टी का नंबर बढाने की कोशिश कर रहे हैं। आप की सोशल मीडिया टीम न सिर्फ फेसबुक पर अरविंद केजरीवाल की टेलीविज़न रेटिंग प्वाइंट (टीआरपी) को बढाने के लिए चैबीसों घंटे काम कर रही है, बल्कि भाजपा पर ताबड़तोड़ जवाबी हमले भी कर रही है। दिल्ली की जंग है, जो न सिर्फ सड़कों ,चैराहों, गलियों में लड़ी जा रही बल्कि एक अदद इंटरनेट कनेक्शन और फोन या फिर बंद कमरे में मौजूद कंप्यूटर के की-बोर्ड से भी लड़ी जा रही है। चुनाव के नजदीक आते-आते यह जंग और भी धारदार होती जा रही है। क्या किरण बेदी, क्या केजरीवाल, क्या अजय माकन सोशल मीडिया की इस जंग में एक तरफ जहां समर्थकों की भारी वाह वाही लूट रहे हैं, वहीं उनके दावों की पोल खोलने और भत्र्सना करने वालों की भी भरमार है। तभी तो भाजपा की मुख्यमंत्री पद की उम्मीदवार किरण बेदी अपने फेसबुक पेज पर दिल्ली को वर्ल्ड क्लास सिटी बनाने का दावा करती हैं और सिर्फ आठ घंटों के भीतर उस पर तकरीबन दस हजार लोगों की पसंद और तीन सौ लोगों की टिप्पणियां प्राप्त हो जाती हैं। उनके इस स्टेटस को 294 लोग शेयर भी करते हैं। उधर, अरविंद केजरीवाल के पेज पर बाबरपुर में की गई एक जनसभा की पोस्ट को दो घंटे के भीतर ही तकरीबन 16 हजार लोगों की पसंद और ग्यारह सौ लोगों की टिप्पणियां मौजूद हो जाती है। ये इस जंग की एक बानगी भर है।

दिल्ली में कराए गए सर्वे में राजधानी के कुल वोटर्स में से औसतन 40 फीसदी के अगड़ी जातियों के होने की बात सामने आई है। इनमें लगभग 12 फीसदी ब्राह्मण, 7 फीसदी पंजाबी खत्री, 7 फीसदी राजपूत, 6 फीसदी वैश्य (बनिया) और जैन समुदाय और 8 फीसदी अन्य अगड़ी जातियां हैं। दिल्ली में ऊंची जातियों के लोग बड़ी संख्या में भाजपा को वोट देते रहे हैं, विशेष तौर पर पंजाबी, खत्री और बनिया समुदाय के लोग। वर्ष 1998, वर्ष 2003 और वर्ष 2008 के विधानसभा चुनावों में इन दोनों समुदायों के 50 फीसदी से ज्यादा मतदाताओं ने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को समर्थन दिया था। हालांकि, वर्ष 2013 में आम आदमी पार्टी (आप) ने भाजपा के पंजाबी-खत्री और बनिया वोटों का बड़ा हिस्सा छीन लिया। 2013 के विधानसभा चुनाव के नतीजों की समीक्षा से यह पुष्टि होती है कि आप ने भाजपा के कोर पंजाबी-बनिया आधार को बड़ा नुकसान पहुंचाया। पंजाबी मतदाओं की बड़ी संख्या वाली 16 विधानसभा सीटों में से आप ने नौ और भाजपा ने 6 जीती थीं।

आप को 29.50 फीसदी वोट और 28 सीटें हासिल हुई थीं। जबकि कांग्रेस को 24.5 वोट के साथ सिर्फ 8 सीट मिली थी, वहीं भाजपा गठबंधन को 33.07 फीसदी वोटों के साथ 32 सीटों पर संतोष करना पड़ा था। हांलांकि लोकसभा चुनाव में आप और भाजपा दोनों की हैसियत में इजाफा हुआ भाजाप ने 46.7 फीसदी तथा आप ने 32.9 फीसदी वोट हथियाए। कांग्रेस को सिर्फ 15.1 फीसदी वोट पर संतोष करना पडा था। जिस तरह अल्पसंख्यक मतदाताओं का झुकाव आप की तरफ है, उससे कांग्रेस को और नुकसान की उम्मीद करना बेमानी नहीं होगा लेकिन, जिस तरह राजनैतिक चैसर सजाई गयी है, उसे देखते हुए की सटीक अनुमान लगाना खतरे से खाली नहीं होगा। बावजूद इसके अगर सट्टा बाजार भाजपा को 34 से 40 सीटों के बीच में आंक रहा हो तो इसे स्वीकार करना मुश्किल होगा। क्योंकि 2014 के लोकसभा चुनाव में आप ने पंजाबी वोटर्स का एक बड़ा हिस्सा भाजपा के हाथों गंवा दिया था और अगर पार्टी इस बार चुनाव में फिर अच्छा प्रदर्शन करना चाहती है, तो उसे इन मतदाताओँ को दोबारा अपने पाले में लाना होगा। किरण बेदी के तौर पर एक पंजाबी को भाजपा ने दिल्ली में मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर पेश कर आप के लिए मुश्किलें बढ़ा दी हैं। दो अन्य ऊंची जातियों- ब्राह्मण और राजपूत ने भी 2013 में आप की ओर झुकाव दिखाते हुए भाजपा और कांग्रेस के लिए लगभग समान तौर पर वोटिंग का पुराना पैटर्न तोड़ दिया था।

हालांकि, भाजपा जाट समुदाय में अपना समर्थन बरकरार रखने में सफल रही थी। दिल्ली की जनसंख्या में से लगभग पांच फीसदी जाट हैं और इनकी बड़ी संख्या बाहरी दिल्ली के ग्रामीण इलाकों में है। वर्ष 2013 में आप को जाट समुदाय से जो वोट मिले थे, वे भाजपा से नहीं बल्कि उन जाटों से आए थे जिन्होंने वर्ष 2008 में कांग्रेस को वोट दिया था।

दिल्ली चुनावों को लेकर गला-काट प्रतियोगिता चल रही है। कुमार विश्वास का ट्वीट ‘युद्धों में कभी नहीं हारे, हम डरते हैं छल-छन्दों से, हर बार पराजय पाई है, अपने घर के जयचन्दों’ से तुक नहीं, तीर है। ऐसे तीर दोनों तरफ से चल रहे हैं। अब भाजपा की तरफ से भी अन्ना आंदोलन से निकली टीम आम आदमी पार्टी का मुकाबला करेगी। पुराने नेता सारथी की तरह लड़ाई लड़वाएंगे। शाज़िया इल्मी, विनोद कुमार बिन्नी, सतीश उपाध्याय, प्रभात झा भाजपा की तरफ से मोर्चा संभाले थे लेकिन अमित शाह को आश्वस्ति नहीं थी इसीलिये उन्होंने 120 सांसदों 13 राज्यों के कार्यकर्ताओं राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आर एस एस) के अस्सी हजार स्वयंसेवकों को केजरीवाल के फौज फाटे का जवाब देने के लिए मैदान में उतार दिया है।

दो ईमानदार नेताओं के बीच की लड़ाई में दांव पर ईमानदारी ही है। सियासत में आम तौर पर हार ईमानदारी की होती है। राजनीति में जो चालाक होता है, वह मारा जाता है। जीतता वह है, जो चालें चलता है, मगर चालाक नहीं लगता। तो दिल्ली के चुनाव की इस दमदार लड़ाई में जय पराजय दोनों इमानदारी की होनी है। सत्ता किसी को हासिल हो यह भी देखना जरुरी है कि आम आदमी और आम जरुरतें सियासत के बाकी मानदंडों की भेंट ना चढ़ जायें।

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