शाहबानो, इमराना और गुड़िया-सी
कठमुल्लों के जुल्मों कीशिकार औरतें...
आजाद मुल्क कीगुलाम औरतें...
मज़हब की सलीब पर तंगी
इंसानों के बाज़ार में ऐश का सामान-सी
हरम में चार-चार औरतें...
आज़ाद मुल्क की गुलाम औरतें....
ब्लागर फिरदौस खान की ये लाइनें एक ऐसी हकीकत बयां करती हैं, जिसे कहने से रोकने के लिए कभी फतवे का भय दिखाया जाता है और कभी धर्म की आड़ लेकर पिछले 1400 सालों से महिलाओं की जिंदगी दुश्वार कर दी गयी है। सदियों से दर्द पैबस्त है। यह दर्द अकसर दिल में टीस बनकर रह जाता है। कभी-कभी बाहर आता है। मौके अदालती फैसले भी देते हैं। हालिया मौका देश की सर्वोच्च अदालत- सुप्रीम कोर्ट ने दिया है। उसने अपने एक फैसले में कहा है कि धार्मिक विश्वास का अनुसरण करने के मूल अधिकार में बहुविवाह को अहम हिस्सा नहीं माना जा सकता है। अदालत ने मुस्लिम पर्सनल लॉ के ओट में मुस्लिम पुरूषों को चार पत्नियां रखने के तर्क को खारिज करते हुए कहा है- इसे मूलअधिकार नहीं माना जा सकता। बहुविवाह धर्म का अहम हिस्सा नहीं है और बहुविवाह की केवल इसलिए इजाजत नहीं दी जा सकती है कि धर्म में यह मान्य है। दरअसल, पीठ के मुताबिक संविधान के अनुच्छेद 25 में वर्णित धार्मिक स्वतंत्रता का मतलब धार्मिक विश्वास का अनुसरण करने से है, ना कि सार्वजनिक नीति, स्वास्थ्य और नैतिकता के खिलाफ नियम चलाने से।
यह फैसला मुस्लिम औरतों के लिए उम्मीद और उत्तर प्रदेश सरकार के सिंचाई विभाग में कार्यरत मुस्लिम कर्मचारी खुर्शीद अहमद खान के दुख का सबब है। खुर्शीद के पहली पत्नी के रहते दूसरी शादी करने को अनुचित व्यवहार मानते हुए उत्तर प्रदेश सरकार ने उसे सेवा से बर्खास्त कर दिया गया। खुर्शीद ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में चुनौती दी। जहां सरकार के निर्णय को सही ठहराया गया था ।
वैसे यह पहला मौका नहीं है, जब इस तरह का फैसला आया हो। सुप्रीम कोर्ट ने साल 2010 में राजस्थान पुलिस के लियाकत अली को पहली पत्नी के रहते हुए दूसरा विवाह करने पर नौकरी से निकालने के सरकार के फैसले को उचित ठहराया। सुप्रीम कोर्ट ने 1986 के इस मामले में 25 जनवरी, वर्ष 2010 को विशेष अनुमति याचिका की सुनवाई की। तब यह माना गया था कि कोई भी सरकारी कर्मचारी इस फैसले के बाद धर्म का बहाना लेकर दूसरी शादी नहीं कर सकता, सुप्रीम कोर्ट ने यह साफ कर दिया है। अगर आप मुस्लिम भी हैं तो भी सरकारी नौकरी में होते हुए दूसरी शादी नहीं कर सकते।
मुस्लिम समाज के एक धड़े की निगाहें इस तरह के फैसलों पर अकसर टेढी हो जाती है। तर्क यह दिया जाता है कि जब संविधान में उन्हें एक से अधिक विवाह करने का हक दिया गया है, तो फिर ऐसे फैसले क्यों ? ऐसे में यह सवाल मौजूं हो जाता है- क्या हर मुसलमान को चार शादियों का हक है ? क्या एक बीवी के रहते मुसलमान बेखटक दूसरी शादी कर सकता है ? आम धारणा यह है कि हर मुसलमान को उसका धर्म इसकी इजाजत देता है। मुसलमान चार शादियां कर सकते हैं। लॉ कमीशन की वर्ष, 2012 की रिपोर्ट में कहा गया है कि इस्लाम एक से अधिक शादियों को जायज नहीं ठहराता। शरीयत में जो कुछ कहा गया है उसकी गलत व्याख्या की जाती है। लॉ कमीशन ने इस सिलसिले में ये तर्क भी दिए हैं कि, तमाम इस्लामिक देशों में भी एक से अधिक शादियों का रिवाज खत्म कर दिया गया है। टर्की और ट्यूनीशिया में यह गैर कानूनी है। मिस्त्र, सीरिया, जॉर्डन, इराक, यमन, मोरक्को और यहां तक कि पड़ोसी पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी इस पर अदालतें फैसला सुनाती हैं। लेकिन भारत में तमाम अदालतों की आलोचना के बाद यह आज भी जारी है। इस कुप्रथा के पीछे मुस्लिम राजनीति का कठमुल्लापन जिम्मेदार है। ये कठमुल्लों का ही आतंक है कि अपनी खुली सोच के बाद भी लॉ कमीशन की कोशिश सिर्फ सोच तक सिमट कर रह गई।
दारुल उलूम देवबंद ने 2012 में ही एक महत्वपूर्ण फतवा दिया था । फतवे में साफ किया गया था कि इस्लाम हालांकि एक पत्नी के रहते दूसरी शादी की इजाजत देता है लेकिन मुसलमान ऐसा न करें। दारुल उलूम का कहना है कि भले ही शरीयत हमें ऐसी इजाजत देता है लेकिन भारतीय परंपरा में यह मान्य नहीं हो सकता कि एक पत्नी के जीवित रहते दूसरी शादी कर ली जाए। ऐसा करने पर दोनों पत्नियों के साथ अन्याय होगा। तो क्या इस्लाम सच में एक से अधिक बीबियों को रखने की इज़ाजत देता है ? भारतीय मौलानाओं ने बहुत ही कुटिलपूर्ण तरीके से यह भ्रम फैला रखा है कि इस्लाम में चार बीबीयों की इजाजत है। जो लोग यह तर्क देते हैं कि इस्लाम में चार बीबीयों को रखने की इज़ाजत है वे समझ लें कि इस्लाम में कहीं भी चार बीवियों का पति होने की इज़ाजत नहीं है। युद्धोपरान्त आपातकाल में, यतीमों की देखभाल के लिए कुछ खास शर्तों के साथ इस्लाम में चार बीवियों की इजाजत है। यह एक ‘पाबन्दी’ है, उस समाज पर जो कितनी भी औरतों को हरम में रखा करता था। यह अरब भूमि के केवल एक शहर ‘मदीना’ के लिए ‘उहुद’ युद्ध की हार के बाद, विशेष परिस्थिति में लाया गया विशेष-प्रावधान है। जिसे धार्मिक ग्रंथ में कभी भी, सभी मुसलमानों के लिए, जायज या वांछनीय घोषित नहीं किया गया। और इस विशेष एहकाम को भी चार की गिनती पर रोका गया।
उहुद प्रसंग के मुताबिक मदीनावासियों की जंग मक्कावासियों से उहुद नामक घाटी में हुई। इस जंग में मदीनावासियों की हार हुई और 700 मर्दों की जनसँख्या घटकर केवल 400 रह गयी। ऐसे में यतीमों, शहीदों की बेवा और बच्चे की जिम्मेदारी को समाज पर डालने के लिए यह एक प्रावधान लाया गया। ताकि शहीदों के बच्चे अपनी मां से अलग हुए बिना सहारा पाएं और उन्हें कानूनी सरपरस्ती भी मिले। इस आपातकालीन प्रावधान में भी शर्त थी की जो मुसलमान मर्द एक से अधिक बीवी करे वो एक तो इतना समर्थ हो की सबकी देखभाल कर सके, दूसरे वह सभी पत्नियों को एक सामान समझे, और भेदभाव न करे। स्वयं इस्लाम के सबसे बडे पैगंबर ने भी कहा है की यह मुमकिन नहीं की शौहर पत्नियों के बीच भेदभाव ना करे। खुद अपने लिए उन्होंने दुआएं मांगी की उनसे किसी (पत्नी) के प्रति पक्षपात ना हो जाये। बावजूद इसके वे खुद मानते हैं कि उनकी आखरी पत्नी ही उनकी सबसे प्रिय पत्नी थीं। खुद पैगंबर ने कहा कि मुमकिन नहीं की आदमी चारों औरतों को बराबर का चाहे, इसलिए तुम्हें आदेश यही है- ‘एक ही करो’।
इसी के साथ धर्म ग्रंथ में कहा गया है की यह किसी मर्द के लिए मुइसी के साथ यह भी जानना जरूरी है कि धार्मिक किताब में कहीं पर भी मर्दों को शारीरिक सुख के लिए एक से अधिक पत्नी की इजाजत नहीं है। अब सवाल यह उठता है कि मुसलमान आलिम क्या धर्मग्रंथ को सही पढ़ नहीं पाते, या फिर शारीरिक हवस के आगे मजबूर हो कर इसे झुठलाते हैं? माहौल तो यह बना है कि कोई भी मुसलमान एक पत्नी के जीते जी उसकी सौत लाने में हिचकिचाता नहीं है। बड़े आराम से कह देता है कि ‘हमारे यहाँ’ तो इसकी ‘इज़ाजत’ है। यही नहीं, इसे ‘सुन्नत’ भी कह डालता है। दुहाई पैगम्बर की दी जाती है। अधिकांश मुसलमान एक ही शादी करता है लेकिन सौत की तलवार को तो लटकाए रखता है।
बात अब शरई और संवैधानिक अदालतों की। बात साल वर्ष 2005 की है। 28 वर्षीय इमराना से उसके ससुर ने दुराचार किया। मामला शरीयत अदालत पहुंचा।फतवा जारी किया गया कि इमराना के ससुर ने उससे शारीरिक संबंध स्थापित कर लिए हैं। लिहाजा वह ससुर को अपना पति माने और पति को पुत्र। अनाप-शनाप फैसलों का यह महज एक उदाहरण है। इमराना मामले को आधार बनाकर दिल्ली के एक वकील ने वर्ष 2005 में सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका की। दलील दी कि ‘शरीयत अदालतें गैरकानूनी रूप से देश में समानांतर न्याय व्यवस्था चला रही हैं। दारूल कजा और दारूल इफ्ता देश के करीब 60 जिलों में काम कर रही हैं। मौलिक अधिकार नियंत्रित किए जा रहे हैं। जो स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार में दखल है। मुस्लिम पक्ष ने दलील दी कि शरीयत अदालतें समानांतर न्याय व्यवस्था नहीं चला रही हैं। आपसी झगड़ों को अदालत के बाहर निपटाकर मुकदमों का बोझ कम करती हैं। फतवे बाध्यकारी नहीं, सलाह होते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने फैसले में शरीयत अदालतों की कानूनी मान्यता को नकारा। यह भी कि दारूल कजा को तब तक किसी व्यक्ति के अधिकारों के बारे में फैसला नहीं करना चाहिए, जब तक वह खुद इसके लिए संपर्क नहीं करता है। ऐसे व्यक्ति के खिलाफ भी फतवा या आदेश जारी नहीं करना चाहिए जो मौजूद न हो।
दरअसल, शरीयत को खुदा का कानून माना जाता है। भारत में मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) अनुप्रयोग अधिनियम, 1937 लागू है। इसमें मुसलमानों के शादी, महर, तलाक, रखरखाव, उपहार, वक्फ, चाह और विरासत जैसे महत्वपूर्ण कानून शामिल हैं। सच्चाई यह भी है कि ‘शरीयत’ को कैसे परिभाषित और लागू किया जाए। इसको लेकर एक राय नहीं है। सुन्नी समुदाय में इसको लेकर चार और शिया समुदाय में दो अलग-अलग नजरिए हैं। अब तो पर्सनल लॉ बोर्ड के तीन टुकडे होकर शिया पर्सनल लॉ बोर्ड और मुस्लिम महिला पर्सनल लॉ बोर्ड बन गये हैं। नतीजतन, शरई और संवैधानिक अदालतों का टकराव देखने को मिलता है। इसका सबसे बड़ा उदहारण शाहबानो प्रकरण है। गुडिया प्रकरण, इमराना प्रकरण और मुंबई में एक बच्चे को गोद लेने के लिए चला शबनम हाशमी का केस भी इसी की बानगी है।
ऐसा नहीं है कि मुस्लिम समाज में इन सब मसलों को लेकर कोई हलचल नहीं है। वर्ष 1999 में मुंबई में मुस्लिम वीमेन राइट्स नेटवर्क, 2005 में भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन नामक संगठन इसका उदाहरण है। मुस्लिम महिलाओँ के बीच पर्सनल-लॉ-बोर्ड में सुधार, पर्दा प्रथा, बहुविवाह और तलाक, लड़की की शादी की उम्र 18 और लड़के की 21 करने, जुबानी एकतरफा तलाक और हलाला पर कानूनी पाबंदी लगाने, बहुपत्नीत्व पर रोक लगाने जैसी मांगें जोर पकड़ रही हैं।
भारतीय मुस्लिम निजी कानूनों को लेकर बेहद संवेदनशील हैं। पर यह भी समझा जाना चाहिए कि हिंदुस्तान दारूल इस्लाम (इस्लामी राष्ट्र) नहीं, बल्कि दारूल अमन है। ऐसा मुल्क जहां मुसलमानों के जान-माल की हिफाजत हो और उनको अपने मजहब की पाबंदी की पूरी आजादी है। शरीयत के बरअक्स भारतीय संविधान है, जो बिना धर्म का विचार किए सभी नागरिकों को समान अधिकार प्रदान करता है। लेकिन कोर्ट मुसलमानों के बारे में कोई भी फैसला देने से पहले मुस्लिम धर्मगुरुओं या पर्सनल लॉ बोर्ड से सलाह मशविरा करें,यह भी संभव नहीं। आपराधिक और जायदाद जैसे मामलों में शरीयत की जगह संविधानिक कानून अपनाये जा सकते हैं। मुस्लिम औरतों को प्रभावित करने वाले संपत्ति, विवाह, तलाक जैसे मसलों में ऐसा क्यों नहीं हो सकता है? वह भी तब जबकि हिंदू स्त्री मुस्लिम स्त्री से अधिक अधिकार और स्वतंत्रता का अहसास करते हुए दीखती है। अदालतों के ये फैसले इसी सफर की तरफ बढ़ाया गया एक छोटा सा कदम हैं।