माँ सजदे में रहती है.
इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है
माँ बहुत गुस्से में होती है तो रो देती है
धरती मां के इसी गुस्से का अहसास पिछले शनिवार और रविवार को भारत और नेपाल के लोगों ने हिमालयी त्रासदी के रुप में किया। हमारे पुरखों ने पृथ्वी और नदियों को मां बताया है।पानी, पेड़ और प्रकृति को भी किसी ना किसी देवी-देवता का नाम देते हुए उसका पर्याय बताया है। इसका आज धार्मिक मतलब निकालते हुए भले ही प्रगतिशीलता का लबादा ओढ़ककर हम खारिज कर दें। पर इन सब पर धर्म का मुअलम्मा चढ़ाने के पीछे उनकी मंशा यह थी कि हम आराध्य की तरह इन्हें ना केवल पूजें बल्कि सरंक्षित, पोषित और पल्लवित भी करें। पर भाववादी से भौतिकवादी होने की राह पर कदम बढाते हमने इन्हें पण्य (कमोडिटी) मान लिया। नतीजतन, हम इनका उपयोग करने की जगह दोहन करके इन्हें बाजार के हवाले करने लगे। बाजार का भावना, संवेदना और आस्था से दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं है। तो ऐसे में धरती मां के इस गुस्से के लिए हम अपनी मां को दोष देने के बजाय अपने इस नजरिये की तरफ देखें तो शायद हमें जवाब मिल जायेगा।
प्राकृतिक आपदा के रुप में हो जो कुछ हो रहा है, उसके लिए हम अथवा हमारा बाजारवादी नजरिया जिम्मेदार है। हमने एक ओर धरती की पकड़ मजबूत बनाने के लिए धरती मां के कोख में उगे पेड़ पौधों को नष्ट करना शुरु किया। पेड़ वैसे भी धरती के श्रृंगार माने जाते हैं। वहीं दूसरी ओर बड़े-बडे बांध बनाकर हम नदियों की दशा और दिशा बदलने की साजिश कर रहे हैं। प्रकृति की उन्मुक्तता को बांधने की कोशिश और उसके अल्हड़ सौंदर्य को प्रदूषण के हवाले करने के प्रयास, यह बयां कर रहे हैं कि विकास की बलिवेदी पर हमारी प्रकृति और उसकी नैसर्गिक सुन्दरता चढाई जा रही है।
प्रकृति को विजित करने की सायास-अनायास कोशिशें भी प्राकृतिक आपदाओं के लिए जिम्मेदार हैं। आज जिस हिमालयी क्षेत्र में आई आपदा का शिकार नेपाल और भारत हुआ है, उसका पेट चीरकर लहासा से काठमांडू तक ट्रेन चलाने की घोषणा चीन कर चुका है, चीन का इरादा माउंट एवरेस्ट के नीचे सुरंग बनाकर काठमांडू तक रेल लाइन बिछाने का है। चीन के सरकारी अखबार ‘चाइना डेली’ ने छपी खबर से बहुत पहले से इसकी तैयारी चल रही है। बीजिंग से ल्हासा और फिर ल्हासा से सिगात्ज़ तक रेल लाइन बिछ चुकी है। सिगात्ज़, नेपाल सीमा के करीब है। इस रेल लिंक को आगे बढ़ाकर चीन काठमांडू तक पहुंच सकता है, लेकिन इसके बीच माउंट एवरेस्ट खड़ा है। तिब्बत तक रेल पहुंचाने में चीन ने जिस तरह से सुरंग और पुल को बनाने में महारथ हासिल कर ली है, ऐसे में यह चुनौती बड़ी नहीं। तिब्बत ऑटोनॉमस रिजन सीपीसी कमेटी के एक्जेक्यूटिव डिप्टी सेक्रेटरी वू यिंग्जी कहते हैं, ‘‘हमने कई रेल लाइन बिछाई है। हम शांतिपूर्ण सह अस्तित्व में भरोसा करते हैं। जैसे अमेरिका-कनाडा और यूरोप के देश रेल और यातायात के मामले में साथ हो गए हैं, वैसे ही हमें भी होना चाहिए। यह किसी देश पर निर्भर करता है कि वह कब और कहां तक रेल विस्तार चाहता है। नेपाल हमारी रेल को अपने देश तक ले जाने के लिए लगातार आग्रह करता रहा है। जब-जब भी इस तरह की बात की जाती है, तब-तब राष्ट्रों की सरहद, देशों के टकराते अहम् और देशों की ऊंची नाक ही चिंता की जाती है। प्रकृति की नहीं।’’
भूकंप से बड़े पैमाने पर होने वाला विनाश प्रकृति से बढ़ती छेड़छाड़ और खतरे की चेतावनियों की अनदेखी का नतीजा है। भू-विज्ञानी इसे लेकर दशकों से चेतावनी दे रहे हैं। प्रोफेसर रोजर बिलहाम, विनोद के. गौड़ और पीटर मोलनार नामक भू-विज्ञानिकों ने वर्ष 2001 में ‘जर्नल साइंस’ में ‘हिमालय सेसमिक हाजार्ड’ शीर्षक से प्रकाशित शोधपत्र में कहा था, ‘‘इस बात के एकाधिक संकेत मिले हैं कि हिमालय के इस इलाके में एक बड़ा भूकंप कभी भी आ सकता है। उससे लाखों लोगों का जीवन खतरे में पड़ सकता है।’ हिमालय के छह क्षेत्रों में रिक्टर स्केल पर आठ या उससे ज्यादा के भूकंप आने का अंदेशा है।’’
दार्जिलिंग-सिक्किम रेंज भी इनमें शामिल है। विशेषज्ञों का कहना है कि मिट्टी का कटाव ही जमीन धंसने की प्रमुख वजह है। लेकिन इसके अलावा एक और वजह यह है कि हिमालय के इस पूर्वी रेंज के पहाड़ अपेक्षाकृत जवान है। इनकी बनावट में होने वाले बदलावों की वजह से भू-गर्भीय ढांचा लगातार बदलता रहता है और अब तक स्थिर नहीं हो सका है।
पश्चिम बंगाल में सिलीगुड़ी स्थित हिमालयन नेचर एंड एडवेंचर फाउंडेशन नामक एक गैर-सरकारी संगठन, जो पहाड़ों को बचाने की दिशा में काम कर रहा है, इसके संयोजक अनिमेष बसु कहते हैं, ‘हिमालय का पूर्वी हिस्सा अभी अपनी किशोरावस्था में है। इसलिए इसकी चट्टानें अभी दूसरे हिस्सों की तरह ठोस नहीं है। उसका यह गुणधर्म इसे भूकंप के प्रति बेहद संवेदनशील बनाता है।’ वे कहते हैं कि पर्वतीय इलाके की तमाम सड़कें ब्रिटिश शासनकाल के दौरान बनी थी। तब उन पर चलने वाले वाहनों की तादाद बहुत कम थी। अब यह तादाद सौ गुने से ज्यादा बढ़ गई है। नतीजतन, पहाड़ों पर बोझ भी बढ़ा है। इस बोझ को नहीं सह पाने की वजह से भी पहाडियों के पैर उखड़ रहे हैं। उनके मुताबिक, इलाके में तेजी से होने वाले अवैध निर्माण और बड़े-बड़े बांध हिमालय पर बेहद प्रतिकूल असर डाल रहे हैं। इलाके की भूगर्भीय परिस्थितियों का ख्याल किए बिना हम अपनी जरूरतों के मुताबिक मनमाने तरिके से पेड़ और पहाड़ काट रहे हैं। सिक्किम तक रेल की पटरियां बिछाने के रेल मंत्रालय का फैसला और जलढाका, झालंग और नेवड़ावैली जंगलों से होकर राजधानी गंगटोक तक वैकल्पिक सड़क बनाने का सेना का प्रस्ताव सिर पर मंडरा रहे विनाश की बानगी बन सकता है।
विशेषज्ञों के मुताबिक, जमीन के नीचे भारतीय व यूरेशियाई प्लेटों के बीच टकराव की वजह से विशालकाय चट्टाने दक्षिण की ओर बढ़ती हैं। इन चट्टानों को एक-दूसरे से अलग करने वाली प्लेटों के जगह बदलने से ही उनके नीचे दबी ऊर्जा के बाहर निकलने की वजह से भूकंप आते हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि सिक्कम में तिस्ता नदी पर बनने वाली पनबिजली परियोजनाओं के तहत बनाए जा रहे बांध भी विनाश को न्योता दे रहे हैं। पहाड़ों का सीना चीर कर बनने वाले ये बांध उर्जा के विभिन्न रूपों में किसी छोटे से इलाके में केंद्रित कर रहे हैं। तिस्ता को दुनिया में सबसे ज्यादा तलछट वाली नदी माना जाता है। बांधों के लिए बने जलाशयों में भारी मात्रा में तलछट जमा होगी। यह उर्जा बाहर निकली तो इलाके का मटियामेट होना तय है। इसके अलावा देश के दूसरे पर्वतीय इलाकों की तरह यहां होने वाली पेड़ों की अंधाधुंध कटाई भी मिट्टी खिसकने की एक प्रमुख वजह है। पेड़ों की कटाई के चलते मिट्टी नरम हो जाती है।
काउंसिल फार साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च (सीएसआईआर) के सेंटर फार मैथेमेटिकल एंड कंप्यूटर सिमलेशन की एक टीम ने बीते कुछ वर्षों के अध्ययन के बाद अपनी रिपोर्ट में कहा था कि इन पहाड़ियों के नीचे धीरे-धीरे दबाव बन रहा है। जमीन के नीचे दबी ऊर्जा जब बाहर निकलेगी, तब भूकंप से जिस पैमाने पर विनाश होगा, उसका अनुमान लगाना भी मुश्किल है। लेकिन उनकी यह चेतावनी और अध्ययन रिपोर्ट फाइलों में पड़ी धूल फांक रही है।
हिमालय क्षेत्र में हरेक साल 2 हजार से ज्यादा भूंकप आते हैं लेकिन उनका ‘मैग्नीच्यूड’ कम होता है। शनिवार के भूंकप की तीव्रता काफी ज्यादा थी। इंडियन प्लेट्स के खिसकने के कारण हिमालय की उंचाई लगातार बढ़ रही है। इसलिए भूकंप आते रहते हैं। इंडियन प्लेट यूरेसिया प्लेट की ओर खिसकी है। इसे ‘एडजस्ट’ होने में कुछ समय लगेगा, लिहाजा भूंकप के कई और झटके झेलने पड़ सकते हैं। नेपाल, बिहार और उत्तर प्रदेश के अलावा दिल्ली और दूसरे प्रदेश सेस्मॉसिक जोन 4 और 5 में आते हैं। यहां बने मकानों में उच्च तीव्रता वाले भूकंप झेलने की क्षमता नहीं है। इसलिए नेपाल में नुकसान ज्यादा हुआ।
हिमालय की गोद में समाया पूरा नेपाल भूकंप के ‘फॉल्ट जोन’ में है। नेपाल के बीच में से ‘महेंद्र हाईवे फॉल्ट लाइन’ गुजरती है। यह तराई इलाकों और पहाड़ी इलाकों को ‘क्रॉस’ करती है।
‘लोकल फॉल्ट’ से आने वाले भूकंप की तीव्रता 4-5 तक हो सकती है, लेकिन हिमालयन रीजन में आने वाले भूकंप बेहद खतरनाक हो सकते हैं। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) कानपुर के ‘नेशनल इन्फॉर्मेशन सेंटर ऑन अर्थक्वेक इंजिनियर’ (एनआईसीईई) के कोआर्डिनेटर दर्गेश राय इस बात को लेकर नाराज हैं कि इस क्षेत्र में भाषण के सिवा कुछ नहीं होता। हिमालय में भूकंप आने पर तबाही का दायर दिल्ली क्या पूरे उत्तर प्रदेष में होगा। कानपुर, लखनऊ, मेरठ समेत यूपी में भवन निर्माण जो भी हाईराइज बिल्डिंग्स बना रहे हैं, वे सुरक्षित नहीं हैं। कहीं भी बिल्डिंग कोड का पालन नहीं किया जा रहा है। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम ने भी अतिसंवदेनशीलता कम करने के लिए कहा है, लेकिन सिर्फ भाषणबाजी ही हो रही है। खासकर लखनऊ और तराई के इलाकों में पिछले दस सालों में ढेरों मल्टीस्टोरी बिल्डिंग्स बनी हैं, लेकिन ज्यादातर जगहों पर ये भूकंपरोधी नहीं हैं।
संकट में सियासत नहीं होती। मन की बात से लेकर धन, बल और संबल नेपाल के साथ है। पर नेपाल की चीख हमारे लिए एक सीख लेकर आयी है। सीख यह कि हमारी संवेदनशीलता से सिर्फ संकट तक ही सीमित ना रहे।