मैं चाहे जो करुं, मेरी मर्जी

Update:2015-05-05 14:33 IST
दुर्घटना से देर भली। ‘इट्स बेटर टु बी मिस्टर लेट देन लेट मिस्टर।’ इस सरीखे तमाम लुभावने नारों के माध्यम से लंबे समय से लोगों को जागरुक करती आ रही सरकारों के सामने एक बड़ा संकट है कि ज्यों-ज्यों दवा की जा रही है, मर्ज बढ़ता ही गया। तकरीबन 21,515 लाख रुपये सड़क सुरक्षा के बाबत खर्च करके भी सड़क दुर्घटनाओं में मौत पर ब्रेक नहीं लग पा रहा है। आंकडे गवाह हैं कि आज सड़क दुर्घटना में मरने वालों की संख्या में भारत दुनिया में सबसे आगे है। तकरीबन हर मिनट एक व्यक्ति सड़क दुर्घटना का शिकार होता है। हर छह मिनट पर एक व्यक्ति की मौत सड़क दुर्घटना के कारण होती है। भारत में सड़क दुर्घटना में मरने वालों का सालाना आंकडा तकरीबन 80 हजार है। इसमें 70 फीसदी लोगों की उम्र 45 वर्ष से कम होती है। बीते दो दशक में सड़क दुर्घटना के कारण होने वाली मौत और इससे हुई बीमारियों में 64 फीसदी की बढोत्तरी दर्ज हुई है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकडे बताते हैं कि प्रति वर्ष जितने लोग बीमार होते हैं, उनमें से 2.6 फीसदी लोगों की बीमारी का कारण सड़क दुर्घटना होती है। हर साल जितने लोग मरते हैं, उसमें 23 फीसदी लोगों की मौत सड़क दुर्घटना के कारण होती है। 16.9 फीसदी लोग आत्महत्या के कारण अपनी जान गंवाते हैं, जबकि 14.2 फीसदी लोग युद्ध, आतंकवाद और झगड़ों के चलते असमय काल कवलित होते हैं। इन ड़रावने आंकडों के साथ ही यह भी एक गंभीर सच्चाई है कि अंतर्राष्ट्रीय सड़क संघ के आंकडों़ के मुताबिक सड़क दुर्घटनों के चलते हमारी सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 3.7 फीसदी का नुकसान होता है। जो करीब 75 हजार करोड़ रुपये सालाना के बराबर है। अस्सी फीसदी सड़क दुर्घटनाएं चालकों को गलती से होती हैं।

इन कठोर सच्चाइयों को नजरअंदाज करते हुए हम इस बात पर इतरा रहे हैं कि विकास हमेशा रफ्तार के साथ आता है। हांलांकि सड़क दुर्घटनाओं के इन आकंडों के मद्देनजर ही संयुक्तराष्ट्र महासभा ने 2011-2021 तक की अवधि को सड़क सुरक्षा कार्रवाई दशक घोषित करते हुए सड़क दुर्घटनाओं में 50 फीसदी कमी लाने का लक्ष्य निर्धारित किया है। पर हम इन सबसे अंजान बने हुए हैं। यही वजह है कि जब केंद्र सरकार सड़क सुरक्षा के नये मानक लेकर आती है तो राष्ट्रव्यापी स्तर पर उसका विरोध होने लगता है। हद तो यह है कि सड़क सुरक्षा के मद्देनजर लाई गई इस नीति का विरोध देश भर के सरकारी वाहन चालक भी करते हैं।

सरकार के नये नियम कानून में जो बदलाव किये हैं, उसके मुताबिक अब जुर्माना राशि मौजूदा 100 रुपए से सीधे हजार रुपए कर दी गई है, जो दूसरी और तीसरी बार ट्रैफिक नियम तोड़ने पर दोगुनी से तिगुनी होती जाएगी। दुर्घटना में एक लाख से 7 लाख तक का जुर्माना मृतक के परिजनों को देना होगा। बीमा कंपनी जो मुआवजा देगी वो अलग। विधेयक में छोटे से यातायात उल्लंघन के लिए भारी जुर्माने का प्रावधान है। यहां तक कि लाल बत्ती पार करने पर भी। किसी भी कागजात को भूल जाने की स्थिति में 5000 रुपये तक का जुर्माना किये जाने का प्रावधान है। विरोध करने वालों के मुताबिक भारी जुर्माना लगाना ट्रांसपोर्टर की कमर तोड़ना और ट्रैफिक पुलिस वालों को मनमानी में छूट देना है। साथ ही ट्रासंपोर्टर्स राज्य सरकारों से मांग कर रहे हैं कि वाहनों में जी.पी.एस. लगाने के लिए उन्हें 2700 रूपया वार्षिक शुल्क दिया जाए।

जानलेवा सड़कों पर दौड़ने के लिए सुरक्षा नियमों का पालन और कानून व्यवस्था के अनुपालन के खिलाफ एकजुट हुए लोगों के पास यह तर्क हो सकता है कि- ‘हम जो चाहेंगे हमारी मर्जी।’ पर इन लोगों को यह नहीं भूलना चाहिए कि जिस देश में बिना कानून के लोग चार पहिया वाहन पर सीट बेल्ट लगाने को तैयार न हो। जहां कानून के डंडे के बिना लोग अपने ही सर को बचाने के लिए हेलमेट लगाना शान में गुस्ताखी समझते हो, यही नही, बीते दस साल में लोगों की आमदनी में इतना इजाफा हुआ है कि पुराने कानून के जुर्माने को भर देना उनके लिए बाएं हाथ का खेल हो गया है। ऐसे में निश्चित तौर से यह अनिवार्य हो जाता है कि जानलेवा सड़कों पर चलने के लिए अपने कानूनी शिकंजे को और कसा जाए। इसका विरोध करने वाले शायद यह नहीं जानते कि सही तरीके से सीट बेल्ट लगाकर दुर्घटना के दौरान मौत के जोखिम को 61 फीसदी कम किया जा सकता है। बचाव उपकरणों का इस्तेमाल करके 35 फीसदी बच्चों की जिंदगी बचाई जा सकती है। हेलमेट लगाया जाय तो 45 फीसदी लोग बचाए जा सकते हैं। शराब पीकर गाड़ी ना चलाने के कानून को कठिन किया जाय तो 20 फीसदी लोगों को बचाया जा सकता है। यदि सड़क पर दौडने वाली 11 लाख 48 हजार से ज्यादा दोपहिया और पांच लाख 10 हजार चार पहिया गाडियों की औसत रफ्तार सिर्फ 1 किलोमीटर कम कर दी जाय तो सड़क हादसो में दो फीसदी की कमी आ सकती है।

भारत में कुल एक लाख 70 हजार किलोमीटर सड़के हैं। जिसमें भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (एनएचएआई) के अधीन 70,207 किलोमीटर राजमार्ग हैं। इनमें सीमा सड़क संगठन के अधीन करीब 3,798 किलोमीटर सड़कें हैं, करीब 10 हजार किलोमीटर प्राइवेट पार्टनरशिप से बनती हैं। वहीं राज्यों के अधीन करीब एक लाख किलोमीटर मार्ग हैं। ऐस में पौने दो लाख किलोमीटर की इन सड़कों पर होने वाले हादसे किसी महामारी, युद्ध, दैवीय आपदा या फिर देश में किसी अन्य कारण से होने वाली मौतों से ज्यादा बैठती है। ऐसे में अगर कानून का विरोध किया जा रहा है कि हम उस देश में रहते हैं जहां पर हम अपनी मनमानी करते है। चाहे जो कर लो हम नहीं सुधरेंगे का बोर्ड लगाकर हम घूमते रहते हैं।

मैं उत्तर प्रदेश में रहता हूं। अकसर गाजियाबाद या फिर राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) के आसपास में गाडी किनारे लगाकर लोगों को बेल्ट लगाते देखता हूं। यह वह जगह है, जहां पर यूपी की सीमा राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र यानी दिल्ली की सीमा शुरु होती है। यहां तक कि लोग हेलमेट भी तब ही पहनते देखता हूं, जब वो उस चैकी से पहले खडे होते हैं, जहां पर चेकिंग होने वाली होती है। हम भारतीय जब देश से बाहर जाते हैं, तो शत-प्रतिशत नियमों का पालन करते है। यानी हम पालन तभी करते हैं जब ड़र हो। ऐसे में विरोध करने वाले या तो सियासत से प्रेरित है या फिर वह किसी भी बदलाव का विरोध करना उनकी फितरत है। चाहे बदलाव बेहतरी के लिये ही हो।

नये सड़क सुरक्षा कानून में सिर्फ जुर्माने ही नहीं है। सड़क सुरक्षा को लागू करने के लिए तकनीकी का इस्तेमाल भी षामिल है। पूरे देश में एकीकृत ड्राइविंग लाइसेंस सिस्टम और एकीकृत मोटर पंजीयन सिस्टम और नेशनल रोड़ ट्रांसपोर्ट, मल्टीमोडल कोआर्डिनेशन अथारिटी का भी प्रावधान है। देश भर में पब्लिक ट्रांसपोर्ट सिस्टम और ट्राफिक मैनेजमेंट सिस्टम को सुचारु करने का प्रावधान भी है। ऐसे में सिर्फ जुर्माने का विरोध करना तो यह स्वीकार करने जैसा है कि हम गलतियां करते रहेंगे सजा कम होनी चाहिए।

राष्ट्रीय क्राइम रिकार्ड ब्यूरो और पुलिस के मुताबिक हर चार दुर्घटना में दो सिर्फ इस वजह से होती है क्योंकि लोग ड्राइविंग के नियम नहीं पालन करना चाहते और ट्राफिक नियमों का पालन नहीं कराया जाता। ऐसे में अगर इस दिशा में किसी भी कठोर कानून के तहत ही सही कोई पहल होती है तो क्या बुराई है। आखिर इसका विरोध क्यों होना चाहिए। क्यों सरकारी ड्राइवरों को इसका विरोध करना चाहिए। मतलब साफ है कि आप यह करना चाहते हैं- ‘मेरी मर्जी।’ लेकिन सरकार आपको इन सड़कों पर खूनी खेल खेलने के लिए मर्जी के हवाले नहीं कर सकती। सबको खुश होना चाहिए कि सरकार उन मसलों पर हमारा ख्याल रख रही है, जिस पर हमें खुद अपना ख्याल रखना चाहिए। यह जरुर है कि चालकों पर जिस तरह नये कानून में शिकंजा कसा गया है। कुछ उसी तरह का शिकंजा वाहन निर्माता कंपनियों पर भी कसा जाना जरुरी है। क्योंकि लागत और कीमत के बीच के लगातार बढ़ रहे फासले नज़रअंदाज करते हुए लाभ कमाने के लिए ये कंपनियां सुरक्षा की ही अनदेखी करती हैं। जब से ‘एक्सप्रेस वे’ और ‘सिक्स लेन’, ‘8-लेन’ की सड़कें बनी हंै, तब से वह ‘वन-वे’ हैं। नतीजतन दुर्घटना का स्वरूप बदल गया है। इन सड़कों पर तेज चलते वाहन पीछे से घुस जाते हैं। ऐसे में अनिवार्य किया जाय कि सभी कंपनिया अपने वाहनों पर एक पतली और लंबी रेडियम प्लेट लगायें, जिससे अगर कोई गाड़ी सड़क पर लाइट बंद करके भी खड़ी है तो वह दिख जाय। वैसे भी हमारी इन सड़कों पर बिजली की मुकम्मल व्यवस्था नहीं होती है। प्रायः मोटरसाइकिल और साइकिल के ‘रिफ्लेक्टर’ काम नहीं करते। ऐसे में इन दुपहिया वाहनों के पिछले पहिये के आधे हिस्से पर ‘रेडियम स्ट्रिप’ लगा दी जाय तो दुर्घटना की आशंका को कम किया जा सकता। ‘एक्सप्रेस-वे’ से लेकर चार लेन के हाइवे पर अक्सर खडी ट्रैक्टर-ट्राली में यह दर्शाने के लिये न तो लाइट होती है न ही ‘रिफ्लेक्टर’। नतीजतन, आजकल की दुर्घटनाओं के ट्रेंड में इसकी संख्या भी कम नहीं है। ऐसे में यह अनिवार्य किया जाना चाहिए कि ट्रैक्टर और ट्राली के पिछले हिस्से में भी ‘रेडियम स्ट्रिप्स’ लगाई जाय। वाहनों को सिर्फ परंपरागत ‘रिफ्लेक्टर’ के भरोसे नहीं छोडा जा सकता, क्योंकि एक दो साल बाद प्रायः वे काम करना बंद कर देते हंै। अगर सरकार वाहन चालकों के गुस्से को कम करना चाहती है, उसके लिए जरुरी है कि वाहन निर्माता कंपनियों के खिलाफ भी सुरक्षा नियमों की अनदेखी करने के बाबत कार्रवाई करे। इसी के साथ सड़कों पर पसरे पुलिसिया संजाल और वसूली से भी अगर मुक्ति में सरकारें कामयाब होती हैं तो निश्चित तौर पर सुरक्षा के नये अधिमान का स्वागत होगा।

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