सिर्फ टू मिनट्स !

Update:2015-06-06 15:11 IST
भागती दौड़ती जिंदगी के लिए ‘टू मिनिट्स नूडल’ इतनी खतरनाक होगी, यह किसी ने सोचा तक नहीं होगा। जिंदगी की भाग- दौड़ में समय चुराने और बचाने के लिए हम जिन तौर-तरीकों का इस्तेमाल करते हैं, वह कब और हमारी जिंदगी पर कितनी भारी पड़ेगी, यह मैगी के अविष्कार के 57 साल बाद हमें पता चल रहा है। जापान में भले ही मैगी 57 साल पहले आयी हो, भारत में अभी इसकी उम्र 42 साल ही है। पिछले साल तक दुनिया भर में 10,129 करोड़ रुपये सिर्फ मैगी की बिक्री से कमाने वाली नेस्ले कंपनी ने भारत में 2,961 करोड़ रुपये की मैगी बेची, जो उसकी कुल उत्पाद बिक्री का 25 फीसदी बैठती है। 130 देशों मैगी 5.2 अरब पैकेट दुनिया भर में खपाती है। इतने व्यापक पैमाने पर ‘मां की खुशियों की रैसिपी’ कही जाने वाली, ‘हेल्दी’ होने के दावों पर हर बार हाय तौबा मचाते हुए आज जिस तरह उसकी असलियत को लेकर बवाल बवंडर में तब्दील हो रहा है, उससे कई सवाल उठ रहे हैं।

पहला सवाल यह है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उत्पाद भारत में लोगों को जहर क्यों बांटते हैं? यह सवाल इस लिए मौजूं है क्योंकि पिछले साल ही शीतल पेय बनाने वाली एक बहुराष्ट्रीय कंपनी के उत्पाद में भी निर्धारित मात्रा से अधिक कीटनाशक पाये जाने का खुलासा हुआ था। पर उस कंपनी का आज तक बाल बांका नहीं हुआ। यही नहीं, हद तो यह हुई कि कीटनाशक पाये जाने वाले वर्ष के अगले साल ही केंद्र सरकार ने कंपनी की सबसे ताकतवर महिला एक्जीक्यूटिव और बाद में सी.ई.ओ. बनी इंदिरा नूई और इस उत्पाद में मिलने वाले घातक कीटनाशक को पकड़ने वाले सुनीता नारायण दोनों को ही दो साल के अंदर ही पदम् पुरस्कार से नवाज दिया। समझ में नहीं आता कि मिलावट को लेकर सरकार का नजरिया पुरस्कार का होता है अथवा दंड का। क्योंकि मिलावट उजागर होने के दो वर्षों में ही पुरस्कार और दंड दोनों तरह के फैसले सरकार लेती है। हद तो यह है कि इन छोटे-छोटे उत्पादों के लिए हमारे बड़े-बड़े राजनेता और फिल्मी सितारे अपनी समूची उस साख को दांव पर लगा देते हैं, जो उन्हें करोडों जनता की बेपनाह मोहब्बत से हासिल होती है। इसकी सबसे बड़ी मिसाल मीडिया द्वारा क्रिकेट के भगवान कहे जाने वाले सचिन तेंदुलकर में देखी जा सकती है। पिछली कांग्रेस सरकार ने पता नहीं किन समीकरणों के तहत उन्हें ‘भारत रत्न’ से नवाज दिया। वह भी तब जब उसी सूची में हाकी के जादूगर कहे जाने वाले मेजर ध्यानचंद का भी नाम था। सचिन तेंदुलकर को ‘भारत रत्न’ दिया गया, जिस तरह दिया गया वह पूरी व्यवस्था पर अभी भी एक सवाल है। लेकिन भारत रत्न पाने के बाद क्रिकेट का यह भगवान जिस तरह बाजार व्यवस्था का अंग बनकर शीतल पेय से लेकर टायर तक बेचने का माध्यम बन रह है। सचिन तेंदुलकर जिस तरह ‘भारत रत्न’ की मर्यादा को ताक पर रखकर सब कुछ बेच खरीद रहे हैं, जिस संसद ने उन्हें एक मानद सदस्य के तौर पर स्थापित किया उस संसद की गरिमा का भी ख्याल नहीं रख रहे हैं इससे बिलकुल साफ है कि सचिन तेंदुलकर सही या गलत ढंग से ‘भारत रत्न’ पा जाने के मानकों पर भी खरे उतरते नजर नहीं आ रहे हैं। ऐसे में जो लोग ‘भारत रत्न’ दे रहे हैं, या ‘भारत रत्न’ की रखवाली करने वाले भारत के राष्ट्रपति की यह जिम्मेदारी बनती है कि ऐसे लोगों को या तो आगाह करें या फिर इनसे ‘भारत रत्न’ जैसे महत्वपूर्ण पुरस्कार वापस लेने पर विचार करें। ऐसी स्थितियों में ‘भारत रत्न’ वापस लेने की प्रक्रिया होनी चाहिए।

वास्तव में भारत रत्न जैसे पुरस्कार प्राप्त लोगों से उम्मीद होती है कि ये लोग भारत की मर्यादा को, भारत के गौरव को, भारत की गरिमा को, भारत की विरासत को, भारत के धर्म को, भारत के समाज को और भारत की प्रतिष्ठा को द्विगुणित और बहुगुणित करें। वास्तव में ये लोग ऐसा नहीं कर रहे हैं। कुछ ऐसी ही स्थिति हमारे कइ्र सांसदों की ही है। अमिताभ बच्चन का जिक्र इसलिए यहां लाजमी हो जाता है क्योंकि अमिताभ बच्चन भी देश के सांसद रहे हैं। वे कांग्रेस पार्टी से सांसद थे। इसके अलावा धर्मेंद्र, विनोद खन्ना अब हेमामालिनी और मनोज तिवारी ऐसे कई उदाहरण है। ये लोग धड़ल्ले से पर्दे के जरिये बाजार का हिस्सा आज भी हंै। जबकि इन पर जिम्मेदारी और ज्यादा है क्योंकि इनका सवाल साख से जुड़ा है। लोकतंत्र साख से जुडा हुआ एक सवाल है, साख से जुडी व्यवस्था है। लोकतंत्र में जनता अपना विश्वास व्यक्त करती है। लेकिन ‘सेलिब्रिटी’ से सांसद बने लोग इस विश्वास के साथ आघात कर रहे हैं। ऐसे में देश के प्रधानमंत्री की जिम्मेदारी बनती है कि इनको निर्देश करें, इन सांसदों को इस बात के लिए मजबूर करें कि जिस चीज का विज्ञापन करते हैं उसकी तहकीकात करें। यह भी कि वो इस बात की तहकीकात करें जो चीजें वो लोगों को खरीदने के लिए कह रहे हैं वो क्या है, कितनी उपयोगी है।

एक बहुत ही मशहूर किस्सा है साल 2007 में राज्यसभा सांसद रहते हेमा मालिनी ने सवाल उठाया कि क्या सरकार आर.ओ. प्यूरीफायर पर एक्साइज ड्यूटी कम करने पर विचार कर रही है। ऐसा करते ही विवाद खडा हो गया। क्योंकि हेमा मिलनी उस समय भी और अब भी ‘केंट प्यूरीफायर’ की ब्रांड एंबेसडर हैं। संसद की परंपरा के अनुसार कोई भी सांसद अपने व्यक्तिगत लाभ के प्रश्न, वह भी जो आर्थिक लाभ से जुड़े हांे, नहीं उठा सकता है। केंट आर ओ, केडिया हाउस आफ मेडिसिन, सिल्वर क्वाइन आटा, फ्यूचर ग्रुप की ड्रीमलाइन, और शालीमार नारियल तेल के विज्ञापनों से जुड़ी हेमा मालिनी दो बार से राज्यसभा सांसद और अब उत्तर प्रदेष के मथुरा से लोकसभा की सांसद हैं। वो केंट आर ओ की ब्रांड एंबेसेडर तो हैं, पर एक मौके पर एक पत्रकार के पूछने पर उन्हें आर.ओ. का मतलब नहीं पता था। यानी वह सालों से उस केंट आर ओर का विज्ञापन कर लोगों को उसे खरीदने के लिए प्रोत्साहित कर रही हैं पर उन्हें नहीं पता कि आर.ओ. किस चिड़िया का नाम है।

इसी तरह भारत रत्न सचिन तेंदूलकर करीब 27 ब्रांड से जुडे हैं, जिसमें पेप्सी, कैनन, एयरटेल, ब्रिटानिया, सनफीस्ट,बूस्ट एडिडास, एक्शन शूज, रेनाल्ड्स टीवीएस, वीजा,

अवीवा, रायल बैंक ऑफ स्कॉटलैंड ग्रुप जैसे बडे ब्रांड शामिल हैं। इसी के साथ अमिताभ भी 19 ब्रांड का प्रमोशन करते हैं और लोग अमिताभ के चेहरे पर उसे खरीदते हैं। इतना ही नहीं, गायक से सांसद तक का सफर तय कर चुके मनोज तिवारी भी अब भी टीवी विज्ञापनों पर अपने ब्रांड की सरिया की मजबूती का हवाला देते नजर आ जायेंगे या फिर एक खास किस्म के पशुचारे को औरों से बेहतर बताते दिखेंगे। दरअसल, सासंद को अपने क्षेत्र का सबसे लोकप्रिय और विश्ववसनीय प्रतिनिधि माना जाता है। उसके दस्तावेज से लोगों को नागरिकता तक मिल सकती है। ऐसे में अगर वही सांसद अमुक ब्रांड की तारीफ करता दिखेगा तो लोग उस पर सहज भरोसा कर लेंगे, करना भी चाहिए। ये उत्पाद बेच रही कंपनियों के लिए मुनाफे का आसान सौदा है पर लोकतंत्र और जनता के लिए एक धोखा है। दरअसल, उत्पाद बेच रही बहुराष्ट्रीय कंपनियां, जो भारत में व्यापार करने आयी हैं उनका इस देश से, इस देश के लोगों से, इसके नागरिकों से, इसकी अर्थव्यवस्था से इसके मूल्य व्यवस्था से कोई लेना देना नहीं है। वो सिर्फ मुनाफे का काम करती हैं और मुनाफा सब कुछ 100 फीसदी खरे माल से तो आ नहीं सकता। मुनाफा वहीं होगा जहां मिलावट होगी। यह सिद्धांत इन्हें भारत में भाता है। इसी पर अमल करते हुए ये कंपनिया भारत में दोयम दर्जे का माल बेचती हैं। मिलावट करती हैं। पकड़ में आने पर नज़ीर देती हैं कि अमरीका और ब्रिटेन सरीखे देषों में उनके माल बेहदष्षुद्ध है। पर भारत में उनके माल के ग्राहकों को अमरीका की ष्षुद्धता से क्या लेना-देना। ऐसे में मुनाफा कमाने भारत आयी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को मुनाफे के लिए हमारा तंत्र भ्रष्ट करने, बेइमानी करने में क्या गुरेज होगा, क्यों गुरेज होगा ?

बहुराष्ट्रीय कंपनियों को ‘पैसा-पैसा-पैसा’ का ही सिद्धांत दिखता है। इसके लिए ये साम-दाम- दंड-भेद सबका सहारा लेती हैं। स्वयं सेवी संगठन (एनजीओ) से लेकर ‘ड्राइव कैंपेन’ तक का भी मुखौटा ओढती हैं। डाॅक्टरों से बयान दिलाती है। ऐसे ही बीते एक दशक के दौर में इसी नेस्ले और इसकी तरह की पावडर का दूध बनाने वाली कंपनियों ने डाक्टरों और एनजीओ के जरिए एक अभियान चलाया कि अपने बच्चे को मां अपना पहला दूध न पिलाए। बहुत लंबे समय तक यह भ्रामक अभियान चला। करीब एक दशक तक माताओं ने अपने बच्चों को अपना दूध नहीं पिलाया। अब यही कंपनियां ड्राइव चला रही हैं कि पहला दूध बहुत जरुरी है। इनके इस काम में भी परोपकार नहीं एक अभियान है। अभियान का नाम है- ‘हाउ टु हैंडल द ब्रेस्ट’। आखिर यह क्या है। यह बताता है कि इनका हमारी जनता से कोई लेना देना नहीं। उसकी जेब से है। इनकी कोई जवाबदेही नहीं है। जिस तरह ये कंपनियां काम कर रही हैं। सिर्फ माल बेच रही हैं। वह कमाने का धंधा है। मैगी को लेकर नेस्ले इन दिनों कटघरे में है। संयुक्त राष्ट्र संघ, विश्व स्वास्थ्य संगठन, अमरीकी खाद्य विभाग के जरिये अपने को पाक साफ बताने की दलील दे रही है। वहीं दूसरी तरफ उसके ही उत्पादित दूध में जीवित लार्वा भी मिल रहा है।

यही कंपनियां अगर विदेशो में मिलावट करती पकडी जाती हैं, तो इन्हें कोई वकील आसानी से नहीं मिलता। भारत में दूध में यूरिया, अरहर में खेसरी मिलना तो रोजमर्रा की बात बन गयी है। ऐसी नजीरों की संख्या हजार से ऊपर है। अगर मिलावट से जंग करनी है तो हर व्यक्ति को अपनी नैतिक जिम्मेदारी का बोध हो, होना चाहिए, करना चाहिए। यह उन हस्तियों पर भी लागू है जो उत्पाद का विज्ञापन करती हैं। अगर नैतिकता की बात बढी तो लोग उसी उत्पाद का विज्ञापन करेंगे जो जनता के लिए ठीक होगा। और तभी हस्तियां जनता से मिली अपनी बेपनाह मोहब्बत का कुछ अंश उस जनता को दे सकेंगे, जो उन्हें सिर आंखों पर बिठा कर आम से खास बनाती है।

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