संस्कृत भाषा में मौन को स्वीकार का लक्षण कहा जाता है- ‘मौनम् स्वीकार्य लक्ष्णम।’ पूर्व प्रधानमंत्री डाॅ. मनमोहन सिंह संस्कृत नहीं जानते। शायद यही वजह है कि अपने तकरीबन दस साल के कार्यकाल में मौन रहकर उन्होंने खुद को भले ही हर विवाद से अलग रखने के हर जतन किए हों, पर संस्कृत के मौन के अभिप्राय उन्हें विवाद के एक नये भंवर में खींच लाये हैं। मिस्टर क्लीन पर भ्रष्टाचार के आरोप मढ़कर नरेंद्र मोदी प्रचंड बहुमत की सरकार बनाने में कामयाब हो गये, तो सीबीआई ने समन के मार्फत डाॅ. मनमोहन सिंह पर अलग किस्म से उंगली उठायी है। सीबीआई की पूछताछ, समन और उसके खिलाफ सर्वोच्च अदालत की शरण गहने की डाॅ. मनमोहन सिंह की यात्रा उनके कार्यकाल के दौरान हुए कोयला घोटाले में उनकी भूमिका को दोबारा देखने की जरुरत पर जोर दे रही है। पूरी कांग्रेस उनकी इमानदारी को ढाल बताकर दांडी मार्च कर रही हो पर सीबीआई के दस्तावेज किसी भी कीमत पर डाॅ. मनमोहन सिंह को ‘मिस्टर क्लीन’ होने की पुष्टि नहीं करते। सीबीआई के दस्तावेज यह चुगली करते हैं कि कोल ब्लाकों के आवंटन में डाॅ. मनमोहन सिंह ने अपने अफसरों पर निर्भर रहना अनिवार्य नहीं समझा। उन्होंने अपने विवेक का इस्तेमाल किया। विवेक के प्रयोग की प्रक्रिया में ही लाभ-हानि का खेल खेला गया। इस खेल में ही ‘तालाबिरा-2’ तक पहुंचने में कुमारमंगलम् बिड़ला कामयाब हुए। वह भी तब जब काफी पहले यह तय गिया जा चुका था कि ‘तालाबिरा-2’ का कोयला कैपटिव प्रयोग के लिए रखा जायेगा। ‘तालाबिरा-3’ सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों के लिए चिन्हित था। ‘तालाबिरा-1’ के कोयले का उपयोग हिंडालको को अपने हित में करने की अनुमति थी। कोल ब्लाक के आवंटन में डाॅ. मनमोहन सिंह की भूमिका की जांच करते हुए सीबीआई बहुत पहले इस फैसले पर पहुंच गयी थी कि तत्कालीन कोयला मंत्री यानी डाॅ. मनमोहन सिंह के दामन पर भी कोयले की कालिख का दाग है।
इस मामले के जांच अधिकारी एस.एस. यादव और के.एल. मुसीद ने तो फाइल पर यहां तक लिख मारा था, ‘‘तत्कालीन कोयला मंत्री से पूछताछ किए बिना केस की ‘क्लोजर रिपोर्ट’ लगाना भी जायज नहीं होगा।’’ सर्वोच्च अदालत ने सीबीआई की ‘क्लोजर रिपोर्ट’ इन्हीं दोनों जांच अधिकारियों की टिप्पणी के आधार पर स्वीकार करने से मना कर दिया। और यहीं से उस घोटाले की परत-दर-परत खुलने लगी है, जो डाॅ. मनमोहन सिंह को सवालों की जद में खड़ा करती है। ‘तालाबिरा-2’ कोल ब्लाक में भारत का सबसे अच्छा कोयला होता है लिहाजा इस पर हिंडालको प्रबंधन की नजर काफी दिनों से थी। इंडाल कंपनी के पास तालाबिरा से कोल निकालने का काम बहुत पहले था। हिंडालको ने पहले इस कंपनी में निवेश किया। बाद में कंपनी का प्रबंधन अपने हाथ में ले लिया। लेकिन वर्ष 2003 में कोयला मंत्रालय की 21वीं ‘स्क्रीनिंग कमेटी’ में यह विषय आया कि हिंडालको को अपने विद्युत संयंत्र के लिए पहले से ही कोयला आपूर्ति किया जा रहा है। ऐसे में नवेली लिग्नाइट कारपोरेशन जो 2000 मेगावाट का बिजली संयंत्र लगाने के लिए ‘तालाबिरा-2’ का कोयला मांग रही थी, उसे इस कोल ब्लाक का आवंटन किया जाय या फिर हिंडालको को दिया जाय। इसके लिये उप समिति गठित की गयी। जिसमें अतिरिक्त सचिव के साथ-साथ ऊर्जा, इस्पात और कोल इंडिया के कई अफसर भी सदस्य हुए। इस उप समिति ने अपने फैसले में कहा, “तालाबिरा-2 नवेली लिग्नाइट कारपोरेशन को दे दिया जाय।” उप समिति ने यह भी पाया था, ‘‘हिंडालको भले ही अतिरिक्त कोयले की मांग विद्युत क्षमता बढाने के लिये कर रहा हो पर वह ‘तालाबिरा-1’ के कोयले की खपत वहां नहीं कर रहा है, जहां उसे करना चाहिए।’’ कोयला मंत्रालय की 25वीं ‘स्क्रीनिंग कमेटी’ के चेयरमैन कोयला सचिव टी.सी. परख थे। परख ने तकरीबन अपने साढे तीन पेज की ‘नोटशीट’ में खुद लिखा, “तालाबिरा-2 कोलब्लाक किसी भी हालत मे हिंडालको को नहीं दिया जा सकता। इसे एनएलसी (नवेली लिग्नाइट कारपोरेशन)को दे दिया जाए।” लेकिन इसके बाद हिंदुस्तान की अर्थव्यवस्था मे आगे बढाने के नाम पर कुछ कंपनियों ने ‘तालाबिरा-2’ का कोयला हासिल करने के लिये जोड़-जुगत शुरु कर दी। गौरतलब है कि वर्ष 1992 में कोयला आवंटन की ‘स्क्रीनिंग कमेटी’ बनी थी। तब के वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी के सचिव यही डाॅ. मनमोहन सिंह थे। ‘स्क्रीनिंग कमेटी’ ने कहा कि कोल आवंटन की सभी शर्तें विभागीय कमेटी तय किया करेगी। इसी क्रम में बनी ‘स्क्रीनिंग कमेटी’ की 10 जनवरी, 2005 की बैठक में ही फैसला किया गया कि ‘तालाबिरा-2’ हिंडालको को नहीं नवेली लिग्नाइट को दिया जाय। दिलचस्प यह है कि ठीक 10 दिन बाद यानी 20 जनवरी को हिंडालको का कामकाज देखा रहे शुभेंदु अमिताभ ने दो पत्र लिखे। पहले पत्र मे उन्होने लिखा, ‘‘जैसा कि आपने कहा कि जिन कंपनियों के पास ‘कोल लिंकेज’ है, उनको कोल ब्लाक नहीं मिलेगा, इसलिए हमें नहीं बुलाया गया, यह सरकार का स्टैंड है।’’ दूसरे पत्र में उन्होंने कुमार मंगलम् बिडला को ही लिखा, “हम समझते है कि आप हमें निर्देशित करें कि पालिसी और नौकरशाही के स्तर पर हमें फोकस करना चाहिए। मैनेजमेंट करना चाहिए। परख से हम मिले।” परख उस समय कोयला सचिव थे। शुभेंदु अमिताभ आदित्य बिडला मैनेजमेंट कारपोरेशन प्राइवेट लिमिटेड के मुखिया थे। दूसरे पत्र मे उन्होंने इस बात पर भी चिंता जताई कि समस्या जस की तस है, नहीं तो हमें कोल ब्लाक का आवंटन नहीं होगा। शुभेंदु अमिताभ के पत्रों में यह भी लिखा है कि उनकी मीटिंग कोयला विभाग के अफसरों के साथ बैठक शुरु होने के ठीक पहले हुई थी। मीटिंग के समय वो लोग बाहर थे। सारी बातें सुन रहे थे। सीबीआई के दस्तावेज बताते हैं कि कोल आवंटन के बाद संयुक्त सचिव के. एस. क्रोफा ने एक मीटिंग बुलाई, जिसमें मौखिक तौर पर एनएलसी और महानदी कोलफील्ड लिमिटेड और हिंडालको के लोग थे। इसमें यह कोशिश की गयी कि तीनों के बीच एक ‘ज्वाइंट वेंचर’ बन जाय। 26 जून, 2006 को हुई इस बैठक के बारे में सीबीआई को यह तथ्य भी हाथ लगा है कि क्रोफा ने हिंडालको के प्रतिनिधि से कहा, ‘‘सारा दुनिया की निगाह तुम्हारे ऊपर है, सरकार ने नियम और लीग से ऊपर उठकर तुम्हें कोयला आवंटित किया है।’’ हिंडालको के यहां सीबीआई छापेमारी में मिले शुभेंदु अमिताभ के खतो -किताबत से पुष्टि हुई है। 10 जनवरी, 2005 की बैठक में ही दो दस्तावेज तैयार हुए। पहला, बैठक के ‘मिनट्स’ यानि कार्यवृत्त। दूसरा, कोल ब्लाक आवंटन की ‘गाइडलाइन’ में बदलाव। कोयला सचिव परख ने बैठक के ‘मिनट्स’ के तीन पैराग्राफ बदल दिये। और उसके बाद फाइल अपने पास सुरक्षित रख ली। 25वीं से लेकर 29वीं ‘स्क्रीनिंग कमेटी’ मीटिंग के कार्यवृत्त को कोयला मंत्रालय के राज्यमंत्री दसारी नारायण राव ने बैठक के कार्यवृत्त को संस्तुत करते हुए पत्रावली प्रधानमंत्री कार्यालय भेज दी। उसी साल 7 मई को कुमारमंगलम् बिडला का एक ‘रिप्रेजेंटेशन’ कोयला मंत्रालय और प्रधानमंत्री को मिला। ‘स्क्रीनिंग कमेटी’ के ‘मिनट्स’ और ‘गाइडलाइन’ मे जो बदलाव किये गये थे, वह ‘एप्रूव’ होने के लिये प्रधानमंत्री कार्यालय आये। प्रधानमंत्री कार्यालय के नौकरशाह सुजीत गुलाटी ने ‘मिनिट्स अप्रूव’ करने वाली पत्रावली पर लिखा-“अप्रूव कर दिया जाय।” प्रधानमंत्री कार्यालय के तत्कालीन संयुक्त सचिव जावेद उस्मानी ने लिखा-“ मिनट्स अप्रूव कर दिये जाय।” गाइडलाइन में संभावित परिवर्तन ‘अप्रूव’ कर दिये गये। फाइल को संजय मित्रा और तत्कालीन प्रधानमंत्री के प्रमुख सचिव टी.के. नायर ने भी को ‘मार्क’ कर दिया। लेकिने तत्कालीन प्रधानमंत्री डाॅ. मनमोहन सिंह ने गाइडलाइन में परिवर्तन को तो ‘अप्रूव’ कर दिया पर ‘स्क्रीनिंग कमेटी’ की कार्यवृत्त की पत्रावली जस की तस वापस कर दी। 9 जून, 2005 को प्रधानमंत्री कार्यालय के संयुक्त सचिव संजय मित्रा ने भी लिखा, “प्रधानमंत्री ने गाइडलाइन में परिवर्तन का अप्रूवल दिया।”
सीबीआई के सामने सबसे बडा सवाल यह है कि जब गाइडलाइन में परिवर्तन और ‘स्क्रीनिंग कमेटी’ के कार्यवृत्त दोनों पत्रावली डाॅ. मनमोहन सिंह को एक साथ भेजी गयी थी, लेकिन उन्होने ‘गाइडलाइन’ को ‘अप्रूव’ किया दूसरे को नहीं। यही वह फैसला है, जो उनके दामन पर दाग की तरह दिखता है। इस केस के जांच अधिकारी एस.एस. यादव और के.एल. मुसीद ने डाॅ. मनमोहन सिंह की इसी चतुराई को उनके फंसने का आधार माना है। भरोसेमंद सूत्रों की माने तो ‘मिनिट्स’ को सिर्फ इसलिये प्रधानमंत्री ने ‘अप्रूव’ नहीं किया क्योंकि उसमें साफ लिखा है, “हिंडालको को ‘तालाबिरा-2’ नहीं दिया जा सकता है।” दिलचस्प यह है कि 7 मई को डाॅ. मनमोहन सिंह को कुमारमंगलम् बिडला का पत्र मिल चुका था। जिसे उनके कार्यालय से कोयला मंत्रालय को ‘मार्क’ कर दिया गया था। बिडला के ‘रिप्रेजेंटेशन’ पर मंत्रालय के सेक्शन अधिकारी प्रेमराज क्वार ने अपनी टिप्पणी में लिखा, “25वीं स्क्रीनिंग कमेटी की बैठक में ऐसा निर्णय हुआ था कि ‘तालाबिरा-2’ नवेली लिग्नाइट के लिये चिंहिंत किया गया है।” 5 जुलाई, 2005 की क्वार के इसी टिप्पणी वाली पत्रावली मे यह भी लिखा गया है कि प्रधानमंत्री को सूचित कर दिया जाय कि बिडला के प्रतिवेदन को स्वीकार नहीं किया जा सकता। विभाग के संयुक्त सचिव के.सी. क्रोफा ने लिखा, ‘‘इनके प्रतिवेदन में कोई दम नहीं है। जो ड्राफ्ट प्रेमराज क्वार ने बनाया है, उसे प्रधानमंत्री कार्यालय भेज दिया जाय, क्योंकि प्रधानमंत्री कार्यालय बार-बार पूछ रहा है।’’ पर सचिव पी.सी. परख ने इस फाइल को यहीं घुमा दिया। उन्होंने अपनी टिप्पणी में यह पूछ लिया, ‘‘तालाबिरा-2 एनएलसी को देने का क्या तर्क है और ‘तालाबिरा-1’ और ‘तालाबिरा-2’ में कितना कोयला है।’’ यहीं से सीबीआई ने परख को संदेह के घेरे में लिया है। क्योंकि जिस स्क्रीनिंग कमेटी की बैठक में यह तय हुआ था कि हिंडालको को ‘तालाबिरा-2’ नहीं दिया जा सकता उसकी अध्यक्षता परख कर रहे थे। क्रोफा की टिप्पणी के बाद परख ने फाइल घुमाई क्यों ? ड्राफ्ट मिनट से तीन पैराग्राफ छिपा लेने को लेकर भी परख की भूमिका संदेह के घेरे में है। गौरतलब है कि बिडला ने अपने प्रतिवेदन का पहला पत्र 7 मई को दिया था। दूसरा पत्र 17 जून को खुद बिडला ने प्रधानमंत्री के हाथ में दिया। दोनांे चिट्ठियां पी.सी. परख के पास तक आ गयी थीं। उधर अनुभाग अधिकारी क्वार ने जो ‘ड्राफ्ट’ बनाया, संयुक्त सचिव क्रोफा ने जिसे ‘अप्रूव’ किया उसके फाइल के घुमाये जाने को लेकर दसारी नारायण राव ने अपनी टिप्पणी में लिखा, “यह क्या हो रहा है। मिनट्स मैने ‘अप्रूव’ कर दिये थे। यह फैसले सार्वजनिक कर दिये गये हैं। इसमें कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता।” राज्यमंत्री ने प्रधानमंत्री को यह फाइल भेज दी। लेकिन इसके बाद भी प्रधानमंत्री कार्यालय में इस फाइल का पुनः परीक्षण किया जाने लगा। वह भी तब जबकि प्रधानमंत्री कार्यालय के निदेषक स्तर के अधिकारी के.वी. प्रताप पहले भी फाइल पर लिख चुके थे, ‘‘तालाबिरा-2 एनएलसी को आवंटित होगा हिंडालको को नहीं, एनएलसी को कोयला देने का फैसला हो चुका है।’’ अगस्त 2005, में कोयला सचिव पी.सी. परख ने लिखा, “राज्यमंत्री का विचार आने दीजिये फिर पत्रावली निस्तारित की जायेगी।” लेकिन 12 अगस्त, 2008 को संयुक्त सचिव जावेद उस्मानी यह कूबूल करते हैं कि प्रधानमंत्री के प्रमुख सचिव राज्यमंत्री से इस बात बात कर लें। जबकि नायर ने लिखा है, “हमने बात कर ली है।” सीबीआई के दस्तावेज यह बताते हैं कि नायर ने सचिव को निर्देश दिया कि वह मंत्री के पीएस से बात करें, मंत्री से उनकी बात हो गयी है।
राज्य मंत्री के विरोध के बाद भी फाइल दो बार उलट पलट गयी लेकिन 16 अगस्त, 2005 को निदेषक प्रताप ने फिर नोट लिखा, ‘‘हिंडालको को नहीं दिया जा सकता है।’’ उसी समय उडीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक की एक चिट्ठी प्रधानमंत्री को आई इस पत्र के आलोक में हिंडालको को कोल ब्लाक देने की पत्रावली फिर से चल निकली। जावेद उस्मानी ने लिखा, “मैटर को मुख्यमंत्री उडीसा के पत्र के आलोक में दोबारा परीक्षण किया जाय।” यह आदेश प्रधानमंत्री कार्यालय के संयुक्त सचिव जावेद उस्मानी तब करते हैं जबकि पटनायक के पत्र में कहीं भी यह नहीं लिखा है कि ‘तालाबिरा-2’ का कोयला हिंडालको को दे दिया जाय। उनके पत्र में हिंडालको को कोयला देने की बात की गयी है ताकि उनके राज्य में हिंडालको की परियोजनायें सुचारु रूप से चलती रहें। ‘कोल मंत्रालय’ के निदेशक सुजीत गुलाटी ने पत्रावली में यह स्वीकार किया है कि उनके सचिव परख ने ही उनसे कहा है कि जैसा कहा जा रहा है वैसा नोट प्रस्तुत करो। संयुक्त सचिव कोफ्रा ने फाइल पर लिख मारा है, ‘‘सचिव के साथ वार्ता हुई उन्होंने निर्देश दिया है कि प्रधानमंत्री कार्यालय के निर्देश के हिसाब से नोट बनाये जायें।’’ एक नोटशीट पर यहां तक लिखा है कि कंपनी अफेयर्स मामले के निदेशक ने अपने पीए को डिक्टेशन दिया। यही नहीं, सचिव कोयला के साथ संयुक्त सचिव की उपस्थिति में हिंडालको को ‘तालाबिरा-2’ आवंटित करने की चर्चा हुई। अब कवायद रंग लाने लगी। ‘तालाबिरा-3’ और ‘तालाबिरा-2’ को एक कर दिया गया। कहा गया एनएलसी को ‘तालाबिरा-2’ दे दिया जाय, इसके साथ ही हिंडालको और महानदी कोल फील्ड लिमिटेड का ‘ज्वाइंट वेंचर’ उसके साथ कर दिया जाय। यानि ‘तालाबिरा-2’ एनएलसी को दे भी दिया गया और हिंडालको को उसका फायदा भी मिल गया। ‘तालाबिरा-3’ और ‘तालाबिरा-2’ के बीच के चार किलोमीटर के रास्ते को तीनों को उपयोग करने के लिये अधिकृत कर दिया गया। एनएलसी को 70 फीसदी, हिंडालको को 15 फीसदी और महानदी कोलफील्ड को 15 फीसदी की हिस्सेदारी दी गयी। यह पत्रावली फिर प्रधानमंत्री कार्यालय पहुंची, जहां निदेशक के.वी. प्रताप ने एक ‘इंटरनल नोट’ लिखा, ‘‘9 जून, 2005 को प्रधानमंत्री ने जो ‘गाइडलाइन’ ‘एप्रूव’ किया, उसमें यह पत्रावली फिट नहीं बैठ रही है।’’ इस फाइल पर सुजीत गुलाटी की भी दस्तखत है। सुजीत गुलाटी ने ही हिंडालको को उपकृत करने वाला प्रस्ताव बनाया था, पर वह सरकारी गवाह हो गये। अब दूसरी कंपनियों ने यह दबाव बनाना शुरु कर दिया कि अगर हिंडालको को ‘तालाबिरा-2’ और ‘तालाबिरा-3’ मे हिस्सेदारी मिल गयी है, तो ‘तालाबिरा-1’ से उनके विद्युत संयंत्र को मिलने वाले ‘कोल लिंकेज’ को खत्म करना चाहिए। के. वी. प्रताप की टिप्पणी को दरकिनार करते हुए जावेद उस्मानी और टी. के. नायर ने ‘ज्वाइंट वेंचर’ के मार्फत हिंडालको को उपकृत किये जाने वाले प्रस्ताव पर सहमति जता दी। हांलांकि पहले के अपने ‘नोटशीट’ में जावेद उस्मानी ने मना कर रखा है, पर इस बार उन्होंने गाइडलाइन में रियायत दिये जाने की बात कहते हुए हामी भर दी। हांलांकि नायर ने इस ‘नोटशीट’ पर दस्तखत करने के अलावा कुछ भी नहीं लिखा है। 1 जनवरी, 2007 को तत्कालीन प्रधानमंत्री और कोयला मंत्री मनमोहन सिंह ने भी नई व्यवस्था बनाकर ‘तालाबिरा-2’ और ‘तालाबिरा-3’ को एक कर हिंडालको को मालिकाना हिस्सा देने वाले प्रस्ताव पर सहमति जता दी। सवाल यह उठता है कि अगर डाॅ. मनमोहन सिंह की नीयत साफ थी तो पहले ही ‘गाइडलाइन’ और ‘मिनट्स’ में परिवर्तन को मंजूरी दे सकते थे। सिर्फ ‘गाइडलाइन’ को मंजूरी दी ‘मिनट्स’ को वापस भेज दिया। लेकिन कुमारमंगलम् बिडला से मुलाकात और उनके प्रतिवेदन के बाद प्रधानमंत्री पसीजने लगे। यही वजह है कि उनके कार्यालय के उच्च पदस्थ नौकरशाहों ने लगातार कोल मंत्रालय से बातचीत करके दबाव बनाया, ताकि हिंडालको को ‘तालाबिरा-2’ देने का कोई रास्ता निकाला जा सके। इसी दबाव की वजह से ही ‘लीडर एसोसिएट कानसेप्ट’ तैयार किया गया। जिसके तहत हिंडलको, एनएलसी और महानदी कोलफील्ड का ‘ज्वाइंट वेंचर’ बनवाया गया। प्रधानमंत्री ने अपने ही राज्यमंत्री की टिप्पणियों को नजरअंदाज क्यों किया ? भरोसेमंद सूत्रों की माने तो इस केस के पुलिस अधीक्षक ने तो यहां तक कहा था, ‘‘प्राथिमिकी में डाॅ. मनमोहन सिंह का नाम होना चाहिये।’’ यही नहीं, प्राथमिकी बनी भी। डाॅ. मनमोहन सिंह का नाम भी डाला गया। लेकिन बाद में काट दिया गया। इन सारे तथ्यों को नजरअंदाज करते हुए क्यों इस मामले की आनन-फानन में ‘क्लोजर रिपोर्ट’ तैयार करायी गयी। सीबीआई के जिन अफसरों ने प्रतिकूल टिप्पणियां की थी, उन्हें कोपभाजन भी बनना पड़ा।
वर्ष 1992 की ‘स्क्रीनिंग कमेटी’ में मौजूद डाॅ. मनमोहन सिंह ने ही यह तय किया था कि कोल आवंटन की सभी शर्तें आवंटन कमेटी तय करेगी। पर ‘तालाबिरा-2’ के आवंटन मामले में आवंटन कमेटी की सिफारिश को बला-ए-ताक रख दिया गया। स्क्रीनिंग कमेटी के दस्तावेजों में हेरफेर की गयी। राज्यमंत्री की टिप्पणियों को नजरअंदाज किया गया। प्रधानमंत्री कार्यालय के नौकरशाह दो धड़ो में बंटकर हिंडालको को कोयला आवंटन के पक्ष और विपक्ष में खतो किताबत करते हुए देखे गये। प्रधानमंत्री ने गाइडलाइन ‘अप्रूव’ की मिनट्स नहीं। बाद में ‘मिनट्स’ में गैरजरूरी बदलाव के बाद मंजूरी दी। अगर इन सबके बाद भी कांग्रेस दांडी मार्च के मार्फत डाॅ. मनमोहन सिहं को ‘मिस्टर क्लीन’ साबित करने पर जुटी है, तो शायद वो यह कहावत भूल गयी है, ‘‘काजल की कोठरी में कितनो ही सयानों जाय, एक लीख काजल की लागी है तो लागी है।’’ यहां डाॅ. मनमोहन और उनका पूरा कार्यालय कोयले की खदनों में रस्मो रवायत तय करने में लगा दिख रहा है।
इस मामले के जांच अधिकारी एस.एस. यादव और के.एल. मुसीद ने तो फाइल पर यहां तक लिख मारा था, ‘‘तत्कालीन कोयला मंत्री से पूछताछ किए बिना केस की ‘क्लोजर रिपोर्ट’ लगाना भी जायज नहीं होगा।’’ सर्वोच्च अदालत ने सीबीआई की ‘क्लोजर रिपोर्ट’ इन्हीं दोनों जांच अधिकारियों की टिप्पणी के आधार पर स्वीकार करने से मना कर दिया। और यहीं से उस घोटाले की परत-दर-परत खुलने लगी है, जो डाॅ. मनमोहन सिंह को सवालों की जद में खड़ा करती है। ‘तालाबिरा-2’ कोल ब्लाक में भारत का सबसे अच्छा कोयला होता है लिहाजा इस पर हिंडालको प्रबंधन की नजर काफी दिनों से थी। इंडाल कंपनी के पास तालाबिरा से कोल निकालने का काम बहुत पहले था। हिंडालको ने पहले इस कंपनी में निवेश किया। बाद में कंपनी का प्रबंधन अपने हाथ में ले लिया। लेकिन वर्ष 2003 में कोयला मंत्रालय की 21वीं ‘स्क्रीनिंग कमेटी’ में यह विषय आया कि हिंडालको को अपने विद्युत संयंत्र के लिए पहले से ही कोयला आपूर्ति किया जा रहा है। ऐसे में नवेली लिग्नाइट कारपोरेशन जो 2000 मेगावाट का बिजली संयंत्र लगाने के लिए ‘तालाबिरा-2’ का कोयला मांग रही थी, उसे इस कोल ब्लाक का आवंटन किया जाय या फिर हिंडालको को दिया जाय। इसके लिये उप समिति गठित की गयी। जिसमें अतिरिक्त सचिव के साथ-साथ ऊर्जा, इस्पात और कोल इंडिया के कई अफसर भी सदस्य हुए। इस उप समिति ने अपने फैसले में कहा, “तालाबिरा-2 नवेली लिग्नाइट कारपोरेशन को दे दिया जाय।” उप समिति ने यह भी पाया था, ‘‘हिंडालको भले ही अतिरिक्त कोयले की मांग विद्युत क्षमता बढाने के लिये कर रहा हो पर वह ‘तालाबिरा-1’ के कोयले की खपत वहां नहीं कर रहा है, जहां उसे करना चाहिए।’’ कोयला मंत्रालय की 25वीं ‘स्क्रीनिंग कमेटी’ के चेयरमैन कोयला सचिव टी.सी. परख थे। परख ने तकरीबन अपने साढे तीन पेज की ‘नोटशीट’ में खुद लिखा, “तालाबिरा-2 कोलब्लाक किसी भी हालत मे हिंडालको को नहीं दिया जा सकता। इसे एनएलसी (नवेली लिग्नाइट कारपोरेशन)को दे दिया जाए।” लेकिन इसके बाद हिंदुस्तान की अर्थव्यवस्था मे आगे बढाने के नाम पर कुछ कंपनियों ने ‘तालाबिरा-2’ का कोयला हासिल करने के लिये जोड़-जुगत शुरु कर दी। गौरतलब है कि वर्ष 1992 में कोयला आवंटन की ‘स्क्रीनिंग कमेटी’ बनी थी। तब के वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी के सचिव यही डाॅ. मनमोहन सिंह थे। ‘स्क्रीनिंग कमेटी’ ने कहा कि कोल आवंटन की सभी शर्तें विभागीय कमेटी तय किया करेगी। इसी क्रम में बनी ‘स्क्रीनिंग कमेटी’ की 10 जनवरी, 2005 की बैठक में ही फैसला किया गया कि ‘तालाबिरा-2’ हिंडालको को नहीं नवेली लिग्नाइट को दिया जाय। दिलचस्प यह है कि ठीक 10 दिन बाद यानी 20 जनवरी को हिंडालको का कामकाज देखा रहे शुभेंदु अमिताभ ने दो पत्र लिखे। पहले पत्र मे उन्होने लिखा, ‘‘जैसा कि आपने कहा कि जिन कंपनियों के पास ‘कोल लिंकेज’ है, उनको कोल ब्लाक नहीं मिलेगा, इसलिए हमें नहीं बुलाया गया, यह सरकार का स्टैंड है।’’ दूसरे पत्र में उन्होंने कुमार मंगलम् बिडला को ही लिखा, “हम समझते है कि आप हमें निर्देशित करें कि पालिसी और नौकरशाही के स्तर पर हमें फोकस करना चाहिए। मैनेजमेंट करना चाहिए। परख से हम मिले।” परख उस समय कोयला सचिव थे। शुभेंदु अमिताभ आदित्य बिडला मैनेजमेंट कारपोरेशन प्राइवेट लिमिटेड के मुखिया थे। दूसरे पत्र मे उन्होंने इस बात पर भी चिंता जताई कि समस्या जस की तस है, नहीं तो हमें कोल ब्लाक का आवंटन नहीं होगा। शुभेंदु अमिताभ के पत्रों में यह भी लिखा है कि उनकी मीटिंग कोयला विभाग के अफसरों के साथ बैठक शुरु होने के ठीक पहले हुई थी। मीटिंग के समय वो लोग बाहर थे। सारी बातें सुन रहे थे। सीबीआई के दस्तावेज बताते हैं कि कोल आवंटन के बाद संयुक्त सचिव के. एस. क्रोफा ने एक मीटिंग बुलाई, जिसमें मौखिक तौर पर एनएलसी और महानदी कोलफील्ड लिमिटेड और हिंडालको के लोग थे। इसमें यह कोशिश की गयी कि तीनों के बीच एक ‘ज्वाइंट वेंचर’ बन जाय। 26 जून, 2006 को हुई इस बैठक के बारे में सीबीआई को यह तथ्य भी हाथ लगा है कि क्रोफा ने हिंडालको के प्रतिनिधि से कहा, ‘‘सारा दुनिया की निगाह तुम्हारे ऊपर है, सरकार ने नियम और लीग से ऊपर उठकर तुम्हें कोयला आवंटित किया है।’’ हिंडालको के यहां सीबीआई छापेमारी में मिले शुभेंदु अमिताभ के खतो -किताबत से पुष्टि हुई है। 10 जनवरी, 2005 की बैठक में ही दो दस्तावेज तैयार हुए। पहला, बैठक के ‘मिनट्स’ यानि कार्यवृत्त। दूसरा, कोल ब्लाक आवंटन की ‘गाइडलाइन’ में बदलाव। कोयला सचिव परख ने बैठक के ‘मिनट्स’ के तीन पैराग्राफ बदल दिये। और उसके बाद फाइल अपने पास सुरक्षित रख ली। 25वीं से लेकर 29वीं ‘स्क्रीनिंग कमेटी’ मीटिंग के कार्यवृत्त को कोयला मंत्रालय के राज्यमंत्री दसारी नारायण राव ने बैठक के कार्यवृत्त को संस्तुत करते हुए पत्रावली प्रधानमंत्री कार्यालय भेज दी। उसी साल 7 मई को कुमारमंगलम् बिडला का एक ‘रिप्रेजेंटेशन’ कोयला मंत्रालय और प्रधानमंत्री को मिला। ‘स्क्रीनिंग कमेटी’ के ‘मिनट्स’ और ‘गाइडलाइन’ मे जो बदलाव किये गये थे, वह ‘एप्रूव’ होने के लिये प्रधानमंत्री कार्यालय आये। प्रधानमंत्री कार्यालय के नौकरशाह सुजीत गुलाटी ने ‘मिनिट्स अप्रूव’ करने वाली पत्रावली पर लिखा-“अप्रूव कर दिया जाय।” प्रधानमंत्री कार्यालय के तत्कालीन संयुक्त सचिव जावेद उस्मानी ने लिखा-“ मिनट्स अप्रूव कर दिये जाय।” गाइडलाइन में संभावित परिवर्तन ‘अप्रूव’ कर दिये गये। फाइल को संजय मित्रा और तत्कालीन प्रधानमंत्री के प्रमुख सचिव टी.के. नायर ने भी को ‘मार्क’ कर दिया। लेकिने तत्कालीन प्रधानमंत्री डाॅ. मनमोहन सिंह ने गाइडलाइन में परिवर्तन को तो ‘अप्रूव’ कर दिया पर ‘स्क्रीनिंग कमेटी’ की कार्यवृत्त की पत्रावली जस की तस वापस कर दी। 9 जून, 2005 को प्रधानमंत्री कार्यालय के संयुक्त सचिव संजय मित्रा ने भी लिखा, “प्रधानमंत्री ने गाइडलाइन में परिवर्तन का अप्रूवल दिया।”
सीबीआई के सामने सबसे बडा सवाल यह है कि जब गाइडलाइन में परिवर्तन और ‘स्क्रीनिंग कमेटी’ के कार्यवृत्त दोनों पत्रावली डाॅ. मनमोहन सिंह को एक साथ भेजी गयी थी, लेकिन उन्होने ‘गाइडलाइन’ को ‘अप्रूव’ किया दूसरे को नहीं। यही वह फैसला है, जो उनके दामन पर दाग की तरह दिखता है। इस केस के जांच अधिकारी एस.एस. यादव और के.एल. मुसीद ने डाॅ. मनमोहन सिंह की इसी चतुराई को उनके फंसने का आधार माना है। भरोसेमंद सूत्रों की माने तो ‘मिनिट्स’ को सिर्फ इसलिये प्रधानमंत्री ने ‘अप्रूव’ नहीं किया क्योंकि उसमें साफ लिखा है, “हिंडालको को ‘तालाबिरा-2’ नहीं दिया जा सकता है।” दिलचस्प यह है कि 7 मई को डाॅ. मनमोहन सिंह को कुमारमंगलम् बिडला का पत्र मिल चुका था। जिसे उनके कार्यालय से कोयला मंत्रालय को ‘मार्क’ कर दिया गया था। बिडला के ‘रिप्रेजेंटेशन’ पर मंत्रालय के सेक्शन अधिकारी प्रेमराज क्वार ने अपनी टिप्पणी में लिखा, “25वीं स्क्रीनिंग कमेटी की बैठक में ऐसा निर्णय हुआ था कि ‘तालाबिरा-2’ नवेली लिग्नाइट के लिये चिंहिंत किया गया है।” 5 जुलाई, 2005 की क्वार के इसी टिप्पणी वाली पत्रावली मे यह भी लिखा गया है कि प्रधानमंत्री को सूचित कर दिया जाय कि बिडला के प्रतिवेदन को स्वीकार नहीं किया जा सकता। विभाग के संयुक्त सचिव के.सी. क्रोफा ने लिखा, ‘‘इनके प्रतिवेदन में कोई दम नहीं है। जो ड्राफ्ट प्रेमराज क्वार ने बनाया है, उसे प्रधानमंत्री कार्यालय भेज दिया जाय, क्योंकि प्रधानमंत्री कार्यालय बार-बार पूछ रहा है।’’ पर सचिव पी.सी. परख ने इस फाइल को यहीं घुमा दिया। उन्होंने अपनी टिप्पणी में यह पूछ लिया, ‘‘तालाबिरा-2 एनएलसी को देने का क्या तर्क है और ‘तालाबिरा-1’ और ‘तालाबिरा-2’ में कितना कोयला है।’’ यहीं से सीबीआई ने परख को संदेह के घेरे में लिया है। क्योंकि जिस स्क्रीनिंग कमेटी की बैठक में यह तय हुआ था कि हिंडालको को ‘तालाबिरा-2’ नहीं दिया जा सकता उसकी अध्यक्षता परख कर रहे थे। क्रोफा की टिप्पणी के बाद परख ने फाइल घुमाई क्यों ? ड्राफ्ट मिनट से तीन पैराग्राफ छिपा लेने को लेकर भी परख की भूमिका संदेह के घेरे में है। गौरतलब है कि बिडला ने अपने प्रतिवेदन का पहला पत्र 7 मई को दिया था। दूसरा पत्र 17 जून को खुद बिडला ने प्रधानमंत्री के हाथ में दिया। दोनांे चिट्ठियां पी.सी. परख के पास तक आ गयी थीं। उधर अनुभाग अधिकारी क्वार ने जो ‘ड्राफ्ट’ बनाया, संयुक्त सचिव क्रोफा ने जिसे ‘अप्रूव’ किया उसके फाइल के घुमाये जाने को लेकर दसारी नारायण राव ने अपनी टिप्पणी में लिखा, “यह क्या हो रहा है। मिनट्स मैने ‘अप्रूव’ कर दिये थे। यह फैसले सार्वजनिक कर दिये गये हैं। इसमें कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता।” राज्यमंत्री ने प्रधानमंत्री को यह फाइल भेज दी। लेकिन इसके बाद भी प्रधानमंत्री कार्यालय में इस फाइल का पुनः परीक्षण किया जाने लगा। वह भी तब जबकि प्रधानमंत्री कार्यालय के निदेषक स्तर के अधिकारी के.वी. प्रताप पहले भी फाइल पर लिख चुके थे, ‘‘तालाबिरा-2 एनएलसी को आवंटित होगा हिंडालको को नहीं, एनएलसी को कोयला देने का फैसला हो चुका है।’’ अगस्त 2005, में कोयला सचिव पी.सी. परख ने लिखा, “राज्यमंत्री का विचार आने दीजिये फिर पत्रावली निस्तारित की जायेगी।” लेकिन 12 अगस्त, 2008 को संयुक्त सचिव जावेद उस्मानी यह कूबूल करते हैं कि प्रधानमंत्री के प्रमुख सचिव राज्यमंत्री से इस बात बात कर लें। जबकि नायर ने लिखा है, “हमने बात कर ली है।” सीबीआई के दस्तावेज यह बताते हैं कि नायर ने सचिव को निर्देश दिया कि वह मंत्री के पीएस से बात करें, मंत्री से उनकी बात हो गयी है।
राज्य मंत्री के विरोध के बाद भी फाइल दो बार उलट पलट गयी लेकिन 16 अगस्त, 2005 को निदेषक प्रताप ने फिर नोट लिखा, ‘‘हिंडालको को नहीं दिया जा सकता है।’’ उसी समय उडीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक की एक चिट्ठी प्रधानमंत्री को आई इस पत्र के आलोक में हिंडालको को कोल ब्लाक देने की पत्रावली फिर से चल निकली। जावेद उस्मानी ने लिखा, “मैटर को मुख्यमंत्री उडीसा के पत्र के आलोक में दोबारा परीक्षण किया जाय।” यह आदेश प्रधानमंत्री कार्यालय के संयुक्त सचिव जावेद उस्मानी तब करते हैं जबकि पटनायक के पत्र में कहीं भी यह नहीं लिखा है कि ‘तालाबिरा-2’ का कोयला हिंडालको को दे दिया जाय। उनके पत्र में हिंडालको को कोयला देने की बात की गयी है ताकि उनके राज्य में हिंडालको की परियोजनायें सुचारु रूप से चलती रहें। ‘कोल मंत्रालय’ के निदेशक सुजीत गुलाटी ने पत्रावली में यह स्वीकार किया है कि उनके सचिव परख ने ही उनसे कहा है कि जैसा कहा जा रहा है वैसा नोट प्रस्तुत करो। संयुक्त सचिव कोफ्रा ने फाइल पर लिख मारा है, ‘‘सचिव के साथ वार्ता हुई उन्होंने निर्देश दिया है कि प्रधानमंत्री कार्यालय के निर्देश के हिसाब से नोट बनाये जायें।’’ एक नोटशीट पर यहां तक लिखा है कि कंपनी अफेयर्स मामले के निदेशक ने अपने पीए को डिक्टेशन दिया। यही नहीं, सचिव कोयला के साथ संयुक्त सचिव की उपस्थिति में हिंडालको को ‘तालाबिरा-2’ आवंटित करने की चर्चा हुई। अब कवायद रंग लाने लगी। ‘तालाबिरा-3’ और ‘तालाबिरा-2’ को एक कर दिया गया। कहा गया एनएलसी को ‘तालाबिरा-2’ दे दिया जाय, इसके साथ ही हिंडालको और महानदी कोल फील्ड लिमिटेड का ‘ज्वाइंट वेंचर’ उसके साथ कर दिया जाय। यानि ‘तालाबिरा-2’ एनएलसी को दे भी दिया गया और हिंडालको को उसका फायदा भी मिल गया। ‘तालाबिरा-3’ और ‘तालाबिरा-2’ के बीच के चार किलोमीटर के रास्ते को तीनों को उपयोग करने के लिये अधिकृत कर दिया गया। एनएलसी को 70 फीसदी, हिंडालको को 15 फीसदी और महानदी कोलफील्ड को 15 फीसदी की हिस्सेदारी दी गयी। यह पत्रावली फिर प्रधानमंत्री कार्यालय पहुंची, जहां निदेशक के.वी. प्रताप ने एक ‘इंटरनल नोट’ लिखा, ‘‘9 जून, 2005 को प्रधानमंत्री ने जो ‘गाइडलाइन’ ‘एप्रूव’ किया, उसमें यह पत्रावली फिट नहीं बैठ रही है।’’ इस फाइल पर सुजीत गुलाटी की भी दस्तखत है। सुजीत गुलाटी ने ही हिंडालको को उपकृत करने वाला प्रस्ताव बनाया था, पर वह सरकारी गवाह हो गये। अब दूसरी कंपनियों ने यह दबाव बनाना शुरु कर दिया कि अगर हिंडालको को ‘तालाबिरा-2’ और ‘तालाबिरा-3’ मे हिस्सेदारी मिल गयी है, तो ‘तालाबिरा-1’ से उनके विद्युत संयंत्र को मिलने वाले ‘कोल लिंकेज’ को खत्म करना चाहिए। के. वी. प्रताप की टिप्पणी को दरकिनार करते हुए जावेद उस्मानी और टी. के. नायर ने ‘ज्वाइंट वेंचर’ के मार्फत हिंडालको को उपकृत किये जाने वाले प्रस्ताव पर सहमति जता दी। हांलांकि पहले के अपने ‘नोटशीट’ में जावेद उस्मानी ने मना कर रखा है, पर इस बार उन्होंने गाइडलाइन में रियायत दिये जाने की बात कहते हुए हामी भर दी। हांलांकि नायर ने इस ‘नोटशीट’ पर दस्तखत करने के अलावा कुछ भी नहीं लिखा है। 1 जनवरी, 2007 को तत्कालीन प्रधानमंत्री और कोयला मंत्री मनमोहन सिंह ने भी नई व्यवस्था बनाकर ‘तालाबिरा-2’ और ‘तालाबिरा-3’ को एक कर हिंडालको को मालिकाना हिस्सा देने वाले प्रस्ताव पर सहमति जता दी। सवाल यह उठता है कि अगर डाॅ. मनमोहन सिंह की नीयत साफ थी तो पहले ही ‘गाइडलाइन’ और ‘मिनट्स’ में परिवर्तन को मंजूरी दे सकते थे। सिर्फ ‘गाइडलाइन’ को मंजूरी दी ‘मिनट्स’ को वापस भेज दिया। लेकिन कुमारमंगलम् बिडला से मुलाकात और उनके प्रतिवेदन के बाद प्रधानमंत्री पसीजने लगे। यही वजह है कि उनके कार्यालय के उच्च पदस्थ नौकरशाहों ने लगातार कोल मंत्रालय से बातचीत करके दबाव बनाया, ताकि हिंडालको को ‘तालाबिरा-2’ देने का कोई रास्ता निकाला जा सके। इसी दबाव की वजह से ही ‘लीडर एसोसिएट कानसेप्ट’ तैयार किया गया। जिसके तहत हिंडलको, एनएलसी और महानदी कोलफील्ड का ‘ज्वाइंट वेंचर’ बनवाया गया। प्रधानमंत्री ने अपने ही राज्यमंत्री की टिप्पणियों को नजरअंदाज क्यों किया ? भरोसेमंद सूत्रों की माने तो इस केस के पुलिस अधीक्षक ने तो यहां तक कहा था, ‘‘प्राथिमिकी में डाॅ. मनमोहन सिंह का नाम होना चाहिये।’’ यही नहीं, प्राथमिकी बनी भी। डाॅ. मनमोहन सिंह का नाम भी डाला गया। लेकिन बाद में काट दिया गया। इन सारे तथ्यों को नजरअंदाज करते हुए क्यों इस मामले की आनन-फानन में ‘क्लोजर रिपोर्ट’ तैयार करायी गयी। सीबीआई के जिन अफसरों ने प्रतिकूल टिप्पणियां की थी, उन्हें कोपभाजन भी बनना पड़ा।
वर्ष 1992 की ‘स्क्रीनिंग कमेटी’ में मौजूद डाॅ. मनमोहन सिंह ने ही यह तय किया था कि कोल आवंटन की सभी शर्तें आवंटन कमेटी तय करेगी। पर ‘तालाबिरा-2’ के आवंटन मामले में आवंटन कमेटी की सिफारिश को बला-ए-ताक रख दिया गया। स्क्रीनिंग कमेटी के दस्तावेजों में हेरफेर की गयी। राज्यमंत्री की टिप्पणियों को नजरअंदाज किया गया। प्रधानमंत्री कार्यालय के नौकरशाह दो धड़ो में बंटकर हिंडालको को कोयला आवंटन के पक्ष और विपक्ष में खतो किताबत करते हुए देखे गये। प्रधानमंत्री ने गाइडलाइन ‘अप्रूव’ की मिनट्स नहीं। बाद में ‘मिनट्स’ में गैरजरूरी बदलाव के बाद मंजूरी दी। अगर इन सबके बाद भी कांग्रेस दांडी मार्च के मार्फत डाॅ. मनमोहन सिहं को ‘मिस्टर क्लीन’ साबित करने पर जुटी है, तो शायद वो यह कहावत भूल गयी है, ‘‘काजल की कोठरी में कितनो ही सयानों जाय, एक लीख काजल की लागी है तो लागी है।’’ यहां डाॅ. मनमोहन और उनका पूरा कार्यालय कोयले की खदनों में रस्मो रवायत तय करने में लगा दिख रहा है।