महाभारत के ऐन पहले श्रीकृष्ण से दुर्योधन और अ र्जुन दोनों एक ही समय मिले। दुर्योधन ने कृष्ण की सेना मांगी तो अर्जुन ने कृष्ण को मांगा। महाभारत के नतीजों ने यह संदेश दिया कि दुर्योधन ने सेना मांगकर गलती की थी। आज जब बिहार के मुख्यमंत्री और सुशासन बाबू नीतीश कुमार लालू यादव के साथ जनादेश के महाभारत में हैं तब जमीनी हकीकत परखने वालों के लिए यह कहने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए कि नीतीश कुमार ने दुर्योधन से बड़ी गलती कर दी है। उन्होंने इससे आगे बढ़कर फैसला लिया ना कृष्ण मांगा ना सेना बल्कि उस लालू यादव को गले लगाया जिसके जंगलराज के खिलाफ लड़ाई लड़कर वह कमल का फूल थामे बिहार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर काबिज होने में कामयाब हुए थे। अब वही लालू और उनका जंगलराज नीतीश की गले की फांस बन गया है। अब उन्हें यह सफाई देनी पड़ रही है कि नीतीश सरीखे पारस पत्थर के स्पर्श से लालू यादव का क्या कायाकल्प हुआ और क्या होगा।
बिहार में भले ही माई (मुस्लिम-यादव) समीकरण गढने का श्रेय शरद यादव को जाता हो पर इसका सबका अधिक लाभ पाने वाले राजनेताओं में लालू रहे हैं। लेकिन पंद्रह बरस तक बिहार में निष्कंटक राज करने वाले लालू प्रसाद यादव के एजेंडे में विकास समा ही नहीं पाया। यह लालू और बिहार को जानने वालों के लिए एक अनसुलझी पहेली है। लालू पूरे राजनैतिक यात्रा में जातीय समीकरणों से ऊपर नहीं उठ पाए। उनके बाहुबलियों और इलाकाई मिनी मुख्यमंत्रियों के कोहराम से बिहार में जातीय समीकरण भी सिर्फ यादवों तक सिमट कर रह गया। यह बात दीगर है कि इक ऐसे समय जब लालू अपने जीवन, जाति और पार्टी के लिए प्राणवायु की तलाश कर रहे हैं तब उनके मिनी मुख्यमंत्रियों की बड़ी जमात उनके खिलाफ खड़ी है। बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार पहले भी मुख्यमंत्री के तौर पर अपनी किस्मत आजमा चुके हैं। समता पार्टी के बैनर तले चुनाव लडने वाले नीतीश इकाई तक सिमट कर रह गये थे। तब बाद में उन्हें 10 साल भाजपा का साथ मिला। इसके बाद नीतीश को धर्मनिरपेक्ष बने। चलन के हिसाब से नरेंद्र मोदी पर हमला और उनसे कुट्टी बेहद मुफीद फार्मूला था। नीतीश इस पर चले। नीतीश शायद यह भूल गये कि इस धर्मनिरपेक्षता के पथ पर आगे बढ़ने के लिए लालू का साथ उनके लिए एकदम बेर-केर के संग सरीखा है। लालू के कुशासन और नीतीश के सुशासन का योग। लालू की जातीय प्रतिबद्धताएं और नीतीश का सर्वजातीय आकर्षण सरीखी कई और नजीरें हैं।
बिहार ने लालूराज के तांडव का विकल्प उन्हें बनाया था। बीते लोकसभा चुनाव में भाजपा की सफलता ने भी नीतीश को यह सबक जरुर दिया होगा कि बिहार अब भाजपा के लिए अनुपजाऊ नहीं है। मोटे तौर पर बिहार में चार तरह के वोटबैंक हैं- अगड़ा, पिछड़ा, दलित और मुसलमान। कर्पूरी ठाकुर ने पिछड़ों में अतिपिछड़ा और नीतीश कुमार ने दलितों में महादलित के दो और वोटबैंक तैयार कर दिए। बिहार में 110 पिछड़ी और अतिपिछड़ी जातियां हैं। दलितों में दुसाध और मुसहर सबसे बड़े तबके हैं। दुसाधों के नेता रामविलास पासवान हैं जो इन दिनों परिवारवाद के आरोप में बुरी तरह घिरे हुए हैं। नीतीश ने दलितों की आबादी के एक बड़े हिस्से मुसहर बिरादरी के जीतनराम मांझी को मुख्यमंत्री बनाकर अपने पक्ष में बड़ा माहौल तैयार कर लिय़ा था। पर उनका यह दांव ऐसा उलटा पड़ा कि इसकी भरपाई के लिए नीतीश को लालू के पाले में खड़ा होना पड़ा। नीतीश का लालू का साथ बिहार के लोगों के लिए कितना नागवार है यह सिर्फ उनके उस एक बयान से समझा जा सकता है जिसमें उन्होंने चंदन विष व्यापत नहीं...कहा था। अब लालू के साथ नीतीश सामाजिक न्याय की बात करने लगे हैं। वह भूल रहे हैं कि बिहार लालू नीतीश के समाजवादी प्रयोग 22 साल देख चुका है। कांग्रेस की परंपरागत सत्ता के दर्प के टूटे 25 साल हो चुके हैं। ऐसे में नीतीश भले यह समझते हों कि लालू माई समीकरण उनके हवाले कर देंगे पर लालू अपना वोट ट्रांसफर कराने में कितने कामयाब हैं ये पिछले लोकसभा चुनाव के नतीजों से समझा जा सकता है। इसका प्रमाण कई है। साल 2010 में विधानसभा चुनाव लोकजनशक्ति पार्टी के साथ लालू ने चुनाव लड़ा था। लालू ने लोकजनशक्ति पार्टी के सहारे 28 सीट जीत पर पर लोकजनशक्ति को मिली महज वही 6 सीटें जो उसे जीतनी थी। रामविलास पासवान खुद जब राघोपुर विधानसभा से लडे तो आर जेडी के समर्थन के बावजूद उन्हें पिछड़ना पड़ा। पासवान को यादवों का वोट नहीं मिला था। इसके अलावा साल 2009 में पासवाल को लोकसभा चुनाव में 33481 वोट मिले वहीं 2005 की नवंबर विधानसभा चुनाव में दोनों पार्टियों को अलग अलग 51208 और फरवरी,2005 विधान चुनाव में 72099 वोट मिले थे। नीतीश अपने काम का ईऩाम मांग रहे हैं। काम की मजदूरी मांग रहे हैं उनके ऊपर जब से बेताल चढ़ गया है तब उनके काम का ईनाम देने वालों के सामने कई सवाल खड़े हो गये हैं। क्या जंगलराज नहीं लौटेगा। विकास कैसे आगे बढ़ेगा। क्या फिर जातियां के जमघट में बिहार फंसेगा। क्या बिहार मंडल कमंडल की लडाई का अखाडा बनेगा। लालू ने जंगलराज का जवाब देते हुए कहा कि यह जंगलराज नहीं मंडलराज पार्ट 2 है। नीतीश कुमार ने जातियों से ऊपर उठकर राजनीति की है। विकास के दो पैमाने हैं। एक- जनता को फील कराया जाय। दूसरा- आंकडों में विकास हो। नीतीश ने बिहार की जनता को फील के स्तर पर विकास का एहसास तो करा ही दिया है। यानी विकास का टेक-ऑफ बिहार में हो गया है। शायद यही वजह है कि नरेंद्र मोदी विकास के सवाल पर नीतिश को घेरते हैं तब बिहार की जनता के गले बात उतनी नहीं उतरती जितनी भाजपा चाहती है।
बिहार के लोग नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री देखना चाहते हैं। लालू के साथ नहीं। इस विरोधाभासी संतुलन साधने की बाजीगरी नीतीश कैसे कर दिखाएंगे यह अनुत्तरित प्रश्न उनके सामने हैं। वह भी तब जब कभी लालू के हमसाया रहे पप्पू यादव, उनके समधी मुलायम सिंह यादव भाजपा की बी-टीम के तौर पर नीतीश लालू के जनाधार में सेंध लगाने में जुटे हों। ओवैसी भी जो हासिल करेंगे वह इस महागठबंधन के हिस्से का ही होगा। राजनीति और परीक्षा में अपनी सफलता दूसरे की अफसलता पर भी काफी निर्भर करती है। यह फार्मूला भाजपा के काफी काम आ रहा है। बिहार का अगड़ा तबका नीतीश के लालू के साथ जाने के बाद आक्रामक ढंग से भाजपा के पाले में आकर खडा हो गया है। हांलांकि बिहार में इनकी तादाद कुल मिलाकर 14 फीसदी से ज्यादा नहीं बैठती। लालू अगडों के लिए आतंक हैं। यही वजह है कि अगड़ी जमात खासी सक्रिय है। इसका खामियाजा भी हो सकता है पर भाजपा इसे भांप रही है। तभी तो उसने तमाम ऐसे कदम उठाये हैं जिनमें जातीय संतुलन साधने के सटीक फार्मूले है। मसलन, उसने किसी को भी मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित नहीं किया है। उस सुशील मोदी को भी नहीं जिन्हें बिहार में तमाम लोग नीतीश कुमार की छाया के रुप में देखते रहे है। उनका चेहरा भी अगड़ा विरोधी माना जाता है। भाजपा ने माई समीकरण के जवाब में दलितों को साध लिया है। दावे चाहे जो किए जायें पर बिहार का चुनाव सिर्फ दो कारकों पर निर्भर करेगा। पहला लालू अपना वोट कितना ट्रांसफर करा पाते हैं क्योंकि बिहार में 27 फीसदी के करीब यादव और मुसलमान हैं। दूसरा, अगडों की सक्रियता कितनी होती है। अगर अगड़े बेमन से भाजपा गठबंधन को वोट देंगे तो वह बहुमत के पाले से ठीक पहले कहीं ठहर जायेगी। लेकिन अगर अगड़ों से सक्रिय ढंग से चुनाव में भागेदारी की तो द्वंद में फंसे परिवर्तनकामी बिहार में पहली भाजपा के मुख्यमंत्री वाली सरकार का सपना पूरा करने में नरेंद्र मोदी कामयाब हो सकेंगे।
बिहार में शायद यह पहला मौका है जब सियासत की इबारत अगड़ी जमात लिखेगी। समाजिक न्याय की राजनीति करने वालों को नाइत्तेफाकी हो सकती है पर संघ प्रमुख आरक्षण की बात कर रहे हों तो इस आलोक में बिहार चुनाव को देखा जाय तब समाजिक न्याय के पुरोधाओं की बात को खारिज करना आसान हो जाता है। ऐसा नहीं बिहार में जीतनराम मांझी पहले दलित मुख्यमंत्री हैं। इससे पहले भी भोला पासवान शास्त्री तीन बार और रामसुंदर एक बार मुख्यमंत्री रह चुके हैं। पर जीतनराम मांझी ने मायावती के फार्मूले को पहली बार बिहार में आजमाया। बिरादरी के नौकरशाहों को अच्छी तैनाती दी। आगे बढाया। ठेके में दलित वर्ग को आरक्षण का चारा फेंका। 16 फीसदी दलितों में 22 दलित जातियां हैं नीतीश ने 21 को महादलित का दर्जा दे दिया। बिहार की 38 सीटों पर हार-जीत का फैसला यह मतदाता करते हैं। नीतीश की सबसे बड़ी पराजय मांझी का साथ ना होना है। क्योंकि उन्हें महादलितों के नेता के रुप में उभरने का मौका दिया। आज मांझी की राजनैतिक पूंजी वही प्रतीक है। नीतीश की कोशिश का ही नतीजा था कि दलितों की आवाज चुनाव के दावेदारों में सुनी जा रही है। वह चाहे पासवान के रुप में हो अथवा जीतन राम मांझी के रुप में। पर नीतीश के तरकश में दलितो को लेकर क्या तीर हैं यह दिखाई नहीं पड़ रहा है।
बिहार में कुर्मी- यादव पारस्परिक रुप से विरोधी है। जनता दल यू और राजद के कार्यकर्ता भी 25 सालों से एक दूसरे के खिलाफ तलवार भांजते चले आ रहे हैं। लालू को अपने लिए प्राणवायु चाहिए। नीतीश को मुख्यमंत्री का पद। इन कार्यकर्ताओं को गलबहियां करने के लिए अपने दशकों पुरानी तलवारों को म्यान में रखना होगा। यह उतना आसान नहीं जितना लालू और नीतीश समझ रहे हैं। यही नहीं जिस ओबीसी को वह अपनी धुरी मानते हैं उसमें भाजपा ने भी अपने ढंग से सेंध लगाई है। अशोक पर डाक टिकट जारी किया है। रैदास की जयंती मनायी है। साथ ही मंडल कमीशन के प्रणेता बी पी मंडल ने इस बार भाजपा की सदस्यता ले ली है।
भाजपा अपने हिंदुत्व के लिए जातियों पर जोर नहीं देती है। लेकिन बिहार में हिंदुत्व की अलख जगाने के लिए उसने कास्ट का रुट लिया है। बिहार के चुनाव में नतीजे भाजपा या नीतीश के पक्ष में हों पर जीत सिर्फ लालू की होगी। बाकी सारी पार्टियां और नेता जय-पराजय हासिल करेंगे। लालू को छोड़कर किसी को संजीवनी नहीं मिलने वाली। पाने में जैसे लालू सबसे अगुवा होंगे। खोने वालों में पहला नाम नीतीश कुमार का होगा। वह सुशासन की छवि खोएंगे। लालू की बी टीम बनेंगे। वहीं जिस मुस्लिम वोट के लिए नीतीश भाजपा से बेगाने हुए उसी वोट के लिए आज उन्हें लालू का मुंह देखना पड़ रहा है। नतीजों के बाद नीतीश को अहसास होगा कि वह अगर अकेले होते तो शायद हारकर भी विजयी होते। भाजपा का साथ छोडने के बाद उन्हें सेक्युलर बनने के लिए उन्हें कांग्रेस के मुहर की दरकार है। सामाजिक न्याय का पुरोधा बनने के लिए उन्हें लालू का साथ लेना पड़ा यह पराजय नहीं तो और क्या है। वह भी एक ऐसे नेता की जिसने बिहार की छवि बदली।
बिहार में भले ही माई (मुस्लिम-यादव) समीकरण गढने का श्रेय शरद यादव को जाता हो पर इसका सबका अधिक लाभ पाने वाले राजनेताओं में लालू रहे हैं। लेकिन पंद्रह बरस तक बिहार में निष्कंटक राज करने वाले लालू प्रसाद यादव के एजेंडे में विकास समा ही नहीं पाया। यह लालू और बिहार को जानने वालों के लिए एक अनसुलझी पहेली है। लालू पूरे राजनैतिक यात्रा में जातीय समीकरणों से ऊपर नहीं उठ पाए। उनके बाहुबलियों और इलाकाई मिनी मुख्यमंत्रियों के कोहराम से बिहार में जातीय समीकरण भी सिर्फ यादवों तक सिमट कर रह गया। यह बात दीगर है कि इक ऐसे समय जब लालू अपने जीवन, जाति और पार्टी के लिए प्राणवायु की तलाश कर रहे हैं तब उनके मिनी मुख्यमंत्रियों की बड़ी जमात उनके खिलाफ खड़ी है। बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार पहले भी मुख्यमंत्री के तौर पर अपनी किस्मत आजमा चुके हैं। समता पार्टी के बैनर तले चुनाव लडने वाले नीतीश इकाई तक सिमट कर रह गये थे। तब बाद में उन्हें 10 साल भाजपा का साथ मिला। इसके बाद नीतीश को धर्मनिरपेक्ष बने। चलन के हिसाब से नरेंद्र मोदी पर हमला और उनसे कुट्टी बेहद मुफीद फार्मूला था। नीतीश इस पर चले। नीतीश शायद यह भूल गये कि इस धर्मनिरपेक्षता के पथ पर आगे बढ़ने के लिए लालू का साथ उनके लिए एकदम बेर-केर के संग सरीखा है। लालू के कुशासन और नीतीश के सुशासन का योग। लालू की जातीय प्रतिबद्धताएं और नीतीश का सर्वजातीय आकर्षण सरीखी कई और नजीरें हैं।
बिहार ने लालूराज के तांडव का विकल्प उन्हें बनाया था। बीते लोकसभा चुनाव में भाजपा की सफलता ने भी नीतीश को यह सबक जरुर दिया होगा कि बिहार अब भाजपा के लिए अनुपजाऊ नहीं है। मोटे तौर पर बिहार में चार तरह के वोटबैंक हैं- अगड़ा, पिछड़ा, दलित और मुसलमान। कर्पूरी ठाकुर ने पिछड़ों में अतिपिछड़ा और नीतीश कुमार ने दलितों में महादलित के दो और वोटबैंक तैयार कर दिए। बिहार में 110 पिछड़ी और अतिपिछड़ी जातियां हैं। दलितों में दुसाध और मुसहर सबसे बड़े तबके हैं। दुसाधों के नेता रामविलास पासवान हैं जो इन दिनों परिवारवाद के आरोप में बुरी तरह घिरे हुए हैं। नीतीश ने दलितों की आबादी के एक बड़े हिस्से मुसहर बिरादरी के जीतनराम मांझी को मुख्यमंत्री बनाकर अपने पक्ष में बड़ा माहौल तैयार कर लिय़ा था। पर उनका यह दांव ऐसा उलटा पड़ा कि इसकी भरपाई के लिए नीतीश को लालू के पाले में खड़ा होना पड़ा। नीतीश का लालू का साथ बिहार के लोगों के लिए कितना नागवार है यह सिर्फ उनके उस एक बयान से समझा जा सकता है जिसमें उन्होंने चंदन विष व्यापत नहीं...कहा था। अब लालू के साथ नीतीश सामाजिक न्याय की बात करने लगे हैं। वह भूल रहे हैं कि बिहार लालू नीतीश के समाजवादी प्रयोग 22 साल देख चुका है। कांग्रेस की परंपरागत सत्ता के दर्प के टूटे 25 साल हो चुके हैं। ऐसे में नीतीश भले यह समझते हों कि लालू माई समीकरण उनके हवाले कर देंगे पर लालू अपना वोट ट्रांसफर कराने में कितने कामयाब हैं ये पिछले लोकसभा चुनाव के नतीजों से समझा जा सकता है। इसका प्रमाण कई है। साल 2010 में विधानसभा चुनाव लोकजनशक्ति पार्टी के साथ लालू ने चुनाव लड़ा था। लालू ने लोकजनशक्ति पार्टी के सहारे 28 सीट जीत पर पर लोकजनशक्ति को मिली महज वही 6 सीटें जो उसे जीतनी थी। रामविलास पासवान खुद जब राघोपुर विधानसभा से लडे तो आर जेडी के समर्थन के बावजूद उन्हें पिछड़ना पड़ा। पासवान को यादवों का वोट नहीं मिला था। इसके अलावा साल 2009 में पासवाल को लोकसभा चुनाव में 33481 वोट मिले वहीं 2005 की नवंबर विधानसभा चुनाव में दोनों पार्टियों को अलग अलग 51208 और फरवरी,2005 विधान चुनाव में 72099 वोट मिले थे। नीतीश अपने काम का ईऩाम मांग रहे हैं। काम की मजदूरी मांग रहे हैं उनके ऊपर जब से बेताल चढ़ गया है तब उनके काम का ईनाम देने वालों के सामने कई सवाल खड़े हो गये हैं। क्या जंगलराज नहीं लौटेगा। विकास कैसे आगे बढ़ेगा। क्या फिर जातियां के जमघट में बिहार फंसेगा। क्या बिहार मंडल कमंडल की लडाई का अखाडा बनेगा। लालू ने जंगलराज का जवाब देते हुए कहा कि यह जंगलराज नहीं मंडलराज पार्ट 2 है। नीतीश कुमार ने जातियों से ऊपर उठकर राजनीति की है। विकास के दो पैमाने हैं। एक- जनता को फील कराया जाय। दूसरा- आंकडों में विकास हो। नीतीश ने बिहार की जनता को फील के स्तर पर विकास का एहसास तो करा ही दिया है। यानी विकास का टेक-ऑफ बिहार में हो गया है। शायद यही वजह है कि नरेंद्र मोदी विकास के सवाल पर नीतिश को घेरते हैं तब बिहार की जनता के गले बात उतनी नहीं उतरती जितनी भाजपा चाहती है।
बिहार के लोग नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री देखना चाहते हैं। लालू के साथ नहीं। इस विरोधाभासी संतुलन साधने की बाजीगरी नीतीश कैसे कर दिखाएंगे यह अनुत्तरित प्रश्न उनके सामने हैं। वह भी तब जब कभी लालू के हमसाया रहे पप्पू यादव, उनके समधी मुलायम सिंह यादव भाजपा की बी-टीम के तौर पर नीतीश लालू के जनाधार में सेंध लगाने में जुटे हों। ओवैसी भी जो हासिल करेंगे वह इस महागठबंधन के हिस्से का ही होगा। राजनीति और परीक्षा में अपनी सफलता दूसरे की अफसलता पर भी काफी निर्भर करती है। यह फार्मूला भाजपा के काफी काम आ रहा है। बिहार का अगड़ा तबका नीतीश के लालू के साथ जाने के बाद आक्रामक ढंग से भाजपा के पाले में आकर खडा हो गया है। हांलांकि बिहार में इनकी तादाद कुल मिलाकर 14 फीसदी से ज्यादा नहीं बैठती। लालू अगडों के लिए आतंक हैं। यही वजह है कि अगड़ी जमात खासी सक्रिय है। इसका खामियाजा भी हो सकता है पर भाजपा इसे भांप रही है। तभी तो उसने तमाम ऐसे कदम उठाये हैं जिनमें जातीय संतुलन साधने के सटीक फार्मूले है। मसलन, उसने किसी को भी मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित नहीं किया है। उस सुशील मोदी को भी नहीं जिन्हें बिहार में तमाम लोग नीतीश कुमार की छाया के रुप में देखते रहे है। उनका चेहरा भी अगड़ा विरोधी माना जाता है। भाजपा ने माई समीकरण के जवाब में दलितों को साध लिया है। दावे चाहे जो किए जायें पर बिहार का चुनाव सिर्फ दो कारकों पर निर्भर करेगा। पहला लालू अपना वोट कितना ट्रांसफर करा पाते हैं क्योंकि बिहार में 27 फीसदी के करीब यादव और मुसलमान हैं। दूसरा, अगडों की सक्रियता कितनी होती है। अगर अगड़े बेमन से भाजपा गठबंधन को वोट देंगे तो वह बहुमत के पाले से ठीक पहले कहीं ठहर जायेगी। लेकिन अगर अगड़ों से सक्रिय ढंग से चुनाव में भागेदारी की तो द्वंद में फंसे परिवर्तनकामी बिहार में पहली भाजपा के मुख्यमंत्री वाली सरकार का सपना पूरा करने में नरेंद्र मोदी कामयाब हो सकेंगे।
बिहार में शायद यह पहला मौका है जब सियासत की इबारत अगड़ी जमात लिखेगी। समाजिक न्याय की राजनीति करने वालों को नाइत्तेफाकी हो सकती है पर संघ प्रमुख आरक्षण की बात कर रहे हों तो इस आलोक में बिहार चुनाव को देखा जाय तब समाजिक न्याय के पुरोधाओं की बात को खारिज करना आसान हो जाता है। ऐसा नहीं बिहार में जीतनराम मांझी पहले दलित मुख्यमंत्री हैं। इससे पहले भी भोला पासवान शास्त्री तीन बार और रामसुंदर एक बार मुख्यमंत्री रह चुके हैं। पर जीतनराम मांझी ने मायावती के फार्मूले को पहली बार बिहार में आजमाया। बिरादरी के नौकरशाहों को अच्छी तैनाती दी। आगे बढाया। ठेके में दलित वर्ग को आरक्षण का चारा फेंका। 16 फीसदी दलितों में 22 दलित जातियां हैं नीतीश ने 21 को महादलित का दर्जा दे दिया। बिहार की 38 सीटों पर हार-जीत का फैसला यह मतदाता करते हैं। नीतीश की सबसे बड़ी पराजय मांझी का साथ ना होना है। क्योंकि उन्हें महादलितों के नेता के रुप में उभरने का मौका दिया। आज मांझी की राजनैतिक पूंजी वही प्रतीक है। नीतीश की कोशिश का ही नतीजा था कि दलितों की आवाज चुनाव के दावेदारों में सुनी जा रही है। वह चाहे पासवान के रुप में हो अथवा जीतन राम मांझी के रुप में। पर नीतीश के तरकश में दलितो को लेकर क्या तीर हैं यह दिखाई नहीं पड़ रहा है।
बिहार में कुर्मी- यादव पारस्परिक रुप से विरोधी है। जनता दल यू और राजद के कार्यकर्ता भी 25 सालों से एक दूसरे के खिलाफ तलवार भांजते चले आ रहे हैं। लालू को अपने लिए प्राणवायु चाहिए। नीतीश को मुख्यमंत्री का पद। इन कार्यकर्ताओं को गलबहियां करने के लिए अपने दशकों पुरानी तलवारों को म्यान में रखना होगा। यह उतना आसान नहीं जितना लालू और नीतीश समझ रहे हैं। यही नहीं जिस ओबीसी को वह अपनी धुरी मानते हैं उसमें भाजपा ने भी अपने ढंग से सेंध लगाई है। अशोक पर डाक टिकट जारी किया है। रैदास की जयंती मनायी है। साथ ही मंडल कमीशन के प्रणेता बी पी मंडल ने इस बार भाजपा की सदस्यता ले ली है।
भाजपा अपने हिंदुत्व के लिए जातियों पर जोर नहीं देती है। लेकिन बिहार में हिंदुत्व की अलख जगाने के लिए उसने कास्ट का रुट लिया है। बिहार के चुनाव में नतीजे भाजपा या नीतीश के पक्ष में हों पर जीत सिर्फ लालू की होगी। बाकी सारी पार्टियां और नेता जय-पराजय हासिल करेंगे। लालू को छोड़कर किसी को संजीवनी नहीं मिलने वाली। पाने में जैसे लालू सबसे अगुवा होंगे। खोने वालों में पहला नाम नीतीश कुमार का होगा। वह सुशासन की छवि खोएंगे। लालू की बी टीम बनेंगे। वहीं जिस मुस्लिम वोट के लिए नीतीश भाजपा से बेगाने हुए उसी वोट के लिए आज उन्हें लालू का मुंह देखना पड़ रहा है। नतीजों के बाद नीतीश को अहसास होगा कि वह अगर अकेले होते तो शायद हारकर भी विजयी होते। भाजपा का साथ छोडने के बाद उन्हें सेक्युलर बनने के लिए उन्हें कांग्रेस के मुहर की दरकार है। सामाजिक न्याय का पुरोधा बनने के लिए उन्हें लालू का साथ लेना पड़ा यह पराजय नहीं तो और क्या है। वह भी एक ऐसे नेता की जिसने बिहार की छवि बदली।