कागज से नहीं नीयत से बनता है संविधान

Update:2015-11-30 00:57 IST
वर्ष 1949 में संविधान सभा की बैठक में बोलते हुए संविधान के प्रारुप समिति के अध्यक्ष डा भीमराव अंबेडकर ने कहा था “आज इस संविधान की अच्छाइयां गिनाने का कोई खास मतलब नहीं है। संविधान कितना अच्छा हो पर इस्तेमाल करने वाले लोग बुरे होंगे, तो यह बुरा साबित होगा। अगर संविधान बुरा है, पर इस्तेमाल करने वाले अच्छे लोग होंगे, तो संविधानस अच्छा साबित होगा। जनता और राजनैतिक दलों की भूमिका को लाए बिना संविधान पर टिप्पणी करना व्यर्थ है।” आज जब संविधान की प्रतिबद्धता (कमिटमेंट) के बाबत संसद के शीतकालीन सत्र में दो दिवसीय चर्चा में इसकी प्रासंगिता और बढ़ जाती है। संविधान के प्रति प्रतिबद्धता के मद्देनजर यह देखना अनिवार्य हो गया है कि वह किनके हाथों में है। किनके हाथों में रहा है। जिनके हाथों में रहा है अथवा है वे समाज के किसी वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं। या फिर समूचे समाज का। ऐसा इसलिए जरुरी है क्योंकि हमारे संविधान पर अमेरिकी संविधान की तरह जनता की मुहर नहीं लगी है। इसे 284 सदस्यों ने बनाया है। अमेरिका में संविधान बनने के बाद बाकयदा जनमत संग्रह कराया गया था।
यह कम दिलचस्प नहीं है कि जिन हाथों में संविधान 60 सालों तक रहा उन हाथों ने ही संविधान के प्रति प्रतिबद्धता की बहस को सहिष्णुता बनाम असहिष्णुता की ओर ले जाने की पूरी कोशिश की। यह बताया और जताया गया कि संविधान बदलने की पोशीदा कोशिशें हो रही हैं। संविधान की शपथ लेकर उस पर काम करन वाली जमात नज़र दौडायें तो इस बात की पुष्टि होती है कि सबकुछ संविधान की मूल भावना के ठीक उलट हो रहा है। राजनेताओं के लिए देशहित से ऊपर स्वहित और दल हित हो गया है। अगर ऐसा नहीं होता तो संविधान के अनुच्छेद 21 में जीने की गारंटी के बावजूद तमाम लोग भूखे और नंगे रहने को अभिशप्त नहीं होते। जिस कोलीजियम प्रणाली को बहाल करना पड़ा उसका जिक्र संविधान में नहीं है। ज्यादातर राजनैतिक दलों में लोकतंत्र का अंत हो गया है। परिवाद हावी हो गया है। फिर वे लोकतंत्र की सत्ता संचालन के लिए निर्मित संविधान की रक्षा की गारंटी कैसे दे सकते है।
डा अंबेडकर ने 1949 में दिए अपने भाषण में अनुच्छेद 44 और 48 के क्रियान्वन  की बात कही थी। अनुच्छेद 44 में समान नागरिक संहिता है तो अनुच्छेद 48 में गोवध पर प्रतिबंध। लेकिन जब भी इस पर कोई भी मुंह खोलता है तो वह धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ खड़ा करार दिया जाता है। यही नहीं अंबेडकर संघीय ढांचे की स्थापना की वकालत की थी लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है जो भी सरकार केंद्र में आयी उसने राज्य की अपनी विरोधी सरकार को कमजोर करने की कोशिश शुरु कर दी। 356 का संविधान के प्रावधानों के अनुरुप कभी नहीं हुआ है। यह राजनेताओं के चरित्र की बानगी ही है कि डा अंबेडकर ने जिस आरक्षण के 10 साल पर समीक्षा की बात कही थी उसे मोदी कबीना के रामविलास पासवान 9वीं अऩुसूची में शामिल करने की मांग करते हैं। 9 वीं अनुसूची में जिस तरह सरकारों ने विवादास्पद और मनमाफिक कानून ड़ाला है उससे संविधान की पूर्ण आत्मा आहत नहीं होती है ?
भारत की शिक्षा नीति संविधान की भावना के खिलाफ है। हमारी शिक्षा व्यवस्था इंजीनियरिंग, मेडिकल , मानवीकी, विज्ञान आदि के पाठ तो पढ़ाती है पर संविधान के पाठ नहीं पढ़ाती। यह शिक्षा नीति की ही कमी है कि हम सेक्यूलर शब्द का अनुवाद धर्मनिरपेक्ष कर बैठते है। जबकि भारतीय संस्कृति और वांग्मय में धर्म से निरपेक्ष होने का अर्थ अधर्म अपनाना है। सेक्युलर शब्द का अर्थ पंथनिरपेक्षता है। सर्वधर्म सम्भाव और वासुधैव कुटुंबम् का अनुपालन करने वाले देश में धर्मनिरपेक्षता वैसे भी विजातीय शब्द हो जाता है।   सन् 1835 की 2 फरवरी के दिन लार्ड मैकाले ने ब्रिाटिश संसद में कहा था- मैंने भारत के कोने-कोने में भ्रमण किया है, पर वहां मैंने एक भी भिखारी, चोर या असभ्य नहीं देखा। भारतीय बहुत ही उच्च नैतिक मूल्य और प्रतिभा रखते हैं। मैं नहीं सोचता कि हम तब तक भारतीयों को गुलाम बना सकते हैं जब तक इस राष्ट्र की रीढ़ की हड्डी नहीं तोड़ देते, और वह रीढ़ की हड्डी है आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत, इसलिए मैं यह सुझाव देता हूं कि भारत में ऐसी शिक्षा पद्धति लागू की जाए जिससे भारतीय यह सोचने लगें कि जो कुछ भी विदेशी है, इंग्लैण्ड का है वही सबसे अच्छा है। इस तरह भारत के लोग अपनी विरासत आदि से दूर हो जाएंगे और तभी हम उन्हें पूरी तरह नियंत्रित कर सकेंगे।  हुआ भी वही। हम अपनी शिक्षा पद्धति और भाषा से दूर पश्चिम- पश्चिम कर रहे हैं। आजादी के बाद महात्मा गांधी के लाख चाहने के बावजूद हिन्दी को संविधान द्वारा स्वीकृत राष्ट्रभाषा नहीं बनाया गया हालांकि 14 सितंबर 1949 को संविधान में अनुच्छेद 343 जोड़कर हिन्दी को भारतीय संघ की राजभाषा घोषित कर राष्ट्रभाषा के नाम पर देशवासियों को बरगला दिया गया।
संविधान उपनिवेशवाद को खत्म करने के लिए बना था पर उपनिवेशवाद बरकरार है। तीन वर्ष की गंभीर बहस के बाद निर्मित संविधान हमारी सफलता भी है। विफलता भी। सफलता इसलिए क्योंकि हमारे यहां लोकतंत्र पुष्पित-पल्लवित हो रहा है। विफलता इसलिए लोकतांत्रिक संस्थाएं बदहाल हैं। संविधान की उद्देशिका में आर्थिक व राजनैतिक न्याय का जिक्र है। आर्थिक न्याय का चेहरा सामने है कि आजादी के छह दशक से ज्यादा में हम इतनी गरीबी दूर कर सके कि हमें दुनिया में सबसे ज्यादा गरीबों वाले देश का तमगा मिलगा।  विश्व बैंक के मुताबिक भारत में 2012 के दौरान सबसे ज्यादा संख्या में गरीब पाये गये। हमारे देश में करीब 27 फीसदी लोग गरीबी रेखा के नीचे रहते हैं।  संविधान के मुताबिक किसी भी नये कर के लिए संसद की अनुमति होनी चाहिए पर सरकारें ऐसा नहीं कर रही हैं। रेल भाड़े संसद की अनुमति के बिना बढ़ जाते हैं। कई कर आयद किये जाने से पहले संसद के मोहताज नहीं होते। स्वतंत्रता बीते समय में सरकार की हां तक सीमित होकर रह गयी। देश को आपातकाल झेलना पड़ा। यह सब करने वाले लोग ही धर्मनिरपेक्षता व सहिष्णुता पर बहस के मार्फत जता और चेता रहे हैं कि संविधान की मूल आत्मा पर संकट मंडरा रहा है। सोनिया गांधी कह रही हैं जिन लोगों की इसके निर्माण में कोई भूमिका नहीं रही वे इसका अगुवा बन रहे हैं। क्या सोनिया गांधी की भूमिका इसके निर्माण में थी।
संविधान दिवस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक तीर से कई निशाने साधे उन्होंने जहां नेहरू की तारीफ कर बडे दिल का का उदाहरण दिया,  वहीं संविधान निर्माता बाबा साहब भीमराव अंबेडकर के नाम के कसीदे भी पढे। मोदी के मुताबिक बाबा साहब ने सबकुछ झेलकर संविधान में देश के लिए सबसे अच्छी बातें शामिल कीं। उन्होंने जहर पी लिया। मोदी ने देश का एक ही धर्म इंडिया-फर्स्ट और एक ही धर्मग्रंथ संविधान को बताकर सहिष्णुता- असहिष्णुता पर अचूक जवाब दिया है। आइडिया ऑफ इंडिया-पौधे में परात्मा , वसुधैव कुटुंबकम, नारी तुम नारायणी, नर करनी करे तो नारायण हो जाए के जरिये अपने हिंदूवादी चेहरे पर कोई शिकन न आने का संकेत भी उन्होंने दे ही दिया। संविधान बदला जा रहा के मनगढंत और जहर बुझे अभियान को एक भ्रम बताकर बहुत से आशंकित समर्थकों को राहत पहुंचाई। प्रधानमंत्री मोदी ने गांधी जी के एक बयान के साथ ही नरसिंह मेहता, ज्योतिबा फुले, ईश्वर चंद विद्यासागर, राजा राममोहनरॉय और जयप्रकाश नारायण का नाम लेकर महापुरुषों में कोई भेद नहीं का संदेश भी दे दिया। उन्होंने लोकतंत्र की असली ताकत सहमति को बताया। विपक्ष को संदेश भी दिया। आने वाले दिनों में यह सहमति उनके लिये सदन के अंदर और सरकार चलाने में काफी मददगार साबित होने वाली है।
लोकसभा में केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने इस चर्चा की शुरुआत कर सेक्युलर शब्द का सही मतलब बताया। यह भी कहा हजारों साल से लोकतांत्रिक भारतीय समाज की सोच समाजवादी रही है। इसकी गवाही सम्राट अशोक के ढाई हाजार साल पुराने शिलालेख भी देते है। तो मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम के शबरी के बेर खाने, नदी पार करने पर निषादराज के हाथ जोडना भी इसी की बनागी है। राजनाथ सिंह ने सेक्युलर को पंथनिरपेक्षता बताकर इसके विस्तार पर भी चर्चा की, जिसे धर्म के खांचों में बांधा नहीं जा सकता। उन्होंने सेक्युलर शब्द को और बड़ा कर यह जवाब दिया कि किस तरह इस शब्द का गलत मतलब राजनीति के लिए किया जा रहा है।
यही नहीं, संविधान की आत्मा समझने के लिए साक्षरता और शिक्षा के जिस स्थिति की जरुरत थी उस दिशा में देश में 60 साल राज करने वाली सरकार ने क्या किया। आज भी भारत की एक चौथाई जनता निरक्षर है। जो जनता संविधान नहीं जानती उससे, उसकी आत्मा को जानने और उस पर अमल करने की बात सोचना दिवास्वप्न है। क्या यह संविधान की आत्मा की रक्षा का नतीजा ही कहा जाएगा कि प्रचंड बहुमत वाली सरकार के मुखिया राजीव गांधी की सुरक्षा के लिए दलबदल कानून लाया गया है। संसद में शाहबानो और संसद के बाहर राममंदिर। संविधान की आत्मा के साथ संसद में बैठे लोगों कब-कब और कैसे कैसे खेला है यह उसकी बानगी भर है।
संविधान खंडित जनादेश वाले नतीजे पर मौन है। अनुच्छेद 75 बस इतना कहता है कि राष्ट्रपति अथवा राज्यपाल बहुमत वाले दल के नेता को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करेंगे। खंडित जनादेश के मौकों पर बडे दल के नेताओं ने कैसे कैसे लोगों को मौके दिए और सरकार बनाने के लिए बाहुबली और धनबलियों को माननीय बना दिया। वहीं जिनके हाथ में संविधान को बचाने की अलम रही हो वो शायद यह बाबा साहब की वो बात भूल जाते हैं कि संविधान कागज पर नहीं चलाने वाले की नीयत और उसके जज्बे से अच्छा होता है।

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