शायद आपको चांद और फिज़ा की प्रेम-विवाह-तलाक कथा याद हो। प्रेम के इस अभिनय में चांद और फिजा दोनों खत्म हो गये। चांद जिसका नाम चंद्रमोहन था, हरियाणा के एक बड़े राजनेता थे, उनकी विरासत वाली पारंपरिक सियासत चली गयी, फिजा जिसका नाम अनुराधा बाली था, एक यशस्वी वकील थी उन्हें जिंदगी से हाथ धोना पड़ा। उस समय यह जेरे बहस था कि विवाह के लिए धर्म बदलना, इस्लाम कुबूल करना धर्म के प्रति आस्था नहीं जताता। यह सोच धर्म को बाजार के उस सोपान पर खड़ा करती है जहां लाभ-हानि का रिश्ता धर्म से बनता है। धर्म का रिश्ता लाभ-हानि से बनता बिगड़ता है। हांलांकि आमतौर पर धर्म परिवर्तन या तो भय से हुए अथवा प्रलोभन से। आस्था से धर्मपरिवर्तन की नजीर बहुत कम मिलती है। धर्म परिवर्तन के रुप में धार्मिक अंधविश्वास रुढियां भी रही हैं जिनसे उपजी प्रतिक्रिया नए धर्म में जाने का आधार बनती हैं। डा भीमराव अंबेडकर का धर्म परिवर्तन इसी प्रक्रिया और परंपरा का हिस्सा था।
रुढियों, अंधविश्वास और प्रतिक्रिया के नाते धार्मिक आस्था में बदलाव को काफी हद तक जायज ठहराया जा सकता है क्योंकि किसी के पास भी इस बात का कोई तर्क नहीं हो सकता कि गंगा स्नान किया हुआ पंडित मंदिर में जाय और गंगा स्नान किया हुआ दलित मंदिर की चौखट पर रोक दिया जाय। जिस देश मे जातियां कर्मणा होती रही हों वहां जन्मना जाति के आधार पर अस्पृश्यता जैसी सामाजिक बुराई हो तो धर्म परिवर्तन का स्थूल तर्क मिलता है।
अब तो धर्म बदलना लाभ-हानि से जुडता चला जा रहा है। धर्म बाजार की वस्तु हो गया है क्योंकि धर्म का बडा बाजार हो गया है। वक्फ संपत्तियों से लेकर मंदिरों के चढावे तक इसकी पुष्टि करते हैं। हाल फिलहाल राजस्थान के आईएएस अफसर उमराव सालोदिया ने यह तोहमत मढ़ते हुए इस्लाम कुबूल कर लिया कि उऩ्हें वरिष्ठता के बावजूद राज्य का मुख्य सचिव नहीं बनाया जा रहा है। सालोदिया के इस धर्मांतरण से शुरु हुई बहस में सबसे पहले यह देखने की जरुरत है कि क्या सालोदिया इस पद के लिए उपयुक्त थे? 1978 बैच के अफसर उमराव सालोदिया पर जमीन घोटाले का आरोप है। यह मामला भीलवाड़ा का है। आरोप था कि उमराव सालोदिया ने बटुउद्दीन एवं अन्य के साथ भीलवाड़ा में जमीन घोटाला किया। सालोदिया 2013 में रेवेन्यू बोर्ड के चेयरमैन बने। यहीं आने के बाद इस मामले के और आगे बढ़ने के दौरान सालोदिया ने खुद को इससे बचाने का मन बनाया। उन्होंने जयपुर के गांधी नगर पुलिस थाने में नानगराम के खिलाफ 24 मई 2014 को एफआइआर दर्ज करा दी। सालोदिया के खिलाफ एसीबी में मामला चल रहा है। ऐसे में यदि उन्हें सीएस बनाया जाता तो सरकार भी आरोपों के घेरे में आ सकती थी। यही वजह है कि उन्हें सीएस नहीं बनाया गया और सालोदिया ने इसे धर्म से जोड़कर पूरे मामले को अलग ही रंग दे दिया। उनके नजदीकियों के अनुसार, वह छह माह बाद ही सेवानिवृत्त हो रहे थे। उन्हें डर था कि कहीं इन छह माह में ही उनके खिलाफ एसीबी का मामला आगे बढ़ गया तो उनकी सेवानिवृत्ति अटक सकती है। कोई बड़ा मामला बने, इससे पहले ही कुछ ऐसा कर दिया जाए, ताकि मामला हाई प्रोफाइल ड्रामा बन जाए और सरकार दबाव में आ जाए।
इन सारी विषंगतियों के मद्देनजर सालोदिया के मुख्य सचिव होने का अवसर उनके ही कर्मों से बाधित होता है। जिस तरह तोहमत मढ़ते हुए उन्होंने इस्लाम कुबूल किया और इस पर राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की टिप्पणी आई और उन्होंने सालोदिया के फैसले की आलोचना की। जबकि सचिन पायलट ने तारीफ की। इससे यह साफ हो गया कि सालोदिया धार्मिक सियासत कर रहे हैं। सालोदिया दलित अफसर हैं। उनकी यह भी शिकायत है कि उन्होंने अपनी जाति के कारण उत्पीड़न झेला है। हर राज्य में राजस्व परिषद का अध्यक्ष मुख्य सचिव से छोटे ओहदे का अफसर नहीं माना जाता। सिलोदिया इसी पद पर थे। आरक्षण के मार्फत ही सही देश की सर्वोच्च नौकरी में जगह पाने और 37 साल तक नौकरी करने के बाद दलित कैसे रह जाते हैं। वह भी तब जब हमारे समाज में जातीय की जगह आर्थिक वर्ग बन रहे हैं। लोगों का स्तर जातियों की जगह आर्थिक हैसियत से नापा जाने लगा है।
सिलोदिया ने जो कुछ किया वह नया नहीं है। जब उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती सीबीआई या किसी भी तरह के सियासी संकट में फंसती है तो वह खुद को दलित की बेटी बताकर एक नायाब ढाल तैयार कर लेती हैं। डा भीमराव अंबेडकर का दूसरा विवाह ब्राह्मण में हुआ था। ऐसे में यह कहना कि उत्पीडन का आधार जाति है गलत है और वह भी किसी नौकरशाह के लिए तो सर्वथा गलत होगा। उत्तर प्रदेश में जब मायावती सत्ता में आती हैं तो नौकरशाही में दलित अफसरों की हनक और चमक बढ़ जाती है। बिहार में जीतन राम मांझी मायावती के इसी प्रयोग को आगे बढाते हैं। उन्हें नितीश कुमार जब मुख्यमंत्री बनाते हैं तो कोई बात नहीं लेकिन हटने को कह देते हैं तो दलित उत्पीड़न का पुराण शुरु हो जाता है। उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह की पार्टी और बिहार में लालू की पार्टी जब सत्तासीन होती है तो पिछडों में यादव अफसरों का रंग-ढंग वही होता है जो माया और जीतनराम मांझी के राज में दलित अफसरों का। नौकरशाही में सियासत की घुसपैठ का मौका अफसरों ने ही मुहैया कराया। अफसर अपनी पोस्टिंग के लिए राजनेताओँ के साथ जिस तरह शासन-सटक की भूमिका में दिखते हैं वह नौकरशाहों को तो छोडिए, आमलोगों को शर्मसार करने वाला होता है। उत्तर प्रदेश में शशांक शेखर सिंह नाम के एक गैर आईएएस अफसर को कैबिनेट सेकरेटरी बना दिया। उनको कैबिनेट सेकरेटरी बनाने का आदेश उस समय के नियुक्ति सचिव जे एस दीपक ने जारी किया। पूरी नौकरशाही में कोई हलचल नहीं हुई। सिर्फ तीन ऐसे अफसर थे जिन्होंने कैबिनेट सेकरेटरी के रसूख को सलाम करने से इनकार किया। पर यह भी कम दुर्भाग्य पूर्ण नहीं है कि पूरे पांच साल आईएएस वीक ही नहीं मना क्योंकि अफसरों में इतना साहस नहीं था कि वह बिना कैबिनेट सेकरेटरी को बुलाया अनपे मनोरंजन और मिलन के इस पारंपरिक उत्सव को भी मना पाते। शशांक शेखर सिंह अफसरों की सीआर लिखना चाहते थे लेकिन उस समय के प्रमुख सचिव प्रशांत मिश्रा ने ऐसा करने से उन्हें रोक दिया था। नतीजतन उन्हें स्वैच्छिक सेवानिवृति लेनी पड़ी। उनके आफिस के फ्लोर पर सरकारी लिफ्ट नहीं रुकती थी पर किसी अफसर ने चू नहीं किया।
मायावती उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री थी तो उन्होंने कुछ प्रमुख सचिवों की तैनाती प्रमुख सचिव मुख्यमंत्री आवास के पदनाम के साथ की। कोई शोर शराबा नहीं हुआ। अपनी जाति का नेता और सरकार देखकर नौकरशाही का नशा अफसरों के सिरचढ कर बोलने लगता है। यह जातीय राजनीति वाले किसी सूबे में पढ़ा जा सकता है। तबादलों के लिए अफसरो में गलाकाट प्रतियोगिता अब आम आदमी तक पहुंच गयी है। अफसर इस पतन के लिए नेता को जिम्मेदार ठहराते हैं पर सवाल यह उठता है कि एक नेता का गलत काम कोई अफसर न करे तो वह अफसरों के बदलाव की परंपरा को ठहराव देने पर विवश होगा। पर दुर्भाग्य यह है कि एक अफसर जिस काम को मना करता दूसरा अफसर उसे करने के लिए साष्टांग मुद्रा में न केवल खड़ा दिखता है बल्कि उस गलत काम को सही ढंग से करने का उपाय जोड़ जुगत भी बताता है। मै कई ऐसे अफसरों को जानता हूं जो पत्रावली पर पक्ष और विपक्ष लिखने में समान दक्षता रखते है बस उन्हें राजनैतिक बास का संकेत मिल जाय। राज्यो में नौकरशाही कभी खुद और कभी राजनेता के चलते टूल बनने को तत्पर दिखती है। मुख्य सचिव और डीजीपी के पदों पर कृपापात्रों को बैठाने का चलन नया नहीं है। यह प्रायः सभी राज्यों में देखा जा सकता है। ऐसा नौकरशाही में सियासत की घुन लगने से शुरु हुआ है। ऐसा नहीं होता तो सीआरपी नीतिश कुमार के रेल मंत्री रहने के दौरान अफसर थे। बाद में नौकरी छोड़कर उन्हीं की पार्टी से राज्य सभा चले गए। उत्तर प्रदेश के नौकरशाह पन्नालाल पुनिया मायावती और मुलायम दोनों के प्रमुख सचिव रहे हैं। सियासत कांग्रेस से कर रहे हैं। आईएसएस अफसर रहे सूर्यप्रताप सिंह और आईपीएस अमिताभ ठाकुर नौकरशाही और सियासत के गठजोड़ के ताजा तरीन नमूने हैं। एसपी सिंह लंबे समय तक गायब रहे। मुलायम की सरकार आई तो उनके गृह जनपद की दुहाई देकर अहम ओहदे पर पहुंच गये। जबकि उनकी तरह ही लंबे समय ही गायब रहे आईएएस अफसर शिशिर प्रियदर्शी, संजय भाटिया और अतुल बगाई को अपनी नौकरी गंवानी पडी। उन्हें केंद्र सरकार ने बाहर कर दिया।
जब से पोस्टिंग मलाईदार होने लगीa है, बाजार ने यहा भी जगह बना ली है। हाल फिलहाल कई राज्यों में पड़े छापे में अफसरों के यहां मिली अकूत संपत्ति उनके आर्थिक साम्राज्य अब व्यापारियों के लिए भी ईष्या का सबब बन रहे हैं। नौकरशाही का हर शख्स पर उपदेश कुशल बहुतेरे की भूमिका मे आ गया है। मुट्ठी भर नौकरशाहों को छोड़ दें तो पोस्टिंग उनके कैरियर का मानदंड बन गयी है। वे काम और छाप छोड़ने को तैयार नहीं है। ऐसा नहीं कि नौकरशाही में ऐसे लोग नहीं हैं। पर ऐसे लोग बिरले हैं। दर्भाग्य यह है कि राजनेता नौकरशाह की ताकत चाहता है। नौकरशाह राजनेता की सत्ता चाहता है। जो जहां है वहां नहीं है। जहां काम करने के लिए उसका चयन हुआ, जिनके लिए काम करने का चयन हुआ है उसके लिए वह काम नही करता। शार्टकट का रास्ता नौकरशाही में अफसरों ने ही शुरु किया या फिर राजनेता से शुरु कराया है क्योंकि नौकरशाहों के पदों पर छोटा या बड़ा नौकरशाह बैठे यही होगा। वहां राजनेता नहीं बैठ सकता। ऐसे में तोहमत सियासत पर मढ़ना जायज नही है। पहले अपने गिरेबान में झांक लिया जाय तो शायद उमराव सालोदिया की शिकायतें खुद ब खुद जवाब पा जाएंगी। समय उमराव सालोदिया के बहाने नौकरशाही को आइने के सामने खडे होने का है।
रुढियों, अंधविश्वास और प्रतिक्रिया के नाते धार्मिक आस्था में बदलाव को काफी हद तक जायज ठहराया जा सकता है क्योंकि किसी के पास भी इस बात का कोई तर्क नहीं हो सकता कि गंगा स्नान किया हुआ पंडित मंदिर में जाय और गंगा स्नान किया हुआ दलित मंदिर की चौखट पर रोक दिया जाय। जिस देश मे जातियां कर्मणा होती रही हों वहां जन्मना जाति के आधार पर अस्पृश्यता जैसी सामाजिक बुराई हो तो धर्म परिवर्तन का स्थूल तर्क मिलता है।
अब तो धर्म बदलना लाभ-हानि से जुडता चला जा रहा है। धर्म बाजार की वस्तु हो गया है क्योंकि धर्म का बडा बाजार हो गया है। वक्फ संपत्तियों से लेकर मंदिरों के चढावे तक इसकी पुष्टि करते हैं। हाल फिलहाल राजस्थान के आईएएस अफसर उमराव सालोदिया ने यह तोहमत मढ़ते हुए इस्लाम कुबूल कर लिया कि उऩ्हें वरिष्ठता के बावजूद राज्य का मुख्य सचिव नहीं बनाया जा रहा है। सालोदिया के इस धर्मांतरण से शुरु हुई बहस में सबसे पहले यह देखने की जरुरत है कि क्या सालोदिया इस पद के लिए उपयुक्त थे? 1978 बैच के अफसर उमराव सालोदिया पर जमीन घोटाले का आरोप है। यह मामला भीलवाड़ा का है। आरोप था कि उमराव सालोदिया ने बटुउद्दीन एवं अन्य के साथ भीलवाड़ा में जमीन घोटाला किया। सालोदिया 2013 में रेवेन्यू बोर्ड के चेयरमैन बने। यहीं आने के बाद इस मामले के और आगे बढ़ने के दौरान सालोदिया ने खुद को इससे बचाने का मन बनाया। उन्होंने जयपुर के गांधी नगर पुलिस थाने में नानगराम के खिलाफ 24 मई 2014 को एफआइआर दर्ज करा दी। सालोदिया के खिलाफ एसीबी में मामला चल रहा है। ऐसे में यदि उन्हें सीएस बनाया जाता तो सरकार भी आरोपों के घेरे में आ सकती थी। यही वजह है कि उन्हें सीएस नहीं बनाया गया और सालोदिया ने इसे धर्म से जोड़कर पूरे मामले को अलग ही रंग दे दिया। उनके नजदीकियों के अनुसार, वह छह माह बाद ही सेवानिवृत्त हो रहे थे। उन्हें डर था कि कहीं इन छह माह में ही उनके खिलाफ एसीबी का मामला आगे बढ़ गया तो उनकी सेवानिवृत्ति अटक सकती है। कोई बड़ा मामला बने, इससे पहले ही कुछ ऐसा कर दिया जाए, ताकि मामला हाई प्रोफाइल ड्रामा बन जाए और सरकार दबाव में आ जाए।
इन सारी विषंगतियों के मद्देनजर सालोदिया के मुख्य सचिव होने का अवसर उनके ही कर्मों से बाधित होता है। जिस तरह तोहमत मढ़ते हुए उन्होंने इस्लाम कुबूल किया और इस पर राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की टिप्पणी आई और उन्होंने सालोदिया के फैसले की आलोचना की। जबकि सचिन पायलट ने तारीफ की। इससे यह साफ हो गया कि सालोदिया धार्मिक सियासत कर रहे हैं। सालोदिया दलित अफसर हैं। उनकी यह भी शिकायत है कि उन्होंने अपनी जाति के कारण उत्पीड़न झेला है। हर राज्य में राजस्व परिषद का अध्यक्ष मुख्य सचिव से छोटे ओहदे का अफसर नहीं माना जाता। सिलोदिया इसी पद पर थे। आरक्षण के मार्फत ही सही देश की सर्वोच्च नौकरी में जगह पाने और 37 साल तक नौकरी करने के बाद दलित कैसे रह जाते हैं। वह भी तब जब हमारे समाज में जातीय की जगह आर्थिक वर्ग बन रहे हैं। लोगों का स्तर जातियों की जगह आर्थिक हैसियत से नापा जाने लगा है।
सिलोदिया ने जो कुछ किया वह नया नहीं है। जब उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती सीबीआई या किसी भी तरह के सियासी संकट में फंसती है तो वह खुद को दलित की बेटी बताकर एक नायाब ढाल तैयार कर लेती हैं। डा भीमराव अंबेडकर का दूसरा विवाह ब्राह्मण में हुआ था। ऐसे में यह कहना कि उत्पीडन का आधार जाति है गलत है और वह भी किसी नौकरशाह के लिए तो सर्वथा गलत होगा। उत्तर प्रदेश में जब मायावती सत्ता में आती हैं तो नौकरशाही में दलित अफसरों की हनक और चमक बढ़ जाती है। बिहार में जीतन राम मांझी मायावती के इसी प्रयोग को आगे बढाते हैं। उन्हें नितीश कुमार जब मुख्यमंत्री बनाते हैं तो कोई बात नहीं लेकिन हटने को कह देते हैं तो दलित उत्पीड़न का पुराण शुरु हो जाता है। उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह की पार्टी और बिहार में लालू की पार्टी जब सत्तासीन होती है तो पिछडों में यादव अफसरों का रंग-ढंग वही होता है जो माया और जीतनराम मांझी के राज में दलित अफसरों का। नौकरशाही में सियासत की घुसपैठ का मौका अफसरों ने ही मुहैया कराया। अफसर अपनी पोस्टिंग के लिए राजनेताओँ के साथ जिस तरह शासन-सटक की भूमिका में दिखते हैं वह नौकरशाहों को तो छोडिए, आमलोगों को शर्मसार करने वाला होता है। उत्तर प्रदेश में शशांक शेखर सिंह नाम के एक गैर आईएएस अफसर को कैबिनेट सेकरेटरी बना दिया। उनको कैबिनेट सेकरेटरी बनाने का आदेश उस समय के नियुक्ति सचिव जे एस दीपक ने जारी किया। पूरी नौकरशाही में कोई हलचल नहीं हुई। सिर्फ तीन ऐसे अफसर थे जिन्होंने कैबिनेट सेकरेटरी के रसूख को सलाम करने से इनकार किया। पर यह भी कम दुर्भाग्य पूर्ण नहीं है कि पूरे पांच साल आईएएस वीक ही नहीं मना क्योंकि अफसरों में इतना साहस नहीं था कि वह बिना कैबिनेट सेकरेटरी को बुलाया अनपे मनोरंजन और मिलन के इस पारंपरिक उत्सव को भी मना पाते। शशांक शेखर सिंह अफसरों की सीआर लिखना चाहते थे लेकिन उस समय के प्रमुख सचिव प्रशांत मिश्रा ने ऐसा करने से उन्हें रोक दिया था। नतीजतन उन्हें स्वैच्छिक सेवानिवृति लेनी पड़ी। उनके आफिस के फ्लोर पर सरकारी लिफ्ट नहीं रुकती थी पर किसी अफसर ने चू नहीं किया।
मायावती उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री थी तो उन्होंने कुछ प्रमुख सचिवों की तैनाती प्रमुख सचिव मुख्यमंत्री आवास के पदनाम के साथ की। कोई शोर शराबा नहीं हुआ। अपनी जाति का नेता और सरकार देखकर नौकरशाही का नशा अफसरों के सिरचढ कर बोलने लगता है। यह जातीय राजनीति वाले किसी सूबे में पढ़ा जा सकता है। तबादलों के लिए अफसरो में गलाकाट प्रतियोगिता अब आम आदमी तक पहुंच गयी है। अफसर इस पतन के लिए नेता को जिम्मेदार ठहराते हैं पर सवाल यह उठता है कि एक नेता का गलत काम कोई अफसर न करे तो वह अफसरों के बदलाव की परंपरा को ठहराव देने पर विवश होगा। पर दुर्भाग्य यह है कि एक अफसर जिस काम को मना करता दूसरा अफसर उसे करने के लिए साष्टांग मुद्रा में न केवल खड़ा दिखता है बल्कि उस गलत काम को सही ढंग से करने का उपाय जोड़ जुगत भी बताता है। मै कई ऐसे अफसरों को जानता हूं जो पत्रावली पर पक्ष और विपक्ष लिखने में समान दक्षता रखते है बस उन्हें राजनैतिक बास का संकेत मिल जाय। राज्यो में नौकरशाही कभी खुद और कभी राजनेता के चलते टूल बनने को तत्पर दिखती है। मुख्य सचिव और डीजीपी के पदों पर कृपापात्रों को बैठाने का चलन नया नहीं है। यह प्रायः सभी राज्यों में देखा जा सकता है। ऐसा नौकरशाही में सियासत की घुन लगने से शुरु हुआ है। ऐसा नहीं होता तो सीआरपी नीतिश कुमार के रेल मंत्री रहने के दौरान अफसर थे। बाद में नौकरी छोड़कर उन्हीं की पार्टी से राज्य सभा चले गए। उत्तर प्रदेश के नौकरशाह पन्नालाल पुनिया मायावती और मुलायम दोनों के प्रमुख सचिव रहे हैं। सियासत कांग्रेस से कर रहे हैं। आईएसएस अफसर रहे सूर्यप्रताप सिंह और आईपीएस अमिताभ ठाकुर नौकरशाही और सियासत के गठजोड़ के ताजा तरीन नमूने हैं। एसपी सिंह लंबे समय तक गायब रहे। मुलायम की सरकार आई तो उनके गृह जनपद की दुहाई देकर अहम ओहदे पर पहुंच गये। जबकि उनकी तरह ही लंबे समय ही गायब रहे आईएएस अफसर शिशिर प्रियदर्शी, संजय भाटिया और अतुल बगाई को अपनी नौकरी गंवानी पडी। उन्हें केंद्र सरकार ने बाहर कर दिया।
जब से पोस्टिंग मलाईदार होने लगीa है, बाजार ने यहा भी जगह बना ली है। हाल फिलहाल कई राज्यों में पड़े छापे में अफसरों के यहां मिली अकूत संपत्ति उनके आर्थिक साम्राज्य अब व्यापारियों के लिए भी ईष्या का सबब बन रहे हैं। नौकरशाही का हर शख्स पर उपदेश कुशल बहुतेरे की भूमिका मे आ गया है। मुट्ठी भर नौकरशाहों को छोड़ दें तो पोस्टिंग उनके कैरियर का मानदंड बन गयी है। वे काम और छाप छोड़ने को तैयार नहीं है। ऐसा नहीं कि नौकरशाही में ऐसे लोग नहीं हैं। पर ऐसे लोग बिरले हैं। दर्भाग्य यह है कि राजनेता नौकरशाह की ताकत चाहता है। नौकरशाह राजनेता की सत्ता चाहता है। जो जहां है वहां नहीं है। जहां काम करने के लिए उसका चयन हुआ, जिनके लिए काम करने का चयन हुआ है उसके लिए वह काम नही करता। शार्टकट का रास्ता नौकरशाही में अफसरों ने ही शुरु किया या फिर राजनेता से शुरु कराया है क्योंकि नौकरशाहों के पदों पर छोटा या बड़ा नौकरशाह बैठे यही होगा। वहां राजनेता नहीं बैठ सकता। ऐसे में तोहमत सियासत पर मढ़ना जायज नही है। पहले अपने गिरेबान में झांक लिया जाय तो शायद उमराव सालोदिया की शिकायतें खुद ब खुद जवाब पा जाएंगी। समय उमराव सालोदिया के बहाने नौकरशाही को आइने के सामने खडे होने का है।