भारतीय राजनीति में धर्मनिरपेक्षता और आरक्षण दो ऐसे शब्द हैं जो हथियार और ढ़ाल के तौर पर सबसे ज्यादा इस्तेमाल हुए हैं। इन शब्दों ने न केवल जनमानस को आहत किया है बल्कि इन दोनों शब्दों ने समाज को बांटने में भी ऐसे महती भूमिका निभाई है कि ये शब्द अपना अर्थ तक खो चुके हैं। अपने 60 वें जन्मदिन पर बसपा सुप्रीमो मायावती जब अल्पसंख्यक और गरीब सवर्णों के आरक्षण की वकालत कर रही थी तो वह भले ही यह सोच रही हों कि यह उनकी कोई नई सधी हुई चाल होगी पर सच्चाई यह है कि मायावती अन्य नेताओं की तरह ही आरक्षण की धार को और पैना कर रही थीं। मायावती ही क्यों आरक्षण को लेकर हर राजनेताओं का नजरिया कमोबेश यही रहा है। हर राजनैतिक दल ने आरक्षण को हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया है। इसे ऐसे भी समझा जा सकता है कि वर्ष 1980 में आई मंडल आयोग की रिपोर्ट जब 13 अगस्त 1990 को तत्कालीन प्रधानमंत्री वी पी सिंह ने लागू की थी तब वह अपने राजनैतिक जीवन में ऐसे समय से गुजर रहे थे जब उन्हें कांशीराम के अविर्भाव का जवाब देना था। कांशीराम ने इन्ही तिथियों के आसपास मंडल रिपोर्ट लागू करने की एक रैली भी रखी थी। उन्हें देवीलाल की चतुर सुजान चालों को काटना था और भाजपा के कमंडल रथ की गति को थामना था।
विश्वनाथ प्रताप सिंह के बाद आरक्षण को हथियार के तौर पर इस्तेमाल करने का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है । यही वजह है कि कभी काग्रेस और एऩसीपी गठबंधन की सरकार विधानसभा चुनाव के ऐन महाराष्ट्र में मराठों को 16 फीसदी और अल्पसंख्यकों को 5 फीसदी आरक्षण देने की मुनादी पीटती है। नितीश कुमार दलित और महादलित का खेल खेलते है। मुलायम सिंह यादव 17 अतिपिछ़ड़ी जातियो को दलित कोटे में डालने की जुगत में जुटे दिखते हैं। वसुंधरा राजे 2008 में गुर्जरो को 5 फीसदी आरक्षण का ऐलान कर देती हैं। पिछले लोकसभा चुनाव से ठीक पहले कांग्रेस के जनार्दन द्विवेदी आर्थिक आधार पर आरक्षण की वकालत करते दिखते हैं। यही नहीं संप्रग सरकार जाटों के आरक्षण का ऐलान भी कर देती है। बिहार के चुनाव के समय आरक्षण को लेकर शुरु हए भागवत पुराण के खिलाफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी यहां तक कह देते हैं कि आरक्षण के लिए जान दे दूंगा। लालू यादव आरक्षण को बचाने के लिए किसी हद तक जाने की बात कर मंडल पार्ट-2 का ऐलान कर देते हैं। वह कहते हैं , “ माई का दूध पिया है तो इसे खत्म करके दिखाइए ”। हैदराबाद के सांसद आसद्दुदीन ओवैसी मुस्लिम आरक्षण की बात बताकर राजनीति चटकाने में जुटे हैं। महाराष्ट्र के पूर्व सांसद हरिभाई राठौड देश की 666 विमुक्त जातियों को पिछडे वर्ग में शामिल कर आरक्षण के आंदोलन को हवा दे रहे हैं। राममविलास पासवान हो या भाजपा सांसद उदित राज अथवा अटल बिहारी वाजपेयी सबने गाहे बगाहे आरक्षण को अपने हित में खूब आजमाया था। अटल बिहारी वाजपेयी ने परिणामी ज्येठता पर संसद की मोहर लगवाई थी। तमिलनाडु सरकार के 69 फीसदी आरक्षण के विधेयक को नौवीं अऩुसूची में डालने के लिए कांग्रेस ने 76 वां संविधान संसोधन पारित किया। यह बात और है कि अदालत ने राजनेताओं की इस मंशा पर हर बार लगाम लगाई। आरक्षण को लेकर सियासत और अदालत की जंग में हर बार अदालत ही जीती है।
गुजरात के हार्दिक पटेल अपनी उस जाति के लिए आरक्षण की मांग को लेकर गांधी के प्रदेश में सत्याग्रह से आगे जाकर धमकी वाली सियासत करते नज़र आते हैं वह भी तब जबकि गुजरात में 44 विधायक और 7 सांसद इसी बिरादरी के हैं। खुद अहमदाबाद की रैली में हार्दिक पटेल ने यह माना था कि पूरे देश में पाटीदार समाज का प्रतिनिधित्व करने वाले 117 सांसद हैं। वर्ष 1981 और 1985 में आरक्षण विरोधी आंदोलन में सबसे ज्यादा योगदान इन्हीं पटेलों का था। हार्दिक पटेल ने तो अपनी सियासत के लिए आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू और बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार को स्वजातीय कहा था। देश में शायद ही कोई राजनैतिक दल और राजनेता हो जो आरक्षण की वकालत न करता हो। यही वजह है कि मायावती धार्मिक आधार पर दलित आरक्षण वह ‘अपने’ आरक्षण स्पेस में अल्पसंख्यकों के लिए जगह बना रहीं थीं हालांकि उनके प्रतिद्वंदी मुलायम सिंह यादव 17 जातियों को मायावती के दलित कोटे में डालकर ‘अपने’ लिए स्पेस बनाते हैं। यह आरक्षण को लेकर अलग-अलग नज़रिए का भी तकाजा है। इससे कितना भला हुआ है यह नौकरशाह से सांसद बने पीएल पुनिया के एक बयान से समझा जा सकता है जिसमें उन्होंने खुद माना है कि दलित आरक्षण से सिर्फ 4 फीसदी दलितों का भला हुआ है। लखनऊ में अखिल भारतीय चमार महासंघ के जागृति सम्मेलन में पुनिया ने इससे आगे निकलते हुए यह कहने में गुरेज नहीं किया कि सिर्फ 2 फीसदी लोग ही ठीकठाक स्थिति में हैं। 96 फीसदी दलितों की स्थिति काफी दयनीय है। तकरीबन 68 सालो में दलित आरक्षण 22 फीसदी वाले दलितों में सिर्फ 4 फीसदी दलितों तक पहुच सका है।
यह एक ऐसी सच्चाई है जो आरक्षण को हथियार और ढाल के रुप में इस्तेमाल करने वालों की आंख खोल सकती है पर हकीकत यह है कि उनकी मूंदी हुई आंखें खुलने को तैयार नहीं हैं। शायद यही वजह है कि मायावती एक तरफ परिणामी ज्येष्ठता को अपने कार्यकाल में लागू कर देती हैं तो दूसरे ओर अगड़ों के आरक्षण की वकालत करती हैं। यही नहीं मायावती ने तो विधानसभा से अगड़ों के आरक्षण का प्रस्ताव भी पास करा दिया था। शायद ही कोई ऐसा नेता हो जिसने इस मुद्दे पर बहुत से मुखौटे न लगा रखे हों। कहा यह जाता है कि देश में 3743 पिछड़ी जातियां हैं जो आबादी का 52 फीसदी हिस्सा है। पर यह ऐसे ही है जैसे एक झूठ 100 बार बोला जाय तो सच हो जाता है। सच्चाई एनएसएसओ के सर्वे से सामने आ जाती है जिसके मुताबिक देश में पिछड़ों की आबादी 40.94 फीसदी हैं, वहीं अनुसूचित जाति की आबादी 19.59 फीसदी है और अनुसूचित जनजाति की आबादी 8.63 फीसदी ही है।
देश भर में 43 लाख केंद्रीय कर्मचारी, 72 लाख राज्यों के कर्मचारी और 21 लाख निकायों के कर्मचारी हैं। बस इतनी से नौकरियों के लिए इतनी सियासत । जो काम अंग्रेज 1932 में करना चाहते थे वह हमारे सियासतदां 2016 तक लगातार कर रहे हैं। 1932 में कम्युनल अवार्ड आया था। ऐसे में यह सवाल उठना लाजमी है कि लगातार कम हो रही सरकारी नौकरियों में आरक्षण सचमुच पिछडे, दलित, वंचित, उपेक्षित समुदाय के लोगों का भला कर पाएगा। इस सवाल का जवाब तलाशने की कोशिश कभी नहीं की गयी। इसकी वजह है आरक्षण की अवधारणा भले ही संवैधानिक हो पर उसका मौजूदा प्रारुप सियासी है। यही वजह है कि आरक्षण हथियार बन गया है। उसमें समाज हित की चिंता से ज्यादा वोट हित की चिंता दिखती है। तभी तो क्रीमी लेयर की सीमा में लगातार इजाफा कर दिया जाता है। 1993 में जो सीमा 1 लाख थी वह 2013 में 6 लाख हो गयी है।
आरक्षण को लागू करने के तौर तरीके और उनकी वकालत करने वाले नेताओं के बयान गैर आरक्षित वर्ग के उन नवयुवकों को पीड़ा पहुंचाते हैं जिन्होंने दलितों- पिछड़ों का शोषण नहीं देखा है। जिन्हें इतिहास यह बताता है कि पिछड़े कभी अस्पृश्य नहीं रहे है। दलितों के आरक्षण का आधार अस्पृश्यता भी रही है। जिन्हें समाज यह सिखाता है कि उनकी जाति में भी उपेक्षित, वंचित और शोषित तबके के लोग कम नहीं हैं। जिन्हें यह अहसास होता है कि आरक्षण से भारतीय लोकतंत्र त्रस्त है। जो यह जानते हैं कि कोडलिजा राइस अमेरिका में बिना आरक्षण के अहम कुर्सी तक पहुंच सकती है। जिन्हें यह शिकायत है कि आरक्षण का लाभ एक ही परिवार के कई पीढियों को क्यों मिल रहा है। आरक्षण का लाभ अंतिम आदमी तक किस तरह पहुंचेगा। कब तक पहुचेगा। आरक्षण को रिडिफाइन करने की किसी मुहिम को आरक्षण विरोध क्यों समझा जाता है।आंइस्टीन ने कहा था कि महत्वपूर्ण समस्याओं का समाधान सोच की उसी स्तर पर रहने से नहीं हो सकता जिस स्तर पर रहकर हमने उन्हें पैदा किया है।
विश्वनाथ प्रताप सिंह के बाद आरक्षण को हथियार के तौर पर इस्तेमाल करने का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है । यही वजह है कि कभी काग्रेस और एऩसीपी गठबंधन की सरकार विधानसभा चुनाव के ऐन महाराष्ट्र में मराठों को 16 फीसदी और अल्पसंख्यकों को 5 फीसदी आरक्षण देने की मुनादी पीटती है। नितीश कुमार दलित और महादलित का खेल खेलते है। मुलायम सिंह यादव 17 अतिपिछ़ड़ी जातियो को दलित कोटे में डालने की जुगत में जुटे दिखते हैं। वसुंधरा राजे 2008 में गुर्जरो को 5 फीसदी आरक्षण का ऐलान कर देती हैं। पिछले लोकसभा चुनाव से ठीक पहले कांग्रेस के जनार्दन द्विवेदी आर्थिक आधार पर आरक्षण की वकालत करते दिखते हैं। यही नहीं संप्रग सरकार जाटों के आरक्षण का ऐलान भी कर देती है। बिहार के चुनाव के समय आरक्षण को लेकर शुरु हए भागवत पुराण के खिलाफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी यहां तक कह देते हैं कि आरक्षण के लिए जान दे दूंगा। लालू यादव आरक्षण को बचाने के लिए किसी हद तक जाने की बात कर मंडल पार्ट-2 का ऐलान कर देते हैं। वह कहते हैं , “ माई का दूध पिया है तो इसे खत्म करके दिखाइए ”। हैदराबाद के सांसद आसद्दुदीन ओवैसी मुस्लिम आरक्षण की बात बताकर राजनीति चटकाने में जुटे हैं। महाराष्ट्र के पूर्व सांसद हरिभाई राठौड देश की 666 विमुक्त जातियों को पिछडे वर्ग में शामिल कर आरक्षण के आंदोलन को हवा दे रहे हैं। राममविलास पासवान हो या भाजपा सांसद उदित राज अथवा अटल बिहारी वाजपेयी सबने गाहे बगाहे आरक्षण को अपने हित में खूब आजमाया था। अटल बिहारी वाजपेयी ने परिणामी ज्येठता पर संसद की मोहर लगवाई थी। तमिलनाडु सरकार के 69 फीसदी आरक्षण के विधेयक को नौवीं अऩुसूची में डालने के लिए कांग्रेस ने 76 वां संविधान संसोधन पारित किया। यह बात और है कि अदालत ने राजनेताओं की इस मंशा पर हर बार लगाम लगाई। आरक्षण को लेकर सियासत और अदालत की जंग में हर बार अदालत ही जीती है।
गुजरात के हार्दिक पटेल अपनी उस जाति के लिए आरक्षण की मांग को लेकर गांधी के प्रदेश में सत्याग्रह से आगे जाकर धमकी वाली सियासत करते नज़र आते हैं वह भी तब जबकि गुजरात में 44 विधायक और 7 सांसद इसी बिरादरी के हैं। खुद अहमदाबाद की रैली में हार्दिक पटेल ने यह माना था कि पूरे देश में पाटीदार समाज का प्रतिनिधित्व करने वाले 117 सांसद हैं। वर्ष 1981 और 1985 में आरक्षण विरोधी आंदोलन में सबसे ज्यादा योगदान इन्हीं पटेलों का था। हार्दिक पटेल ने तो अपनी सियासत के लिए आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू और बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार को स्वजातीय कहा था। देश में शायद ही कोई राजनैतिक दल और राजनेता हो जो आरक्षण की वकालत न करता हो। यही वजह है कि मायावती धार्मिक आधार पर दलित आरक्षण वह ‘अपने’ आरक्षण स्पेस में अल्पसंख्यकों के लिए जगह बना रहीं थीं हालांकि उनके प्रतिद्वंदी मुलायम सिंह यादव 17 जातियों को मायावती के दलित कोटे में डालकर ‘अपने’ लिए स्पेस बनाते हैं। यह आरक्षण को लेकर अलग-अलग नज़रिए का भी तकाजा है। इससे कितना भला हुआ है यह नौकरशाह से सांसद बने पीएल पुनिया के एक बयान से समझा जा सकता है जिसमें उन्होंने खुद माना है कि दलित आरक्षण से सिर्फ 4 फीसदी दलितों का भला हुआ है। लखनऊ में अखिल भारतीय चमार महासंघ के जागृति सम्मेलन में पुनिया ने इससे आगे निकलते हुए यह कहने में गुरेज नहीं किया कि सिर्फ 2 फीसदी लोग ही ठीकठाक स्थिति में हैं। 96 फीसदी दलितों की स्थिति काफी दयनीय है। तकरीबन 68 सालो में दलित आरक्षण 22 फीसदी वाले दलितों में सिर्फ 4 फीसदी दलितों तक पहुच सका है।
यह एक ऐसी सच्चाई है जो आरक्षण को हथियार और ढाल के रुप में इस्तेमाल करने वालों की आंख खोल सकती है पर हकीकत यह है कि उनकी मूंदी हुई आंखें खुलने को तैयार नहीं हैं। शायद यही वजह है कि मायावती एक तरफ परिणामी ज्येष्ठता को अपने कार्यकाल में लागू कर देती हैं तो दूसरे ओर अगड़ों के आरक्षण की वकालत करती हैं। यही नहीं मायावती ने तो विधानसभा से अगड़ों के आरक्षण का प्रस्ताव भी पास करा दिया था। शायद ही कोई ऐसा नेता हो जिसने इस मुद्दे पर बहुत से मुखौटे न लगा रखे हों। कहा यह जाता है कि देश में 3743 पिछड़ी जातियां हैं जो आबादी का 52 फीसदी हिस्सा है। पर यह ऐसे ही है जैसे एक झूठ 100 बार बोला जाय तो सच हो जाता है। सच्चाई एनएसएसओ के सर्वे से सामने आ जाती है जिसके मुताबिक देश में पिछड़ों की आबादी 40.94 फीसदी हैं, वहीं अनुसूचित जाति की आबादी 19.59 फीसदी है और अनुसूचित जनजाति की आबादी 8.63 फीसदी ही है।
देश भर में 43 लाख केंद्रीय कर्मचारी, 72 लाख राज्यों के कर्मचारी और 21 लाख निकायों के कर्मचारी हैं। बस इतनी से नौकरियों के लिए इतनी सियासत । जो काम अंग्रेज 1932 में करना चाहते थे वह हमारे सियासतदां 2016 तक लगातार कर रहे हैं। 1932 में कम्युनल अवार्ड आया था। ऐसे में यह सवाल उठना लाजमी है कि लगातार कम हो रही सरकारी नौकरियों में आरक्षण सचमुच पिछडे, दलित, वंचित, उपेक्षित समुदाय के लोगों का भला कर पाएगा। इस सवाल का जवाब तलाशने की कोशिश कभी नहीं की गयी। इसकी वजह है आरक्षण की अवधारणा भले ही संवैधानिक हो पर उसका मौजूदा प्रारुप सियासी है। यही वजह है कि आरक्षण हथियार बन गया है। उसमें समाज हित की चिंता से ज्यादा वोट हित की चिंता दिखती है। तभी तो क्रीमी लेयर की सीमा में लगातार इजाफा कर दिया जाता है। 1993 में जो सीमा 1 लाख थी वह 2013 में 6 लाख हो गयी है।
आरक्षण को लागू करने के तौर तरीके और उनकी वकालत करने वाले नेताओं के बयान गैर आरक्षित वर्ग के उन नवयुवकों को पीड़ा पहुंचाते हैं जिन्होंने दलितों- पिछड़ों का शोषण नहीं देखा है। जिन्हें इतिहास यह बताता है कि पिछड़े कभी अस्पृश्य नहीं रहे है। दलितों के आरक्षण का आधार अस्पृश्यता भी रही है। जिन्हें समाज यह सिखाता है कि उनकी जाति में भी उपेक्षित, वंचित और शोषित तबके के लोग कम नहीं हैं। जिन्हें यह अहसास होता है कि आरक्षण से भारतीय लोकतंत्र त्रस्त है। जो यह जानते हैं कि कोडलिजा राइस अमेरिका में बिना आरक्षण के अहम कुर्सी तक पहुंच सकती है। जिन्हें यह शिकायत है कि आरक्षण का लाभ एक ही परिवार के कई पीढियों को क्यों मिल रहा है। आरक्षण का लाभ अंतिम आदमी तक किस तरह पहुंचेगा। कब तक पहुचेगा। आरक्षण को रिडिफाइन करने की किसी मुहिम को आरक्षण विरोध क्यों समझा जाता है।आंइस्टीन ने कहा था कि महत्वपूर्ण समस्याओं का समाधान सोच की उसी स्तर पर रहने से नहीं हो सकता जिस स्तर पर रहकर हमने उन्हें पैदा किया है।