राजनीति में मुद्दे दफन नहीं होते, उन्हें निर्जीव होने के बाद भी जिंदा रखा जाता है। भारतीय राजनीति में नेताजी सुभाष चंद्र बोस का मुद्दा एक ऐसा मुद्दा है जिसे हर राजनैतिक दल ने अपनी-अपनी सहूलियत के मुताबिक जिंदा रखा है। किसी ने उनकी मौत के बहाने। कोई मौत के खारिज करके नेताजी के मुद्दे को जिंदा रखे हुए है। इतिहास लेखन की अपनी एक वैज्ञानिक प्रक्रिया होती है। उसका एक जटिल तरीका है। किसी एक स्त्रोत को उठाकर इतिहास नहीं लिखा जा सकता है। अब जब नेताजी इतिहास का अध्याय हैं तब स्त्रोतों की पड़ताल बेहद अनिवार्य हो जाती है। वह भी तब जब उनकी मौत को मुद्दा बनाने और विमान दुर्घटना में उनके न मारे जाने का दावा करने वाले दोनों राजनैतिक दलों ने सरकारी अधिष्ठान के अध्याय पूरे कर लिए हों।
आजादी के बाद नेताजी शायद उन गिने चुने लोगों में हैं जिनके पीछे सबसे ज्यादा कहानियां, किंवदंतियां और उनसे जुड़ी लोकोक्तियां हैं। शायद यही वजह है कि उनकी मौत की पड़ताल के लिए सरकार को शाहनवाज खान कमेटी, खोसला आयोग, मुखर्जी आयोग गठित करने पड़े। मोरार जी देसाई के प्रधानमंत्री बनने के ऐन पहले तक यह तथ्य सत्य में परिवर्तित हो गया था कि विमान दुर्घटना में नेताजी चल बसे थे। इसके लिए खोसला आयोग और शाहनवाज कमेटी ने नेताजी के सहयात्री और दुर्घटना में बच गए लोगों के बयान भी लिए थे। यही नहीं नेताजी की सेवा करने वाली नर्स शान का उनके निधन के एक साल बाद दिया बयान भी इसकी पुष्टि करता है। नर्स शान ने कहा , 'जब उनकी मृत्यु हुई मैं उनके पास ही थी। वह 18 अगस्त 1945 को चल बसे।मैं सर्जिकल नर्स हूं और मैंने उनकी मृत्यु तक उनकी देखभाल की। मुझे निर्देश दिया गया था कि मैं उनके पूरे शरीर पर जैतून का तेल लगाऊं और मैंने ऐसा ही किया। जब कभी उन्हें थोड़ी देर के लिए होश आता, वह प्यास महसूस करते थे. कराहते हुए वह पानी मांगते थे। मैंने उन्हें कई बार पानी पिलाया.'। इसके साथ ही दुर्घटना के बाद बोस को जिस अस्पताल में भर्ती कराया गया, उसके प्रभारी चिकित्सा अधिकारी जापानी सेना के कैप्टन तानेयोशी योशिमी ने भी बताया था कि उनका शरीर दुर्घटना में पूरी तरह जल गया है। वह इस घटना अकेले जिंदा गवाह हैं. डॉ. योशिमी ने पहले कई गवाहियां हांगकांग के स्टानली गाओल में 19 अक्टूबर 1946 को दीं, जहां उन्हें ब्रिटिश अधिकारियों ने द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जेल में डाल दिया था। उनका बयान ताईवान के युद्ध अपराध संपर्क खंड के कैप्टन अल्फ्रेड टर्नर ने रिकॉर्ड किया था। इस बयान में उन्होंने कहा, 'जब उन्हें बिस्तर पर लिटाया गया तब मैंने ही तेल से उनके (बोस के) शरीर का जख्म साफ किया और उनकी ड्रेसिंग की. उनका पूरा शरीर बुरी तरह जल चुका था। उनका सिर, छाती और जांघ गंभीर रूप से जले हुए थे. वह अधितकर बातें अंग्रेजी में कर रहे थे. इसके बाद एक एंटरप्रेटर को भी बुलाया गया।” लेकिन इन सारी बातों को दरकिनार कर मोरारजी देसाई ने 1978 में इससे इतर बयान देकर नेताजी के जीवन और मृत्यु के संदर्भ में एक नया विवाद खड़ा कर दिया।
वर्ष 1999 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इस विवाद के स्थाई समाधान के लिए मुखर्जी आयोग का गठन कर दिया। इस आयोग ने भी विमान दुर्घटना में नेताजी के मारे जाने को सिरे से खारिज कर दिया। नतीजतन, नेताजी की मौत का रहस्य रुस के जार निकोलस तृतीय की छोटी बेटी ऑनेस्तासिया निकोलेवना की तरह ही विवाद का सबब बन गया। फैजाबाद के गुमनामी बाबा को सुभाष चंद बोस की तरह पेश किया गया। 1980 में बाबा जयगुरुदेव खुद सुभाष चंद बोस बनकर कानपुर उपस्थित हो गए। जहां उनकी भद हुई। राजनेताओं से लेकर धर्मगुरु तक सबके लिए सुभाष चंद्र बोस एक ऐसी बैसाखी बन गए जिससे जनता के दिलों में उतरा जा सकता था। य़ह इसलिए सच है क्योंकि सुभाष चंद बोस एक हीरो थे। किसी भी भारतीय फिल्म में कोई हीरो मरता नहीं है। हम हीरो को मरते हुए देख नहीं सकते। फिल्में समाज का आईना होती हैं। किसी न किसी के जीवन की घटनाएं फिल्मों की स्क्रिप्ट बनती है। सिल्वर स्क्रीन पर आती हैं। शायद यही वजह है कि हम 71 साल से विवाद की शक्ल में ही सही अपने हीरो को जिंदा रखे हैं। हालांकि उनके कर्म, उनका योगदान, उनकी प्रेरणा, उनका आत्मबल और भारत को आजाद कराने की उनकी जिजीविषा किसी भी भारतीय के दिल में कभी मर नहीं सकती है। तो आखिर क्या वजह थी कि कांग्रेस नेताजी के मौत के रहस्य से सच का पर्दा उठाने को तैयार नहीं थी। क्या वजह थी मोरारजी देसाई ने विमान दुर्घटना में उनके न मारे जाने का बयान प्रधानमंत्री रहते हुए दे दिया था। क्या वजह थी कि मुखर्जी कमीशन ने इस हकीकत की पड़ताल के लिए जो पहले आयोग बने थे उनके निष्कर्षों को मानने से इनकार कर दिया था। यह सब कुछ इस पूरे विवाद में पक्ष विपक्ष कहीं भी खड़े लोगों की भूमिका को संदेह के घेरे में डालता है।
24 जनवरी 2014 को कटक में बतौर राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने कहा था कि अगर भाजपा सत्ता में आई तो नेताजी की मौत से रहस्य के पर्दे हटाएगी। लोकसभा चुनाव के दौरान नरेंद्र मोदी ने इसे अकादमिक और बौद्धिक विषय़ से आगे ले जाकर जनआकांक्षाओँ का सबब बना दिया। हालांकि यह भी एक सच है कि भारतीय राष्ट्रीय अभिलेखागार को साल 1997 में रक्षा मंत्रालय से इंडियन नेशनल आर्मी (आजाद हिंद फौज) से संबंधित 990 फाइलें प्राप्त हुई थीं और वर्ष 2012 में खोसला आयोग (271 फाइलें) और न्यायमूर्ति मुखर्जी जांच आयोग (759 फाइलें) से संबंधित कुल 1030 फाइलें गृह मंत्रालय से प्राप्त हुई थीं।ये फाइलें जनता के लिए पहले से ही उपलब्ध हैं।
इसके बावजूद नेताजी से जुड़े दस्तावेजों के राष्ट्रहित में जारी करने का साहस दिखाकर नरेंद्र मोदी ने अपने से पूर्व सभी प्रधानमंत्रियों से लंबी लकीर खींच दी। अब तक जो दस्तावेज बेपर्दा हुए हैं उनमें कहीं कोई ऐसा रहस्य और रोमांच नहीं दिखता है जिसके नाते यह पूरा का पूरा प्रकरण तिलस्म का सबब बना दिया जाए। बावजूद इसके कांग्रेस के रणनीतकारों ने इसे पोशीदा बनाए रखा जो नेहरु से लेकर मनमोहन सिंह तक की भूमिका पर सवाल खड़ा करता है। नेताजी के परिजनों के मन में संदेह जनता है और अपने हीरो के बारे में इस कांग्रेसी नज़रिए के चलते उसके प्रति वितृष्णा का भाव भरता है। क्योंकि नेताजी लोगों की याददाश्त में एक मिथ की तरह जिंदा हैं, रहेंगे।
निःसंदेह सुभाष चंद्र बोस की लोकप्रियता तत्तकालीन कांग्रेस के अंदर और देश की सरहद के भीतर पंडित जवाहर लाल नेहरु से ज्यादा थी। देश में अब भी ज्यादा है। शायद यही वजह है कि हरिपुरा कांग्रेस में महात्मा गांधी के उम्मीदवार पट्टाभिसीतारमैया को पराजित करने में वह कामयाब हुए थे। पर महात्मा गांधी के सम्मान में इस्तीफा भी दे दिया। 1928 में पूर्ण स्वराज की मांग रखने वालों में जवाहर लाल नेहरू और नेताजी सुभाष चंद्र बोस ही थे। मतलब साफ है कि उस समय विरोध का आधार विचार था। लेकिन इसी विचार को आधार बनाकर ऐसी किवंदतियों को इतिहास का अध्याय बनाया गया जो यह साबित करती हों कि नेताजी, नेहरु, गांधी और पटेल आजादी के लिए तो अपने-अपने तरीके से जंग कर रहे थे पर कांग्रेस का तत्कालीन नेतृत्व नेताजी के व्यक्तित्व से परेशान भी था। शायद यही वजह रही होगी उनके निधन के बहुत समय बाद तक उनके परिजनों की जासूसी के आरोप हवा में उछलते रहे। यह भी एक सच है कि 1923 में कलकत्ता का प्रमुख चुने जाने के बाद से ही ब्रिटिश सरकार उनके परिवार पर खुफिया नज़र रखने लगी थी। नेताजी के बड़े भाई शरतचंद्र बोस तो आजादी के बाद भी कांग्रेस विरोध के केंद्र बिंदु रहे। शायद यह भी एक वजह थी कि कांग्रेस नेताजी पर एक आवरण डाले रखना चाहती थी। हलांकि वह यह भूल रही थी कि एक झूठ सौ बार बोला जाय तो सच नहीं हो सकता। एक सच को छिपाने के लिए सिर्फ एक झूठ बोलकर काम नहीं चलाया जा सकता उसके लिए बार-बार झूठ बोलना होगा। अभी तक
जो दस्तावेज सार्वजनिक हुए हैं वह देवकीनंदन खत्री की चंद्रकांता संतति सरीखे उपन्यास की तरह रहस्य रोमांच से लबरेज नहीं है पर इससे राजनैतिक दलों खासकर कांग्रेस की नीति और नीयत एक बार फिर कटघरे में है। उसे फिर एक बार जवाब देना होगा कि आखिर हर दिल अजीज नेताजी के दस्तावेज सार्वजनिक करने से वह घबरा क्यों रही थी। संभव है कि हर माह 25 फाइलें सार्वजनिक किए जाने की मासिक किश्त में कांग्रेस की इस घबराहट का जवाब छिपा हो।
आजादी के बाद नेताजी शायद उन गिने चुने लोगों में हैं जिनके पीछे सबसे ज्यादा कहानियां, किंवदंतियां और उनसे जुड़ी लोकोक्तियां हैं। शायद यही वजह है कि उनकी मौत की पड़ताल के लिए सरकार को शाहनवाज खान कमेटी, खोसला आयोग, मुखर्जी आयोग गठित करने पड़े। मोरार जी देसाई के प्रधानमंत्री बनने के ऐन पहले तक यह तथ्य सत्य में परिवर्तित हो गया था कि विमान दुर्घटना में नेताजी चल बसे थे। इसके लिए खोसला आयोग और शाहनवाज कमेटी ने नेताजी के सहयात्री और दुर्घटना में बच गए लोगों के बयान भी लिए थे। यही नहीं नेताजी की सेवा करने वाली नर्स शान का उनके निधन के एक साल बाद दिया बयान भी इसकी पुष्टि करता है। नर्स शान ने कहा , 'जब उनकी मृत्यु हुई मैं उनके पास ही थी। वह 18 अगस्त 1945 को चल बसे।मैं सर्जिकल नर्स हूं और मैंने उनकी मृत्यु तक उनकी देखभाल की। मुझे निर्देश दिया गया था कि मैं उनके पूरे शरीर पर जैतून का तेल लगाऊं और मैंने ऐसा ही किया। जब कभी उन्हें थोड़ी देर के लिए होश आता, वह प्यास महसूस करते थे. कराहते हुए वह पानी मांगते थे। मैंने उन्हें कई बार पानी पिलाया.'। इसके साथ ही दुर्घटना के बाद बोस को जिस अस्पताल में भर्ती कराया गया, उसके प्रभारी चिकित्सा अधिकारी जापानी सेना के कैप्टन तानेयोशी योशिमी ने भी बताया था कि उनका शरीर दुर्घटना में पूरी तरह जल गया है। वह इस घटना अकेले जिंदा गवाह हैं. डॉ. योशिमी ने पहले कई गवाहियां हांगकांग के स्टानली गाओल में 19 अक्टूबर 1946 को दीं, जहां उन्हें ब्रिटिश अधिकारियों ने द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जेल में डाल दिया था। उनका बयान ताईवान के युद्ध अपराध संपर्क खंड के कैप्टन अल्फ्रेड टर्नर ने रिकॉर्ड किया था। इस बयान में उन्होंने कहा, 'जब उन्हें बिस्तर पर लिटाया गया तब मैंने ही तेल से उनके (बोस के) शरीर का जख्म साफ किया और उनकी ड्रेसिंग की. उनका पूरा शरीर बुरी तरह जल चुका था। उनका सिर, छाती और जांघ गंभीर रूप से जले हुए थे. वह अधितकर बातें अंग्रेजी में कर रहे थे. इसके बाद एक एंटरप्रेटर को भी बुलाया गया।” लेकिन इन सारी बातों को दरकिनार कर मोरारजी देसाई ने 1978 में इससे इतर बयान देकर नेताजी के जीवन और मृत्यु के संदर्भ में एक नया विवाद खड़ा कर दिया।
वर्ष 1999 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इस विवाद के स्थाई समाधान के लिए मुखर्जी आयोग का गठन कर दिया। इस आयोग ने भी विमान दुर्घटना में नेताजी के मारे जाने को सिरे से खारिज कर दिया। नतीजतन, नेताजी की मौत का रहस्य रुस के जार निकोलस तृतीय की छोटी बेटी ऑनेस्तासिया निकोलेवना की तरह ही विवाद का सबब बन गया। फैजाबाद के गुमनामी बाबा को सुभाष चंद बोस की तरह पेश किया गया। 1980 में बाबा जयगुरुदेव खुद सुभाष चंद बोस बनकर कानपुर उपस्थित हो गए। जहां उनकी भद हुई। राजनेताओं से लेकर धर्मगुरु तक सबके लिए सुभाष चंद्र बोस एक ऐसी बैसाखी बन गए जिससे जनता के दिलों में उतरा जा सकता था। य़ह इसलिए सच है क्योंकि सुभाष चंद बोस एक हीरो थे। किसी भी भारतीय फिल्म में कोई हीरो मरता नहीं है। हम हीरो को मरते हुए देख नहीं सकते। फिल्में समाज का आईना होती हैं। किसी न किसी के जीवन की घटनाएं फिल्मों की स्क्रिप्ट बनती है। सिल्वर स्क्रीन पर आती हैं। शायद यही वजह है कि हम 71 साल से विवाद की शक्ल में ही सही अपने हीरो को जिंदा रखे हैं। हालांकि उनके कर्म, उनका योगदान, उनकी प्रेरणा, उनका आत्मबल और भारत को आजाद कराने की उनकी जिजीविषा किसी भी भारतीय के दिल में कभी मर नहीं सकती है। तो आखिर क्या वजह थी कि कांग्रेस नेताजी के मौत के रहस्य से सच का पर्दा उठाने को तैयार नहीं थी। क्या वजह थी मोरारजी देसाई ने विमान दुर्घटना में उनके न मारे जाने का बयान प्रधानमंत्री रहते हुए दे दिया था। क्या वजह थी कि मुखर्जी कमीशन ने इस हकीकत की पड़ताल के लिए जो पहले आयोग बने थे उनके निष्कर्षों को मानने से इनकार कर दिया था। यह सब कुछ इस पूरे विवाद में पक्ष विपक्ष कहीं भी खड़े लोगों की भूमिका को संदेह के घेरे में डालता है।
24 जनवरी 2014 को कटक में बतौर राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने कहा था कि अगर भाजपा सत्ता में आई तो नेताजी की मौत से रहस्य के पर्दे हटाएगी। लोकसभा चुनाव के दौरान नरेंद्र मोदी ने इसे अकादमिक और बौद्धिक विषय़ से आगे ले जाकर जनआकांक्षाओँ का सबब बना दिया। हालांकि यह भी एक सच है कि भारतीय राष्ट्रीय अभिलेखागार को साल 1997 में रक्षा मंत्रालय से इंडियन नेशनल आर्मी (आजाद हिंद फौज) से संबंधित 990 फाइलें प्राप्त हुई थीं और वर्ष 2012 में खोसला आयोग (271 फाइलें) और न्यायमूर्ति मुखर्जी जांच आयोग (759 फाइलें) से संबंधित कुल 1030 फाइलें गृह मंत्रालय से प्राप्त हुई थीं।ये फाइलें जनता के लिए पहले से ही उपलब्ध हैं।
इसके बावजूद नेताजी से जुड़े दस्तावेजों के राष्ट्रहित में जारी करने का साहस दिखाकर नरेंद्र मोदी ने अपने से पूर्व सभी प्रधानमंत्रियों से लंबी लकीर खींच दी। अब तक जो दस्तावेज बेपर्दा हुए हैं उनमें कहीं कोई ऐसा रहस्य और रोमांच नहीं दिखता है जिसके नाते यह पूरा का पूरा प्रकरण तिलस्म का सबब बना दिया जाए। बावजूद इसके कांग्रेस के रणनीतकारों ने इसे पोशीदा बनाए रखा जो नेहरु से लेकर मनमोहन सिंह तक की भूमिका पर सवाल खड़ा करता है। नेताजी के परिजनों के मन में संदेह जनता है और अपने हीरो के बारे में इस कांग्रेसी नज़रिए के चलते उसके प्रति वितृष्णा का भाव भरता है। क्योंकि नेताजी लोगों की याददाश्त में एक मिथ की तरह जिंदा हैं, रहेंगे।
निःसंदेह सुभाष चंद्र बोस की लोकप्रियता तत्तकालीन कांग्रेस के अंदर और देश की सरहद के भीतर पंडित जवाहर लाल नेहरु से ज्यादा थी। देश में अब भी ज्यादा है। शायद यही वजह है कि हरिपुरा कांग्रेस में महात्मा गांधी के उम्मीदवार पट्टाभिसीतारमैया को पराजित करने में वह कामयाब हुए थे। पर महात्मा गांधी के सम्मान में इस्तीफा भी दे दिया। 1928 में पूर्ण स्वराज की मांग रखने वालों में जवाहर लाल नेहरू और नेताजी सुभाष चंद्र बोस ही थे। मतलब साफ है कि उस समय विरोध का आधार विचार था। लेकिन इसी विचार को आधार बनाकर ऐसी किवंदतियों को इतिहास का अध्याय बनाया गया जो यह साबित करती हों कि नेताजी, नेहरु, गांधी और पटेल आजादी के लिए तो अपने-अपने तरीके से जंग कर रहे थे पर कांग्रेस का तत्कालीन नेतृत्व नेताजी के व्यक्तित्व से परेशान भी था। शायद यही वजह रही होगी उनके निधन के बहुत समय बाद तक उनके परिजनों की जासूसी के आरोप हवा में उछलते रहे। यह भी एक सच है कि 1923 में कलकत्ता का प्रमुख चुने जाने के बाद से ही ब्रिटिश सरकार उनके परिवार पर खुफिया नज़र रखने लगी थी। नेताजी के बड़े भाई शरतचंद्र बोस तो आजादी के बाद भी कांग्रेस विरोध के केंद्र बिंदु रहे। शायद यह भी एक वजह थी कि कांग्रेस नेताजी पर एक आवरण डाले रखना चाहती थी। हलांकि वह यह भूल रही थी कि एक झूठ सौ बार बोला जाय तो सच नहीं हो सकता। एक सच को छिपाने के लिए सिर्फ एक झूठ बोलकर काम नहीं चलाया जा सकता उसके लिए बार-बार झूठ बोलना होगा। अभी तक
जो दस्तावेज सार्वजनिक हुए हैं वह देवकीनंदन खत्री की चंद्रकांता संतति सरीखे उपन्यास की तरह रहस्य रोमांच से लबरेज नहीं है पर इससे राजनैतिक दलों खासकर कांग्रेस की नीति और नीयत एक बार फिर कटघरे में है। उसे फिर एक बार जवाब देना होगा कि आखिर हर दिल अजीज नेताजी के दस्तावेज सार्वजनिक करने से वह घबरा क्यों रही थी। संभव है कि हर माह 25 फाइलें सार्वजनिक किए जाने की मासिक किश्त में कांग्रेस की इस घबराहट का जवाब छिपा हो।