वतन परस्ती की बात भले ही भारत में सबसे ज्यादा की जाती हो पर हकीकत यह है कि वतन परस्ती की सबसे अच्छी आबोहवा अमेरिका की है। शायद यही वजह है कि मनमोहन सिंह जिस काम को अंजाम देने में चूक गए उसे ही नीति आयोग के उपाध्यक्ष अरविंद पनगढ़िया आगे बढ़ाना चाहते है। भारत में में जीएम (जेनेटिकली माडिफाइड) सीड्स की नई पैरोकारी से यह पुष्ट होता है। नीति आयोग ने सरसों के जीएम सीड्स यानी टर्मिनेटेड बीज इस्तेमाल किए जाने की दिशा में आगे बढ़ने की सरकार को राय दी है। यह बात दीगर है कि केंद्रीय कृषि मंत्री राधेमोहन सिंह, पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावडेकर दोनों इस सवाल पर अलग-अलग राय रखते हैं।
वैश्विक जैवप्रद्योगिकी के शिखर सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए केद्रीय कृषि मंत्री राधेमोहन सिंह ने जीएम फसलों की उपलब्धियों का खुलकर बयान करते हुए यह कहा कि उनका कृषि मंत्रालय ट्रांसजेनिक फसलों पर होने वाले अनुसंधान का समर्थन करता है। वहीं प्रकाश जावडेकर ने यह कहकर कि सरकार को कोई ऐसा फैसला नहीं लेगी, पक्ष और विपक्ष दोनों ओर अपनी उपस्थिति जताकर जीएम फसलों के सवाल को इस तरह घेर लिया है कि स्वाभाविक विरोध के स्वर विवाद के केंद्र तक पहुंचने ही न पाएं। हालांकि सरकार से नाभि-नाल का संबंध रखने वाले आरएसएस की इकाई राष्ट्रीय जागरण मंच भी इसे लेकर केंद्र से दो-दो हाथ करने का मन बना चुकी है।
संघ के इस अनुषांगिक संगठन का जीएम फसलों के खिलाफ खड़े होने की वजह बेवजह नहीं है। भारत में सबसे पहले कपास के क्षेत्र में बीटी काटन के नाम से जीएम फसलों को जगह मिली थी। पिछले बीस साल में तीन लाख से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं। इनमें ज्यादातर कपास की खेती करने वाले किसान हैं। वर्ष 2011 के जनसंख्या आंकडे तस्दीक करते हैं कि देश में किसान आत्महत्या की दर राष्ट्रीय औसत से कहीं ज्यादा है। जीएम बैगन और हाल फिलहाल जीएम सरसों और जीएम आलू को लेकर सरकार की नीति और नीयत कटघरे में है। श्रीलंका ने जीएम फसलों पर प्रतिबंध लगा रखा है, जर्मनी, फ्रांस समेत 19 यूरोपीय देश और दक्षिण अमरीकी देश वैनेजुएला जीएम फसलों के उत्पादन से हाथ खड़े कर चुके हैं , अमेरिका में मक्के की जीएम फसल मोनार्क तितलियों के लिए काल बन गई है, पश्चिमी देशों में गोल्डन राइस नामक चावल की जीएम किस्म को खाने वालों के परीक्षण के नतीजे यह बताते हों कि इसे खाने से बच्चों और गर्भवती महिलाओँ को स्वास्थ्य संबंधी दिक्कतें पेश आई है, तब भी नीति आयोग उसी दिशा में बढ़ रहा है। ऐसी दिशा जिसमें दो कदम आगे बढाने के बाद चार कदम डा. मनमोहन सिंह को पीछे खींचने पड़े थे। इसके बावजूद जैव संवर्धित (जीएम) सीड्स के पक्ष में खड़ा होना यही बताता है कि अमेरिकी आबो हवा में सांस लेने के बाद उसके प्रति प्रेम का हो जाना आम चलन है। जिन बीजों से फसलों के उत्पादन में बढोत्तरी का दावा करते हुए कृषि मंत्री इतरा रहे हैं, उसे किसान की भाषा में बांझ बीज कहते हैं। वह बीज जो अपनी संतति नहीं बढ़ा सकता। इस बीज को पूरी तरह टर्मिनेटर या बांझ बनाने के लिए बार्नेज एन्जाइम और रिकाम्बिनेज जरुरी होता है। बार्नेज एन्जाइम जीव कोशिकाओं को मारता है, आरएनए (राइबोन्यूक्लिक एसिड) को तोड़ता है, जबकि रिकाम्बिनेज बांझपन का कारक जनता है। ऐसी फसलें स्वपरागित होती हैं, उनमें बीज नहीं बनते।
भारत में आमतौर पर किसान अपनी फसल से ही बीज रखता है। लेकिन जीएम सीड्स का उपयोग करने के बाद उसे हर बार विदेशी कंपनियों से नया बीज खरीदना होगा। जिसका मुनाफा इन कंपनियों की जेब में जाएगा। छोटे किसानों को आमतौर पर ब्याज पर लिए गए पैसे से खेती करनी होती है, ऐसे में इन बीजों को खरीदने का सालाना खर्च उनकी कमर तोड़ देगा। दुनिया के लगभग 80 फीसदी बीजों पर छह वैश्विक कारपोरेट समूहों- हैं- मोनसैंटो, द्यू पाँ, सिनजेंटा, डाउ, बेयर और ग्रुप लीमा ग्रेन। यही कंपनियां खतरनाक जीव विषों, जानलेवा कीटनाशी पदार्थों और जहरीले रसायनों के दुनिया भर में कारोबार के लिए जानी जाती हैं। खेती में इनके उपयोग से बढ़ रही बीमारियां आम हैं। वैज्ञानिक तो यहां तक कहते हैं कि कीटनाशक पदार्थों के प्रयोग से कैंसर का खतरा बढा है।
यह कितना हैरतअंगेज है कि जो कंपनियां जीव विषों, जानलेवा कीटनाशी पदार्थों और जहरीले रसायनो का दुनिया भर में काम करती हों, वही अच्छी फसल उत्पादन करने का दावा भी करती हैं। इकलौती कंपनी मोनसैंटो के जीएम सीड्स के बाबत बात की जाय तो यह सच हाथ लगता है कि यह कंपनी बीजो के साथ खर-पतवार खत्म करने वाला राउंड अप नामक एक रासायनिक पदार्थ भी बनाती है। जो लोग इस कंपनी के बीज खरीदते है उन्हें यह भी खरीदना पड़ता है। राउंड अप के अंदर ग्लाइफोसेट नाम का विषाक्त रसायन होता है जो मिट्टी की संजीवनी नष्ट कर देता है। वैज्ञानिकों की माने तो राउंड-अप के प्रयोग से इंसानों में 40 से अधिक बीमारियां उत्पन्न होती हैं, इनमें कैंसर, गुर्दे की विफलता, अलजाइमर्स, ऑटिज्म, बांझपन और नपुंसकता प्रमुख हैं। यह अंतःस्त्रावीय ग्रंथियों को भी प्रभावित करता है, जो खाने पचाने की शक्ति को भी धीरे-धीरे खत्म कर देता है। यह हमारे गुण सूत्रों को भी खत्म कर देता है।
वर्ष 1950 में करीब दो हजार टन कीटनाशकों का उपयोग खेती में किया जाता था, आज तकरीबन 90 हजार टन दवाएं देश के पर्यावरण में खेती के मार्फत घुल रही हैं। पूरी अर्थव्यवस्था में कृषि का योगदान महज 14 फीसदी हो पर यह 60 फीसदी लोगों की आजीविका का आधार है। खेती से जुड़े 14 करोड़ परिवारों में करीब 80 फीसदी के पास दो एकड़ से कम जमीन है। छोटी जोत के कारण इन किसानों को भय रहता है कि आधुनिक तकनीकी के इस्तेमाल के चलते लागत न बढ़ जाय । नतीजतन, वह पारंपरिक तौर तरीके अपनाता है। जीएम सीड्स का प्रस्ताव आंकडों में उसके लिए अधिक फसल पैदा करने का दावा कर आंखो में उम्मीद जगाता है। बीज बनाने वाली यह कंपनियां विश्व बैंक के उस रिपोर्ट के लेकर ढिंढोरा पीट रही हैं जिसके मुताबिक जीएम तकनीकी के प्रयोग से विकासशील देशो में फसलों की उपज में 25 फीसदी तक का इजाफा किया जा सकता है। पर आंध्रप्रदेश के एन. जी. रंगा कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने बीटी काटन लगाए गए खेतों का जब भौतिक सत्यापन किया तो उनके होश फाख्ता हो गए। उन्होंने पाया कि संकर बीज की फसल की उपज जहां 15 से 20 क्विंटल प्रति एकड है, वहीं बीटी काटन की पैदावार 2से 8 क्विंटल ही रही। यह स्थिति आंध्र प्रदेश के रायचूड़, धारवाड और हवेरी तीनों जिलो में पाई गई। 77फीसदी किसानों ने फसल में इल्ली लगने की शिकायत भी की जबकि जीएम बीज के पैरोकार यह दावा करते हैं कि इसे लगाने से कीटनाशकों का खर्च नहीं होगा। नतीजतन 800 प्रति एकड़ की बचत होगी। हकीकत यह रही कि इन खेतों में अधिक दवा छिड़कनी पड़ी, फूल छोटा होने के चलते रुई निकालने में अधिक मजदूरी भी देनी पड़ी।
दहलन और तिलहन की भारी कमी को पूरा करने के लिए इस आधुनिक प्रोद्योगिकी का मार्ग खोलने की पैरोकारी करने वाली सरकार को यह सोचना चाहिए कि सवाल सिर्फ खाद्यान्न भंडार बढाने का नहीं बल्कि मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण का भी है। किसानों की लागत कम आए यह भी है। आज जीएम सरसों के पैरोकार यह भूल रहे हैं कि हमारा किसान गेहूं के साथ मिश्रित खेती में सरसों उगाता है। जब वह जीएम सरसों लगाएगा तो गेहूं की उपज से उसे हाथ धोना पड़ेगा। जब-जब देश में किसी फसल की उपज को लेकर सवाल खड़ा किया जाता है, तब-तब जीएम तकनीक की वकालत करने वालों के हौसले बुलंद हो जाते हैं। इन दिनों हम खाद्य तेल का आयात कर रहे है। अमेरिका और तमाम पश्चिमी देशो में सरसों का तेल जैव ईंधन के रुप में प्रयोग होता है। हम तेल का आयात इसलिए कर रहे हैं क्योंकि इसे करने के लिए हमें मजबूर किया जा रहा है। बाजार में सोयाबीन की बाढ़ है उसका अंतरराष्ट्रीय मूल्य 150 अमरीकी डालर प्रति टन है। हालांकि अमरीकी सरकार ने तकरीबन 190 अमरीकी डालर प्रति टन के हिसाब से सब्सिडी दे रखी है। लेकिन सरसों के तेल पर रहमोकरम करने की जगह भारत सरकार ने भी 15000 रुपये प्रति टन की सब्सिडी देकर सोयाबीन के लिए ही मार्ग प्रशस्त किया। अगर भारतीय किसानों को सरसों के उत्पादन पर इस तरह की आकर्षक सब्सिडी मिलती तो निःसंदेह हमारा किसान सरसों की उपज बढाता, तेल की कमी की समस्या से देश को निजात दिलाता। पर परमुखापेक्षी नीति आयोग भारतीय समस्याओं का हल पश्चिम से ढूंढ रहा है।
वैश्विक जैवप्रद्योगिकी के शिखर सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए केद्रीय कृषि मंत्री राधेमोहन सिंह ने जीएम फसलों की उपलब्धियों का खुलकर बयान करते हुए यह कहा कि उनका कृषि मंत्रालय ट्रांसजेनिक फसलों पर होने वाले अनुसंधान का समर्थन करता है। वहीं प्रकाश जावडेकर ने यह कहकर कि सरकार को कोई ऐसा फैसला नहीं लेगी, पक्ष और विपक्ष दोनों ओर अपनी उपस्थिति जताकर जीएम फसलों के सवाल को इस तरह घेर लिया है कि स्वाभाविक विरोध के स्वर विवाद के केंद्र तक पहुंचने ही न पाएं। हालांकि सरकार से नाभि-नाल का संबंध रखने वाले आरएसएस की इकाई राष्ट्रीय जागरण मंच भी इसे लेकर केंद्र से दो-दो हाथ करने का मन बना चुकी है।
संघ के इस अनुषांगिक संगठन का जीएम फसलों के खिलाफ खड़े होने की वजह बेवजह नहीं है। भारत में सबसे पहले कपास के क्षेत्र में बीटी काटन के नाम से जीएम फसलों को जगह मिली थी। पिछले बीस साल में तीन लाख से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं। इनमें ज्यादातर कपास की खेती करने वाले किसान हैं। वर्ष 2011 के जनसंख्या आंकडे तस्दीक करते हैं कि देश में किसान आत्महत्या की दर राष्ट्रीय औसत से कहीं ज्यादा है। जीएम बैगन और हाल फिलहाल जीएम सरसों और जीएम आलू को लेकर सरकार की नीति और नीयत कटघरे में है। श्रीलंका ने जीएम फसलों पर प्रतिबंध लगा रखा है, जर्मनी, फ्रांस समेत 19 यूरोपीय देश और दक्षिण अमरीकी देश वैनेजुएला जीएम फसलों के उत्पादन से हाथ खड़े कर चुके हैं , अमेरिका में मक्के की जीएम फसल मोनार्क तितलियों के लिए काल बन गई है, पश्चिमी देशों में गोल्डन राइस नामक चावल की जीएम किस्म को खाने वालों के परीक्षण के नतीजे यह बताते हों कि इसे खाने से बच्चों और गर्भवती महिलाओँ को स्वास्थ्य संबंधी दिक्कतें पेश आई है, तब भी नीति आयोग उसी दिशा में बढ़ रहा है। ऐसी दिशा जिसमें दो कदम आगे बढाने के बाद चार कदम डा. मनमोहन सिंह को पीछे खींचने पड़े थे। इसके बावजूद जैव संवर्धित (जीएम) सीड्स के पक्ष में खड़ा होना यही बताता है कि अमेरिकी आबो हवा में सांस लेने के बाद उसके प्रति प्रेम का हो जाना आम चलन है। जिन बीजों से फसलों के उत्पादन में बढोत्तरी का दावा करते हुए कृषि मंत्री इतरा रहे हैं, उसे किसान की भाषा में बांझ बीज कहते हैं। वह बीज जो अपनी संतति नहीं बढ़ा सकता। इस बीज को पूरी तरह टर्मिनेटर या बांझ बनाने के लिए बार्नेज एन्जाइम और रिकाम्बिनेज जरुरी होता है। बार्नेज एन्जाइम जीव कोशिकाओं को मारता है, आरएनए (राइबोन्यूक्लिक एसिड) को तोड़ता है, जबकि रिकाम्बिनेज बांझपन का कारक जनता है। ऐसी फसलें स्वपरागित होती हैं, उनमें बीज नहीं बनते।
भारत में आमतौर पर किसान अपनी फसल से ही बीज रखता है। लेकिन जीएम सीड्स का उपयोग करने के बाद उसे हर बार विदेशी कंपनियों से नया बीज खरीदना होगा। जिसका मुनाफा इन कंपनियों की जेब में जाएगा। छोटे किसानों को आमतौर पर ब्याज पर लिए गए पैसे से खेती करनी होती है, ऐसे में इन बीजों को खरीदने का सालाना खर्च उनकी कमर तोड़ देगा। दुनिया के लगभग 80 फीसदी बीजों पर छह वैश्विक कारपोरेट समूहों- हैं- मोनसैंटो, द्यू पाँ, सिनजेंटा, डाउ, बेयर और ग्रुप लीमा ग्रेन। यही कंपनियां खतरनाक जीव विषों, जानलेवा कीटनाशी पदार्थों और जहरीले रसायनों के दुनिया भर में कारोबार के लिए जानी जाती हैं। खेती में इनके उपयोग से बढ़ रही बीमारियां आम हैं। वैज्ञानिक तो यहां तक कहते हैं कि कीटनाशक पदार्थों के प्रयोग से कैंसर का खतरा बढा है।
यह कितना हैरतअंगेज है कि जो कंपनियां जीव विषों, जानलेवा कीटनाशी पदार्थों और जहरीले रसायनो का दुनिया भर में काम करती हों, वही अच्छी फसल उत्पादन करने का दावा भी करती हैं। इकलौती कंपनी मोनसैंटो के जीएम सीड्स के बाबत बात की जाय तो यह सच हाथ लगता है कि यह कंपनी बीजो के साथ खर-पतवार खत्म करने वाला राउंड अप नामक एक रासायनिक पदार्थ भी बनाती है। जो लोग इस कंपनी के बीज खरीदते है उन्हें यह भी खरीदना पड़ता है। राउंड अप के अंदर ग्लाइफोसेट नाम का विषाक्त रसायन होता है जो मिट्टी की संजीवनी नष्ट कर देता है। वैज्ञानिकों की माने तो राउंड-अप के प्रयोग से इंसानों में 40 से अधिक बीमारियां उत्पन्न होती हैं, इनमें कैंसर, गुर्दे की विफलता, अलजाइमर्स, ऑटिज्म, बांझपन और नपुंसकता प्रमुख हैं। यह अंतःस्त्रावीय ग्रंथियों को भी प्रभावित करता है, जो खाने पचाने की शक्ति को भी धीरे-धीरे खत्म कर देता है। यह हमारे गुण सूत्रों को भी खत्म कर देता है।
वर्ष 1950 में करीब दो हजार टन कीटनाशकों का उपयोग खेती में किया जाता था, आज तकरीबन 90 हजार टन दवाएं देश के पर्यावरण में खेती के मार्फत घुल रही हैं। पूरी अर्थव्यवस्था में कृषि का योगदान महज 14 फीसदी हो पर यह 60 फीसदी लोगों की आजीविका का आधार है। खेती से जुड़े 14 करोड़ परिवारों में करीब 80 फीसदी के पास दो एकड़ से कम जमीन है। छोटी जोत के कारण इन किसानों को भय रहता है कि आधुनिक तकनीकी के इस्तेमाल के चलते लागत न बढ़ जाय । नतीजतन, वह पारंपरिक तौर तरीके अपनाता है। जीएम सीड्स का प्रस्ताव आंकडों में उसके लिए अधिक फसल पैदा करने का दावा कर आंखो में उम्मीद जगाता है। बीज बनाने वाली यह कंपनियां विश्व बैंक के उस रिपोर्ट के लेकर ढिंढोरा पीट रही हैं जिसके मुताबिक जीएम तकनीकी के प्रयोग से विकासशील देशो में फसलों की उपज में 25 फीसदी तक का इजाफा किया जा सकता है। पर आंध्रप्रदेश के एन. जी. रंगा कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने बीटी काटन लगाए गए खेतों का जब भौतिक सत्यापन किया तो उनके होश फाख्ता हो गए। उन्होंने पाया कि संकर बीज की फसल की उपज जहां 15 से 20 क्विंटल प्रति एकड है, वहीं बीटी काटन की पैदावार 2से 8 क्विंटल ही रही। यह स्थिति आंध्र प्रदेश के रायचूड़, धारवाड और हवेरी तीनों जिलो में पाई गई। 77फीसदी किसानों ने फसल में इल्ली लगने की शिकायत भी की जबकि जीएम बीज के पैरोकार यह दावा करते हैं कि इसे लगाने से कीटनाशकों का खर्च नहीं होगा। नतीजतन 800 प्रति एकड़ की बचत होगी। हकीकत यह रही कि इन खेतों में अधिक दवा छिड़कनी पड़ी, फूल छोटा होने के चलते रुई निकालने में अधिक मजदूरी भी देनी पड़ी।
दहलन और तिलहन की भारी कमी को पूरा करने के लिए इस आधुनिक प्रोद्योगिकी का मार्ग खोलने की पैरोकारी करने वाली सरकार को यह सोचना चाहिए कि सवाल सिर्फ खाद्यान्न भंडार बढाने का नहीं बल्कि मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण का भी है। किसानों की लागत कम आए यह भी है। आज जीएम सरसों के पैरोकार यह भूल रहे हैं कि हमारा किसान गेहूं के साथ मिश्रित खेती में सरसों उगाता है। जब वह जीएम सरसों लगाएगा तो गेहूं की उपज से उसे हाथ धोना पड़ेगा। जब-जब देश में किसी फसल की उपज को लेकर सवाल खड़ा किया जाता है, तब-तब जीएम तकनीक की वकालत करने वालों के हौसले बुलंद हो जाते हैं। इन दिनों हम खाद्य तेल का आयात कर रहे है। अमेरिका और तमाम पश्चिमी देशो में सरसों का तेल जैव ईंधन के रुप में प्रयोग होता है। हम तेल का आयात इसलिए कर रहे हैं क्योंकि इसे करने के लिए हमें मजबूर किया जा रहा है। बाजार में सोयाबीन की बाढ़ है उसका अंतरराष्ट्रीय मूल्य 150 अमरीकी डालर प्रति टन है। हालांकि अमरीकी सरकार ने तकरीबन 190 अमरीकी डालर प्रति टन के हिसाब से सब्सिडी दे रखी है। लेकिन सरसों के तेल पर रहमोकरम करने की जगह भारत सरकार ने भी 15000 रुपये प्रति टन की सब्सिडी देकर सोयाबीन के लिए ही मार्ग प्रशस्त किया। अगर भारतीय किसानों को सरसों के उत्पादन पर इस तरह की आकर्षक सब्सिडी मिलती तो निःसंदेह हमारा किसान सरसों की उपज बढाता, तेल की कमी की समस्या से देश को निजात दिलाता। पर परमुखापेक्षी नीति आयोग भारतीय समस्याओं का हल पश्चिम से ढूंढ रहा है।