बढते सामान, घटती खुशियां...

Update:2016-02-27 11:46 IST
पिछले कई सालों से बेब की दुनिया में आनलाइन फोटो की प्रतियोगिता चल रही है। पिछले साल जिस फोटो को अव्वल माना गया वह लंदन के ट्यूबट्रेन का स्नैपशॉट था। इसमें 9 लोग दिख रहे थे। इनमें 8 लोग अपने मोबाइल, टैब या लैपटाप पर चैटिंग कर रहे थे। 9वां एक बुजुर्ग आदमी भकुवाया हुआ सा उन सबको देख रहा था। फोटो का कैप्शन था- चैटिंग विद् नियर्स एंड डियर्स (अपने समीप और अंतरगं लोगों से वार्तालाप)। इस चित्र ने तमाम अनकही बाते कहीं। तभी तो इसे दुनिया भर में अव्वल माना गया। यह चित्र हमारे समाज की एक ऐसी तस्वीर खींच रहा है जहां आदमी लगातार अकेला होता जा रहा है। उसे चारो ओर से वस्तुओँ ने, पदार्थ ने, मैटर ने घेर रखा है। किसी भी घऱ में जाइए तो आपको घर के सदस्यों की संख्या से कई गुना प्रयोग किए जाने वाली हर वस्तु मिल जाएगी। सबके अपने-अपने पेस्ट है। अपनी-अपनी तौलिया। अपनी-अपनी कंघी। अपने-अपने शैंपू और अपने-अपने साबुन है। यह मनोवृत्ति बताती है कि हम आज की दुनिया में कुछ भी शेयर करने को तैयार नहीं। हालांकि आभासी दुनिया में बहुत कुछ शेयर कर रहे है। किनके साथ शेयर कर रहे हैं, किन मनोवृत्तियों के साथ शेयर कर रहे हैं, किन लोगों के शेयर कर रहे है यह हम जानते भी नहीं। लेकिन जिनके साथ भले ही हम जी न रहे हो, रात दिन काटते हैं, उनके साथ शेयर करने की खत्म होने की प्रवृति यह बताती है कि किस तरह भीड़ में आदमी अकेला हो रहा है।
अभी आए एक सर्वे के इस तथ्य ने सबको चौंका दिया है कि बच्चे अवसाद के शिकार हो रहे हैं। तमाम ऐसी बीमारियां उन्हें घेर रही हैं जो बुजुर्गियत की भी अनिवार्यता नहीं। मधुमेह, बाल पकना, आंखों की रोशनी कम हो जाना यह बचपन की बीमारियां हो गयी हैं। अभी आए जनगणना के आकंडों ने यह बताया है कि भारत में 54 फीसदी ऐसे लोग रह रहे हैं जो हम दो हमारे दो पर यकीन करते हैं। 10 फीसदी ऐसे हैं जो यह मानते हैं कि हम दोनों का एक सहारा, आपस में क्यों हो बंटवारा। यह मनोवृत्ति कैरियर के लिहाज से, 50 वर्ष की उम्र के लिहाज से भले ही अच्छी हो पर हकीकत में इसके परिणाम भुगत रहे लोग तो छोडिए ही आम जन भी अच्छा नहीं कह सकते। यह मनोवृत्ति समाज का कई तरह से नुकसान करती है। जनसंख्या नियंत्रण के पैरोकार क्षमा करें जो लोग कई बच्चों को अच्छी तालीम, अच्छे कपडे, अच्छा रहन-सहन दे सकते हैं उन्होंने  लक्ष्मण रेखा खींच ली है। वे एकांकीपन जन रहे है। जो नहीं कर पाते वह भरा पूरा समाज बना रहे हैं। लेकिन वे जिस समाज का निर्माण कर रहे हैं उसकी कोई भी व्यैक्तिक इकाई उस तरह सुदृढ़, स्वस्थ और शिक्षित नहीं हो पा रही है।
जो एकांकी दुनिया निर्मित हो रही है वह आभासी संपर्क को जीवन का वरदान मान बैठी हैं। उनका य़ह अवधारणा एक ओर जहां वास्तविक दुनिया से उन्हें तोड़ती है वहीं आभासी अमरता पाने के लिए इतनी व्यग्रता जनती है कि सारे ऐश्वर्य और सुख पाने के संसाधन बेमानी हो जाते हैं। खुशी के पैमाने पर वे सांप सीढी की तरह चढ़ते उतरते नज़र आते हैं। आभासी दुनिया में जीने में उनकी लत इस उतार चढ़ाव को भी महीने, सप्ताह और दिन से घटाकर पल पल में तब्दील कर रही है। शायद यही वजह है कि संयुक्त राष्ट्र संघ की एक संस्था की ओर से वर्ल्ड हैपिनेस डे पर जारी रिपोर्ट बताती है कि भारत खुशी के पैमाने पर 118 वां देश है। इस रिपोर्ट में कुल 157 देशों का अध्ययन किया गया था। हमारे परेशान होने का सबब यह है कि भारत निरंतर नीचे जा रहा है। हद तो यह हो गयी है कि लगातार युद्ध से आक्रांत फिलस्तीन, सोमालिया और ईरान भी भारत से ऊपर हैं। पाकिस्तान भी हमसे ऊपर है। यह रिपोर्ट खुशी को समाजिक आर्थिक पैमाने पर मापती है। भारत निरंतर प्रगति कर रहा है। भारत की जीडीपी 2015 की पहली तिमाही में चीन से कहीं आगे 7.5 फीसदी है। वहीं भारत का सर्विस सेक्टर 10 फीसदी से ज्यादा बढ़ा है। उत्पादन क्षेत्र में भारत ने 7.1 फीसदी की बढत हासिल की है वहीं कृषि क्षेत्र करीब आधा फीसदी बढा है। दुनिया में बिजनेस करने के पैमाने पर भी भारत ने 2016 में 12 पैमाने की उछाल हासिल कर 130 स्थान हासिल कर लिया है। यानी आर्थिक तौर पर लगातार ऊपर की सीढियां चढ़ते देश के लोग समाजिक और मानसिक-भावनात्मक तौर पर खुश तो दूर लगातार खुशी से दूर होते जा रहे हैं।
विकास के ये आंकडे यह बताते हैं कि निरंतर प्रगति कर रहे और दुनिया में धाक जमाने को आतुर भारत के लोग उपलब्धियों के इस शिखऱ पर चढ़कर भी उस तरह खुश नहीं हैं जैसी खुशी चाहिए, खुशी के पैमाने पर कसने के लिए। खुशी के पैमाने में गैरबराबरी किसी भी समाज में या समाजों के बीच विषमता को मापने का बेहतर तरीका है। हमने जीने के रंग-ढंग बदल दिये हैं, जीवन को सिर्फ युवावस्था तक समेट कर रख दिया है। शायद यही वजह है कि हम लगातार संयुक्त परिवार से न्यूक्लियर फैमिली और अब एक्चुअल वर्ल्ड से वर्चुअल वर्ल्ड की बेरोकटोक यात्रा कर रहे हैं। हमें जीवन में हर्ष और विषाद, खुशी और गम बांटने के लिए लोग चाहिए होते है। पिछले तकरीबन पांच सालों से जब भी किसी की अंत्येष्टि में जाने का मौका मिला तो चिता पूरी जलने तक किसी को रुकते नहीं देखा। परिवार के लोग भी चले जाते हैं। दूसरे दिन के लिए परिजन अस्थि प्रवाह के लिए अस्थियां एकत्रित करने आते हैं। तबतक न जाने कितनी चिताएँ वहां जल चुकी रहती है। अस्थियां बटोर रहे लोगों को यह भी पता नहीं रहता कि वे किसकी अस्थि का विसर्जन कर रहे है। पर आभासी दुनिया में जीने वाले लोगों के लिए इसका मतलब खत्म हो गया है। पिछले 5-7 सालों से लगातार विवाहोत्सव में जाता हूं। सप्तपदी तक रुकने वालों की संख्या इकाई में होती है जो परिजन होते हैं। यानी विषाद तो छोडिए हर्ष के समय भी लोग नहीं है। आप पास-पास हैं, साथ-साथ नहीं है।
आभासी अमरता अब समाज का अनिवार्य अंग हो गयी है। भारत में 46 करोड़ 21 लाख से ज्यादा लोग इंटरनेट इस्तेमाल करते हैं। जिसमें 12.5 करोड़ लोग फेसबुक और ढाई करोड़ ट्विटर यूजर्स है।37 करोड़ लोग फोन पर इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं। दुनिया में प्रति सेकेंड औसतन 6000 ट्वीट होते हैं। पहला ट्वीट 21 मार्च 2006 को ट्विटर के संस्थापक जैक डोर्सी ने किया था। एक बिलियन ट्वीट के आंकडे को छूने में तीन साल से ज्यादा का समय लगा। मई 2009 के अंतिम सप्ताह में यह मुकाम हासिल हो पाया। अब हालात यह है कि हर दो दिन में एक बिलियन ट्वीट कर दिए जाते हैं। गौरतलब है कि ट्विटर से छह गुना अधिक फेसबुक के उपयोगकर्ता हैं। ऐसे में फेसबुक पर की जा रही पोस्ट का सहजता से अंदाजा लगाया जा सकता है। यह आंकडे बताते हैं कि हम अपनी वास्तविक दुनिया अपने विचारों को, मन की बात को , अपनी जरुरतों को उन लोगों के साथ उस तरह साझा नहीं कर रहे हैं जिस तरह आभासी दुनिया में। मेरे एक मित्र के पिताजी का देहांत हुआ। उन्होंने यह सूचना फेसबुक पर डाली, उनकी इस सूचना को उनके कई आभासी दुनिया के मित्रों ने लाइक कर लिया। बाद में कुछ लोगों ने सफाई दी कि उस समय लाइक के अलावा कोई विकल्प नहीं था। हालांकि अब इसमें बदलाव कर दिया है। परंतु हमारे उस मित्र ने उसी दिन से इस आभासी दुनिया से किनारा कर लिया।
जीवित लोगों के आभासी संवाद और मेल मिलाप की यह जगह अब विराट कब्रगाह हो रही है। फेसबुक शुरु होने के 8 साल बाद 2012 में उसके 3 करोड़ सदस्यों की मौत हो चुकी थी। तकरीबन रोज 8 हजार फेसबुक चलाने वाले लोग काल के गाल में समा जाते हैं। हम इसी वर्चुअल वर्ल्ड को एक्चुअल वर्ल्ड समझने की गलती कर रहे है वही हमारे दुख का कारण है। वही हमें हमारे लोग से काटता है, उस लोक से जोड़ता है जो है नहीं या अपना नहीं। घंटे सबके पास 24 ही हैं, वह आभासी दुनिया मे दिए जाएँ या वास्तविक यह तय करने का समय कहीं ऐसा न हो कि आप लंदन की ट्रेन के स्नैप शाट के वह बुजुर्ग बन जायें और निदा फाजली की मशहूर गज़ल गाते नज़र आयें
बढ रहा है यहा बेशुमार आदमी
फिर भी तन्हाइयों का शिकार आदमी
 तन्हाइयां अवसाद ही नहीं जनती, खुशियां छीन लेती हैं। जो है उसमें खुश रहने का अवसर नहीं मिलता। 

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