सिर्फ सत्ता ही नहीं है राजनीति...

Update:2016-04-09 10:54 IST
फ्लाईंग सिक्ख मिल्खा सिंह पर निर्मित फिल्म भाग मिलखा भाग के एक दृश्य में जब पाकिस्तान की सरजमीं पर मिल्खा सिंह कीर्तिमान के एकदम करीब होते हैं तो खेल देख रहे पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति भी मिल्खा को शिखर पर पहुंचने के लिए ताली बजाते हुए कह उठते हैं भाग मिल्खा भाग। मिल्खा सिंह इस हौसलाअफजाई के बाद नया कीर्तिमान रच देते हैं। उन्हें फ्लाइंग सिक्ख का नाम पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति जनरल अयूब ने दिया था। आज तस्वीर बदली है। खेल प्रतिस्पर्धा की जगह प्रतिद्वंदिता और वैमन्स्य का सबब हो गया है। खेल से भावना गायब हो गयी है। विद्रोह ने भावना की जगह ले ली है। यही वजह है कि जब भी भारत और पाकिस्तान के बीच खेल होता है तो वह हार-जीत से ऊपर निकल जाता है। जय-पराजय में तब्दील हो जाता है। यह जय-पराजय खिलाडी की नहीं, टीम की नहीं, देश की अस्मिता से जुड़ जाती है। दोनों देशों के बीच क्रिकेट मैच में यह दृश्य जरुर देखा होगा। तमाम लोगों ने भोगा भी होगा। हद तो यह है कि पाकिस्तान के पूर्व कप्तान शाहिद अफरीदी  विराट कोहली के खेल की तारीफ कर देते हैं तो राष्ट्रद्रोही बना दिए जाते हैं। श्रीनगर के एनआईटी में जो कुछ हुआ यह इसी धारणा का विस्तार है।
जम्मू-कश्मीर के तकरीबन 200 लड़के वेस्टईंडीज के हाथों भारत की शिकस्त पर खुशी मनाते हुए भारत विरोधी नारे लगाने लगे। जवाब में तकरीबन 2000 गैर कश्मीरी छात्रों ने भारत माता की जय के नारे लगाये। विवाद दो सौ बनाम 2000 की संख्या के लोकतंत्र की ओर चला गया। बहुमत ने दूसरे दिन प्रदर्शन किया जिसमें जम्मू कश्मीर पुलिस ने बर्बरतापूर्ण कार्रवाई की। आज खेल को लेकर हर्ष और विषाद का खेल परिसर में वैमनस्य की हद पार कर गया है। हालत यह है कि गैरकश्मीरी छात्रो ने एनआईटी श्रीनगर को शिफ्ट करने की जंग शुरु कर दी है। इन बच्चों के माता-पिता अब यह कह रहे हैं कि उन्होंने अपने लाडलों को पढने के लिए भेजा है। कश्मीर की समस्या के समाधान के लिए नहीं।
अगर इस दृश्य को जेएनयू, हैदराबाद विश्वविद्यालय से जोड़कर देखें तो बड़े सहज ढंग से राष्ट्रवाद बनाम और कुछ भी का जामा पहनाया जा सकता है। पर भाग मिल्खा भाग, खेल और इसको लेकर प्रकट किए गए हर्ष और विषाद से उत्पन्न भावनाएं इस पूरे वाकये को हैदराबाद और जेएनयू से अलग करती हैं। हांलांकि नरेंद्र मोदी सरकार के विरोधियों के लिए इसे देखने का चश्मा अलग नहीं हो सकता। क्योंकि उनका विरोध सिर्फ विरोध के लिए है। वे बहुमत की नरेंद्र मोदी सरकार को लोकतांत्रिक नहीं मानते। उन्हें नरेंद्र मोदी के आविर्भाव के बाद लोकतंत्र 51 फीसदी के ऊपर के आंकडों में दिखता है। हांलांकि आजादी से बाद अब तक सरकार बनाने वाली किसी पार्टी को यह आंकडा हासिल नहीं हुआ है।
लेकिन अगर समस्या को समाधान के नजरिए से देखना हो तो एनआईटी की घटना को अलग कैनवस पर देखना ही होगा। इसलिए भी क्योंकि जम्मू-कश्मीर विशेष राज्य है। भारत में आतंकवाद की मार सबसे अधिक जम्मू-कश्मीर के लोगों ने झेली है। भारत विरोध के सबसे अधिक स्वर जम्मू-कश्मीर में उठे हैं।सबसे अधिक पाकपरस्ती, आईएसआई परस्ती के वाकये यहीं हुए है। इस्लामिक स्टेट के समर्थन में भी ध्वज जम्मू-कश्मीर में फहराए गये। ऐसे में अगर जम्मू-कश्मीर के किसी भी कोने में कोई भारत विरोध का स्वर उठता तो किसी भी सरकार का चिंतित होना स्वाभाविक है। यह कहना कि भारत माता की जय बोलना राष्ट्रवाद नहीं है। एनआईटी परिसर की पूरी घटना को राष्ट्रवाद के चश्मे से देखना एक बार पूरी बहस को जगह देता है। भारत में विविधता में एकता के संदेश के सामने सवाल खड़ा करता है। यह सवाल हमारे सामाजिक तंतुओं को बिखेरने केलिए खडे किये जा रहे है। हमारे समाजिक समरसता को तोडने के लिए किए जा रहे। इसका जीता जागता उदाहरण है कि असद्दीन ओवैसी भारत माता की जय नहीं बोलेंगे लेकिन राजनैतिक सत्ता हासिल करने के लिए यूपी की विधानसभा में जय भीम-जय मीम के नारे लगवाने को आमादा है। अगर उन्हें जय भीम में वोट नज़र आता है तो क्या उनकी अक्ल को पाला मार गया है कि वह यह नहीं समझ पा रहे कि जय भारत में भी वोट होगा। इस्लाम में बुतपरस्ती भले मनाही है पर मादरे वतन के प्रति मोहब्बत का जिक्र तो है ही। हमारे राष्ट्रकवि  मैथलीशरण गुप्त ने कहा भी है कि
जिसको न निज भाषा निज देश पर अभिमान है
वह नर नहीं नरपशु निरा है और मृतक समान है।
ओवैसी को छोडिए अब तो राष्ट्रवादियों के खिलाफ बोलना एक फैशन हो गया है। सेक्युलर होने का प्रमाण बन गया है। जब राष्ट्रवाद के खिलाफ बोलने की जमात अपनी परिभाषा गढती दिखती है तो लाजमी तो राष्ट्रवाद के पक्ष में भी कुछ मुंह खुलते हैं। योगगुरु स्वामी रामदेव और श्री श्री रविशंकर दूसरे पक्ष के पैरोकार बनकर मुखर होते है। हालांकि जो ये लोग कहते है उसकी भी तारीफ नहीं की जानी चाहिए। पर, प्रत्येक क्रिया की बराबर और विपरीत प्रतिक्रिया वाले न्यूटन के सिद्धांत को सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता। नरेद्र मोदी के अविर्भाव के बाद देश में कौन से ऐसे बड़े बदलाव हुए है जो भारत का चरित्र बदल रहे है। जो कथित धर्मनिरपेक्ष की ताकतो को राष्ट्रवाद की नई परिभाषा गढ़ने की छूट दे रहे हैं। मुझे 22 महीने में घटी कोई घटना ऐसी याद नहीं आ रही है जिसमें इस तरह के वातावरण को जगह दी हो। यह जरुर हुआ है कि रोजे के दिनों में टोपी पहन कर सिर्फ कैमरे के लिए खजूर खाने और खिलाने का चलन बंद है। मैं छोटा था तो हमारे गांव में हमारे घर तक ताजिया आती थी। हम लोग कंधे पर उठाकर उसे कुछ दूर तक ले जाते थे। यह अनिवार्य रस्म थी। हमारे हाथी के महावत मुस्लिम थे लेकिन हमें इस बात का पता तब चला जब उन्हें सुपुर्दे खाक किया जा रहा था। बीते 67 साल तक हिंदू- मुस्लिम होने का, अगड़ा पिछड़ा होने का, दलित होने का, अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक होने का अहसास हममें में ही नहीं पूरे समाज, पूरी संस्कृति में गहराया है। इन दिनों किसकी सरकार थी। इन दिनों नरेंद्र मोदी नहीं थे।
इसे साजिश कहें, या सियासी चौसर पर दांव लगाना कि जिनके जिनके भले के दावे किए गए, उस-उस तबके की हालत निरंतर दयनीय होती चली गयी। दलितों का आरक्षण मुट्ठी भर 4 फीसदी हाथो में सिमट कर रह गया। पिछडों में यह आंकडा इकाई में भी खत्म हो जाता है, उन्हें 27 फीसदी का आरक्षण है। सच्चर कमेटी की रिपोर्ट खुद यह कुबूल करती है मुस्लिमों की स्थिति दलितों से बदतर है। रंगनाथ मिश्र कमेटी और सच्चर कमेटी सियासी जुमला बनकर रह गयी। हमारे राजनेताओं ने हिंदी बचाने का संपर्क लिया तो वह अधोगति को प्राप्त हो रही है। अंबेडकर को हथियार बना दिया गया है। जय श्री राम अब सियासी नारा बन गया है। राजनैतिक दलों से विचार पुरुष खत्म हो गये हैं। राजनीति धर्म, खेल, आध्यात्म, शिक्षा, साहित्य, कला और संस्कृति सबका नेतृत्व करती है। ऐसे में जैसे राजनेता होंगे उनके विचार होंगे वैसा ही समाज, वैसी ही कला,वैसी ही संस्कृति, वैसी ही शिक्षा और वैसा ही वातावरण होगा।
शायद हमारे राजनेताओं ने इस हकीकत से आंख चुराना शुरु कर दिया है। तभी तो वे लोकतंत्र में पराजित हो जाते है तो भावनात्मक मुद्दे उठाकर यह बताना चाहते है कि देश में माहौल खऱाब है। पर माहौल खऱाब कर कौन रहा है। जब जीवन और समाज के तमाम पक्षों की अगुवाई राजनीति करती है तो समाज की बुराई का ठेका किसके सर फोड़ा जाना चाहिए। राजनीति सिर्फ सत्तापक्ष से संचालित नहीं होती। विपक्ष की अहम भूमिका है। यह बात दूसरी है कि संसद में विपक्ष शून्य है पर राजनीति और विपक्ष दोनों सिंर्फ संसद तक नहीं होते। डा राममनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण, अटल बिहारी वाजपेयी सरीखे तमाम लोगों ने यह बात साबित भी की है।
राजनीति सिर्फ सत्ता की मोहताज नहीं। राजनीति सिर्फ सरकार नहीं बनाती बिगाडती। सिर्फ सरकार नहीं चलाती। समाज भी गढ़ती है। देश भी बनाती । सत्ता के लिए आज जो समाज गढा जा रहा है वही समाज किसी और की सत्ता के सामने ही होगा। कुर्सी के लिए समाज का बदलाव देश का चरित्र बदलना किसका फायदा है यह तो कम से कम सोचना ही होगा।

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