सपनों का बोझ और मौत की प्रतियोगिता

Update:2016-05-15 10:13 IST
“इंजीनियर बनाना मेरे डेस्टिनी में ही नहीं. मेरा इंट्रेस्ट तो एस्ट्रो फिजिक्स और क्वांटम फिजिक्स में था। मैं बीएससी करना चाहती थी। मैं आज भी इंगलिश और हिस्ट्री पढऩा-लिखना पसंद करती हूं।” भारत में कोचिंग हब के रुप में विख्यात कोटा की एक इमारत की पांचवीं मंजिल से जान देने वाली कीर्ति त्रिपाठी के सुसाइड नोट के ये शब्द अनन्त सवाल खड़े करते हैं और ऐसे यक्ष प्रश्न जनते हैं जिनका उत्तर वर्तमान सामाजिक व्यवस्था और शिक्षा व्यवस्था में संभव नहीं दिख रहा है।
कीर्ति का यह दर्द ज्यादातर छात्रों का दर्द है। क्योंकि अभिभावक अपने बच्चों को उनकी पसंद और प्रतिभा की जगह अपने सपनों को पूरा करने का जरिया बनाने लगे हैं। कोई अभिभावक अपने जीवन में जो नहीं बन पाता, पता नहीं क्यों अपने बच्चे को वही बनाना चाहता है। जबकि हकीकत यह है कि नियति हर आदमी को अलग-अलग काम के लिए बनाती है। तैयार करती है। जो आदमी नियति द्वारा निर्धारित काम के समीप सबसे पहले पहुंचता है जितना जल्दी पहुंचता है वह शिखर तक उतनी जल्दी जाता है। हालांकि अभी जो हमारा समाज तैयार हुआ है इसमें शिखर तक पहुंचना विज्ञान नहीं कला है। यह कला गुणनिरपेक्ष भी है, धर्मनिरपेक्ष भी है काल निरपेक्ष भी है और प्रतिभा निरपेक्ष भी है। लेकिन शिखर पर बना रहना इसके ठीक उलट है। हम बच्चों को शिखर तक पहुंचाना चाहते हैं। शिखर तक पहुंचने की यात्रा हम इतनी शार्टकट कर दे रहे हैं कि बच्चों का मौलिकपन खत्म हो रहा है।
कभी पांच साल में बच्चे पहले कक्षा में दाखिला लेते है। अब तीन साल में जो बच्चा अपने कपड़े नहीं पहन सकता, नाक नहीं पोछ नहीं सकता, ठीक से चल भी नहीं पाता उसे टाई बांधकर स्कूल रवाना कर दिया जाता। क्या यह ऐसा नहीं कि जिसे तैरना भी न आता हो उसे समंदर में फेंक दिया जाय। तीन  साल के बच्चे में शारीरिक और बौद्धिक क्षमता का विकास किताबों के जगह प्रकृति के साथ हो तो उसकी अंतः औ बाह्य चेतना का विकास पूर्णता के साथ हो सकता है। पर हम बच्चों को पूर्णता की ओर नहीं जाने दे रहे हैं।
कई बार बच्चों को कम उम्र में स्कूल भेजना बला टालने जैसा भी होता है। तो क्या देश की भावी पीढ़ी का निर्माण इस नीति और नियति से होना चाहिए। अपने बच्चे की शुरुआती तालीम अंग्रेजी भाषा में कराते है। वह अंग्रेजी बोलता है तो अभिभावक बहुत खुश होते हैं। पर तमाम देशी और विदेशी शोध यह प्रमाणित करते हैं कि किसी भी आदमी में मौलिक विचार उसकी अपनी मातृभाषा में आते हैं। हमने बच्चों के कंधों पर बूढ़े अभिभावकों का सर रख दिया है जिसका बोझ उनके लिए असह होता जा रहा है। पीठ पर बस्ते के बोझ को लेकर दो दशक से दर्ज कराई जा रही शिकायत दूर होने का नाम नहीं ले रही है। अभिभावकों के बूढ़े सर ने बच्चों को अतीतजीवी बना दिया है और रीढ़ पर बस्ते के बोझ ने उन्हें वर्तमान समस्याओं से किसी तरह निपट लेने की जद्दोजेहद में लाकर खड़ा कर दिया है। जबकि जीवन उन्हे भविष्य में जीना है। समस्या भविष्य से आएगी।
कभी टीचर होना सबसे सम्मानित काम था, लेकिन अब ऐसा नहीं है। जैस-जैसे अध्यापन में पैसा बढ़ा वैसे-वैसे उनका सम्मान घट गया। शिक्षा ज्ञान से निकल कर रोजगार तक आई लेकिन अब शिक्षा को बाजार बना दिया गया है। इस बाजार को बढ़ने में सरकार ने भी कम भूमिका नहीं निभाई है। उसने सरकारी स्कूलों के ढांचे इतने जर्जर लिए हैं, टीचरों की पगार इतनी बढ़ा दी है कि उसे इन जर्जर स्कूलों में जाकर पढाना तौहीन लगने लगी है। नतीजतन, सरकारी स्कूलो में टीचर अपने जगह पर दूसरा टीचर तलाश कर उससे काम करवाने लगा है। उसने अपनी दुकानें खोल ली हैं। कोचिंग की नाम से खुली यह दुकाने एक तरफ बच्चों को शिक्षण संस्थानों की जगह यहां आने को विवश करती हैं तो दूसरी ओर अभिभावकों को सपना दिखाती हैं कि उनके सपने इन दुकानों मे आकर उनके बच्चे पूरे कर देंगे।
इसके बाद तो अभिभावक बेताल की तरह बच्चे पर सवार हो जाते हैं। कीर्ति त्रिपाठी का सुसाइड नोट इसकी परत दर परत खोलता है। वह कहती है कि कोचिंग संस्थानों में बच्चों को तनाव मिल रहा है। भारत सरकार और मानव संसाधन विकास मंत्रालय से वह कोचिंग संस्थान बंद कराने की अंतिम इच्छा जाहिर करती है, पर कीर्ति की यह बात भी इस तनाव से खुदकुशी कर चुके अन्य बच्चों की तरह नक्कार खाने में तूती बनकर रह जाएगी क्योंकि औसतन हर तेरहवें दिन कोचिंग का एक छात्र अपनी जान दे रहा है। कोटा में होनहार और मासूम छात्रों में जिंदगी छोड़ने की प्रतियोगिता शुरु हो गयी है। वर्ष 2015 में इस शहर में 26 बच्चों ने अपनी जान दी वहीं 2014 से में 11 बच्चो ने जान दी थी और 2013 में 13 बच्चों ने।
भारत के सम्पूर्ण साक्षर राज्य केरल में भी दृश्य़ कुछ ऐसे ही हैं। कोटा से पहले दक्षिण भारत प्रतियोगिता परीक्षाओं का एकमात्र गढ़ था। दुनिया भर में दक्षिण भारत और खासकर केरल को तो आत्महत्याओं की राजधानी कहा जाता रहा है।
एसोसिएटिड चैंबर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री ऑफ इंडिया (एसोचैम) के आकंडे बताते हैं कि मेट्रो शहरों में प्राइमरी स्कूल के 87 फीसदी और हाईस्कूल के 95 फीसदी बच्चे निजी कोचिंग लेते हैं।किसी भी रोजगार के लिए चलाए जा रहे पाठ्यक्रम में प्रवेश बिना कोचिंग संस्थानों के संभव नहीं है। यह झूठ सौ बार बोलकर सच बना दिया गया है। मेरी बेटी दसवीं उत्तीर्ण कर 11वीं में प्रवेश किया है पर उसे घर पर आ रहे टीचरों की जगह कोचिंग में जाकर पढ़ना सफलता की बड़ी गारंटी लग रहा है। इन्हीं धारणाओँ ने कोचिंग इंडस्ट्री में हर साल 35 फीसदी के इजाफे का ट्रेंड बना दिया है। एसोचैम के सर्वे के मुताबिक मध्यवर्ग अपनी आय का एक-तिहाई निजी कोचिंग पर खर्च करता है। 2015 में अकेले कोंचिंग इंडस्ट्री का कारोबार 40 अरब डालर तक पहुच गया है। अगले पांच साल में इसके पांच गुना होने की उम्मीद है।
शिक्षा अब उद्योग हो गयी है। तभी तो भारतीय कोचिंग इस्टीट्यूट्स में अब विदेशी कंपनियां भी निवेश करने लगी हैं। उन्हें पता है कि 9876 आईआईटी सीटों के लिए 14 लाख छात्र परीक्षा में बैठते हैं। डाक्टर बनने की तमन्ना रखने वाले सिर्फ 0.6 फीसदी बच्चे ही अपना सपना पूरा कर पाते हैं। 52300 सीटों के लिए पिछले साल 6.3 लाख बच्चों ने परीक्षा दी थी। शिक्षा को बाजार बनाने वाले यह जानते हैं कि रास्ता जितना संकरा होगा उससे निकलने के लिए उतनी ही अधिक रकम वसूली जा सकेगी।
आम तौर पर कोचिंग का कारोबार उन लोगों के हाथो में रहा है जो खुद सफल नहीं हो पाए। लेकिन इन दिनों कोचिंग की आमदनी के चलते तमाम ऐसे लोग भी इस बाजार मे उतर आए हैं जिन्होंने अपना कैरियर त्यागा। आईआईटी और आईआईएम से पढाई करने के बाद बड़े पैकेज छोड़े। लेकिन ऐसा करने के पीछे उनकी मंशा विशुद्ध तौर पर कमाऊ है। शिक्षा और ज्ञान से उनका कोई रिश्ता नहीं है। वे नहीं चाहते हैं कि जिन दुश्वारियों को पार करके वे चयनित हुए उनके बाद के बच्चे उन दुश्वारियों से महफूज रहें। तभी तो कोचिंग की सफलता को बताने और जताने के लिए वे तमाम तरह के हथकंडे अपनाने लगे हैं।
मैं ऐसे कई बच्चों को जानता हूं जिन्होंने सफलता का कीर्तिमान बिना कोचिंग के हासिल किया पर नतीजे आते ही मोटे पैसे देकर कोचिंग वालों ने उनकी उपलब्धि को अपने खाते में दर्ज कर लिया। यह खेल इन दिनों कोचिंगों में खूब चल रहा है। कोचिंगों की आमदनी के चलते टीचर क्लासरुम टीचिंग पर तवज्जो नहीं देते अब तो बाकयदा कोचिंगों के बड़े बड़े विज्ञापन बच्चों को बुलाने के लिए निकलते देखे जा सकते हैं। कोचिंग चलाने वाले मीडिया की आमदनी का बड़ा जरिया हो गये हैं। उत्तर प्रदेश में जब भाजपा की सरकार थी तो उनकी शिक्षा मंत्री ओमप्रकाश सिंह ने इन्ही हालातों को मद्देनज़र कोचिंगों पर पाबंदी लगा दी थी। पर सरकार जाते ही यह पाबंदी गए दिनों की बात हो गयी।
यह बात अभिभावकों के समझ में क्यों नहीं आ रही है कि शिक्षा बाजार का हिस्सा नहीं है। अध्यापक और छात्र का संबंध आर्थिक लेनदेन का नहीं है। मेरा बेटा लंदन में एलएलएम कर रहा है वह बताता है कि किसी भी टीचर कितनी बार भी कुछ भी पूछा जा सकता है। पश्चिम में छात्र और टीचर के रिश्ते प्राचीन भारत के गुरु शिष्य की तरफ यात्रा कर रहे हैं और हम शिक्षा को बाजार बना रहे हैं।
हमने छात्र और अध्यापक को हाट में खड़ा कर दिया है। बच्चों को इस हाट से बाहर निकालना होगा। अभिभावकों को अपने सपने बच्चों से पूरा करवाने की प्रवृति और प्रकृति बदलनी होगी नहीं तो भले ही ऐसे अभिभावकों का कीर्ति त्रिपाठी की राह न पकडे पर इतना तो जरुर है कि वह यह कहता हुआ मिलेगा कि न खुदा ही मिला न विसाले सनम, न इधर के रहे न उधर के रहे।

Similar News