‘पानी गए न उबरे, मोती,मानस, चून।’
अब्दुल रहीम खानखाना ने पानी को लेकर यह बात कही थी। उनकी बात पर आज तक कोई अमल नहीं हुआ तभी तो इन्सान की आंख का पानी मर गया,समाज में पानी को लेकर इज्जत से जुड़ा हुआ जो बिंब था वह बिखर गया। मोती नकली बनने लगे। पानी उतर जाने के बाद भी आदमी से हया कोसो दूर है। पानी उतरने के दर्द को उसने दरकिनार कर दिया। यही क्यों, पानी को लेकर जितने भी बिंब गढ़े थे उन सबके के अर्थ लोगों ने बदल दिए। पानी को लेकर कही गयी लोकोत्तियां किंवदतियां उलट गयीं। पानी को लेकर हमारी प्रतिष्ठा और प्रतिबद्धता भी बदली है। धर्म से पानी का रिश्ता टूट गया है। इन्हीं सारे परिवर्तनों के चलते आदमी आज पानी-पानी चिल्ला रहा है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पानी के लिए मन की बात करनी पड़ रही है। जो पानी धरती मां के गर्भ में अकूत पड़ा था वह अब इन्सान के प्सास बुझाने के लिए रेलगाडियों और टैंकरों का मोहताज हो गया है। यह सब महज इसलिए है क्योंकि प्राकृतिक संसाधनों को लेकर सतत उपभोग की हमारी प्रकृति और प्रवृति ने महत्तम उपभोग को जीवन का रास्ता बनाया है। यह इसलिए सच है क्योंकि अकेले दिल्ली जैसे राज्य में दो सौ मिलियन गैलेन पानी की कमी है। पर जलबोर्ड के आंकडे बताते हैं कि चालीस फीसदी पानी तो सिर्फ लापरवाही के भेंट चढ जाता है। दरअसल पानी का करीब-करीब आधा हिस्सा घरों तक पहुंचने के बजाय फटी पाइपों और लापरवाही की वजह से सड़कों पर फैल जाता है। इस्तेमाल नहीं हो पाता है। सीएजी की रिपोर्ट बताती है कि उसकी टीम ने दिल्ली के चंद्रावल जलसंयत्र का निरीक्षण किया तो भी इन्हीं आकंडों की पुष्टि हुई कि 40 फीसदी पानी खराब वाल्व के नाते लीक हो जाता है। यह संयंत्र 57 साल पुराना है।
यह कहानी तो देश की राजधानी की है अगर हम उत्तर प्रदेश के कम विकसित जिले जौनपुर के आंकडों पर नज़र दौडायें तो भी यही तथ्य हाथ लगता है कि एक दिन में 36 लाख लीटर पानी यहां बर्बाद होता है। शुद्ध पानी पीने की लालसा भी पानी के बर्बादी का सबब है। 40 लीटर आर ओ का शुद्ध पानी पाने लिए 120 लीटर पानी को कुर्बान करना पड़ता है। वैसे तो पानी के अंतरराष्ट्रीय बाटलर्स की सर्वोच्च संस्था का दावा है कि उनके एक लीटर पानी बनाने के लिए 1.6 लीटर पानी बर्बाद होता है जो कोल्ड ड्रिंक और बीयर बनाने में व्यर्थ होने वाले पानी से काफी कम है। पर अधोमानक संयंत्रों का इस्तेमाल करने से पानी की यह बर्बादी तीन गुनी हो जाती है।
नासा की एक रिपोर्ट ने भारत में पानी के निरंतर कम होने को लेकर जो चिंता जताई है वह बेहद निराश करने वाली है रिपोर्ट के मुताबिक भारत में कई बड़े राज्य ज्यादा जलदोहन कर रहे हैं पंजाब, हरियाणा और राजस्थान हर साल औसतन 17.7 अरब क्यूबिक मी पानी जमीन की कोख से निकाल रहे हैं,जबकि इन्हें 13.2 अरब क्यूबिक मीटर निकालना था। अकेले यह तीन राज्य क्षमता से 30 फीसदी ज्यादा दोहन कर रहे हैं। जिसके चलते 4 सेंटीमीटर यानी 1.6 इंच जलस्तर हर साल कम हो रहा है। जबकि देश के उत्तर पश्चिम इलाके में तरीकबन 109 क्यूबिक किलोमीटर पानी घटा है।
इस कमी के बावजूद हम फ्लश में हर रोज हर बार बीस लीटर पानी बर्बाद करते हैं। बाल्टी के बजाय शावर से नहाकर तरोताजा होने के लिए हम 18 लीटर के बजाय 100 लीटर पानी बर्बाद करते हैं। अगर आपकी आदत शेविंग करते और कपड़ा धोते समय नल खोलने की है तो आप क्रमशः 5 और 116 लीटर पानी बर्बाद करते हैं। अपनी कार को पानी से चकाचक चमकाने में अगर आप पानी की धार का इस्तेमाल करते हैं तो आप 524 लीटर पानी एक बार में बर्बाद करते हैं।
देश के तकरीबन 53 फीसदी लोग अपनी पानी की जरुरत सीधे भूजल से पूरी करते हैं। इनमें 11 फीसदी लोग कुओँ के पानी पर निर्भर है बाकी 35.7 फीसदी लोग हैंडपंप से और करीब 7 फीसदी लोग बोरवेल और ट्यूबवेव के पानी पर निर्भर हैं। वहीं 18.2 तालाब, पोखरों, झील से, 2.6 फीसदी लोग अन्य माध्यमों से पानी की जरुरत पूरी करते हैं। करीब एक तिहाई जनसंख्या सीधे पाइपलाइन से पानी की अपनी जरुरत पूरी करती है। वर्ष 2001 में प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता 1816 क्यूबिक मीटर थी जो 2011 में घटकर 1545 क्यूबिक मीटर रह गयी। लेकिन इन डरावने आंकडों और भयावाह स्थिति के बाद भी पानी को लेकर हमारे नज़रिए में बदलाव नहीं दिख रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पानी को लेकर की गई मन की बात में कहा कि पानी परमात्मा का प्रसाद है। एक बूंद भी बर्बाद हो, तो हमें पीड़ा होनी चाहिए। पर ऐसा नहीं है। अगर पानी के लेकर हमारी चिंताएं सचमुच पीड़ादायक होतीं तो पानी के सभी बिंब बदल नहीं गये होते।
हमने पता नहीं क्यों मान लिया है कि पानी उपलब्ध कराना सिर्फ सरकार का दायित्व है। जबकि ऐसी अनंत नज़ीरें हैं जो यह चुगली करती हैं कि जिन-जिन चीजों को हमने सरकार की जिम्मेदारी के हवाले किया है उऩ चीजों से हम महरुम होते गए। लेकिन यह भी हकीकत है किसी एक के किये से इस समस्या से निजात नहीं पाया जा सकता। इससे निपटने के लिए हमें सरकार के हाथ का साथ देना होगा। नज़रिए में बदलाव बेहद जरुरी है। सरकार को नज़रिया यह बदलना होगा। उसे पीने और दूसरी जरुरतों के लिए पानी की आपूर्ति अलग-अलग करना होगा। सिंचाई में आज हम नदियों के पानी का उपयोग करते हैं जिसे पीने के काम लाया जा सकता है। सरकार को चाहिए कि घरों और फैक्ट्रियों इस्तेमाल के बाद दूषित पानी का ट्रीटमेंट कर इसका सिंचाई में उपयोग कराया जाय। बहुत छोटे पैमाने पर यह प्रयोग उत्तर प्रदेश में किया भी गया। पीने के पानी और अन्य उपयोग के पानी की अलग अलग आपूर्ति के प्रयोग कई देशों ने सफलता पूर्वक करके दिखाए भी हैं।
हमें अपने स्तर पर बूंद बूंद पानी से सिंधु बनाने की कहावत बनाने पर अमल करते हुए शेविंग, कपड़ा धोने, कार साफ करने, फर्श धोने और फ्लश आदि अन्य कामों में पानी के महत्तम उपयोग की जगह समुचित उपयोग के फार्मूले पर काम करना चाहिए। अगर ऐसा करने में हम कामयाब नहीं हुए तो इस परिकल्पना के सच होने में कोई अंदेशा नहीं रह जायेगा कि अगला विश्वयुद्ध पानी को लेकर होगा। क्योंकि पानी को इज्जत का सबब मानने, आंख के पानी मर जाने, पानी-पानी हो जाने आदि मुहावरे उलट गए हैं। पानी हमारे संकल्प से गायब हो गया है, वह वस्तु बन गया। पानी वस्तु नहीं है। जब भी हम कोई धार्मिक अनुष्ठान करते हैं तो संकल्प जल को लेकर करते है। आचमन जल को लेकर करते है। संकट में चुल्लू भर पानी का मुहावरा भी है। पानी लेने के लिए करोड़ों औरतें पूरा दिन लगा देती हैं। देश के कई गांवो में पानी न होने की वजह से लड़के कुंवारे रह जाते है। तमाम गांव पानी की कमी से विस्थापन का दंश झेल रहे है। मोहनजोदडों और हडप्पा काल के कई विकसित शहर पानी के चलते ही उजड़ गए। ऐसे में हम सिर्फ यह प्रार्थना कर सकते हैं- हर मन पानी राखिए।
अब्दुल रहीम खानखाना ने पानी को लेकर यह बात कही थी। उनकी बात पर आज तक कोई अमल नहीं हुआ तभी तो इन्सान की आंख का पानी मर गया,समाज में पानी को लेकर इज्जत से जुड़ा हुआ जो बिंब था वह बिखर गया। मोती नकली बनने लगे। पानी उतर जाने के बाद भी आदमी से हया कोसो दूर है। पानी उतरने के दर्द को उसने दरकिनार कर दिया। यही क्यों, पानी को लेकर जितने भी बिंब गढ़े थे उन सबके के अर्थ लोगों ने बदल दिए। पानी को लेकर कही गयी लोकोत्तियां किंवदतियां उलट गयीं। पानी को लेकर हमारी प्रतिष्ठा और प्रतिबद्धता भी बदली है। धर्म से पानी का रिश्ता टूट गया है। इन्हीं सारे परिवर्तनों के चलते आदमी आज पानी-पानी चिल्ला रहा है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पानी के लिए मन की बात करनी पड़ रही है। जो पानी धरती मां के गर्भ में अकूत पड़ा था वह अब इन्सान के प्सास बुझाने के लिए रेलगाडियों और टैंकरों का मोहताज हो गया है। यह सब महज इसलिए है क्योंकि प्राकृतिक संसाधनों को लेकर सतत उपभोग की हमारी प्रकृति और प्रवृति ने महत्तम उपभोग को जीवन का रास्ता बनाया है। यह इसलिए सच है क्योंकि अकेले दिल्ली जैसे राज्य में दो सौ मिलियन गैलेन पानी की कमी है। पर जलबोर्ड के आंकडे बताते हैं कि चालीस फीसदी पानी तो सिर्फ लापरवाही के भेंट चढ जाता है। दरअसल पानी का करीब-करीब आधा हिस्सा घरों तक पहुंचने के बजाय फटी पाइपों और लापरवाही की वजह से सड़कों पर फैल जाता है। इस्तेमाल नहीं हो पाता है। सीएजी की रिपोर्ट बताती है कि उसकी टीम ने दिल्ली के चंद्रावल जलसंयत्र का निरीक्षण किया तो भी इन्हीं आकंडों की पुष्टि हुई कि 40 फीसदी पानी खराब वाल्व के नाते लीक हो जाता है। यह संयंत्र 57 साल पुराना है।
यह कहानी तो देश की राजधानी की है अगर हम उत्तर प्रदेश के कम विकसित जिले जौनपुर के आंकडों पर नज़र दौडायें तो भी यही तथ्य हाथ लगता है कि एक दिन में 36 लाख लीटर पानी यहां बर्बाद होता है। शुद्ध पानी पीने की लालसा भी पानी के बर्बादी का सबब है। 40 लीटर आर ओ का शुद्ध पानी पाने लिए 120 लीटर पानी को कुर्बान करना पड़ता है। वैसे तो पानी के अंतरराष्ट्रीय बाटलर्स की सर्वोच्च संस्था का दावा है कि उनके एक लीटर पानी बनाने के लिए 1.6 लीटर पानी बर्बाद होता है जो कोल्ड ड्रिंक और बीयर बनाने में व्यर्थ होने वाले पानी से काफी कम है। पर अधोमानक संयंत्रों का इस्तेमाल करने से पानी की यह बर्बादी तीन गुनी हो जाती है।
नासा की एक रिपोर्ट ने भारत में पानी के निरंतर कम होने को लेकर जो चिंता जताई है वह बेहद निराश करने वाली है रिपोर्ट के मुताबिक भारत में कई बड़े राज्य ज्यादा जलदोहन कर रहे हैं पंजाब, हरियाणा और राजस्थान हर साल औसतन 17.7 अरब क्यूबिक मी पानी जमीन की कोख से निकाल रहे हैं,जबकि इन्हें 13.2 अरब क्यूबिक मीटर निकालना था। अकेले यह तीन राज्य क्षमता से 30 फीसदी ज्यादा दोहन कर रहे हैं। जिसके चलते 4 सेंटीमीटर यानी 1.6 इंच जलस्तर हर साल कम हो रहा है। जबकि देश के उत्तर पश्चिम इलाके में तरीकबन 109 क्यूबिक किलोमीटर पानी घटा है।
इस कमी के बावजूद हम फ्लश में हर रोज हर बार बीस लीटर पानी बर्बाद करते हैं। बाल्टी के बजाय शावर से नहाकर तरोताजा होने के लिए हम 18 लीटर के बजाय 100 लीटर पानी बर्बाद करते हैं। अगर आपकी आदत शेविंग करते और कपड़ा धोते समय नल खोलने की है तो आप क्रमशः 5 और 116 लीटर पानी बर्बाद करते हैं। अपनी कार को पानी से चकाचक चमकाने में अगर आप पानी की धार का इस्तेमाल करते हैं तो आप 524 लीटर पानी एक बार में बर्बाद करते हैं।
देश के तकरीबन 53 फीसदी लोग अपनी पानी की जरुरत सीधे भूजल से पूरी करते हैं। इनमें 11 फीसदी लोग कुओँ के पानी पर निर्भर है बाकी 35.7 फीसदी लोग हैंडपंप से और करीब 7 फीसदी लोग बोरवेल और ट्यूबवेव के पानी पर निर्भर हैं। वहीं 18.2 तालाब, पोखरों, झील से, 2.6 फीसदी लोग अन्य माध्यमों से पानी की जरुरत पूरी करते हैं। करीब एक तिहाई जनसंख्या सीधे पाइपलाइन से पानी की अपनी जरुरत पूरी करती है। वर्ष 2001 में प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता 1816 क्यूबिक मीटर थी जो 2011 में घटकर 1545 क्यूबिक मीटर रह गयी। लेकिन इन डरावने आंकडों और भयावाह स्थिति के बाद भी पानी को लेकर हमारे नज़रिए में बदलाव नहीं दिख रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पानी को लेकर की गई मन की बात में कहा कि पानी परमात्मा का प्रसाद है। एक बूंद भी बर्बाद हो, तो हमें पीड़ा होनी चाहिए। पर ऐसा नहीं है। अगर पानी के लेकर हमारी चिंताएं सचमुच पीड़ादायक होतीं तो पानी के सभी बिंब बदल नहीं गये होते।
हमने पता नहीं क्यों मान लिया है कि पानी उपलब्ध कराना सिर्फ सरकार का दायित्व है। जबकि ऐसी अनंत नज़ीरें हैं जो यह चुगली करती हैं कि जिन-जिन चीजों को हमने सरकार की जिम्मेदारी के हवाले किया है उऩ चीजों से हम महरुम होते गए। लेकिन यह भी हकीकत है किसी एक के किये से इस समस्या से निजात नहीं पाया जा सकता। इससे निपटने के लिए हमें सरकार के हाथ का साथ देना होगा। नज़रिए में बदलाव बेहद जरुरी है। सरकार को नज़रिया यह बदलना होगा। उसे पीने और दूसरी जरुरतों के लिए पानी की आपूर्ति अलग-अलग करना होगा। सिंचाई में आज हम नदियों के पानी का उपयोग करते हैं जिसे पीने के काम लाया जा सकता है। सरकार को चाहिए कि घरों और फैक्ट्रियों इस्तेमाल के बाद दूषित पानी का ट्रीटमेंट कर इसका सिंचाई में उपयोग कराया जाय। बहुत छोटे पैमाने पर यह प्रयोग उत्तर प्रदेश में किया भी गया। पीने के पानी और अन्य उपयोग के पानी की अलग अलग आपूर्ति के प्रयोग कई देशों ने सफलता पूर्वक करके दिखाए भी हैं।
हमें अपने स्तर पर बूंद बूंद पानी से सिंधु बनाने की कहावत बनाने पर अमल करते हुए शेविंग, कपड़ा धोने, कार साफ करने, फर्श धोने और फ्लश आदि अन्य कामों में पानी के महत्तम उपयोग की जगह समुचित उपयोग के फार्मूले पर काम करना चाहिए। अगर ऐसा करने में हम कामयाब नहीं हुए तो इस परिकल्पना के सच होने में कोई अंदेशा नहीं रह जायेगा कि अगला विश्वयुद्ध पानी को लेकर होगा। क्योंकि पानी को इज्जत का सबब मानने, आंख के पानी मर जाने, पानी-पानी हो जाने आदि मुहावरे उलट गए हैं। पानी हमारे संकल्प से गायब हो गया है, वह वस्तु बन गया। पानी वस्तु नहीं है। जब भी हम कोई धार्मिक अनुष्ठान करते हैं तो संकल्प जल को लेकर करते है। आचमन जल को लेकर करते है। संकट में चुल्लू भर पानी का मुहावरा भी है। पानी लेने के लिए करोड़ों औरतें पूरा दिन लगा देती हैं। देश के कई गांवो में पानी न होने की वजह से लड़के कुंवारे रह जाते है। तमाम गांव पानी की कमी से विस्थापन का दंश झेल रहे है। मोहनजोदडों और हडप्पा काल के कई विकसित शहर पानी के चलते ही उजड़ गए। ऐसे में हम सिर्फ यह प्रार्थना कर सकते हैं- हर मन पानी राखिए।