अपनी सरकार के दो साल पूरे होने के समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सरकारी पोर्टल माई जीओवी डाट काम पर सर्वे करा रहे थे तो काले धन से जुडा सवाल तीसरे पायदान पर था। नरेंद्र मोदी सरकार के आलोचक भी उन्हें घेरने के लिए उनके खिलाफ जो अमोघ अस्त्र चलाते हैं उसमें काला धन के सवाल पर चुनाव के दौरान नरेंद्र मोदी द्वारा कही गई बात को दोहराया जाता है। कभी नरेंद्र मोदी के मुरीद रहे योगगुरु रामदेव भी अपनी नाराजगी जताने के लिए नरेंद्र मोदी सरकार की असफलताओं का जिक्र करते हुए कालाधन का सवाल उठाते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इन सबके मद्देनजर ही अपने कार्यक्रम मन की बात में कालेधन को लेकर देशवासियों से गुफ्तगू करनी पड़ी है।
कालेधन का सवाल भारत में हमेशा आम जनता के लिए बेहद आकर्षण का सबब रहा है। इसलिए जब भी स्विस बैंक की बात होती है, टैक्स हैवेन देशों को लेकर खबर छपती है या फिर पनामा पेपर लीक होता है तो खबरें जनमानस की जुबान पर चढ़ जाती हैं। सरकार के लिए भी कालाधन चिंता का सबब है। तभी तो आज से 41 साल पहले ही 1975 में वॉलेंटरी डिस्क्लोजर आफ इनकम एंड वेल्थ टैक्स एक्ट के तहत एक योजना लागू की गई जिसमें 2 लाख 60 हजार लोगों ने अपनी कुल 1590 करोड़ की संपत्ति का खुलासा किया और सरकारी खजाने में 260 करोड़ रुपये जमा कराए। इसके 10 साल बाद वर्ष 1985 में फाइनेंस एक्ट के जरिए डेढ़ लाख लोगों ने अपनी 2940 करोड़ की संपत्ति और आय का खुलासा किया और देश के खजाने में आए 390 करोड़। अब तक के भारतीय इतिहास की सबसे सफल योजना थी वीडीआईएस यानी वालेंटरी डिस्क्लोजर आफ इनकम स्कीम जिसमें 4 लाख 70 हजार लोगों ने वर्ष 1997 में 33 हजार करोड़ की संपत्ति घोषित की और भारतीय खजाने में 10 हजार 100 करोड़ रुपये जमा हुए। इसी से सबक और चुनाव के दौरान पर काले धन पर अपनी प्रतिबद्धता के चलते नरेंद्र मोदी सरकार भी देशी और विदेशी कालेधन को घोषित करने के लिए योजना लेकर आई। ब्लैक मनी कम्प्लायंस विंडो योजना के तहत शुरुआती 90 दिनों में में महज 638 लोग सामने आए और विदेशों में जमा सिर्फ 3770 करोड़ रुपये की ही विदेशी ब्लैक मनी देश आ पाई। इसमें भारत सरकार के खजाने में 2262 करोड़ रुपये भी जमा हुए। जबकि सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में काले धन की जांच के लिए गठित एसआईटी ने राजस्व खुफिया निदेशालय (डीआरआई) को भेजी गई जानकारी में बताया है कि 2004-2013 के बीच 34.68 लाख करोड़ रुपये विदेश गए।
यह किसी भी प्रधानमंत्री के लिए चिंता का सबब होना ही चाहिए क्योंकि 125 करोड़ की आबादी वाले देश में सिर्फ 3.5 करोड़ यानी 3 फीसदी लोग ही आयकर अदा करते है। जबकि अमरीका में यह आकंडा 45 फीसदी का है। इस आकंडे का दिलचस्प पहलू यह है कि करादाताओं का 89 फीसदी 0-5 लाख के स्लैब में है। जबकि देश में कुल 42,800 लोग ही ऐसे हैं जो आयकर के 1 करोड़ के स्लैब से ज्यादा धनराशि पर कर देते हैं। तभी तो प्रधानमंत्री को कहना पड़ा कि इस बात पर कोई विश्वास नहीं करेगा कि सवा-सौ करोड़ के देश में सिर्फ और सिर्फ डेढ़ लाख लोग ही ऐसे हैं, जिन्होंने अपनी कर योग्य आय पचास लाख रूपये या उससे ज्यादा दर्शायी है। उन्होंने यह भी कहा कि यह बात किसी के गले उतरने वाली नहीं है। उन्होंने तो यहां तक कहा कि पचास लाख से ज्यादा कर योग्य आय वाले लोग तो बड़े-बड़े शहरो में लाखों की तादाद मे दिखते हैं। एक-एक करोड़, दो-दो करोड़ के बंगले ही यह चुगली करते हैं कि ये लोग कैसे पचास लाख से कम आय के दायरे में हो सकते हैं। प्रधानमंत्री ने खुद मन की बात में कहा कि इसका मतलब कुछ तो गड़बड़ है। साथ ही नसीहत दी कि इस स्थिति को बदलना है और इसी साल 30 सितम्बर के पहले बदलना है।
इस सबके साथ इस हकीकत से भी आंख नहीं बंद करना चाहिए कि जिन देशों की अर्थव्यवस्था अधिकारियों और नेताओं के हाथ होती है वहां कालाधन बेहिसाब होता है। कालेधन को लेकर बनाए गए अब तक के सारे कानून बेमतलब हैं। हमारी कर संरचना बेहद अप्रासंगिक है। भारत में 25 तरह के अलग-अलग टैक्स लगते है। एक आदमी अपनी आमदनी का 40 फीसदी से अधिक हिस्सा अलग अलग करों के मद में चुकता है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विदेशी कालाधन कर अदा करके देश में लाने का मार्ग प्रशस्त करते हैं पर इसी के समान्तर यदि कोई आदमी टैक्स हैवन देशों मसलन मारिशस से शेयरो में निवेश करे तो एक साल से ज्यादा निवेश पर अर्जित पूंजीगत लाभ पर उसे कोई टैक्स नहीं देना पड़ता। जब पिछले दरवाजे से पैसा भारत लाने का कानून हो तो कोई कर देकर पैसा भारत क्यों लाएगा। राउंड ट्रिपिंग के जरिए विदेश में जमा धन भारत लाने का रास्ता बना हुआ है। मारिशस ही नहीं, जिन भारतीयों के नाम स्विस बैंक में हैं उनके नाम उजागर करने की जिस स्विस सरकार से हम अपेक्षा करते हैं उसी के कानून में गोपनीयता उल्लंघन के लिए छह महीने की सजा का प्रावधान है। इस तरह के तमाम कानून होने के बाद कालेधन के कुचक्र को तोड़ने की मंशा पर पलीता लगना स्वाभाविक है क्योंकि अमरीका और चीन की अर्थव्यवस्थाएं मिलकर भी दुनिया भर में पसरे कालेधन का मुकाबला नहीं कर सकती हैं। अमरीकी अर्थव्यवस्था तकरीबन 18 खरब डालर की है जबकि चीन की अर्थव्यवस्था 11 खरब डालर की है। भारतीय अर्थव्यवस्था करीब 2 खरब डालर की है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अरुण कुमार की अगुवाई में आर्थिक अध्ययन एवं योजना केंद्र की टैक्स हैवन टीम- स्विस बैंक या आफशोर बैंक , टैक्स हैवन, हवालाः- कुछ आम सवालों के जवाब - शीर्षक से प्रकाशित पुस्तिका कालेधन के कुचक्र के कई ऐसे पहलू खोलती है जो यह बताता है कि कालेधन से मुक्ति के लिए सिर्फ अपील काफी नहीं हो सकती है। उसके लिए कठोर कानून बनाने होंगे कर संरचना में सुधार करना होगा। जो लोग भी कर दें, उन्हें सामाजिक सुरक्षा मुहैया करानी होगी। अथवा उनके कर को कहां खर्च किया जा रहा है यह बताना होगा। अभी तक भारत के लोगो में इस बात को लेकर गफलत है कि उनके द्वारा कर के मद में दी गयी धनराशि राजनेताओं के ऐशोआराम पर खर्च की जाती है। इस मिथ को तोड़ना होगा। कर की एक बडी धनराशि जो अनावश्यक लोगों के लिए सब्सिडी का सबब बन रही थी वह भी कर चोरी को प्रोत्साहित करने और कालाधन को सृजित करने का सबब थी। हालांकि इस दिशा में काफी काम किया गया है।अब सब्सिडी जरुरत मंदों के हाथ ही पहुंच रही है। बावजूद इसके अभी भी तमाम सब्सिडी का लाभ ऐसे लोग उठा रहे हैं जिनकी आर्थिक हैसियत उस सब्सिडी के लिए मुफीद नहीं है।
इन दिनों नरेंद्र मोदी सरकार बैंकों के मार्फत लेन-देन की प्रक्रिया को जिस तरह बढावा दे रही है। जिस तरह प्लास्टिक मनी को प्रोत्साहित किया जा रहा है। डिजिटल बैंकिंग के दायरे बढाए जा रहे है। यह बात भी सच है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई में सरकार अर्थव्यवस्था को स्ट्रीमलाइन किया जा रहा है। अब गहने से लेकर शापिंग तक करने के लिए एक सीमा से बाहर आपको पैन कार्ड देना होगा। रियल एस्टेट के जरिए कालेधन को सफेद बनाने की कोशिशों को भी रिएल एस्टेट बिल के जरिए रोक करीब-करीब रोक दिया गया है। देश में लेन-देन को पूरी तरह पारदर्शी किया जा रहा है उससे यह उम्मीद तो की ही जा सकती है कि आने वाले दिनों में काले-धन के सृजित होने की प्रक्रिया पर विराम लगेगा पर, जमा काला धन कैसे बाहर आए इसके लिए कठोर कानून बनाने, पुराने कानून बदलने और ठीक से कर देने वालों को प्रोत्साहित करने का चलन डालना होगा। अभी तक कालेधन को लेकर स्यापा पीटने के सिवाय कुछ कर पाने में सक्षम नहीं हो सके हैं। हम कालेधन को लेकर स्विटजरलैंड से आगे नहीं बढ पाये है। हम यह नहीं बता पाए है कि बेल्जियम, बरमूडा, कैमन आईलैंड्स, देलावेर, आयरलैंड, लक्जमबर्ग, हांगकांग, लंदन और अमरीका भी टैक्स हैवन देश हैं। अमरीका, ब्रिटेन और जर्मनी में जमीन मे कोई पैसा लगाए तो आय का स्त्रोत नहीं पूछा जाता है।
हमारा लोकतंत्र भी कालेधन के सृजन का बड़ा कारक है। आंध्रप्रदेश के कई सांसद 30-35 करोड़ रुपये एक चुनाव में खर्च करते है। देश में शायद ही कोई ऐसा उम्मीदवार हो जो चुनाव आयोग की निर्धारित खर्च की सीमा में चुनाव लड़ता हो। कालेधन से निपटने के लिए लोकतंत्र का यह स्वरुप भी नरेंद्र मोदी को बदलना होगा। हालांकि मोदी ने कालेधन को लेकर अपनी नीति और नियति साफ करत दी है। उसकी शुरुआत ही बातचीत से होती है। और बात मन की हो तो उसका असर बढ़ जाता है। असर को और असरदार करने के लिए कठोर कानून और क्रियान्वयन जरुरी है।
कालेधन का सवाल भारत में हमेशा आम जनता के लिए बेहद आकर्षण का सबब रहा है। इसलिए जब भी स्विस बैंक की बात होती है, टैक्स हैवेन देशों को लेकर खबर छपती है या फिर पनामा पेपर लीक होता है तो खबरें जनमानस की जुबान पर चढ़ जाती हैं। सरकार के लिए भी कालाधन चिंता का सबब है। तभी तो आज से 41 साल पहले ही 1975 में वॉलेंटरी डिस्क्लोजर आफ इनकम एंड वेल्थ टैक्स एक्ट के तहत एक योजना लागू की गई जिसमें 2 लाख 60 हजार लोगों ने अपनी कुल 1590 करोड़ की संपत्ति का खुलासा किया और सरकारी खजाने में 260 करोड़ रुपये जमा कराए। इसके 10 साल बाद वर्ष 1985 में फाइनेंस एक्ट के जरिए डेढ़ लाख लोगों ने अपनी 2940 करोड़ की संपत्ति और आय का खुलासा किया और देश के खजाने में आए 390 करोड़। अब तक के भारतीय इतिहास की सबसे सफल योजना थी वीडीआईएस यानी वालेंटरी डिस्क्लोजर आफ इनकम स्कीम जिसमें 4 लाख 70 हजार लोगों ने वर्ष 1997 में 33 हजार करोड़ की संपत्ति घोषित की और भारतीय खजाने में 10 हजार 100 करोड़ रुपये जमा हुए। इसी से सबक और चुनाव के दौरान पर काले धन पर अपनी प्रतिबद्धता के चलते नरेंद्र मोदी सरकार भी देशी और विदेशी कालेधन को घोषित करने के लिए योजना लेकर आई। ब्लैक मनी कम्प्लायंस विंडो योजना के तहत शुरुआती 90 दिनों में में महज 638 लोग सामने आए और विदेशों में जमा सिर्फ 3770 करोड़ रुपये की ही विदेशी ब्लैक मनी देश आ पाई। इसमें भारत सरकार के खजाने में 2262 करोड़ रुपये भी जमा हुए। जबकि सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में काले धन की जांच के लिए गठित एसआईटी ने राजस्व खुफिया निदेशालय (डीआरआई) को भेजी गई जानकारी में बताया है कि 2004-2013 के बीच 34.68 लाख करोड़ रुपये विदेश गए।
यह किसी भी प्रधानमंत्री के लिए चिंता का सबब होना ही चाहिए क्योंकि 125 करोड़ की आबादी वाले देश में सिर्फ 3.5 करोड़ यानी 3 फीसदी लोग ही आयकर अदा करते है। जबकि अमरीका में यह आकंडा 45 फीसदी का है। इस आकंडे का दिलचस्प पहलू यह है कि करादाताओं का 89 फीसदी 0-5 लाख के स्लैब में है। जबकि देश में कुल 42,800 लोग ही ऐसे हैं जो आयकर के 1 करोड़ के स्लैब से ज्यादा धनराशि पर कर देते हैं। तभी तो प्रधानमंत्री को कहना पड़ा कि इस बात पर कोई विश्वास नहीं करेगा कि सवा-सौ करोड़ के देश में सिर्फ और सिर्फ डेढ़ लाख लोग ही ऐसे हैं, जिन्होंने अपनी कर योग्य आय पचास लाख रूपये या उससे ज्यादा दर्शायी है। उन्होंने यह भी कहा कि यह बात किसी के गले उतरने वाली नहीं है। उन्होंने तो यहां तक कहा कि पचास लाख से ज्यादा कर योग्य आय वाले लोग तो बड़े-बड़े शहरो में लाखों की तादाद मे दिखते हैं। एक-एक करोड़, दो-दो करोड़ के बंगले ही यह चुगली करते हैं कि ये लोग कैसे पचास लाख से कम आय के दायरे में हो सकते हैं। प्रधानमंत्री ने खुद मन की बात में कहा कि इसका मतलब कुछ तो गड़बड़ है। साथ ही नसीहत दी कि इस स्थिति को बदलना है और इसी साल 30 सितम्बर के पहले बदलना है।
इस सबके साथ इस हकीकत से भी आंख नहीं बंद करना चाहिए कि जिन देशों की अर्थव्यवस्था अधिकारियों और नेताओं के हाथ होती है वहां कालाधन बेहिसाब होता है। कालेधन को लेकर बनाए गए अब तक के सारे कानून बेमतलब हैं। हमारी कर संरचना बेहद अप्रासंगिक है। भारत में 25 तरह के अलग-अलग टैक्स लगते है। एक आदमी अपनी आमदनी का 40 फीसदी से अधिक हिस्सा अलग अलग करों के मद में चुकता है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विदेशी कालाधन कर अदा करके देश में लाने का मार्ग प्रशस्त करते हैं पर इसी के समान्तर यदि कोई आदमी टैक्स हैवन देशों मसलन मारिशस से शेयरो में निवेश करे तो एक साल से ज्यादा निवेश पर अर्जित पूंजीगत लाभ पर उसे कोई टैक्स नहीं देना पड़ता। जब पिछले दरवाजे से पैसा भारत लाने का कानून हो तो कोई कर देकर पैसा भारत क्यों लाएगा। राउंड ट्रिपिंग के जरिए विदेश में जमा धन भारत लाने का रास्ता बना हुआ है। मारिशस ही नहीं, जिन भारतीयों के नाम स्विस बैंक में हैं उनके नाम उजागर करने की जिस स्विस सरकार से हम अपेक्षा करते हैं उसी के कानून में गोपनीयता उल्लंघन के लिए छह महीने की सजा का प्रावधान है। इस तरह के तमाम कानून होने के बाद कालेधन के कुचक्र को तोड़ने की मंशा पर पलीता लगना स्वाभाविक है क्योंकि अमरीका और चीन की अर्थव्यवस्थाएं मिलकर भी दुनिया भर में पसरे कालेधन का मुकाबला नहीं कर सकती हैं। अमरीकी अर्थव्यवस्था तकरीबन 18 खरब डालर की है जबकि चीन की अर्थव्यवस्था 11 खरब डालर की है। भारतीय अर्थव्यवस्था करीब 2 खरब डालर की है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अरुण कुमार की अगुवाई में आर्थिक अध्ययन एवं योजना केंद्र की टैक्स हैवन टीम- स्विस बैंक या आफशोर बैंक , टैक्स हैवन, हवालाः- कुछ आम सवालों के जवाब - शीर्षक से प्रकाशित पुस्तिका कालेधन के कुचक्र के कई ऐसे पहलू खोलती है जो यह बताता है कि कालेधन से मुक्ति के लिए सिर्फ अपील काफी नहीं हो सकती है। उसके लिए कठोर कानून बनाने होंगे कर संरचना में सुधार करना होगा। जो लोग भी कर दें, उन्हें सामाजिक सुरक्षा मुहैया करानी होगी। अथवा उनके कर को कहां खर्च किया जा रहा है यह बताना होगा। अभी तक भारत के लोगो में इस बात को लेकर गफलत है कि उनके द्वारा कर के मद में दी गयी धनराशि राजनेताओं के ऐशोआराम पर खर्च की जाती है। इस मिथ को तोड़ना होगा। कर की एक बडी धनराशि जो अनावश्यक लोगों के लिए सब्सिडी का सबब बन रही थी वह भी कर चोरी को प्रोत्साहित करने और कालाधन को सृजित करने का सबब थी। हालांकि इस दिशा में काफी काम किया गया है।अब सब्सिडी जरुरत मंदों के हाथ ही पहुंच रही है। बावजूद इसके अभी भी तमाम सब्सिडी का लाभ ऐसे लोग उठा रहे हैं जिनकी आर्थिक हैसियत उस सब्सिडी के लिए मुफीद नहीं है।
इन दिनों नरेंद्र मोदी सरकार बैंकों के मार्फत लेन-देन की प्रक्रिया को जिस तरह बढावा दे रही है। जिस तरह प्लास्टिक मनी को प्रोत्साहित किया जा रहा है। डिजिटल बैंकिंग के दायरे बढाए जा रहे है। यह बात भी सच है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई में सरकार अर्थव्यवस्था को स्ट्रीमलाइन किया जा रहा है। अब गहने से लेकर शापिंग तक करने के लिए एक सीमा से बाहर आपको पैन कार्ड देना होगा। रियल एस्टेट के जरिए कालेधन को सफेद बनाने की कोशिशों को भी रिएल एस्टेट बिल के जरिए रोक करीब-करीब रोक दिया गया है। देश में लेन-देन को पूरी तरह पारदर्शी किया जा रहा है उससे यह उम्मीद तो की ही जा सकती है कि आने वाले दिनों में काले-धन के सृजित होने की प्रक्रिया पर विराम लगेगा पर, जमा काला धन कैसे बाहर आए इसके लिए कठोर कानून बनाने, पुराने कानून बदलने और ठीक से कर देने वालों को प्रोत्साहित करने का चलन डालना होगा। अभी तक कालेधन को लेकर स्यापा पीटने के सिवाय कुछ कर पाने में सक्षम नहीं हो सके हैं। हम कालेधन को लेकर स्विटजरलैंड से आगे नहीं बढ पाये है। हम यह नहीं बता पाए है कि बेल्जियम, बरमूडा, कैमन आईलैंड्स, देलावेर, आयरलैंड, लक्जमबर्ग, हांगकांग, लंदन और अमरीका भी टैक्स हैवन देश हैं। अमरीका, ब्रिटेन और जर्मनी में जमीन मे कोई पैसा लगाए तो आय का स्त्रोत नहीं पूछा जाता है।
हमारा लोकतंत्र भी कालेधन के सृजन का बड़ा कारक है। आंध्रप्रदेश के कई सांसद 30-35 करोड़ रुपये एक चुनाव में खर्च करते है। देश में शायद ही कोई ऐसा उम्मीदवार हो जो चुनाव आयोग की निर्धारित खर्च की सीमा में चुनाव लड़ता हो। कालेधन से निपटने के लिए लोकतंत्र का यह स्वरुप भी नरेंद्र मोदी को बदलना होगा। हालांकि मोदी ने कालेधन को लेकर अपनी नीति और नियति साफ करत दी है। उसकी शुरुआत ही बातचीत से होती है। और बात मन की हो तो उसका असर बढ़ जाता है। असर को और असरदार करने के लिए कठोर कानून और क्रियान्वयन जरुरी है।