जनवरी 1967 में जब समाजवाद के पुरोधा पुरुष डा राममनोहर लोहिया फर्रुखाबाद से लोकसभा का दोबारा चुनाव लड़ रहे थे तो उनके संसद पहुंचने के रास्ते में अवरोध करने वाली तत्कालीन सत्तारुढ कांग्रेस पार्टी ने एक संवाददाता सम्मेलन में एक मौलवी से शरारत पूर्ण ढंग से यह सवाल पुछवाया कि मुसलमानों में चार बीवियां रखने के बारे में उनकी क्या राय है। डा राममनोहर लोहिया का सीधा और सपाट जवाब था, “ पति के लिए भी पत्नीव्रता होना जरुरी है एक से अधिक बीवियां नहीं होनी चाहिए।” इस इकलौते सवाल के सही जवाब का खामियाजा सोशलिस्ट पार्टी को यह भुगतना पड़ा कि इलाहाबाद से लेकर बरेली तक उसका पूरा सफाया हो गया। जो डाक्टर लोहिया 63 के उपचुनाव में पंडित जवाहरलाल नेहरू के सूचना मंत्री रहे वी वी केसकर को पराजित किया था 1967 के चुनाव में ही जौनपुर से भाजपा के प्रेरणा पुरुष दीनदयाल उपाध्याय चुनाव लड़ रहे थे। लोहिया को इस प्रेस कांफ्रेंस के बाद जौनपुर दीनदयाल उपाध्याय के प्रचार में जाना था। हालांकि सोशलिस्ट उनके इस कदम का विरोध कर रहे थे कि मैं जाऊंगा क्योंकि दीनदयाल बहुत बड़ा दार्शनिक है उसकी जीत जरुरी है।
यह घटनाएं बताती हैं कि कभी हमारे राजनेता उसूल को कुर्सी से बड़ा मानते थे। उन्हें संसद और सदन के आगे भी जीवन दिखता था। राजनाति संसद और सदन से आगे होती थी। पर अब समय पूरी तरह उलट गया है। राजनेताओं के नजरिए में यू टर्न हो गया है। धर्म और जाति की सियासत ने जगह बना ली है। अब साफ-साफ और उसूलों की बात करना सियासत की गुजरी कहानी बन चुकी है। यही वजह है कि जातीय अस्मिताएं जागृत होती जा रही हैं। धार्मिक तुष्टीकरण हो रहा है। इसी बढती मनोवृत्ति का नतीजा है कि मिस्टर क्लीन कहे जाने वाले प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने अपने प्रचंड बहुमत की सरकार के घुटने शाहबानो कांड में कठमुल्लाओं के आगे टेक दिए। सर्वोच्च न्यायालय ने सिर्फ इतना कहा था कि मुस्लिम महिलाओं के भी अपने पति से गुजारा भत्ता पाने का हक है। कठमुल्लों ने राजीव गांधी और उनके कोटरी पर इस तरह का दबाव बनाया कि सर्वोच्च अदालत के फैसले को संसद ने पलट दिया। फिर मुस्लिम स्त्री कानून के जगह शरीयत के हवाले कर दी गयी। हालांकि राजीव गांधी को कुछ ही समय बाद यह लगा कि उनका आत्मसमर्पण बेजा है। शायद उनके इसी अहसास का तकाजा था कि हिंदू आस्था के स्थल अयोध्या की रामजन्मभूमि का ताला खुल गया।
यही नहीं, अंग्रेजो जब देश में एक समान आपराधिक दंड संहिता लागू की तभी तकरीबन वर्ष 1840 में कामन सिविल कोड लागू करने की भी उन्होंने कोशिश की। इसके बाद संविधान सभा में भी इस मुद्दे पर लंबी बहस हुई। इसके बाद अनुच्छेद 44 के माध्यम से कामन सिविल कोड बनाने के दिशा निर्देश तो दिए गये पर इसे लागू करने में पिछले 70 सालों में सभी सरकारें विफल रहीं। अंबेडकर के प्रबल सर्मथक और पैरोकार हों, या देश को आजादी दिलाने का श्रेय ओढ़ लेने वाली कांग्रेस अथवा कोई और राजनीतिक दल हो सबने कामन सिविल कोड क सवाल पर इस तरह के हालात पैदा कर लिए हैं कि इसकी बात करने वाला सांप्रदायिक हो उठा। उसे भगवाधारी करार दिया गया। कामन सिविल कोड में सर्वाधिक विवाद शादी, तलाक, गुजारा भत्ता उत्तराधिकार और उपहार से जुडे कानूनों में है। तीन मुस्लिम महिलाओं में सर्वोच्च अदालत में अलग अलग याचिकाएं दायर कर तलाक उद बिद्दत (तीन तलाक) और निकाह-हलाला को गैर इस्लामी और कुरान के खिलाफ बताते हुए इस पर पाबंदी की मांग की है। आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड हालांकि इसके खिलाफ है। पर सर्वोच्च अदालत ने इस मामले की सुनवाई जारी रखी है। वर्ष 2015 के एक अन्य मामले में सर्वोच्च अदालत सरकार को कामन सिविल कोड लागू करने पर विचार करने का निर्देश दे चुकी है। गोवा में कामन सिविल कोड लागू है। सर्वोच्च अदालत ने भी तीनों महिलाओं की याचिका पर सुनावाई करते हुए यह टिप्पणी की है कि तीन तलाक की संवैधानिक वैधता पर कोई भी फैसला लेने से पहले वह इस मुद्दे पर व्यापक बहस चाहता है।
ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि जिस देश का संविधान धर्म, भाषा, जाति, लिंग और क्षेत्र के आधार पर विभेद करने की बात का विरोध करता हो वहां दो अलग-अलग धर्म की स्त्रियों के लिए अलग अलग कानून क्यों होने चाहिए। महाराष्ट्र से राज्यसभा के सासंद हुसैन दलवाई के भाई हामिद दलवाई ने भी समान सिविल कोड के लिए काफी आंदोलन किया था। अभियान चलाया था। उन्होंने इसके लिए मुस्लिम सत्य शोधक संघ का गठन भी किया था पर इसके लिए उन्हें जितना विरोध झेलना पड़ा उतना विरोध संघ और विहिप को भी नहीं झेलना पड़ा है। दलवाई की योजना थी कि वह 200 मुस्लिम युवाओं को प्रशिक्षण देकर तैयार करें इसके लिए उन्होंने डाक्टर राम मनोहर लोहिया की सहमति भी हासिल कर ली थी पर शायद यह नीयति को मंजूर नहीं था तभी तो डाक्टर लोहिया में 1967 में ही चले गये हामिद दलवाई दस साल तक अकेले होने की वजह से कुछ नहीं कर पाए। सवाल यह उठता है कि अयोध्या के बाबरी ढांचे के बारे में अल्पसंख्यक मुस्लिम सर्वोच्च अदालत का फैसला मानने को तैयार है। शाहबानो के मामले में नहीं मानेगे। तीन तलाक और चार पत्नियां रखने के बारे में नहीं मानेंगे। यह दो तरह की बात क्यों हो रही है। हामिद दलावाई ने तो यहां तक कहा था कि जो लोग शरियत की बात मानना चाहते हैं वे लीबिया सरीखे उन देशो में चले जाएं जहां शरियत का कानून चलता है।
सवाल यह भी उठता है कि स्त्री से जुडे मुद्दों पर मुसलमान पर्सनल लॉ को मानेंगे, शरियत को मानेंगे पर बाकी चीजों के लिए शरियत को नज़रअंदाज करेंगे। अदालत और शरियत के सवाल पर यह द्वैत्य और द्वंद यह बताता है कि धर्म और संस्कृति के बीच की विभाजक रेखा या तो मिटाने की जिद की जा रही है अथवा समझी नहीं जा रही है। इस सवाल पर सेलेक्टिव हुआ जा रहा है। कानून का राज जब भी होगा तो धार्मिक पृष्ठभूमि से अलग करना होगा क्योंकि यह नज़रिया और संकीर्णता जनता है। जैसे नेपाल में ब्राह्मणो को फांसी नहीं दी जा सकती। उनका वध नहीं हो सकता। एक बार डा राममनोहर लोहिया और जय प्रकाश नारायण नेपाल में पकड़ लिए गए उन्होंने खुद को ब्राह्मण कहा और छूट गए। वास्तिविक में इनमें से एक वैश्य और दूसरे कायस्थ समाज के थे। अगर कानून के राज के स्थापना में धर्म की पृष्ठभूमि को आधार बनाया गया तो साफ है कि पक्षपात होगा। जिस तरह हमारे राजनेताओं का नज़रिया और मन छोटा जा रहा है उस तरह यह संकुचन नेपाल की तरह किसी जाति तक भी सिमट सकता है। जिस जाति का मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री होगा वह मुनादी पीट देगा कि बड़ी से बड़ी गलती के बावजूद उसकी जाति और जमात के लोगों को दंड से मुक्त रखा जाएगा।
शरीयत और कानून को लेकर स्वहित पोषी नज़रिए यह बताते हैं कि दाल में कुछ न कुछ काला है। कई बार पूरी की पूरी दाल काली नज़र आती है। यही वजह है कि धर्म और संस्कृति का इतना घालमेल कर दिया गया है कि स्त्री का पहनावा, विवाह, जीवन-यापन के तौर तरीके, तलाक जैसे सवाल जो संस्कृति का हिस्सा होने चाहिए उन्हें धर्म का लबादा ओढ़ा दिया गया है। हिंदू स्त्री, मुस्लिम स्त्री और इसाई स्त्री के जैविक क्रियाओ में विभेद कर दिया गया है उनकी भूख को देखने के नज़रिए बदल दिए गए हैं। हैरत की बात यह है कि यह सारा का सारा बदलाव धर्म की जगह पुरुष सत्ता को फायदा पहुंचाता है। महिला को शोषित, उत्पीड़ित जमात में बनाए रखता है। ऐसा करने वालों को यह तो सोचना ही चाहिए कि हिंदू स्त्री की स्वतंत्रता, स्वच्छंदता, अधिकार एक पति के साथ रहने की पवित्रता का अभास और अभ्यास मुस्लिम स्त्री में क्यों नहीं हो रहा है। इसे रोकने का काम जो शक्तियां कर रही हैं। अपने नज़रिए से उसे वह धार्मिक भले ही कह दें पर यह अंत अर्धामिकता की अतार्किक परिणिति है। मुस्लिम महिलाओँ का दुर्भाग्य यह है कि इस अधार्मिकता की अतार्किक परिणति में अब कठमुल्लाओं के अलावा हमारे राजनेता भी शामिल हो गये हैं।
यह घटनाएं बताती हैं कि कभी हमारे राजनेता उसूल को कुर्सी से बड़ा मानते थे। उन्हें संसद और सदन के आगे भी जीवन दिखता था। राजनाति संसद और सदन से आगे होती थी। पर अब समय पूरी तरह उलट गया है। राजनेताओं के नजरिए में यू टर्न हो गया है। धर्म और जाति की सियासत ने जगह बना ली है। अब साफ-साफ और उसूलों की बात करना सियासत की गुजरी कहानी बन चुकी है। यही वजह है कि जातीय अस्मिताएं जागृत होती जा रही हैं। धार्मिक तुष्टीकरण हो रहा है। इसी बढती मनोवृत्ति का नतीजा है कि मिस्टर क्लीन कहे जाने वाले प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने अपने प्रचंड बहुमत की सरकार के घुटने शाहबानो कांड में कठमुल्लाओं के आगे टेक दिए। सर्वोच्च न्यायालय ने सिर्फ इतना कहा था कि मुस्लिम महिलाओं के भी अपने पति से गुजारा भत्ता पाने का हक है। कठमुल्लों ने राजीव गांधी और उनके कोटरी पर इस तरह का दबाव बनाया कि सर्वोच्च अदालत के फैसले को संसद ने पलट दिया। फिर मुस्लिम स्त्री कानून के जगह शरीयत के हवाले कर दी गयी। हालांकि राजीव गांधी को कुछ ही समय बाद यह लगा कि उनका आत्मसमर्पण बेजा है। शायद उनके इसी अहसास का तकाजा था कि हिंदू आस्था के स्थल अयोध्या की रामजन्मभूमि का ताला खुल गया।
यही नहीं, अंग्रेजो जब देश में एक समान आपराधिक दंड संहिता लागू की तभी तकरीबन वर्ष 1840 में कामन सिविल कोड लागू करने की भी उन्होंने कोशिश की। इसके बाद संविधान सभा में भी इस मुद्दे पर लंबी बहस हुई। इसके बाद अनुच्छेद 44 के माध्यम से कामन सिविल कोड बनाने के दिशा निर्देश तो दिए गये पर इसे लागू करने में पिछले 70 सालों में सभी सरकारें विफल रहीं। अंबेडकर के प्रबल सर्मथक और पैरोकार हों, या देश को आजादी दिलाने का श्रेय ओढ़ लेने वाली कांग्रेस अथवा कोई और राजनीतिक दल हो सबने कामन सिविल कोड क सवाल पर इस तरह के हालात पैदा कर लिए हैं कि इसकी बात करने वाला सांप्रदायिक हो उठा। उसे भगवाधारी करार दिया गया। कामन सिविल कोड में सर्वाधिक विवाद शादी, तलाक, गुजारा भत्ता उत्तराधिकार और उपहार से जुडे कानूनों में है। तीन मुस्लिम महिलाओं में सर्वोच्च अदालत में अलग अलग याचिकाएं दायर कर तलाक उद बिद्दत (तीन तलाक) और निकाह-हलाला को गैर इस्लामी और कुरान के खिलाफ बताते हुए इस पर पाबंदी की मांग की है। आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड हालांकि इसके खिलाफ है। पर सर्वोच्च अदालत ने इस मामले की सुनवाई जारी रखी है। वर्ष 2015 के एक अन्य मामले में सर्वोच्च अदालत सरकार को कामन सिविल कोड लागू करने पर विचार करने का निर्देश दे चुकी है। गोवा में कामन सिविल कोड लागू है। सर्वोच्च अदालत ने भी तीनों महिलाओं की याचिका पर सुनावाई करते हुए यह टिप्पणी की है कि तीन तलाक की संवैधानिक वैधता पर कोई भी फैसला लेने से पहले वह इस मुद्दे पर व्यापक बहस चाहता है।
ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि जिस देश का संविधान धर्म, भाषा, जाति, लिंग और क्षेत्र के आधार पर विभेद करने की बात का विरोध करता हो वहां दो अलग-अलग धर्म की स्त्रियों के लिए अलग अलग कानून क्यों होने चाहिए। महाराष्ट्र से राज्यसभा के सासंद हुसैन दलवाई के भाई हामिद दलवाई ने भी समान सिविल कोड के लिए काफी आंदोलन किया था। अभियान चलाया था। उन्होंने इसके लिए मुस्लिम सत्य शोधक संघ का गठन भी किया था पर इसके लिए उन्हें जितना विरोध झेलना पड़ा उतना विरोध संघ और विहिप को भी नहीं झेलना पड़ा है। दलवाई की योजना थी कि वह 200 मुस्लिम युवाओं को प्रशिक्षण देकर तैयार करें इसके लिए उन्होंने डाक्टर राम मनोहर लोहिया की सहमति भी हासिल कर ली थी पर शायद यह नीयति को मंजूर नहीं था तभी तो डाक्टर लोहिया में 1967 में ही चले गये हामिद दलवाई दस साल तक अकेले होने की वजह से कुछ नहीं कर पाए। सवाल यह उठता है कि अयोध्या के बाबरी ढांचे के बारे में अल्पसंख्यक मुस्लिम सर्वोच्च अदालत का फैसला मानने को तैयार है। शाहबानो के मामले में नहीं मानेगे। तीन तलाक और चार पत्नियां रखने के बारे में नहीं मानेंगे। यह दो तरह की बात क्यों हो रही है। हामिद दलावाई ने तो यहां तक कहा था कि जो लोग शरियत की बात मानना चाहते हैं वे लीबिया सरीखे उन देशो में चले जाएं जहां शरियत का कानून चलता है।
सवाल यह भी उठता है कि स्त्री से जुडे मुद्दों पर मुसलमान पर्सनल लॉ को मानेंगे, शरियत को मानेंगे पर बाकी चीजों के लिए शरियत को नज़रअंदाज करेंगे। अदालत और शरियत के सवाल पर यह द्वैत्य और द्वंद यह बताता है कि धर्म और संस्कृति के बीच की विभाजक रेखा या तो मिटाने की जिद की जा रही है अथवा समझी नहीं जा रही है। इस सवाल पर सेलेक्टिव हुआ जा रहा है। कानून का राज जब भी होगा तो धार्मिक पृष्ठभूमि से अलग करना होगा क्योंकि यह नज़रिया और संकीर्णता जनता है। जैसे नेपाल में ब्राह्मणो को फांसी नहीं दी जा सकती। उनका वध नहीं हो सकता। एक बार डा राममनोहर लोहिया और जय प्रकाश नारायण नेपाल में पकड़ लिए गए उन्होंने खुद को ब्राह्मण कहा और छूट गए। वास्तिविक में इनमें से एक वैश्य और दूसरे कायस्थ समाज के थे। अगर कानून के राज के स्थापना में धर्म की पृष्ठभूमि को आधार बनाया गया तो साफ है कि पक्षपात होगा। जिस तरह हमारे राजनेताओं का नज़रिया और मन छोटा जा रहा है उस तरह यह संकुचन नेपाल की तरह किसी जाति तक भी सिमट सकता है। जिस जाति का मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री होगा वह मुनादी पीट देगा कि बड़ी से बड़ी गलती के बावजूद उसकी जाति और जमात के लोगों को दंड से मुक्त रखा जाएगा।
शरीयत और कानून को लेकर स्वहित पोषी नज़रिए यह बताते हैं कि दाल में कुछ न कुछ काला है। कई बार पूरी की पूरी दाल काली नज़र आती है। यही वजह है कि धर्म और संस्कृति का इतना घालमेल कर दिया गया है कि स्त्री का पहनावा, विवाह, जीवन-यापन के तौर तरीके, तलाक जैसे सवाल जो संस्कृति का हिस्सा होने चाहिए उन्हें धर्म का लबादा ओढ़ा दिया गया है। हिंदू स्त्री, मुस्लिम स्त्री और इसाई स्त्री के जैविक क्रियाओ में विभेद कर दिया गया है उनकी भूख को देखने के नज़रिए बदल दिए गए हैं। हैरत की बात यह है कि यह सारा का सारा बदलाव धर्म की जगह पुरुष सत्ता को फायदा पहुंचाता है। महिला को शोषित, उत्पीड़ित जमात में बनाए रखता है। ऐसा करने वालों को यह तो सोचना ही चाहिए कि हिंदू स्त्री की स्वतंत्रता, स्वच्छंदता, अधिकार एक पति के साथ रहने की पवित्रता का अभास और अभ्यास मुस्लिम स्त्री में क्यों नहीं हो रहा है। इसे रोकने का काम जो शक्तियां कर रही हैं। अपने नज़रिए से उसे वह धार्मिक भले ही कह दें पर यह अंत अर्धामिकता की अतार्किक परिणिति है। मुस्लिम महिलाओँ का दुर्भाग्य यह है कि इस अधार्मिकता की अतार्किक परिणति में अब कठमुल्लाओं के अलावा हमारे राजनेता भी शामिल हो गये हैं।